शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कहानी-13


गोष्ठी
सुभाष नीरव

वह चाहकर भी उसे मना नहीं कर सके। जबकि मदन के आने से पूर्व वह दृढ़ मन से यह तय कर चुके थे कि इस काम के लिए साफ़-साफ़ हाथ जोड़ लेंगे। कह देंगे- मदन, यह काम उनसे न होगा। उन्हें क्षमा करो। वैसे वह गोष्ठी में उपस्थित हो जाएंगे। ज़रूरत होगी तो चर्चा में हिस्सा भी लेंगे। पर पर्चा लिख पाना उनके लिए संभव न होगा। और... वह कोई आलोचक या समीक्षक भी तो नहीं हैं...
क्या इतना ही सब कुछ था उनके भीतर ?
भीतर से उठे इस प्रश्न से वह बच नहीं पाए। उन्हें अपने आपको टटोलना पड़ा। हाँ, केवल यही बातें ज़हन में नहीं थीं। कुछ और भी था। एक अहं भी। लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार करुणाकर को हिंदी साहित्य में कौन नहीं जानता ? दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं उन्होंने। दस कहानी संग्रह और छह उपन्यास छप चुके हैं उनके अब तक ! उन जैसा वरिष्ठ लेखक एक नवोदित लेखक की कहानियों पर गोष्ठी में पढ़ने के लिए पर्चा लिखे ! यही काम रह गया है क्या ? इससे अधिक तकलीफ़ उन्हें गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे शख्स यानी डॉ. भुवन से थी। डॉ. भुवन के पिछले इतिहास को करुणाकर बखूबी जानते थे। डॉ. भुवन की साहित्य में देन ही क्या है ? अवसरवादिता उनमें कूट कूटकर भरी है। चाटुकारिता और तिकड़मों के बल पर यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के हैड और कुछेक पुरस्कार और सलाहकार समितियों के सदस्य बने बैठें हैं। उस पर दंभ यह कि उनसे बड़ा साहित्यकार, विद्वान कोई है ही नहीं।... वह ऐसे व्यक्ति की अध्यक्षता में एक नए लेखक की पुस्तक पर पर्चा पढ़ेंगे ?... नहीं... लोगों को कहने का अवसर मिलेगा कि करुणाकर चुक गया है इसलिए अब आलेख पाठों पर उतर आया है।
गोष्ठियों में जाना वह वैसे भी पसंद नहीं करते अब। पिछले दो-तीन बरसों से तो गोष्ठियों में आना-जाना छोड़ ही रखा है। तीन दशकों की अपनी साहित्यिक यात्रा में उन्होंने इन गोष्ठियों को बहुत करीब से देखा है। पूर्वाग्रहयुक्त चर्चा होती है वहाँ या फिर उखाड़ने-जमाने की राजनीति ! अधिकांश वक्ता तो लेखक की पूरी पुस्तक पढ़ कर ही नहीं आते और बोलते ऐसे है जैसे उनसे बड़ा विद्वान या साहित्य पारखी है ही नहीं। एक गुट का लेखक दूसरे गुट के लेखक को नीचा दिखलाने की कोशिश में रहता है। रचना पर बात न होकर, रचनाकार पर बातें होने लगती हैं। रचना पीछे छूट जाती है और रचनाकार आगे आ जाता है।
ये तमाम बातें थीं जो उनके दिमाग में घूम रही थीं- चक्करघिन्नी-सी। पत्नी को भी वह अपना निर्णय बता चुके थे। पत्नी की राय इस पर भिन्न थी। उनका मत था कि अगर वह मदन की पुस्तक पर पर्चा नहीं लिखना चाहते हैं तो वह कोई बहाना बना दें। कह दें कि वह बहुत व्यस्त हैं। गोष्ठी में नहीं पहुँच सकते। या फिर कह दें कि उन्हें कहीं और जाना है उस दिन।
वह पत्नी की राय से सहमत नहीं हुए। बोले, ''बहाना क्यों बनाऊँ ? स्पष्ट कह देने में क्या हर्ज़ है ?... पर्चा लिखने के लिए मैं ही रह गया हूँ क्या ?... बहुत मिल जाएंगे जो खुशी-खुशी पर्चा लिखने को राजी हो जाएंगे।''
लेकिन क्या वह स्पष्ट मना कर पाए ?... नहीं। वह ऐसा चाहकर भी नहीं कर पाए। मदन आया। आते ही उसने चरण-स्पर्श किए। उनके ही नहीं, उनकी पत्नी के भी। बैठने के पश्चात् झोले में से निमंत्रण पत्र का 'प्रूफ' निकालते हुए वह बोला, ''भाई साहब, मैंने आपका नाम साधिकार आलेख पाठ में दे दिया है। यह देखिए।'' और निमंत्रण-पत्र का प्रूफ उनकी ओर बढ़ा दिया।
''लेकिन, मदन...'' वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाए थे कि मदन बीच में ही बोल उठा, ''देखिए भाई साहब ! एक ही जनपद के होने के नाते मुझ छोटे भाई को इतना अधिकार तो आप देंगे ही, मुझे पूरा विश्वास है। आप तो जानते ही हैं, गोष्ठियों में लोग किस पूर्वाग्रह से बोलते हैं। नए लोगों को तो बढ़ते देख ही नहीं सकते। एक आप ही हैं जो कृति को पूरा पढ़कर बोलते हैं। नए लोगों के प्रति आपके हृदय में जो स्नेह है, जो भावना है, वह आज कितने अग्रज और वरिष्ठ लेखकों में है ? कहिए...''
करुणाकर इस पर निरुत्तर हो गए।
थोड़ा रुककर मदन उनकी पत्नी की ओर देखते हुए बोला, ''भाभी जी, हम तो भाई साहब को ही अपना गुरू माने हैं। कॉलेज टाइम से ही इनकी कहानियों के फैन रहे हैं हम। एक कथाकार जो गत तीन दशकों से निरंतर लिख रहा है, वह नए लेखक की कहानियों पर कुछ लिखे, यह तो नए लेखक को अपना सौभाग्य ही समझना चाहिए न ! क्यों भाभी जी ?'' बात की पुष्टि के लिए मदन ने उनकी पत्नी के चेहरे पर अपनी दृष्टि कुछेक पल के लिए स्थिर कर दी। लेकिन प्रत्युत्तर में जब वह चुप रहीं, कुछ बोली नहीं तो उसने अपनी नज़रें वहाँ से हटा लीं।
मदन के आने से पूर्व उसके भीतर क्या कुछ उमड़-घुमड़ रहा था। लेकिन अब मौन धारण किए बैठे थे वह। मदन ही बोले जा रहा था और वह सुन रहे थे चुपचाप।
''अब देखिए न, यह जो संस्था है न, जो मेरी पुस्तक पर गोष्ठी करवा रही है, उसके सचिव महोदय निमंत्रण-पत्र का मसौदा देखकर बोले कि भाई इसमें से कुछ नाम हटा दो।... तो भाई साहब, हमने भी स्पष्ट कर दिया कि चाहे कोई नाम उड़ा दो, पर करुणाकर जी का नाम नहीं हटने देंगे। चाहे गोष्ठी हो, चाहे न हो।''
इस बीच उनकी पत्नी उठकर रसोईघर में चली गईं- चाय का पानी रखने। वह चाय बनाकर लाईं तो मदन फिर शुरू हो गया, ''भाई साहब, गाड़ी का भी इंतज़ाम हो गया है। आपको ले भी जाएगी और छोड़ भी जाएगी।''
''अरे, नहीं मदन। मैं आ जाऊँगा...।'' बहुत देर की चुप्पी के बाद वह बोल पाए।
''नहीं भाई साहब ! गाड़ी का इंतज़ाम तो मैंने कर लिया है। बस, आप तैयार रहिएगा। कहाँ बसों में धक्के खाइएगा आप ?''
कुछ देर बाद, मदन हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ जाने के लिए। सहसा, उसे कुछ स्मरण हो आया। रुककर बोला, ''गोष्ठी के पश्चात् अपना आलेख मुझे दे दीजिएगा। 'साहित्य सरोकार' में छपने के लिए सुरेंद्र को दे दूँगा।''

रात का खाना खाने के बाद वह मदन की पुस्तक लेकर बैठ गए। पुस्तक दो-तीन दिन पहले ही मिल गई थी, इस सूचना के साथ कि इस पर उन्हें आलेख पाठ करना है। लेकिन, सिवाय उलट-पलटकर देखने के वह एक भी कहानी नहीं पढ़ पाए थे। अब तो पर्चा लिखना था !
पुस्तक पढ़कर करुणाकर बेहद निराश हुए। दो-एक कहानियों को छोड़कर कोई भी कहानी उन्हें छू नहीं पाई। लेखक ने अपने कहानियों में कोई नई बात नहीं कही थी। जो कथ्य उठाए गए थे, उन्हें पूर्ववर्ती लेखक पहले ही बहुत खूबसूरत ढंग से उठा चुके थे। कहानियाँ आज की कहानीधारा में कहीं भी टिकती नज़र नहीं आई उन्हें। किसी-किसी कहानी में शिल्प को लेकर उन्हें लगा, मानो लेखक ने अनावश्यक कुश्ती की हो। जिन दो-एक कहानियों ने उन्हें छुआ था, वे अपने अंत को लेकर कुछ मार्मिक हो गई थीं किंतु अपनी बुनावट में पठनीय कम, बोझिल अधिक लगीं उन्हें।
दो-एक दिन असमंजस और दुविधा की स्थिति में रहे वह। फिर, एकाएक उन्होंने निर्णय ले लिया, ''क्या ज़रूरी है कि एक कमजोर किताब पर मेहनत की जाए ?... नहीं, वह पर्चा नहीं लिखेंगे।''
पत्नी का कहना दूसरा था। उनके विचार में उन्हें एक बार वायदा कर लेने के बाद पर्चा अवश्य लिखना चाहिए। उसने अपना मत दिया, ''कहानियाँ आपको जैसी भी लगी हैं, आप वैसा ही लिखिए। खराब तो खराब, अच्छी तो अच्छी ! अब आप नहीं लिखेंगे तो मदन को बुरा लगेगा। कितना आदर करता है वह आपका !''
उन्होंने अपने निर्णय पर पुन: विचार किया। उन्हें लगा, पत्नी ठीक कहती है। उन्हें वैसा ही लिखना चाहिए, जैसी कहानियाँ उन्हें लगी हैं। इसमें लेखक का ही भला है। कहानी की समृद्ध परंपरा का उल्लेख करते हुए आज की कहानीधारा में मदन की कहानियों की पड़ताल करनी चाहिए उन्हें।
और उन्होंने ऐसा ही किया। उन्होंने रचना को सामने रखने की कोशिश की, रचनाकार को नहीं।

गोष्ठी के दिन वह तीन बजे ही तैयार होकर बैठ गए। गोष्ठी चार बजे से प्रारंभ होनी थी। साढ़े तीन तक गाड़ी को आ जाना चाहिए था। वह तब तक तैयार किए गए आलेख को एक बार बैठकर पढ़ने लगे। टाइपिंग में रहे गई अशुद्धियों को ठीक करते रहे। आलेख पांचेक पेज का हो गया था लेकिन उन्हें लगता था कि उन्होंने अपनी बात खुलकर आलेख में कह दी है। एक-एक कहानी के आर-आर गए थे वह।
साढ़े तीन हो रहे थे और गाड़ी अभी तक नहीं आई थी। वह उठकर बाहर गेट तक देखने गए और फिर लौटकर कमरे में आकर बैठ गए। पन्द्रह मिनट और बीते तो उन्हें बेचैनी होने लगी।
तभी, एक स्कूटर बाहर आकर रुका। एक दुबला-पतला-सा युवक अंदर आया और बोला, ''करुणाकर जी, मैं आपको लेने आया हूँ।''
''गाड़ी का क्या हुआ ?'' उन्होंने पूछा।
''गाड़ी अध्यक्ष जी को लेने गई है इसलिए मदन जी ने मुझे आपको लेने भेज दिया। चलिए, चलें। देर हो रही है।''
उन्होंने अपना झोला उठाया और स्कूटर के पीछे बैठ गए। चार बज चुके थे लेकिन धूप में अभी भी तेजी थी।

