गुरुवार, 27 जनवरी 2011

लघुकथा



मित्रो,
‘सृजन-यात्रा’ ब्लॉग मई २००८ में जब आरंभ किया था, तो इसके पीछे मकसद यह था कि एक ऐसा भी ब्लॉग हो जहाँ पर केवल मैं होऊँ, मेरी स्वयं की प्रकाशित-अप्रकाशित रचनाएँ हों, मेरे अपने जीवन के सुख-दुख से जुड़े अनुभव हों… ‘सेतु-साहित्य’, ‘वाटिका’, ‘गवाक्ष’, ‘साहित्य-सृजन’ और ‘कथा-पंजाब’ आदि मेरे ब्लॉग्स तो हैं हीं (जिनमें कहानी, कविता, लघुकथा, उपन्यास, संस्मरण जैसी विधाओं में रचा गया उत्तम साहित्य देने का प्रयास होता है), जहाँ मेरा उद्देश्य रहता है कि हिंदी और हिंदीतर भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को अपने ब्लॉग्स के माध्यम से विश्वभर के उन हिंदी पाठकों को उपलब्ध करवाऊँ जिन्हें मंहगी प्रिंटिड पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों और मंहगी डाक प्रणाली के चलते ऐसा साहित्य सुलभ नहीं हो पाता। परन्तु उन दिनों मैं स्वयं और मेरे बहुत से करीबी मित्र भी यह चाहते थे कि मेरा एक ऐसा ब्लॉग भी हो जहाँ केवल मैं शाया होऊँ… मेरे मित्रों का यही कहना था कि मैं अन्य ब्लॉग्स के माध्यम से दूसरों का साहित्य तो साहित्य-प्रेमियों को उपलब्ध कराता ही रहता हूँ, लेकिन मुझे अपना साहित्य भी उन तक इस नई तकनीक के माध्यम से पहुँचाना चाहिए। मुझे भी लगा कि मेरी तमाम रचनाएँ जो इधर-उधर पत्र-पत्रिकाओं में, किताबों में बिखरी पड़ी हैं और अब वे पाठकों को सहज सुलभ भी नहीं हैं, क्यों न उन्हें एक स्थान पर सहेज-संभाल लूँ।
मई २००८ से अब तक ‘सृजन-यात्रा’ में मेरी १७ कहानियाँ, १४ कविताएं, एक आत्मकथ्य का प्रकाशन हो चुका है। अभी प्रकाशित-अप्रकाशित अनेक कहानियाँ, कविताएं शेष रहती हैं और शेष रहती हैं मेरी लघुकथाएं… अत: कहानियों, कविताओं को हाल-फिलहाल यहीं विराम देते हुए जनवरी २०११ से मैं अपने इस ब्लॉग में अपनी लघुकथाओं का प्रकाशन सिलसिलेवार आरंभ करने जा रहा हूँ। इनमें से बहुत सी लघुकथाएं आपने अवश्य ही प्रिंट मीडिया में पढ़ी होंगी, कुछेक ब्लॉग्स और वेब-पत्रिकाओं में भी पढ़ी होंगी। यदि यहाँ वे आपको पुन: पढ़ने को मिल रही हैं तो इसकी वजह यही है कि मेरी तमाम लघुकथाएं यहाँ सिलसिलेवार संकलित-संग्रहित होने जा रही हैं। ये लघुकथाएं मेरे शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे लघुकथा-संग्रह “वाह मिट्टी” में संकलित हैं।
यहाँ प्रस्तुत लघुकथा ‘कमरा’ मेरी पहली लघुकथा है जो वर्ष 1984 में लिखी गई और ‘सारिका’ के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई। कथाकार बलराम ने इसे मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ “हिंदी लघुकथा कोश”(वर्ष 1988) में संकलित किया। यह लघुकथा कथाकार सुकेश साहनी द्वारा वर्ष 2001 में संपादित पुस्तक “समकालीन भारतीय लघुकथाएं” में भी संकलित हुई। इसके अतिरिक्त अनेकों संकलनों में, पत्र-पत्रिकाओं में इसका पुनर्प्रकाशन हुआ और यह सिलसिला अभी तक जारी है। यह अब तक पंजाबी, मराठी, तेलगू, मलयालम और बंगला भाषा में अनूदित हो चुकी है।
मैं चाहूँगा कि मेरी लघुकथाओं पर आपकी बेबाक राय मुझे मिलती रहे…
-सुभाष नीरव


कमरा
सुभाष नीरव

''पिताजी, क्यों न आपके रहने का इंतज़ाम ऊपर बरसाती में कर दिया जाये ?'' हरिबाबू ने वृद्ध पिता से कहा।
''देखिये न, बच्चों की बोर्ड की परीक्षा सिर पर है। बड़े कमरे में शोर-शराबे के कारण वे पढ़ नहीं पाते। हमने सोचा, कुछ दिनों के लिए यह कमरा उन्हें दे दें।'' बहू ने समझाने का प्रयत्न किया।
''मगर बेटा, मुझसे रोज ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना कहाँ हो पायेगा ?'' पिता ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा।
''आपको चढ़ने-उतरने की क्या ज़रूरत है! ऊपर ही हम आपको खाना-पानी सब पहुँचा दिया करेंगे। और शौच-गुसलखाना भी ऊपर ही है। आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।'' बेटे ने कहा।
''और, सुबह-शाम घूमने के लिए चौड़ी खुली छत है।'' बहू ने अपनी बात जोड़ी।
पिताजी मान गये। उसी दिन उनका बोरिया-बिस्तर ऊपर बरसाती में लगा दिया गया।

अगले ही दिन, हरिबाबू ने पत्नी से कहा, ''मेरे दफ्तर में एक नया क्लर्क आया है। उसे एक कमरा चाहिए किराये पर। तीन हजार तक देने को तैयार है। मालूम करना, मोहल्ले में अगर कोई....।''
''तीन हजार रुपये!'' पत्नी सोचने लगी, ''क्यों न उसे हम अपना छोटा वाला कमरा दे दें?''
''वह जो पिताजी से खाली करवाया है ?'' हरिबाबू सोचते हुए से बोले, ''वह तो बच्चों की पढ़ाई के लिए...।''
''अजी, बच्चों का क्या है!'' पत्नी बोली, ''जैसे अब-तक पढ़ते आ रहे हैं, वैसे अब भी पढ़ लेंगे। उन्हें अलग से कमरा देने की क्या ज़रूरत है ?''
अगले दिन वह कमरा किराये पर चढ़ गया।
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