मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

लघुकथा





मित्रो
अपनी लघुकथा ‘कड़वा अपवाद’ को यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे विक्रम सोनी जी की याद हो आ रही है और याद आ रही है, उनकी पत्रिका ‘लघु आघात’। विक्रम सोनी जी जितने सशक्त लघुकथा लेखक रहे, उतने ही अच्छे एक संपादक भी रहे हैं। 'लघु आघात' के माध्यम से उन्होंने हिन्दी लघुकथा लेखन को प्रोत्साहन दिया और उसके विकास के लिए जो काम किया, वह भुलाया नहीं जा सकता। मेरे शुरुआती लेखन के समय में विक्रम जी ने मेरी कई लघुकथाएं ‘लघु आघात’ में प्रकाशित की थीं। मुझे आश्चर्य होता था कि उन दिनों ‘सारिका’ में छपी मेरी लघुकथा(ओं) पर इतना नोटिस नहीं लिया गया था, जितना 'लघु आघात' में छ्पी मेरी लघुकथाओं पर लिया गया। लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तब सक्रिय अनेकों लेखकों ने मुझे जाना और कइयों से मेरा परिचय हुआ जो आज तक कायम है। आज लघुकथा के आकाश का यह सितारा गुमनामी के अंधेरे में है। कथाकार बलराम अग्रवाल ने बताया कि वह अब उज्जैन में रहते हैं और लिख-पढ़ सकने की स्थिति में नहीं हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ-सानन्द रखे, यही कामना करते हुए आपके समक्ष अपनी लघुकथा 'कड़वा अपवाद ' प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
सुभाष नीरव


कड़वा अपवाद
सुभाष नीरव

रेलवे क्रॉसिंग। फाटक बन्द होने के कारण बस एक झटके के साथ रुक गयी। तभी एक औरत गोद में बच्चा लिये हुए बस में चढ़ी।
''बाऊजी... भाई साहब... मुसीबत की मारी गरीब आपके आगे हाथ फैलाकर भीख मांगती... रात ठंड से मेरा आदमी गुजर गया साब... ल्हास के कफन के वास्ते मांगती... झूठ नीं बोलती... बाऊजी... बच्चे की कसम खाती... पेट की खातिर नहीं, आदमी की ल्हास के वास्ते हाथ फैलाती... वहाँ गली के मोड़ पर पड़ी है ल्हास... मेरी मदद करो, मेरे माई-बाप... रुपया-दो रुपया गरीब की झोली में डालकर... भगवान आपकी मदद करेगा, मेरे मालिक...''
उसका करुण रुदन सुनकर सभी के दिल पसीजने लगे। वह बार-बार बच्चे की कसम खाती, झुककर बैठे हुए लोगों के पैरों को छूती और जोरों से प्रलाप करने लगती।
लोग अपनी जेबें टटोलने लगे। एक ने दिया तो सभी देने लगे। कोई रुपया, तो कोई दो रुपया दे रहा था। किसी-किसी ने तो पाँच-दस का नोट भी दिया। देखते-देखते, उसके पल्लू में तीस-चालीस रुपये जमा हो गये। वह फिर भी मांगे जा रही थी। मेरे पास आकर उसने मेरे पैर भी छूने चाहे। मुझे यह सब ढोंग लग रहा था। जानता था कि भीख मांगने के लिए आजकल किस-किस तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। मैंने उसे बेरहमी से झिड़क दिया, ''बन्द करो यह ड्रामेबाजी... तुम्हारा कोई आदमी-वादमी नहीं मरा है... भीख मांगने का अनोखा तरीका खोज निकाला है तुम लोगों ने...''
''अरे भई, नहीं देना तो मत दो, पर बेचारी को डांटो तो नहीं...'' बस में से एक आवाज उभरी।
''यह सब नाटक कर रही है। अभी कुछ देर बाद इसका आदमी दूसरी बस में चढ़ेगा और कहेगा, मेरी औरत मर गयी... उसके कफन के वास्ते पैसे चाहिएँ...ये लोग भीख मांगने के लिए कभी अपनी माँ को मारते हैं तो कभी अपनी बीवी को...कभी बाप को तो कभी बेटे को...।''
''अरे, बेचारी अपने बच्चे की कसम खा रही है। कोई झूठ बोल रही होगी क्या ?'' दूसरी आवाज उभरी।
''जो भीख मांगने के लिए अपने आदमी को मार सकती है, उसके लिए बच्चे की कसम खाना कोई बड़ी बात नहीं है।'' मैं उत्तेजित होकर बोल रहा था, ''यह सब ढोंग है। नहीं यकीन तो चलो, मैं दिखाता हूँ... नशा करके पड़ा होगा इसका खसम...।''
मेरी बातों का कुछ असर-सा हुआ लोगों पर। फाटक अभी भी बन्द था। बस चलने में अभी काफी देर थी।
''चल, दिखा, कहाँ है लाश?'' मैंने उस औरत से कहा।
''उस गली के मोड़ पर पड़ी है।'' औरत ने इशारे से बताया।
मैंने संग चलने को कहा तो वह आनाकानी करने लगी। अब अन्य लोग भी उसके पीछे पड़ गये, ''चल दिखा, कहाँ मरा पड़ा है तेरा आदमी...।'' उसके लिए अब बचना मुश्किल था। वह चुपचाप चल दी। मैं कुछ लोगों के साथ उसके पीछे हो गया। गली के मोड़ पर पहुँचकर देखा, वहाँ कोई लाश वगैरह नहीं थी। एक विजयी मुस्कान मेरे होंठों पर तैर गई। लोगों ने सख्ती से पूछा, ''कहाँ है लाश ?... झूठ बोलती थी !''
वह रोती हुई कुछ और आगे बढ़ी।
कुछ ही दूरी पर कुछ लोग किसी को घेरे हुए खड़े थे। वह औरत आगे बढ़कर जमीन पर लेटे हुए आदमी से लिपट गयी और जोर-जोर से रोने लगी। मुझे लगा, मेरे पैर काँपने-से लगे हैं... तभी, मैं आगे बढ़कर बोला, ''साला, बन रहा है... नशा करके लेटा होगा...'' और मैंने एक झटके से उसके ऊपर की चिथड़ा हुई धोती को खींचकर एक तरफ कर दिया।
मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।