गोष्ठी निर्धारित समय से एक घंटा देर से आरंभ हुई, अध्यक्ष के आ जाने पर। गाड़ी से डॉ. भुवन के साथ मदन भी उतरा- प्रसन्नचित-सा।
पहला पर्चा करुणाकर जी का ही था। पर्चा पढ़ने में उन्हें कोई पन्द्रह मिनट लगे। कुछ मिलाकर उनके पर्चे का सार यह था कि अपने समग्र प्रभाव में संग्रह की कहानियाँ पाठक को प्रभावित करने में असमर्थ हैं। कहानियाँ एकरस और ऊबाऊ तो हैं ही, लेखक के सीमित अनुभव-संसार का भी परिचय कराती हैं। यथार्थ को पकड़ने वाली लेखकीय दृष्टि, जीवन और समाज सापेक्ष नहीं है। कथ्यों में विविधता का अभाव है और भाषा व शिल्प के स्तर पर संग्रह की कहानियाँ बेहद कमजोर हैं। कई कहानियाँ अपनी सरंचना तक में बिखर गई हैं और वे बेहद अप्रासंगिक भी लगती हैं। गत तीन-चार वर्षों में लिखी गई इन कहानियों को पढ़ते समय लेखक की लेखनी में कोई क्रमिक विकास या बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता बल्कि सभी कहानियाँ फार्मूलाबद्ध और एक ही ढर्रे पर लिखी कहानियाँ लगती हैं। कुछ मिला कर नए लेखक का यह पहला संग्रह लेखक के प्रति कोई उम्मीद नहीं जगाता। अंत में, अपने पर्चे में उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि लेखक आने वाले समय में अपने अनुभव को व्यापक बनाएगा और बेहतर कहानियाँ लेकर ही पाठकों के समक्ष उपस्थित होगा।
दूसरा पर्चा कु. गीतांजलि का था। अपने पर्चे में गीतांजलि ने करुणाकर के पर्चे के ठीक उलट बातें लिखी थीं। लेखक की कहानियों को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ते हुए यह सिध्द करने की कोशिश की थी कि लेखक अपने समाज, अपने परिवेश से कहीं गहरे जुड़ा है और वह जीवन के जटिल से जटिलतर होते जाते यथार्थ को ईमानदाराना ढंग से अभिव्यक्ति प्रदान करने में समर्थ हुआ है। कहानियों को बेहद पठनीय बताते हए गीतांजलि ने रेखांकित करने की चेष्टा की थी कि लेखक अपने पहले ही संग्रह से नए कहानीकारों में एक अलग ही पहचान बनाता दीखता है।
करुणाकर पर्चे को सुनकर दंग रह गए। वह लेखक की कहानियों पर पर्चा था कि लेखक का आँख मूंदकर स्तुतिगान ! कहानियों को श्रेष्ठ बताने के पीछे जो तर्क दिए गए थे, वे बेहद बचकाने और पोपले लगे।
आलेख-पाठ के बाद चर्चा का दौर आरंभ हुआ। वक्ताओं की सूची में पहला नाम डॉ. वर्मा का था जो मूलत: कवि थे लेकिन आलोचना में भी खासा दख़ल रखते थे। डॉ. वर्मा ने गीतांजलि के पर्चे पर अपनी सहमति प्रकट करते हुए दो-चार बातें कहानीकार और उसकी कहानियों के पक्ष में और जोड़ीं और आग्रह किया कि इन कहानियों को वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाए। लेखक को बदलते परिवेश के प्रति जागरूक और सचेत बताते हुए डॉ.वर्मा ने जोर देकर कहा कि लेखक अपनी कहानियों के जरिए यथार्थ की तहों तक पहुँचने की कोशिश करता हुआ दिखाई देता है। कहानियाँ पठनीय ही नहीं, प्रामाणिक और विश्वसनीय भी हैं और पाठकों को बाँधे रखने तथा उन्हें कहीं गहरे तक छूने में समर्थ हैं। अंत में करुणाकर के पर्चे को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि बड़े और स्थापित लेखकों को नए लेखकों के प्रति संकीर्ण और संकुचित नज़रिया नहीं रखना चाहिए।
चर्चा के दौरान, हर चर्चाकार ने करुणाकर के पर्चे को एक सिरे से खारिज किया और मदन की कहानियों को श्रेष्ठ बताया। कई वक्ताओं ने तो यहाँ तक कहा कि करुणाकर जी ने कहानी को लेकर जो पैमाना बना रखा है, उसी पैमाने से वह सभी की कहानियों को नापने की कोशिश करते हैं। यही वजह है कि उन्हें दूसरों की कहानियाँ कमजोर और खराब लगती हैं। एक अन्य वक्ता का विचार था कि करुणाकर जी ने जिन मापदंडों की अपने पर्चे में चर्चा की है, उनकी अपनी कहानियाँ उन पर पूरी नहीं उतरतीं तो फिर नए लेखक से वह क्या आशा कर सकते हैं... एक वक्ता का कथन था कि कितने आश्चर्य की बात है कि एक लेखक अपनी तीन दशकों की कथा-यात्रा में कोई क्रमिक विकास कता दिखाई नहीं देता, वही लेखक कैसे किसी नए लेखक की दो तीन वर्षों के दौरान लिखी गई कहानियों में क्रमिक विकास तलाशने लगता है।
सारी चर्चा लेखक की कहानियों पर न होकर करुणाकर के पर्चे के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई थी। हर चर्चाकार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में उनके पर्चे की कड़ी आलोचना कर रहा था। लगता था, गोष्ठी कहानी-संग्रह पर न होकर करुणाकर के पर्चे पर रखी गई हो।
तभी एक वक्ता ने बोलने की अनुमति मांगी। करुणाकर ने उसकी ओर देखा और चौंक पड़े- अरे, यह तो अरुण है। एक ज़माना था, दोनों धुऑंधार लिख रहे थे और छप रहे थे। दोनों में कहानी लिखने की होड़ लगी रहती थी। दोनों कहानियों पर जमकर घंटों बहस करते थे। अरुण कह रहा था, ''मुझे अफ़सोस है कि मेरे पूर्ववर्ती वक्ता लेखक की कहानियों पर न बोलकर व्यक्तिगत छींटाकशी और आरोप आद लगाने में ही अपना समय बर्बाद करते रहे। कहानियों पर शायद वे बोल ही नहीं सकते थे। मेरे पास लेखक की पुस्तक नहीं थी, सिर्फ़ गोष्ठी की सूचना अख़बार में पढ़कर चला आया था। अत: मदन की कहानियों पर राय तो नहीं दे सकता, पर हाँ, यहाँ यह अवश्य कहना चाहूँगा कि किसी कहानी या रचना पर सभी एकमत हों, संभव नहीं है। फिर भी, किसी के मत तथा विचार से असहमति यदि कोई रखता है तो उसे अपनी असहमति शालीन ढंग से उचित और ठोस तर्क देकर ही व्यक्त करनी चाहिए और एक साहित्यिक गोष्ठी की गरिमा को बनाए रखना चाहिए।''
अरुण के बाद कोई वक्त शेष नहीं रहा था।
अध्यक्ष महोदय ने लेखक को उसकी पहली कथाकृति के प्रकाशन पर बधाई और आशीर्वाद दिया तथा कहा कि लेखक की कहानियाँ इस बात का प्रमाण है कि वह अपने समय और समाज के प्रति बेहद जागरूक है। लेखक में एक समर्थ कथाकार की पूरी संभावनाएँ निहित हैं। करुणाकर के पर्चे का उल्लेख किए बिना उन्होंने कहा कि कुछ वरिष्ठ लेखक नए लेखकों की कहानियों पर बोलते हुए यह भूल जाते हैं कि वह भी कभी नए थे। नए लेखक की पहली कृति में ही वह सभी कुछ पाना चाहते हैं जो वे अपने पूरे लेखन में नहीं दे पाते। उनकी मंशा नए लेखक को उत्साहित और प्रेरित करने की नहीं, वरन निरुत्साहित करने की अधिक होती है। किंतु एक नए और समर्थ लेखक को ऐसी आलोचना की चिंता न करते हुए सतत रचनाशील रहना चाहिए।
गोष्ठी की समाप्ति पर जलपान की व्यवस्था की गई थी। सभी दो-दो, तीन-तीन के ग्रुप में इधर-उधर छिटककर खड़े हो गए थे और आपस में बातें करने लगे थे।
अरुण और करुणाकर एक कोने में खड़े थे। कई वर्षों के बाद मिले थे दोनों। इस समय उनकी बातचीत का विषय डॉ. भुवन थे।
''तुम्हें मालूम है करुणाकर, डॉ. भुवन पर अभिनंदन ग्रंथ छापने की योजना चल रही है।'' चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने फुसफुसाते हुए कहा।
''हाँ, अब यही तो रह गया है।''
''और उस योजना में मदन जैसे लोग सक्रियता से जुड़े हैं।''
''अपने पीछे शिष्यों की भीड़ जुटाए रखना और उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना तो इन्हें खूब आता है, अरुण।'' करुणाकर ने खाली प्याला एक ओर रखते हुए कहा।
एकाएक उनकी दृष्टि कुछ दूरी पर खड़े मदन और गीतांजलि पर चली गई। समीप ही, 'साहित्य सरोकार' का संपादक सुरेंद्र खड़ा था।
''बहुत अच्छा पर्चा लिखा आपने।'' सुरेंद्र गीतांजलि की तारीफ़ कर रहा था।
''जी शुक्रिया !'' गीतांजलि ने मंद-मंद मुस्कराते हुए कहा।
''ये कहानियाँ भी बहुत अच्छी लिखती हैं। अभी हाल ही में इनकी एक बेहद अच्छी कहानी 'सत्ययुग' में छपी है। पढ़ी होगी आपने ?'' मदन बीच में ही बोल उठा।
''नहीं, नहीं पढ़ पाया। 'सत्ययुग' देखता नहीं इन दिनों।'' सुरेंद्र ने उत्तर दिया, ''आप 'साहित्य सरोकार' के लिए कहानी भेजिए न।''
''कहानी भी भेज देंगी। पहले आप इनका यह पर्चा तो छापिए, 'साहित्य सरोकार' में।'' मदन ने गीतांजलि को बोलने का अवसर ही नहीं दिया।
''ज़रूर छापूंगा। पर्चे की एक कॉपी और पुस्तक की एक प्रति भिजवा देना।''
तभी मदन को डॉ. भुवन ने बुला लिया, ''अच्छा मदन, हम चलें।''
मदन उन्हें गाड़ी तक ले गया। डॉ. भुवन का बायां हाथ मदन के कंधे पर था। गाड़ी में बैठने से पूर्व वह बोले, ''मदन, तुमने अपनी पुस्तक 'साहित्य श्री' पुरस्कार के लिए सबमिट की या नहीं ?''
''जी, अभी नहीं की।''
''कब करोगे भाई। अंतिम तिथि में बस पाँच-छह दिन ही तो शेष हैं। आज कल में सबमिट कर दो। अरे भई, तुम युवाओं के लिए ही यह पुरस्कार है। तुम लोग नहीं करोगे तो क्या हम बूढ़े करेंगे ?''
डॉ. भुवन को विदा कर जब मदन लौटा तो उसकी नज़र एक कोने में खड़े करुणाकर पर पड़ी। वह उनके समीप जाकर बोला, ''आप कुछ देर रुकिएगा भाई साहब... गाड़ी अभी दस-पन्द्रह मिनट में लौटेगी तो आपको...''
''नहीं भाई, मेरी चिंता छोड़ो। मैं चला जाऊँगा।'' करुणाकर जी का स्वर ठंडा था।
''ऐसे कैसे हो सकता है, भाई साहब !'' मदन ने जोर देकर उन्हें रोकने का प्रयत्न किया। तभी समीप खड़ा अरुण बोला, ''करुणाकर, तुम बात खत्म करके आओ। मैं बाहर सिगरेट लेता हूँ तब तक।'' और वह वहाँ से हट गया।
''थोड़ी ही देर की बात है, भाई साहब।'' अरुण के जाते ही मदन फिर करुणाकर जी को मनाने लगा।
''नहीं, नहीं जब तब गाड़ी का इंतज़ार करूँगा तब तक तो बस भी मिल जाएगी मुझे। तुम चिंता न करो, अरुण मेरे साथ है। चढ़ा देगा बस में।'' कहते हुए वह धीमे-धीमे उस ओर डग भरने लगे जिस ओर अरुण गया था।
उनके हटते हुए मदन को कुछ लोगों ने घेर लिया था और उसे गोष्ठी के सफल होने की बधाइयाँ देने लगे थे।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

