बुधवार, 27 नवंबर 2013

पुरानी स्मृतियाँ : एक संस्मरण



‘यत्किंचित’ कविता-संग्रह का प्रकाशन और डॉ. हरिवंश राय बच्चन का पत्र

मेरा और रूपसिंह चन्देल का संयुक्त कविता-संग्रह ‘यत्किंचित’ 1 जनवरी 1979 को प्रकाशित हुआ
था। यह हम दोनों की पहली प्रकाशित पुस्तक है। मेरी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत मुरादनगर से ही हुई थी।  जून 1976 में दिल्ली स्थित भारत सरकार के नौवहन मंत्रालय में मेरी नियुक्ति हो चुकी थी और मैं मुरादनगर से ट्रेन से दिल्ली आता जाता था। साहित्यिक अभिरूचि के हम कुछ मित्रों ने एक संस्था का गठन किया था। नाम था –‘विविधा’। उसमें मैं, सुधीर कुमार सुधीर, प्रेमचन्द गर्ग, सुधीर अज्ञात और संतराज सिंह शामिल थे। हमने मुरादनगर फैक्टरी एस्टेट में होने वाले कवि-सम्मेलनों, कविता गोष्ठियों का करीब करीब बहिष्कार-सा कर दिया था। तभी, हमसे जुड़े रूपसिंह चन्देल जो आर्डनेंस फैक्टरी में अकाउन्ट कार्यालय में नियुक्त होकर आए। डबल एम.. और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व! वे हमारी गोष्ठियों में बराबर उत्साह से हिस्सा लेने लगे थे और कविताएं लिखना भी प्रारंभ कर दिया था। ‘विविधा’ ने मुरादनगर में कई महत्वपूर्ण गोष्ठियाँ कीं। एकबार बाबा नागार्जुन जी भी हमारी गोष्ठी में दिल्ली से पहुंचे थे। इस बारे में रूपसिंह चन्देल ने एक संस्मरण भी लिखा है। सन 1978 में भारत की राजनीति में काफ़ी उथल-पुथल थी। वातावरण से प्रभारित हो हम बहुत-सी नारेबाजी वाली कविताएं लिखते थे और समझते थे कि ये हमारी क्रांतिकारी कविताएँ हैं। उन्हीं दिनों मैंने और चन्देल ने अपना संयुक्त कविता संग्रह छपवाने का मन बनाया। दोनों ने चार-चार सौ रुपये मिलाए और दिल्ली से ‘यत्किंचित’ शीर्षक से कविता संकलन छपवाया। इस कविता संग्रह का आवरण आज के हिंदी के समर्थ कथाकार और चित्रकार राजकमल ने बनाया था, तब वह अपना नाम ‘राजकमल भारती’ लिखा करते थे। इस कविता संग्रह में उनका भी नाम गया। 7 जनवरी 1979 को मित्र प्रेमचंद गर्ग के निवास पर ‘विविधा’ की गोष्ठी थी और मुझे ‘यत्किंचित’ की प्रतियाँ दिल्ली से उठाकर मुरादनगर पहुँचना था। मेरे और चन्देल के अलावा इस संकलन के प्रकाशन की जानकारी किसी अन्य मित्र को नहीं थी। मुझे दिल्ली से लौटते बहुत देर हो गई थी और मैं ‘यत्किंचित’ की प्रतियाँ उठाए सीधे गोष्ठी में पहुँचा था। चन्देल मेरी बहुत बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन जब हमने अपने मित्रों को अपने कविता-संकलन की प्रतियाँ बांटी तो सब हत्प्रभ रह गए। मित्र संतराज सिंह जो आर्डनेंस फैक्टरी में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी थे, को हमारी यह बात बहुत नागवार लगी कि हमने मित्रों से यह बात गुप्त रखकर अपना कविता संग्रह छपवा लिया है। खैर, मेरे और चन्देल के पांव तो धरती पर नहीं पड़ रहे थे। हमने डाक से इसकी प्रतियाँ न जाने कितने साहित्यकारों को भेजीं, हम दोनों शनिवार-इतवार कुछ प्रतियाँ झोले में डालकर दिल्ली की
सड़कों पर घूमते थे और वहाँ व्यक्तिगत तौर पर साहित्यकारों से मिलकर अपना पहला कविता संकलन भेंट करते थे। डा
.लक्ष्मी नारायण लाल(हिंदी कथाकार और नाटककार) को हम दिल्ली में पटेल नगर स्थित उनके निवास पर प्रति भेंट करने गए। उन्होंने हमे बधाई दी और चन्देल से बोले, ‘तुम कुछ भी बन सकते हो, पर कवि नहीं।’ मेरे बारे में उन्होंने कहा कि नीरव, तुम्हारे में संवेदना और कविता के कुछ बीज दिखते हैं। इस संकलन पर हम दोनों को बहुत से साहित्यकारों के पत्र भी मिले। हम गदगद थे। ऐसा लगता था, मानो न जाने कौन-सा तीर मार लिया है हमने। डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी को भी प्रति डाक से भेजी थी, उनका तुरन्त पत्र आया जो तेजी बच्चन जी के लैटर-पैड पर था। उन दिनों वह दिल्ली में रह रहे थे। पत्र में उन्होंने मेरी एक कविता ‘इतिहास चुप है’ की प्रशंसा की थी। वह कविता इस प्रकार है – 

इतिहास चुप है
 
आज से नहीं
सदियों से
बाहरी-भीतरी
अलग-अलग मोर्चों पर
एक साथ
लड़ता रहा हूँ… 

बाहरी मोर्चे पर
जितनी बार जीता हूँ
उससे कहीं अधिक बार
भीतरी मोर्चे पर
हुआ हूँ परास्त… 

यह अलग बात है कि
बाहरी मोर्चों पर पाई विजय
सबको दीख जाती है किन्तु
भीतरी मोर्चे पर मिली पराजय
दिखाई नहीं देती… 
मानव इतिहास में
बाहरी मोर्चे पर लड़ी गई लड़ाइयों का
उल्लेख मिल सकता है
पर भीतरी मोर्चे पर
लड़ी गई लड़ाइयों पर
आज से नहीं
सदियों से
इतिहास चुप है
गूंगा है…
-सुभाष नीरव