कहानी-12



साँप
सुभाष नीरव

"री, लक्खे तरखान के तो भाग खुल गए।"
"कौण?... ओही सप्पां दा वैरी?"
"हाँ, वही। साँपों का दुश्मन लक्खा सिंह।"
"पर, बात क्या हुई?"
"अरी, कल तक उस गरीब को कोई पूछता नहीं था। आज सोहणी नौकरी और सोहणी बीवी है उसके पास। बीवी भी ऐसी कि हाथ लगाए मैली हो।"
जहाँ गाँव की चार स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं, लक्खा सिंह तरखान की किस्मत का किस्सा छेड़ बैठतीं। उधर गाँव के बूढ़े - जवान मर्द भी कहाँ पीछे थे। उनकी ज‍़बान पर भी आजकल लक्खा ही लक्खा था।
"भई बख्तावर, लक्खा सिंह की तो लाटरी खुल गई। दोनों हाथों में लड्डू लिए घूमता है।"
"कौन?... बिशने तरखान का लड़का? साँपों को देखकर जो पागल हो उठता है...।"
"हाँ, वही।"
"रब्ब भी जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। कल तक यही लक्खा रोटी के लिए अन्न और चूल्हा जलाने के लिए रन्न(बीवी) को तरसता था।"
"हाँ भई, किस्मत के खेल हैं सब।"
गाँव में जिस लक्खा सिंह के चर्चे हो रहे थे, वह बिशन सिंह तरखान का इकलौता बेटा था। जब पढ़ने-लिखने में उसका मन न लगा और दूसरी जमात के बाद उसने स्कूल जाना छोड़ गाँव के बच्चों के संग इधर-उधर आवारागर्दी करना शुरू कर दिया, तो बाप ने उसे अपने साथ काम में लगा लिया। दस-बारह साल की उम्र में ही वह आरी-रंदा चलाने में निपुण हो गया था।
बिशन सिंह तरखान एक गरीब आदमी था। न उसके पास ज़मीन थी, न जायदाद। गाँव के बाहर पक्की सड़क के किनारे बस एक कच्चा-सा मकान था जिसकी छत के गिरने का भय हर बरसात में बना रहता। गाँव में खाते-पीते और ऊँची जात के छह-सात घर ही थे मुश्किल से, बाकी सभी उस जैसे गरीब, खेतों में मजूरी करने वाले और जैसे-तैसे पेट पालने वाले! बिशन सिंह इन्हीं लोगों का छोटा-मोटा काम करता रहता। कभी किसी की चारपाई ठीक कर दी, कभी किसी के दरवाजे-खिड़की की चौखट बना दी। किसी की मथानी टूट जाती- ले भई बिशने, ठीक कर दे। किसी की चारपाई का पाया या बाही टूट जाती तो बिशन सिंह को याद किया जाता और वह तुरंत अपनी औज़ार-पेटी उठाकर हाज़िर हो जाता। कभी किसी का पीढ़ा और कभी किसी के बच्चे का रेहड़ा! दाल-रोटी बमुश्किल चलती।
जब लक्खा सिंह की मसें भींजने लगीं तो बिशन सिंह आस-पास के गाँवों में भी जाने लगा- बढ़ईगिरी का काम करने। सुबह घर से निकलता तो शाम को लौटता। काम के बदले पैसे तो कभी-कभार ही कोई देता। गेहूँ, आटा, चावल, दालें वगैरह देकर ही लोग उससे काम करवाते। थोड़ा-बहुत लक्खा सिंह भी घर पर रहकर कमा लेता। इस प्रकार, उनके परिवार की दाल-रोटी चलने लगी थी।
दिन ठीक-ठाक गुज़र रहे थे और लक्खा सिंह की शादी-ब्याह की बातें चलने लगी थीं कि एक दिन...
चौमासों के दिन थे। एक दिन शाम को जब बिशन सिंह अपने गाँव लौट रहा था, लंबरदारों के खेत के पास से गुज़रते समय उसे एक साँप ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई।तभी से लक्खा सिंह को साँपों से नफ़रत हो गई। बाप के मरने के बाद कई दिनों तक वह लाठी लिए खेतों में पागलों की भाँति घूमता रहा था। बाँबियों को ढूँढ़-ढूँढ़कर नष्ट करता रहा था, साँपों को खोज-खोजकर मारता रहा था। गाँव के बड़े-बुजुर्गों के समझाने-बुझाने के बाद उसने ऐसा करना छोड़ा था।
लेकिन, गाँव में जब किसी के घर या पशुओं के बाड़े में साँप घुस आने की खबर उसे मिलती तो वह साँप मारने वालों में सबसे आगे होता। साँप को देखकर उसकी बाजुओं की मछलियाँ फड़कने लगती थीं। साँप कितना भी भयानक क्यों न होता, लक्खा सिंह लाठी लिए बेखौफ़ होकर उसे ढूँढ़ निकालता और जब तक उसे मार न लेता, उसे चैन न पड़ता। मरे हुए साँप की पूँछ पकड़कर हवा में लटकाए हुए जब वह गाँव की गलियों में से गुज़रता, बच्चों का एक हुजूम उसके पीछे-पीछे होता, शोर मचाता हुआ। घरों के खिड़की-दरवाज़ों, चौबारों, छतों पर देखने वालों की भीड़ जुट जाती।
कुछ समय बाद लक्खा सिंह की माँ भी चल बसी। अब लक्खा सिंह अकेला था।इसी लक्खा सिंह को कोई अपनी लड़की ब्याह कर राजी नहीं था। जब तक माँ-बाप ज़िंदा थे, उन्होंने बहुत कोशिश की कि लक्खे का किसी से लड़ बँध जाए। इसका चूल्हा जलाने वाली भी कोई आ जाए। ऐसी बात नहीं कि रिश्ते नहीं आते थे। रिश्ते आए, लड़की वाले लक्खा सिंह और उसके घर-बार को देख-दाखकर चले गए, पर बात आगे न बढ़ी। माँ-बाप के न रहने पर कौन करता उसकी शादी की बात! न कोई बहन, न भाई, न चाचा, न ताऊ, न कोई मामा-मामी। बस, एक मौसी थी फगवाड़े वाली जो माँ-बाप के ज़िंदा रहते तो कभी-कभार आ जाया करती थी लेकिन, उनके परलोक सिधारने पर उसने भी कभी लक्खा सिंह की सुध नहीं ली थी।
जब लक्खा सिंह पैंतीस पार हुआ तो उसने शादी की उम्मीद ही छोड़ दी। गाँव की जवान और बूढ़ी स्त्रियाँ अक्सर आते-जाते राह में उससे मखौल किया करतीं, "वे लखिया! तू तो लगता है, कुँवारा ही बुड्ढ़ा हो जाएगा। नहीं कोई कुड़ी मिलती तो ले आ जाके यू.पी. बिहार से... मोल दे के। कोई रोटी तो पका के देऊ तैनूं...।"
मगर लक्खा सिंह के पास इतना रुपया-पैसा कहाँ कि मोल देकर बीवी ले आए। ऐसे में उसे गाँव का चरना कुम्हार याद हो आता जो अपनी बीवी के मरने पर बिहार से ले आया था दूसरी बीवी- रुपया देकर। दूसरी बीवी दो महीने भी नहीं टिकी थी उसके पास और एक दिन सारा सामान बाँधकर चलती बनी थी। रुपया-पैसा तो खू-खाते में गया ही, घर के सामान से भी हाथ धोना पड़ा। चरना फिर बिन औरत के- रंडवा का रंडवा!
चरना को याद कर लक्खा सिंह कानों को हाथ लगाते हुए मसखरी करती औरतों को उत्तर देता, "मोल देकर लाई बीवी कल अगर भांडा-टिंडा लेकर भाग गई, फिर?... न भई न। इससे तो कुँवारा ही ठीक हूँ।"
फिर, कभी-कभी लक्खा सिंह यह भी सोचता, जब उस अकेले की ही दाल-रोटी मुश्किल से चल रही है, तब एक और प्राणी को घर में लाकर बिठाना कहाँ की अकलमंदी है।इसी लक्खा सिंह तरखान का सितारा एकाएक यों चमक उठेगा, किसी ने सपने में भी न सोचा था। खुद लक्खा सिंह ने भी नहीं। घर बैठे-बैठे पहले नौकरी मिली, फिर सुन्दर-सी बीवी।सचमुच ही उसकी लॉटरी लग गई थी।
सन पैंसठ के दिन थे। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की जंग अभी ख़त्म ही हुई थी। एक रात उधर से गुज़र रही एक सेठ की कार ऐन उसके गाँव के सामने आकर खराब हो गई। आस-पास न कोई शहर, न कस्बा। ड्राइवर ने बहुत कोशिश की मगर कार ठीक न हुई। इंजन की कोई छोटी-सी गरारी टूट गई थी। सेठ और ड्राइवर ने लक्खा सिंह का दरवाज़ा जा थपथपाया और सारी बात बताई। पूछा, "आस-पास कोई मोटर-मैकेनिक मिलेगा क्या?"लक्खा सिंह उनका प्रश्न सुनकर हँस पड़ा।
"बादशाहो, यहाँ से दस मील दूर है कस्बा। वहीं मिल सकता है कोई मकेनिक। पर इतनी रात को वहाँ भी कौन अपनी दुकान खोले बैठा होगा। आप लोग मेरी मानो, रात यहीं गाँव में गुज़ारो। तड़के कोई सवारी लेकर चले जाणा कस्बे और मकेनिक को संग ले आणा।"
सेठ और ड्राइवर परेशान-सा होकर एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।
"वैसे हुआ क्या है, गड्डी को?"
"यह गरारी टूट गई..." ड्राइवर ने हाथ में पकड़ी गरारी दिखाते हुए कहा।
"हूँ..." कुछ सोचते हुए लक्खा सिंह बोला, "बादशाहो, तुसी बैठो। देखता हूँ, क्या हो सकता है।"
लक्खा सिंह ने अपनी औज़ार-पेटी खोली, औज़ार निकाले और लकड़ी की एक गाँठ लेकर बैठ गया। लैम्प की रोशनी में आधे घंटे की मेहनत-मशक्कत के बाद उसने हू-ब-हू लकड़ी की गरारी तैयार कर दी और बोला, "चलो जी, इसे फिट करके देखते हैं।"
ड्राइवर और सेठ हैरान थे कि यह लकड़ी की गरारी क्या करेगी? लेकिन जब लक्खा सिंह ने सच्चे बादशाह को याद करते हुए गरारी को उसकी जगह पर फिट किया और गाड़ी स्टार्ट करने को कहा तो न केवल गाड़ी स्टार्ट हुई बल्कि गियर में डालते ही चल भी पड़ी।
"लो भई बादशाहो, ये मेरी गरारी आपको शहर तक तो पहुँचा ही दे शायद।"
सेठ और ड्राइवर बहुत खुश थे। सेठ ने लक्खा सिंह को रुपये देने चाहे जिन्हें लेने से लक्खा सिंह ने इन्कार कर दिया। बोला, "बादशाहो, आपकी गाड़ी हमारे गाँव के पास आकर खराब हुई। आप हमारे मेहमान हुए। मेहमानों से क्या कोई पैसे लेता है? आपकी हम जितनी सेवा कर सकते थे, कर दी। रुपये देकर हमें शरमिंदा न करो।"
और जब वाकई कार ने सेठ को उसके शहर तक पहुँचा दिया तो सेठ लक्खा सिंह से बहुत प्रभावित हुआ। उसका अपना लकड़ी का कारोबार था। देहरादून और पौढ़ी-गढ़वाल में आरा मशीनें और फर्नीचर के कारखाने थे उसके। उसने अगले दिन ही अपना आदमी भेजकर लक्खा सिंह को अपने पास बुला लिया।
सेठ ने पूछा, "मेरे यहाँ नौकरी करोगे? सौ रुपया महीना और रहने को मकान।"
लक्खा सिंह को और क्या चाहिए था। उसने 'हाँ` कर दी। शहर में सेठ का बड़ा गोदाम था। फिलहाल, सेठ ने उसे वहीं रख लिया।
इधर शहर में उसकी नौकरी लगी, उधर फगवाड़े वाले मौसी एक लड़की का रिश्ता लेकर आ गई। लक्खा सिंह की हाँ मिलते ही लड़की वाले अगले महीने ही शादी के लिए राजी हो गए। शादी में सेठ भी शरीक हुआ।
लक्खे की बीवी लक्खे की उम्र से छोटी ही नहीं, बेहद खूबसूरत भी थी।गाँव वाले कहते, "लखिया, वोहटी तो तेरी इतनी सोहणी है कि हाथ लगाए मैली हो। रात को दीवा बालने की भी ज़रूरत नहीं तुझे।"
लक्खा सिंह की बीवी का नाम वैसे तो परमजीत था, पर गाँव की स्त्रियों ने आते-जाते उसे सोहणी कहकर बुलाना आरंभ कर दिया था। अब लक्खा भी उसे सोहणी कहकर ही बुलाने लगा। शादी के बाद जितने दिन वे गाँव में रहे या तो लक्खा सिंह की किस्मत के चर्चे थे या फिर उसकी बीवी की खूबसूरती के।
लक्खा सिंह खुद अपनी किस्मत पर हैरान और मुग्ध था।
छुट्टी बिताकर बीवी को संग लेकर जब वह काम पर लौटा तो सेठ बोला, "लक्खा सिंह, गोदाम वाला मकान और नौकरी तेरे लिए ठीक नहीं। अब तू अकेला नहीं है। साथ में तेरी बीवी है। तू ऐसा कर, गढ़वाल में मेरा एक कारखाना है। वहाँ एक आदमी की ज़रूरत भी है। तू वहाँ चला जा। रहने को मकान का भी प्रबंध हो जाएगा। कोई दिक्कत हो तो बताना।"
प्रत्युत्तर में लक्खा सिंह कुछ नहीं बोला, दाढ़ी खुजलाता रहा।
"मेरी राय में तू बीवी को लेकर वहाँ चला ही जा। तेरे जाने का प्रबंध भी मैं कर देता हूँ। पहाड़ों से घिरा खुला इलाका है, तुझे और तेरी बीवी को पसंद आएगा।"
सेठ की बात सुनकर लक्खा सिंह बोला, "घरवाली से पूछकर बताता हूँ।"
सेठ के पास उसका ड्राइवर भी बैठा था। लक्खा सिंह का उत्तर सुनकर बोला, "पूछना क्या? तू जहाँ ले जाएगा, वह चुपचाप चली जाएगी। तेरी बीवी है वो। लोग पहाड़ों पर हनीमून मनाने जाते हैं। समझ ले, तू भी हनीमून मनाने जा रहा है। हनीमून का हनीमून और नौकरी की नौकरी !" कहकर ड्राइवर हँस पड़ा।
लक्खा सिंह सेठ की बात मान गया।
पहाड़ों और जंगलों से घिरी कलाल घाटी। इसी घाटी की तराई में जंगल से सटा था सेठ का छोटा-सा लकड़ी का कारखाना। कस्बे और आबादी से दूर। शान्त वातावरण और समीप ही बहती थी- मालन नदी। लकड़ी के लिए जंगल के ठेके उठते। पेड़ काटे जाते और दिन-रात चलती आरा मशीनें रुकने का नाम न लेतीं। कटी हुई लकड़ी जब कारखाने के अंदर जाती, तो फिर खूबसूरत वस्तुओं में तब्दील होकर ही बाहर निकलती- विभिन्न प्रकार की कुर्सियों, मेज़ों, सोफों, पलंगों और अलमारियों के रूप में! ट्रकों पर लादकर यह सारा फर्नीचर शहर के गोदामों में पहुँचा दिया जाता। तैयार माल की देखरेख और उसे ट्रकों पर लदवाकर शहर के गोदामों में पहुँचाने का काम करता था- प्रताप, चौड़ी और मज़बूत कद-काठी वाला युवक।
सेठ के कहे अनुसार इसी प्रताप से मिला लक्खा सिंह इस कलाल घाटी में, सेठ के फर्नीचर कारखाने पर। प्रताप ने उसे मैनेजर से मिलवाया। मैनेजर ने प्रताप से कहा, "प्रताप, सरदार जी को पाँच नंबर वाले मकान पर ले जा। सरदार जी वहीं रहेंगे।" फिर, लक्खा सिंह की ओर मुखातिब होकर बोला, "सरदार जी, आज आप आराम करें। सफ़र में थक गए होंगे। कल से काम पर आ जाना।"
कारखाने से कोई एक कोस दूर पहाड़ी पत्थर से बने थे पाँच-छह मकान। खुले-खुले। प्रताप उन्हें जिस मकान में ले गया, वह सबसे पीछे की ओर था। उसके पीछे से जंगल शुरू होता था। जंगल के पीछे पहाड़ थे। मकान खुला और हवादार था। पहले छोटा-सा बरामदा, फिर एक बड़ा कमरा, उसके बाद रसोई और आखिर में पिछवाड़े की तरफ़ शौच-गुसलखाना। आगे और पीछे की खुली जगह को पाँचेक फीट ऊँची दीवार से घेरा हुआ था।
लक्खा सिंह सचमुच पहाड़ की खुली वादी को देखकर खुश था। मकान देखकर और भी खुश हो गया। लेकिन, लक्खा सिंह की घरवाली घबराई हुई थी।
"मैंने नहीं रहना यहाँ, इस जंगल-बियाबान में... देखो न, कोई भी चोर-लुटेरा आगे-पीछे की दीवार कूदकर अंदर घुस सकता है। आप तो चले जाया करोगे काम पर, पीछे मैं अकेली जान... न बाबा न!"
सोहणी के डरे हुए चेहरे को देखकर लक्खा सिंह मुस्करा दिया। बोला, "ओ सोहणियो, पंजाब की कुड़ी होकर डर रहे हो?"
प्रताप ने समझाने की कोशिश की, "नहीं भाभी जी, आप घबराओ नहीं। चोरी-डकैती का यहाँ कोई डर नहीं। बेशक खिड़की-दरवाज़े खुले छोड़कर चले जाओ। हाँ, कभी-कभी साँप ज़रूर घर में घुस आता है।"
"साँप!" सोहणी इस तरह उछली जैसे सचमुच ही उसके पैरों तले साँप आ गया हो।
लक्खा सिंह भी साँप की बात सुनकर सोच में पड़ गया और मन-ही-मन बुदबुदाया - यहाँ भी साँप ने पीछा नहीं छोड़ा।
सोहणी बहुत घबरा गई थी। लक्खा सिंह की ओर देखते हुए बोली, "सुनो जी, वापस दिल्ली चलो... सेठ से कहो, वह वहीं गोदाम पर ही काम दे दे। हमें नहीं रहना यहाँ साँपों के बीच। साँपों से तो मुझे बड़ा डर लगता है जी।"
लक्खा सिंह ने प्रेमभरी झिड़की दी, "ओए, पागल न बन। कुछ दिन रहकर तो देख। कोई साँप-सूँप नहीं डसता तुझे।" फिर घबराई हुई बीवी के कंधे पर अपना हाथ रखकर बोला, "अगर आ ही गया तो देख लूँगा। बड़े साँप मारे हैं मैंने अपने पिंड में...।"
"अच्छा तो मैं चलता हूँ। कोई तकलीफ़ हो तो बुला लेना। मैं सामने वाले दो मकान छोड़कर तीसरे में रहता हूँ।" जाते-जाते प्रताप ने कहा, "वैसे मैं सारा दिन घर पर ही रहता हूँ। सुबह थोड़ी देर के लिए कारखाने जाता हूँ और लौट आता हूँ। फिर शाम को चार-पाँच बजे जाता हूँ। बस, दिनभर में यही दो-ढाई घंटों का काम होता है मेरा।"
सेठ के कारखाने में मैनेजर को मिलाकर कुल सात लोग काम करते थे। रघबीर, कांती और दिलाबर फर्नीचर तैयार करते थे जबकि बंसी और मुन्ना का काम वार्निश, रंग-रोगन आदि का था। प्रताप का काम था- तैयार माल की देखरेख करना और उसे शहर के गोदामों में भेजना। लक्खा सिंह को फर्नीचर तैयार करने के काम पर लगा दिया गया था।
लक्खा सिंह सुबह काम पर चला जाता और शाम को लौटता। दिनभर सोहणी घर पर अकेली रहती, डरी-डरी, सहमी-सहमी-सी। लक्खा सिंह लौटता तो उसका डर से कुम्हलाया चेहरा देखकर परेशान हो उठता। अंधेरा होने के बाद तो सोहणी रसोई की तरफ़ जाने से भी डरती थी। शौच-गुसल तो दूर की बात थी। लक्खा सिंह ने टार्च ख़रीद ली थी। बिजली न होने के कारण दिए की मद्धम रोशनी में सोहणी नीचे फर्श पर पैर रखते हुए भी भय खाती थी। हर समय उसे लगता मानो साँप उसके पैरों के आस-पास ही रेंग रहा हो। रस्सी का टुकड़ा भी उसे साँप प्रतीत होता।
कुछ ही दिन में लक्खा सिंह ने महसूस किया कि सोहणी के चेहरे का सोहणापन धीमे-धीमे पीलेपन में बदलता जा रहा है। लक्खा सिंह उसके भीतर के डर को निकालने की बहुत कोशिश करता, उसे समझाता मगर सोहणी थी कि उसका डर जैसे उससे चिपट गया था- जोंक की तरह। वह हर बार दिल्ली लौट चलने की बात करती। इतवार को लक्खा सिंह की छुट्टी हुआ करती थी। उस दिन वह सोहणी को शहर ले जाता। उसे घुमाता, गढ़वाल के प्राकृतिक दृश्य दिखलाता। मालन नदी पर भी ले जाता। सोहणी घर से बाहर जब लक्खा सिंह के संग घूम रही होती, उसके चेहरे पर से डर का साया उतर जाता। वह खुश-खुश नज़र आती। लेकिन, घर में घुसते ही सोहणी का सोहणा चेहरा कुम्हलाने लग पड़ता।सोहणी के इसी डर के कारण लक्खा सिंह अब दिन में भी एक चक्कर घर का लगाने लगा था। साथ काम करते कारीगर उससे चुस्की लेते तो मैनेजर भी उनमें शामिल हो जाता।
एक दिन प्रताप भी मैनेजर के पास बैठा था जब लक्खा सिंह ने दोपहर को घर हो आने की इजाज़त माँगी।
"सरदार जी, माना आपकी नई-नई शादी हुई है, पर उस बेचारी को थोड़ा तो आराम कर लेने दिया करो।" मैनेजर मुस्करा कर बोला।
"ऐसी कोई बात नहीं है जी... वो तो बात कुछ और ही है। दरअसल..." कहते-कहते लक्खा सिंह रुक गया तो दिलाबर बोल उठा, "दरअसल क्या?... साफ-साफ क्यों नहीं कहता कि बीवी की याद सताने लगती है।"
मुन्ना और कांती एक साथ हँस पड़े।
"नहीं जी, दरअसल बात यह है कि मेरी घरवाली को हर समय साँप का डर सताता रहता है।"
"साँप का डर?" रघबीर ने हैरानी प्रकट की।
"बात यह है जी कि पहले दिन ही प्रताप ने कह दिया था कि घर में साँप घुस आते हैं कभी-कभी। मेरी बीवी को साँपों से बड़ा डर लगता है। बेचारी दिन भर डरी-डरी-सी रहती है।"
"क्यों प्रताप? यह क्या बात हुई? तूने लक्खा सिंह की बीवी को डरा दिया।" मैनेजर ने पास बैठे प्रताप के चेहरे पर नज़रें गड़ाकर हँसते हुए पूछा।
"मैंने झूठ कहाँ कहा? साँपों का घर में घुस आना तो यहाँ आम बात है।" प्रताप ने सफ़ाई दी। फिर उसने लक्खा सिंह के आगे एक प्रस्ताव रखा, "लक्खा सिंह जी, इतना घबराने की ज़रूरत नहीं। मैं पास ही रहता हूँ। अगर ऐसी ही बात है तो दिन में मैं देख आया करूँगा भाभी को।"
लक्खा सिंह को प्रताप की बात जँच गई, बोला, "तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी।"
एक डेढ-माह बाद लक्खा सिंह ने महसूस किया कि सोहणी के चेहरे पर अब पहले जैसा डर नहीं रहा है। अब शाम को अंधेरा हो जाने के बाद पिछवाड़े की ओर वह अकेली चली जाती थी। यह देखकर लक्खा सिंह ने राहत की साँस ली थी।
एक दिन दोपहर में काम नहीं था। लक्खा सिंह का मन घर पर हो आने को हुआ। काफी दिनों से वह दिन में घर पर गया भी नहीं था। मैनेजर से कहकर वह घर की ओर चल पड़ा।
घर पर प्रताप सोहणी से बातें कर रहा था। सोहणी खुश नज़र आ रही थी। सोहणी को खुश देखकर लक्खा सिंह भी खुश हो गया।
"लक्खा सिंह जी, अब आप चिंता न करें। इनका डर अब खत्म होता जा रहा है। अगर मुझे मालूम होता कि ये साँप से इतना ही डरती हैं तो मैं साँप वाली बात करता ही नहीं।" प्रताप लक्खा सिंह को देखकर बोला।
"नहीं जी, डर तो मुझे अभी भी लगता है। साँप का क्या भरोसा जी, कब आ जाए। जब से दिन में एक-दो बार प्रताप भाई आकर पता कर जाते हैं, थोड़ा हिम्मत-सी बँध गई है।" सोहणी ने कहा।
कुछ देर बाद प्रताप चला गया तो लक्खा सिंह ने देखा, सोहणी के चेहरे पर रौनक थी। वह ऐसी ही रौनक उसके चेहरे पर हर समय देखना चाहता था।
"सोहणियों! मलाई दे डोनियों!! आज तो बड़े ही सोहणे लग रहे हो..." कहकर लक्खा सिंह ने सोहणी को अपने आलिंगन में ले लिया।
"हटो जी, आपको तो हर वक्त मसखरी सूझती रहती है।" सोहणी लजाते हुए अपने आपको छुड़ाते हुए बोली।
पहले तो सोहणी दिन के उजाले में ही रात का खाना बना लिया करती थी ताकि रात को रसोई की तरफ़ न जाना पड़े। लक्खा सिंह से भी उजाले-उजाले में घर लौट आने की ज़िद्द करती थी। लेकिन, अब ऐसी बात न थी। शाम को अंधेरा होने पर जब लक्खा सिंह लौटता तो वह रसोई में अकेली खड़ी होकर खाना बना रही होती। दिन में धो कर पिछवाड़े की रस्सी पर डाले गए कपड़े रात को सोने से पहले खुद ही उतार लाती।
जाड़े के सुहावने दिन शुरू हो गए थे। गुनगुनी धूप में बैठना अच्छा लगता था। ऐसी ही एक गुनगुनी धूप वाले दिन लक्खा सिंह दोपहर को काम पर से आ गया। सोहणी की खनखनाती हँसी घर के बाहर तक गूँज रही थी। बेहद प्यारी, मन को लुभा देने वाली हँसी! जैसे गुदगुदी करने पर बच्चे के मुख से निकलती है। वह हँसी लक्खा सिंह को बड़ी प्यारी लगी। लेकिन, वह अकेली क्यों और किस बात पर हँस रही है? वह सोचने लगा। तभी पुरुष हँसी भी उसे सुनाई दी। घर पर प्रताप था। लक्खा सिंह को यों अचानक आया देखकर दोनों की हँसी गायब हो गई।
"वो जी... आज... मैंने साँप देखा... गुसलखाने में। मैं तो जी डर के मारे काँपने ही लगी..." सोहणी के स्वर में कंपन था, "कि तभी प्रताप भाई आ गए। इन्होंने ही उसे भगाया।"
"भगाया? मारा क्यों नहीं?"
"मैं तो मार ही देता, पर वह बचकर निकल गया।" प्रताप के मुख से निकला।
सोहणी फिर पुरानी रट पकड़ने लगी, "जी, मैंने नहीं रहना यहाँ। आज तो देख ही लिया साँप... कभी आप आओगे तो मरी पड़ी मिलूँगी मैं...।"
"पगली है तू, एक साँप देखकर ही डर गई।"
उस दिन लक्खा सिंह दुबारा काम पर नहीं गया। प्रताप से मैनेजर को कहलवा दिया।
रघबीर के बेटा हुआ तो उसने सभी को लड्डू खिलाए। पिछले बरस ही उसकी शादी हुई थी। "लो भई, रघबीर ने तो लड्डू खिला दिए। लक्खा सिंह जी, तुम कब मुँह मीठा करवा रहे हो?" मैनेजर ने आधा लड्डू मुँह में डाल, आधा हाथ में पकड़कर लक्खा सिंह से प्रश्न किया।
"हम भी करवा देंगे जल्दी ही अगर रब्ब ने चाहा तो..." लक्खा सिंह लकड़ी पर रंदा फेरते हुए मुस्कराकर बोला।
"सिर्फ़ मुँह मीठा करवाने से बात नहीं बनेगी। पार्टी होगी, पार्टी...।" बंसी अपने हाथ का काम रोककर कहने लगा।
"अरे, इसके तो जब होगा तब देखी जाएगी, पहले रघबीर से तो ले लो पार्टी। लड्डू से ही टरका रहा है।" मुन्ना भी बोल उठा।
"हाँ-हाँ, क्यों नहीं..." रघबीर ने कहा, "पर तुम सबको मेरे घर पर चलना होगा, बच्चे के नामकरण वाले दिन।"
खूब अच्छी रौनक लगी नामकरण वाले दिन रघबीर के घर। लक्खा सिंह सोहणी को लेकर प्रताप के संग पहुँचा था। उधर कांती भी अपनी पत्नी को लेकर आया था। मैनेजर, दिलाबर, बंसी और मुन्ना पहले ही पहुँचे हुए थे। रघबीर ने दारू का भी इंतजाम किया हुआ था। बंसी को छोड़कर सभी ने पी। लक्खा सिंह की सोहणी और कांती की बीवी घर की स्त्रियों के संग घर के कामकाज में हाथ बँटाती रही थीं। खाने-पीने के बाद शाम को घर की स्त्रियाँ आँगन में दरी बिछाकर ढोलक लेकर बैठ गईं। रघबीर ने आँगन में एक ओर दो चारपाइयाँ बिछा दीं जिन पर मैनेजर, दिलाबर, मुन्ना, बंसी, लक्खा और प्रताप बैठ गए और स्त्रियों के गीतों का आनंद लेने लगे। तभी, प्रताप अपनी जगह से उठा और एक स्त्री के पास जाकर उसके कान में कुछ फुसफुसाया।
अब सभी स्त्रियाँ सोहणी को घेर कर बैठ गईं। वह 'न-नुकर` करने लगी तो लक्खा सिंह बोल उठा, "सोहणियों, सुना भी दो अब...।"
काफी देर तक लजाती-सकुचाती सोहणी ने आखिर ढोलक पकड़ ही ली।
इसके बाद तो सब चकित ही रह गए। खुद लक्खा सिंह भी। सोहणी जितनी अच्छी ढोलक बजाती थी, उतना ही अच्छा गाती थी। उसने पंजाब के कई लोकगीत सुनाए। एक के बाद एक।
आजा छड्ड के नौकरी माहिया,
कल्ली दा मेरा दिल न लग्गे...
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पिप्पल दिया पित्ताय केही खड़-खड़ लाई वे...
पत्ता झड़े पुराणें, रुत नवियाँ दी आई वे...
पिप्पल दिया पित्तायँ, तेरियाँ ठंडियाँ छाँवाँ...
झिड़कदियाँ ससाँ, चेते आउंदियाँ ने माँवाँ...
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ऐधर कणकाँ, ओधर कणकाँ
विच्च कणकाँ दे टोया
माही मेरा बुड्ढ़ा जिहा
देख के दिल मेरा रोया...
लै लो दाल फुल्लियाँ, लै लो दाल-छोले...
इस गीत को सोहणी ने जिस अंदाज़ में गाया, उससे सभी खिलखिलाकर हँस पड़े। मैनेजर लक्खा सिंह की जाँघ पर हाथ मारकर बहुत देर तक हँसता रहा।
अब ढोलक कांती की घरवाली को देकर सोहणी उठकर खड़ी हो गई और चुन्नी को कमर में बाँधकर गिद्धा डालने लग पड़ी।
बारी बरसीं खटण गिया सी,
खट के लियादाँ ताला
तेरे जिहे लख छोकरे...
मेरे नाम दी जपदे माला...
सोहणी को नाचते देख लक्खा सिंह और प्रताप भी खड़े होकर नाचने लगे। महफ़िल में रंगत आ गई।
गिद्धे विच नचदी दी गुत्त खुल जाँदी आ
डिगिया परांदा देख सप्प वरगा
तेरा लारा वे शराबियाँ दी गप्प वरगा
इस बार सोहणी ने लक्खा सिंह की ओर इशारा किया तो मैनेजर, प्रताप और मुन्ना की हँसी छूट गई।
मित्तरा पड़ोस दिया
कंध टप्प के आ जा तू
माही मेरा कम्म ते गिया...
लक्खा सिंह झूम उठा, "बल्ले-बल्ले ओ सोहणियों... खुश कर दित्ता तुसी तां..."
जब नाचते-नाचते सोहणी हाँफने लगी तो वह बैठ गई। लेकिन गाना उसने बन्द नहीं किया था। अब ढोलक फिर उसके हाथ में थी।
आ जोगिया, फेरा पा जोगिया...
साडा रोग बुरा हटा जोगिया...फेरा पा जोगिया
आ गिया नी, फेरा पा गिया नी
सानुं फनीअर नाग लड़ा गिया नी... जोगी आ गिया नी
आ गिया नी, फेरा पा गिया नी
सानुं रोग जुदाइयाँ दा पा गिया नी... जोगी आ गिया नी
सोहणी का यह रूप तो लक्खा सिंह ने देखा ही नहीं था। वह इतना उन्मुक्त होकर नाच-गा रही थी जैसे वह पंजाब में अपने गाँव में नाच-गा रही हो।
नीं सप्प लड़िया, मैंनूं सप्प लड़िया
जद माही गिया मेरा कम्म ते
घर विच आ वड़िया... सप्प लड़िया
मैंनूं सुत्ती जाण के अड़ियो
मंजे उत्ते आ चढ़िया... सप्प लड़िया

देर रात गए जब प्रताप, लक्खा सिंह और सोहणी घर की ओर लौट रहे थे तो सोहणी बेहद खुश और उमंग से भरी लग रही थी। रास्ते भर प्रताप उसकी तारीफ़ें करता रहा और वह खिलखिलाकर हँसती रही। लगता था, उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, वह हवा में उड़ रही थी। इधर लक्खा सिंह मन-ही-मन सोच रहा था- साँपों से डरने वाली सोहणी के गीतों में साँप कहाँ से आ गए?
दिलाबर की माँ बीमार थी और कांती को अपनी घरवाली को छोड़ने जाना था। इसलिए दोनों एक हफ्ते की छुट्टी लेकर चले गए थे। काम पूरा करने और समय पर देने के लिए मैनेजर ने डबल-शिफ्ट लगा दी थी। अब रात में भी काम होने लगा था।
शुरू में सोहणी ने इसका विरोध किया, बोली, "दिन तो जैसे-तैसे गुज़र जाता है, रात में अकेले... मेरी तो जान ही निकल जाएगी।"
जब लक्खा सिंह ने मजबूरी बताई और कहा कि दो-चार दिन की ही बात है और चार पैसे बढ़कर ही मिलेंगे तो वह मान गई।
उस रात काम कोई अधिक नहीं था। रात ग्यारह बजे तक सब निबट गया था। मैनेजर के कहने पर लक्खा सिंह घर की ओर चल दिया। ठंडी हवा चल रही थी और पूरी वादी अंधकार में डूबी थी।
रात के समय सोहणी बाहर वाले दरवाज़े में अंदर से ताला लगा लिया करती थी। लक्खा सिंह ने दरवाज़े की ओर हाथ बढ़ाया अवश्य था लेकिन वह हवा में ही लटक कर रह गया था। तेज‍ साँसों की आवाज़ उसके कानों में पड़ी थी। जैसे कोई साँप फुँकार रहा हो। वह घबरा उठा। तो क्या साँप? सोहणी साँप के डर से काँप रही होगी। ऐसे में वह दरवाज़ा कैसे खोल सकती है? वह सोच में पड़ गया। तभी, वह दीवार पर चढ़ गया। वह दबे पाँव घर में घुसना चाहता था, पर दीवार से कूदते समय खटका हो ही गया।दीये का मद्धम प्रकाश कमरे में पसरा हुआ था। सोहणी बेहद घबराई हुई दिख रही थी। बिस्तर अस्त-व्यस्त-सा पड़ा था।
"क्या बात है सोहणी? इतना घबराई हुई क्यों हो? क्या साँप?.."
"हाँ-हाँ, साँप ही था... वहाँ... वहाँ बिस्तर पर..." घबराई हुई सोहणी के मुख से बमुश्किल शब्द निकल रहे थे, "मैं उधर जाती... वह भी उधर आ जाता। कभी इधर, कभी उधर... अभी आपके आने का खटका हुआ तो भाग गया।"
लक्खा सिंह ने हाथ में लाठी और टॉर्च लेते हुए पूछा, "किधर?... किधर गया?"
"उधर... उस तरफ़।" सोहणी ने घबराकर पिछवाड़े की ओर संकेत किया।लक्खा सिंह ने टॉर्च की रोशनी पिछवाड़े में फेंकी। सचमुच वहाँ साँप था। काला, लम्बा और मोटा साँप! दीवार पर चढ़ने की कोशिश करता हुआ।
"ठहर!" लक्खा सिंह के डोले फड़क उठे। उसने हाथ में पकड़ी लाठी घुमाकर दे मारी। एक पल को साँप तड़पा, फिर दीवार के दूसरी ओर गिर गया।
"जाएगा कहाँ बच के मेरे हाथों..." लक्खा सिंह टॉर्च और लाठी लिए दीवार पर चढ़ने लगा। तभी, सोहणी ने उसकी बाँह पकड़ ली।
"क्या करते हो जी... छुप गया होगा वह जंगल की झाड़ियों में। ज़ख्मी साँप वैसे भी ख़तरनाक होता है।"
जाने क्या सोचकर लक्खा सिंह ने अपना इरादा बदल दिया।"बच गया सा...ला, नहीं तो आज यहीं ढेर कर देता।"
उस रात सोहणी जब उससे लिपटकर सोने का यत्न कर रही थी, लक्खा सिंह उसके दिल की धड़कन साफ़ सुन रहा था। कितना डरा रखा था इस साँप ने। अब हिम्मत नहीं करेगा। क्या सोहणी सचमुच ही साँप से डर रही थी?
सुबह हल्की-हल्की बूँदाबाँदी होती रही। आकाश में बादल ही बादल थे। ठंड भी बढ़ गई थी। बारिश कुछ थमी तो लक्खा सिंह कारखाने पहुँचा।
सेठ दिल्ली से आया हुआ था।सेठ के एक ओर उसका ड्राइवर खड़ा था और दूसरी ओर काला कंबल ओढ़े प्रताप।
"क्या बात है प्रताप?" सेठ प्रताप से पूछ रहा था।
"कुछ नहीं सेठ जी, रात से तबीयत ठीक नहीं।"
"तबीयत ठीक नहीं? दवा ली? जा, जाकर आराम कर।" सेठ प्रताप से कह ही रहा था कि उसकी नज़र आते हुए लक्खा सिंह पर पड़ी।
"क्या हाल है लक्खा सिंह? कोई तकलीफ़ तो नहीं?"
"सब ठीक है सेठ जी, कोई तकलीफ़ नहीं।" पास आकर लक्खा सिंह ने कहा।
"कैसी है तेरी बीवी?... उसका दिल लगा कि नहीं?"
"ठीक है वह भी, पर..."
"पर क्या?"
"कुछ नहीं सेठ जी, साँप ने उसे तंग कर रखा था। मेरे पीछे घर में घुस जाता था। कल रात मेरे हाथ पड़ गया। वो ज़ोरदार लाठी मारी है कि अगर बच गया तो दुबारा घर में घुसने की हिम्मत नहीं करेगा।"
इधर लक्खा सिंह ने कहा, उधर कंबल लपेटे खड़े प्रताप के पूरे शरीर में कँपकँपी दौड़ गई और उसकी पीठ का दर्द अचानक तेज़ हो उठा।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” तथा भावना प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दुख” में संग्रहित )

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

कहानी-11



इतने बुरे दिन
सुभाष नीरव

इतने बुरे दिन ! गरीबी, बदहाली और फ़ाक़ाकशी के दिन ! औलाद के होते हुए भी बेऔलाद-सा होकर जीने को अभिशप्त ! बुढ़ापे में ऐसी दुर्गत होगी, ऐसे बुरे दिन देखने को मिलेंगे, उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
पिछले दो दिन से घर में खाने को कुछ नहीं था सिवाय ब्रेड के। दो दिन से बूढ़ा-बूढ़ी इसी से गुजारा कर रहे थे। कल रात जब ब्रेड के चार पीस बूढ़े ने बचाकर रखे थे तो उसके सामने यह प्रश्न फन फैलाकर खड़ा हो गया था- “इनके खत्म होते ही क्या होगा?” रातभर वह इसी प्रश्न से जूझता रहा था। लाला ने उधार देने से साफ इन्कार कर दिया था। पिछले कई दिनों से बूढ़ा काम की तलाश में मारा-मारा घूम रहा था, पर चाह कर भी चार पैसे कमाने का हीला नहीं ढूँढ़ पाया था। जब इस देश में नौजवान रोजगार के लिए मारे-मारे घूम रहे हों तो भला बूढ़ों को कौन पूछेगा !
अपनी इसी लाचारी और भुखमरी से तंग और परेशान होकर कल रात बूढ़े ने एक फैसला लिया था- घिनौना और कटु फैसला ! उसकी आत्मा इस फैसले से खुश नहीं थी। लेकिन वह क्या करता ? सब रास्ते बन्द पाकर एक यही रास्ता उसने खोज निकाला था जो उसे मुक्ति का द्वार प्रतीत होता था। अपने इस फैसले को उसने पत्नी से छुपा कर रखा।
सुबह दो पीस पानी में भिगोकर बूढ़े ने अपनी बूढ़ी पत्नी जो हर समय बिस्तर पर पड़ी रहती थी, को स्वयं अपने हाथों से खिलाए थे और शेष बचे दो पीस उसने शाम के लिए संभालकर रख दिए थे, ऐसी जगह जहाँ वे चूहों के आक्रमण से बचे रह सकें।
बूढ़ी की आँखें मुंदी थीं, शायद वह सो रही थी। बूढ़े ने स्वयं को घर से बाहर निकलने के लिए तैयार किया। उसने पानी का जग और गिलास बूढ़ी के सिरहाने रखा, पाँव में हवाई चप्पल पहनी और सोटी उठा, दरवाजे को हल्का-सा भिड़ा कर घर से बाहर हो गया।
बूढ़े ने जो सोच रखा था, उसे वह अपने इलाके में नहीं करना चाहता था। वहाँ अधिकांश लोग उसे जानते थे। परिचित लोगों के बीच वह ऐसा कैसे कर सकता है ?... उससे होगा भी नहीं। अपनी सोच को अंजाम देने के लिए उसने दूसरा इलाका चुना। इसके लिए उसे काफी चलना पड़ा था, जिसके कारण पैरों में दर्द होने लगा था और सांसें फूलने लगी थीं। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और चलता रहा। ‘चलना’ शब्द शायद उपयुक्त नहीं है, वह चल नहीं घिसट रहा था- सोटी के सहारे। बांयें पैर की चप्पल तकलीफ दे रही थी। उसमें पैर ठीक से फंसता नहीं था। ‘लेकिन, बार-बार रबड़ के निकल जाने से तो ठीक है’ बूढ़े ने मन ही मन सोचा। दरअसल, पुरानी और घिसी होने के कारण बांयें पैरे की चप्पल का अगला छेद चौड़ा हो गया था। दो कदम चलने पर ही रबड़ निकल जाती थी। कल ही उसने इसे अपने ढंग से ठीक किया था। उसने कहीं से पतली-लम्बी कील ढूँढ़ निकाली थी। कील को बार-बार निकलने वाले रबड़ के सिरे के आर-पार निकालकर इस प्रकार फिट किया कि रबड़ का निकलना बन्द हो जाए। अपने इस काम में वह सफल भी रहा था। रबड़ अब निकलती न थी किंतु चप्पल में पैर फंसाने में थोड़ा दिक्कत होती थी।
अब वह जहाँ खड़ा था, वह एक व्यस्त चौराहा था। सड़क पर वाहन तेज गति से दौड़ रहे थे। सड़क पार करते इधर-से-उधर, उधर-से-इधर भागते लोगों की भीड़ थी। वह चौराहे के एक कोने में सड़क के नज़दीक खड़ा हो गया। उसे यहीं पर अपने लिए गए फैसले को अंजाम देना सुविधाजनक प्रतीत हुआ। उसने अपना ढीला चश्मा जो बार-बार नीचे सरक आता था, ठीक किया और सड़क पर देखा। वाहन मोड़ पर और तेज गति पकड़ लेते थे। उसने खुद का तैयार किया, सोटी को कसकर पकड़ा और आगे बढ़ा कि तभी... उसके हाथ-पैर कांपने लगे। ‘नहीं-नहीं, उससे नहीं होगा यह सब... वह ऐसा नहीं कर सकता...’ उसकी हिम्मत जवाब दे गई। वह पीछे हटकर खड़ा हो गया। उसके हृदय की धड़कनें बढ़ गई थीं। वह हाँफ रहा था।
खड़ा-खड़ा वह स्वयं पर खीझता रहा। वह जो सोचकर घर से निकला था, वह उससे क्यूँ नहीं हो पाया। भूखों मरने से तो अच्छा है, वह अपने सोचे हुए काम को अंजाम दे। वह भी ... लेकिन, सचमुच उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी। ऐसा काम उसने ज़िंदगी में कभी नहीं किया था। करना तो दूर, इस बारे में सोचा तक नहीं था। कभी नौबत ही नहीं आई थी। जीवन के आखिरी पड़ाव पर ऐसा करना शायद किस्मत में लिखा था।
सामान्य होने में बूढ़े को कुछ समय लगा। उसने चेहरे पर कई दिनों से बढ़ी खुरदरी दाढ़ी पर हाथ फेरा, इधर-उधर देखा और बुदबुदाया, ‘नहीं, यह जगह ठीक नहीं है।’
वह फिर घिसटने लगा था। तेज धूप और गरमी में वह पसीना-पसीना हो उठा था, हलक सूख गया था और प्यास तेज हो उठी थी। प्यास ही क्यूँ, भूख भी सिर उठा रही थी। भूख को तो जैसे-तैसे वह मारता आ रहा था लेकिन, प्यास को रोक पाना संभव न होता था। पानी ही तो था जिससे भूख और प्यास दोनों को ही शान्त करने की लड़ाई वह गत दो दिनों से लड़ रहा था।
उसने इधर-उधर नल की तलाश में दृष्टि घुमाई। कहीं आस-पास नल नहीं दिखाई दिया। सड़क के पार पानी की रेहड़ीवाला खड़ा था लेकिन उसे देखकर भी बूढ़े ने अनदेखा कर दिया।
हाँफता-घिसटता हुआ वह अब स्थानीय बस-अड्डे पर आ पहुँचा था, जहाँ बहुत भीड़ थी। जाने कहाँ से लोग आ रहे थे, जाने कहाँ को जा रहे थे। रेलमपेल मचा था। लोग बसों से उतर रहे थे, लोग बसों में चढ़ रहे थे। यहाँ-वहाँ सामान-असबाब के साथ खड़े या बैठे थे।
एकाएक, बूढ़े ने सोचा, वह अपना सोचा हुआ काम चलती बस में भी तो कर सकता है। चलती बस में से...। उसने देखा, बाहर जाने वाले गेट पर कई बसें चलने को तैयार खड़ी थीं, सवारियों से ठसाठस भरीं। कई लोग खिड़की पर भी लटके हुए थे। वह धीमे-धीमे कदमों से उधर बढ़ा और सबसे अगली बस की खिड़की के पास जा खड़ा हुआ। बस चलने ही वाली थी। उसने अपने आप को तैयार किया। एक पल ठिठका, फिर सोटी पकड़े-पकड़े बस का डंडा पकड़ने का यत्न करने लगा। तभी सवारियों ने चिल्लाना शुरू कर दिया-
“अरे ओ बूढ़े ! कहाँ जाना है ?”
“इसमें बहुत भीड़ है, तू न चढ़ पाएगा... मरेगा गिरकर।”
“दूसरी बस में आ जा...।”
उसी समय कंडक्टर ने व्हिसिल दे दी और बस एक झटके से चल पड़ी। वह गिरते-गिरते बचा।
प्यास फिर सिर उठाने लगी थी। उसने नल की तलाश में इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। जल्दी ही उसे म्युनिसिपैल्टि का नल नज़र आ गया। शुअक्र था, उसमें पानी आ रहा था। बेशक धीमे-धीमे। वह देर तक नल से चिपका रहा।
पानी पी कर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा जो उसे ये दिन दिखा रही थी। बैठे-बैठे उसे अपने बेटों की याद हो आई जो अपने बीवी-बच्चों के संग दूसरे शहर में रहते थे, जिन्हें बूढ़े माँ-बाप की तनिक भी चिन्ता न थी। पिछले सात-आठ महीनों में एक बार भी झांक कर नहीं देखा था कि बूढ़ा-बूढ़ी जिंदा भी हैं या नहीं। पिछले माह पत्नी के अधिक बीमार हो जाने व दवा-दारू के लिए पैसे न होने पर, वह गया था बेटों के पास। किंतु, अपमानित होकर लौटना पड़ा था और लौटकर उसने कसम खाई थी कि जब तक सांस हैं, वह बेटों के आगे गिड़गिड़ाएगा नहीं। बेटों की याद आते ही उसके होंठ वितृष्णा में फैल जाया करते हैं। सहसा, बूढ़े का ध्यान बगल वाले पेड़ की ओर गया, जहाँ एक बूढ़ा और एक बूढ़ी बैठे थे। दोनों भीख मांग रहे थे। जब भी कोई उनके सामने से गुजरता, वे अपना-अपना कासा खनखनाने लगते। बूढ़े ने गौर किया, पूरे बस-अड्डे पर अनेक भिखारी थे। जवान, बूढ़े और बच्चे ! उनमें कई लंगड़े, लूले और अंधे थे या फिर वे लंगड़ा, लूला और अंधा होने का अभिनय कर रहे थे।
थके-टूटे पैरों को घसीटते हुए बूढ़े ने बस-अड्डे का एक चक्कर लगाया। फिर वह गेट के पास खड़ा हो गया।
दोपहर हो चुकी थी और वह अभी तक अपने लिए गए फैसले के अनुसार कुछ भी न कर पाया था। तभी, उसने अंतड़ियों में ऐंठन महसूस की। वह बुदबुदाया, ‘ऐसे कब तक चलेगा। कुछ हिम्मत तो करनी ही होगी।’ और अपने फैसले को अमली जामा पहनाने की कोशिश में वह अड्डे के अंदर तेजी से प्रवेश करती एक बस की ओर बढ़ा। बस उसके बिल्कुल करीब आकर रुकी। उतरने और चढ़ने को उतावली हुई सवारियों की धक्का-मुक्की में वह ओंधे मुँह गिर पड़ा। सोटी हाथ से छूट गई और चश्मा एक ओर जा गिरा। किसी ने उसे उठाकर खड़ा किया और साथ ही, चश्मा और सोटी भी उठाकर दी।
चश्मा टूटने से बच गया था। वह उसे आँखों पर बिठाते हुए सोटी थामे एक ओर जा खड़ा हुआ। गिरने से उसकी कुहनियाँ छिल गई थीं और दर्द कर रही थीं।
कुछ ही दूरी पर रेलवे स्टेशन था। भूख-प्यास से व्याकुल और थके-टूटे शरीर को घसीटता हुआ वह रेलवे स्टेशन तक ले आया था। कोई गाड़ी आकर लगी थी। रिक्शावाले सवारियों की ओर लपक रहे थे। प्लेटफार्म पर जाने वाले पुल पर भीड़ थी। वहाँ कई भिखारी कतार में बैठे भीख माँग रहे थे और ‘हे बाबू... रे बेटा... हे माई... तेरे बच्चे जिएं... भगवान तेरा भला करे...’ की गुहार लगा रहे थे।
पुल पर चढ़ना बूढ़े के वश की बात नहीं थी। वह नीचे ही खड़ा-खड़ा आते-जाते लोगों की भीड़ को देखता रहा। जहाँ वह खड़ा था, वहाँ से एक रास्ता पटरियों की ओर जाता था। कई लोग वहीं से होकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ रहे थे। वह भी उसी रास्ते से होता हुआ पटरियों को पार करके प्लेटफार्म पर चढ़ गया। ट्रेन अभी भी खड़ी थी। वह इंजन के पास जाकर खड़ा हो गया और जहाँ तक उसकी दृष्टि जाती थी, उसने रेल के डिब्बों पर नज़र दौड़ाई, खिड़कियों से झांकती सवारियों और प्लेटफार्म पर खड़े लोगों को देखा।
बूढ़े को यह जगह उपयुक्त लग रही थी। धीरे-धीरे वह अपने अंदर हिम्मत बटोरने लगा। इस बार उसके हाथ-पैर नहीं कांपे। उसे लगा, वह अपने भीतर पर्याप्त ताकत बटोर चुका है। अब उसे आगे बढ़कर... तभी, एक तेज सीटी की आवाज के साथ इंजन ने खिसकना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे रेल गति पकड़ती गई और एक के बाद एक डिब्बा उसके आगे से गुजरता चला गया। वह कुछ न कर पाया। जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रह गया मानो उसके पैर धरती से चिपक गए हों। प्लेटफार्म पर अब इक्का-दुक्का लोग रह गए थे। वह फिर असफल रहा था। घोर निराशा और हताशा के चिह्न उसके चेहरे पर स्पष्ट देखे जा सकते थे।
शाम होने को थी। उसे बूढ़ी बीमार पत्नी का ख्याल हो आया। मायूस-सा वह घर की ओर लौट पड़ा। दिनभर चलने और खड़ा रहने के कारण उसके पैर सूज गए थे और टांगें दुखने लगी थीं।
जैसे ही वह घर में घुसा, एक चूहा तेजी से बाहर की ओर भागा। उसे यूँ बाहर भागते देख बूढ़ा बुदबुदाया, ‘तुम भी घर छोड़कर भाग रहे हो ?... जाओ, यहाँ है ही क्या जो तुम रहना पसंद करोगे।’ सहसा, उसे छिपाकर रखी ब्रेड का ख्याल हो आया- ‘कहीं इसने...’। बूढ़े ने लपक कर वहाँ हाथ मारा, जहाँ उसने ब्रेड के दो सूखे पीस छुपा कर रखे थे। पीस अपनी जगह सही-सलामत थे। बूढ़े ने राहत की सांस ली।
तभी, बूढ़ी ने उसकी ओर देखा। वह फुसफुसाई, “कहाँ चले गए थे?... मेरा दम निकलने को है, कुछ खाने को दो...।”
बूढ़ा बचे हुए ब्रेड के पीस भिगोकर बूढ़ी के मुँह में डालने लगा, “ले, बस यही हैं, इन्हें खा ले।”
“तुमने कुछ खाया ?”
“....” बूढ़ा कुछ नहीं बोला, उसकी आँखों में आँसू थे।
“मैंने पूछा, तुमने कुछ खाया ?”
बूढ़ा अब सिसकने लगा था। बूढ़ी के शरीर में हरकत हुई। वह अधलेटी-सी होकर बिस्तर पर बैठ गई।
“नहीं, तुम भी खाओ।” अपने मुख की ओर बढ़ा हुआ बूढ़े का हाथ उसने अपने हाथ से पीछे की ओर धकेल दिया। बूढ़े ने भीगी ब्रेड की बुरकी भरी और शेष बची ब्रेड बूढ़ी के मुख की ओर बढ़ा दी। तभी, उसकी रुलाई फूट गई, “मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था... इतनी मेहनत किसी ओर काम के लिए की होती तो शायद मैं कामयाब हो गया होता... मैंने एक गलत फैसला लेकर सारा दिन बर्बाद कर दिया।”
“फैसला ?... कैसा फैसला ?” बूढ़ी ने घबराकर पूछा।
“मैं सारा दिन भूखा-प्यासा शहर में घूमता रहा, पर जो सोचकर निकला था, वह नहीं कर पाया... हिम्मत ही नहीं पड़ी... मैं ... मैं... लोगों के आगे हाथ नहीं फैला पाया... मैं भीख नहीं मांग पाया...” कहते-कहते बूढ़े ने अपना चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में छिपा लिया।
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” तथा भावना प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दुख” में संग्रहित )

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

कहानी-10


वेलफेयर बाबू
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

'राम-राम विलफेयर बाबू !'
'राम-राम !' हरिदा दूध लेकर लौट रहे थे। रुककर उन्होंने राम-राम करने वाले को देखा। बद्री था। उसे देख, सहसा उन्हें कुछ याद आ गया।
'अरे, सुन !' बद्री को रोककर वह उसके नज़दीक गए और बोले, 'देख बद्री, तेरे घर के पिछवाड़े गंदगी बहुत बढ़ गई है आजकल। झाड़ भी बहुत उग आया है। साफ क्यों नहीं करता उसे ?... तुझे मालूम है, इससे मक्खी-मच्छर बढ़ते हैं। अरे, जहाँ रहते हो, कम-से-कम वह जगह तो साफ-सुथरी रखो।'
बद्री को क्या मालूम था कि सुबह की राम-राम के बदले में ‘विलफेयर बाबू’ का लिक्चर सुनना पड़ेगा।
'जी... वक्त नहीं मिला। एक-दो रोज में साफ कर दूँगा।'
'ठीक है। परसों तक सब साफ हो जाए,' कहकर हरिदा आगे बढ़े तो बद्री ने राहत की साँस ली, 'शुक्र है, जल्दी ही लिक्चर खत्म हो गया, नहीं तो...।'

हरिदा सर्वप्रिय कालोनी में वेलफेयर बाबू के नाम से ही जाने जाते हैं। यह नाम उन्हें इसी कालोनी के लोगों द्वारा दिया गया है। अब तो कालोनी का बच्चा-बच्चा उन्हें इसी नाम से जानता है। यहाँ तक कि पिछले डेढ़-दो साल से तो वह खुद अपना नाम भूल-सा बैठे हैं। कोई पुराना परिचित जब उन्हें हरिदा कहकर बुलाता है तो क्षणभर के लिए वह सोच में पड़ जाते हैं और पुकारने वाले का मुँह ताकते रह जाते हैं।
एक प्राइवेट कंपनी में हैड-क्लर्क थे- हरिदा। सेवा-निवृत्त होने से दो वर्ष पूर्व ही प्लॉट खरीदा था उन्होंने- ‘सर्वप्रिय कालोनी’ में। जिस समय उन्होंने मकान बनवाया, उस वक्त दो-चार मकान ही बने थे यहाँ। आगे-पीछे, दूर-दूर तक उजाड़ था। पत्नी कहा भी करती, 'कहाँ जंगल-बियाबान में मकान बनवाया ! दूर-दूर तक न आदम, न आदम की जात।... मुझे तो डर लगता है यहाँ।'
इस पर हरिदा समझाते हुए कहा करते, 'शुरू-शुरू में सभी कालोनियाँ ऐसी ही होती हैं भागवान ! एक-डेढ़ साल में देखना यहाँ मकान ही मकान दिखाई देंगे। और, आजकल जमीन शहर के बाहर ही खाली है। खाली भी और सस्ती भी। शहर में तो जमीन हाथ नहीं रखने देती।'
कालोनी में जब भी कोई नया मकान बनना आरंभ होता, हरिदा स्वयं जाकर मकान मालिक से मिलते, उन्हें अपना परिचय देते। घर में लाकर चाय-पानी पिलाते और कहते, 'मकान बनते ही आप लोग आ जाइए इधर। आपके आ जाने से रौनक बढ़ जाएगी।'

और फिर, देखते ही देखते एक दिन सर्वप्रिय कालोनी में मकान ही मकान नज़र आने लगे। लोग आकर रहने लगे तो सुनसान-सी कालोनी जीवंत हो उठी। तब हरिदा ने खुश होकर पत्नी से कहा था, 'देखा ! कालोनी कितनी जल्दी आबाद होती है आजकल।'
लेकिन, धीरे-धीरे हरिदा ने देखा, सर्वप्रिय कालोनी सर्वप्रिय कहलाये जाने लायक नहीं है। लोगों के आकर रहने से बहुत गंदगी बढ़ने लगी थी। नालियों के अभाव में घरों का गंदा पानी, गलियों-रास्तों में जहाँ-तहाँ फैलकर सड़ता रहता था और गंधाने लगता था। लोगों को आने-जाने में भी काफी परेशानी उत्पन्न होने लगी थी। कूड़े-कचरे के ढेर जगह-जगह छोटे-छोटे पर्वतों का रूप धारण करने लगे थे। कालोनी के बड़े लोग तो दिशा-मैदान के लिए दूर खेतों अथवा गंदे नाले की ओर निकल जाते किन्तु बच्चे तो जहाँ-तहाँ बैठकर गंदा फैलाते रहते।
कालोनी में बढ़ी इस गंदगी को देख हरिदा चिंतित और दुखी थे, ‘कौन कहेगा इसे सर्वप्रिय कालोनी ?... लोग बढ़ती गंदगी के प्रति जरा भी चिंतित नज़र नहीं आते।’

एक दिन उन्होंने मन-ही-मन बीड़ा उठा लिया, ‘वह अपनी इस कालोनी को गंदगी से बचाएंगे।’
घर पर वह अकेले थे। औलाद थी नहीं। पत्नी थी और वह थे। सेवा-निवृत्त हो जाने के बाद से कोई काम-धाम भी नहीं रहा था। बस, उन्होंने घर से बाहर निकलकर कालोनी के लोगों से मिलना-जुलना प्रारंभ कर दिया। वह लोगों को इकट्ठा कर समझाने लगे। लोग उनकी बातें सुनते, सहमत भी होते, पर उनकी बातों को अमल में न लाते। प्रकाश बाबू, वर्मा जी, घोष साहब और पांडे जी जैसे कुछ लोग थे जो कुछ करना चाहते थे, पर कर नहीं पा रहे थे।
दूसरी ओर कालोनी में दूबे, हरिहर, गणेसी और असलम जैसे लोग भी थे जो हरिदा की बातों को फालतू की बकवास समझते और जब तब उनका मजाक उड़ाने को तैयार रहते। लेकिन, हरिदा ने तो हिम्मत न हारने का मन-ही-मन संकल्प लिया था। उन्हें जहाँ भी अवसर मिला, वह लोगों को घेर-घारकर समझाने लगते, “देखो, आप लोगों का एक सपना रहा होगा।... हर आदमी का होता है कि उसका एक अपना मकान हो, प्यारा-सा ! और अब आपका सपना पूरा हुआ है... ईश्वर की कृपा से आपका अपना मकान है... कितनी चाहतों और हसरतों से खून-पसीना एक कर आपने अपने सपने को साकार किया है। क्या आप चाहेंगे कि आप जब कभी अपने दोस्त, रिश्तेदार या सगे-संबंधी को अपने घर पर बुलाएं तो वह नाक चढ़ाकर आपसे कहे- अरे भाई, कैसी गंदी कालोनी में मकान बनवाया है आपने। नहीं न ? अपनी इस कालोनी को साफ-सुथरा हम-तुम मिलकर ही रख सकते हैं। गंदगी होगी तो बीमारियाँ बढेंगी... बीमारियाँ बढेंगी तो आज के मँहगाई के जमाने में हमें अपनी अनेक अहम जरूरतों का गला घोंटकर डाक्टरों की जेबें भरनी पड़ेंगी।...”
हरिदा जैसे ही बीच में कुछेक पल के लिए बोलना बन्द करते, गणेसी अजीब-सी मुद्रा बनाकर ‘टुणन...टुन’ बोल उठता और सभी लोग ठठाकर हँस पड़ते।
परन्तु, हरिदा इस सबसे बेअसर रहते और उनका कहना जारी रहता, “और भाइयो, गंदगी से बचने के लिए हमें-तुम्हें मिलकर ही उपाय करने होंगे। इस अन-अप्रूड कालोनी में सरकार तो कुछ करने से रही। हमें ही अपनी गलियों में नालियों का निर्माण करना होगा, ताकि हमारे घरों का बेकार पानी यहाँ-वहाँ फैलकर गंदगी न फैलाए।”
“पर नालियों का पानी जाएगा कहाँ ?” कोई प्रश्न करता।
“कालोनी के बाहर गंदे नाले में... और कहाँ।”
“इसके लिए रुपया कहाँ से आएगा ?” फिर प्रश्न उछलता।
“चंदा करके... हर घर इसके लिए चंदा देगा।” हरिदा का उत्तर होता। चंदे के नाम पर चुप्पी व्याप जाती। लोग चुपचाप इधर-उधर खिसकने लगते।
पर हरिदा मायूस नहीं हुए। वह तो दृढ़-संकल्प किए थे। उन्हें भीतर-ही-भीतर विश्वास था कि एक दिन वह लोगों को इसके लिए तैयार कर ही लेंगे। वह चंदे के लिए स्वयं घर-घर गए। कुछ का सहयोग मिला, कुछेक ने टका-सा जवाब दे दिया। कुछ ने चंदा हड़प जाने वालों के किस्से सुनाकर उन्हें बुरा-भला भी कहा। पर हरिदा ने बुरा नहीं माना। वह तो ठान बैठे थे। एक दिन में पहाड़ नहीं खोदा जा सकता, यह वह अच्छी तरह जानते थे। यह कार्य धीमे-धीमे ही होगा। लोगों को समझाना होगा, विश्वास दिलाना होगा। यह सब वह अपने लिए ही नहीं कर रहे हैं, इसमें सबका ही हित है।
कुछ दिन की दौड़-धूप के बाद हरिदा का साथ कुछ लोगों ने देना आरंभ कर दिया तो उन्हीं की देखादेखी अन्य लोग भी आगे आए। कालोनी के आठ-दस घरों को छोड़कर, सभी ने नालियों के निर्माण हेतु चंदा दिया। एकत्र हुए चंदे के पैसों से कालोनी में नालियों का निर्माण हुआ तो जहाँ-तहाँ फैले पानी से लोगों को निजात मिली।
इस छोटी-सी सफलता से हरिदा प्रसन्न हुए। कुछ उत्साह भी बढ़ा। अब उन्होंने आगे के कार्यक्रम निश्चित किए। जगह-जगह लगे कूड़े-कचरे के ढेर और जहाँ-तहाँ उगे झाड़ों को साफ करना था। यह अकेले व्यक्ति का काम नहीं था, इसके लिए भी कालोनी के लोगों का सहयोग अपेक्षित था। यह कार्य श्रमदान के जरिए ही पूरा हो सकता था। इन्हीं दिनों, स्कूल-कालेज में छुट्टियाँ थीं। हरिदा ने कुछ छात्रों और कुछ लोगों की मदद से एक दिन ‘सफाई अभियान’ शुरू कर दिया। जगह-जगह लगे कूड़े-कचरे के ढेरों को साफ किया गया। गलियों के गड्ढ़े भरे गए। झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंका गया। गलियों में मिट्टी डालकर उन्हें ऊँचा किया गया।
हरिदा मन ही मन बेहद खुश थे। खुश भी और उत्साहित भी। उन्होंने जो बीड़ा उठाया था, वह आहिस्ता-आहिस्ता पूरा हो रहा था। सर्वप्रिय कालोनी को सर्वप्रिय बनाकर ही दम लेंगे, वह मन-ही-मन सोचते। पर यह तभी संभव था जब कालोनी का हर व्यक्ति उनका साथ दे, अपनी जिम्मेदारी को समझे। कालोनी के आठ-दस लोग जो असहयोग की मुद्रा अपनाए थे, हरिदा चाहते थे कि वे भी उनका साथ दें। असलम, गणेसी, दूबे, हरिहर और मंगल आदि को हरिदा जब-तब समझाने की कोशिश करते, परंतु वे तो जैसे चिकने घड़े थे। कुछ असर ही नहीं होता था उन पर !
असलम और गणेसी तो अपनी-अपनी तरकश में हरिदा के लिए व्यंग्य बाण सदैव तैयार रखते और अवसर पाते ही हरिदा की ओर चला देते। दरअसल, कालोनी में यही दो व्यक्ति थे जिनकी शह पर कुछ अन्य लोग असहयोग की मुद्रा अपनाए थे।
गणेसी ने पिछले ही वर्ष मकान बनाया था और एक छोटा कमरा अपने पास रखकर शेष किराये पर उठा दिया था। सारा दिन सुरती फांकने और इधर-उधर बैठकर वक्त काटने के अलावा उसके पास कोई काम न था। असलम जिसने गणेसी के पड़ोस में मकान बनाया था, गणेसी का दोस्त था। असलम के कोई औलाद नहीं थी। पत्नी बहुत पहले मर चुकी थी। दूसरी शादी उसने की नहीं। लेकिन गणेसी की तरह उसने अपना मकान किराये पर नहीं चढ़ाया था। पूरे मकान में अकेला ही रहता था। प्रायः वह कहता, ”मेरी कौन-सी आस-औलाद है। शहर में रहता हूँ तो बना लिया मकान। भाई का परिवार गाँव में खेती-बाड़ी करता है। गाँव छोड़कर वे शहर आना नहीं चाहते। भतीजा-भतीजी हैं, बड़े होकर रहना चाहेंगे तो रह लेंगे।”
एक दिन असलम ने हरिदा से पूछा, “विलफेयर बाबू, कालोनी खातिर बड़ा काम कर रहे हैं आप। कौन पार्टी से हैं आप ?”
“पार्टी ?” हरिदा असलम के प्रश्न पर चौंके लेकिन तुरंत ही कहा, “नहीं, असलम भाई, मेरी कोई पार्टी-वार्टी नहीं है।”
“फिर कोई सवारथ होगा ?”
“स्वार्थ ? कैसा स्वार्थ !” दूसरा प्रश्न भी चैंकाने वाला था लेकिन हरिदा ने फिर हँसते हुए जवाब दिया, “मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, असलम भाई। बस, स्वार्थ अगर है तो इतना कि जहाँ जिस कालोनी में हम-तुम रहते हैं, वह साफ-सुथरी हो… लोग आपस में मिलकर इसके विकास के लिए कार्य करें।”
“बिन सवारथ आजकल कोई जन-सेवा नहीं करता, विलफेयर बाबू ! आप ठहिरे रिटायर्ड आदमी ! आप जैसा आदमी पहले छोटी-मोटी कालोनी से ही अपनी पुलिटिक्स शुरू करता है। नेता बनने के आजकल बहुत फायदे हैं न !... जहाँ थोड़ी-बहुत लोकप्रियता मिली नहीं कि बस, कउंसलर-फउंसलर के सपने देखने लगते हैं। अब ई पुलिटिक्स साली लोगों का दिमाग खराब किए है, लोगों का क्या कसूर ?”
हरिदा एकाएक ठहाका लगाकर हँस पड़े, असलम की बातों पर। बोले, “अरे, नहीं असलम भाई, मेरा कोई इरादा नहीं है, काउंसलर आदि बनने का।”
“शुरू में सब इहि कहत हैं विलफेयर बाबू...” गणेसी सुरती फाँकते हुए बोला और फिर उसने सुरती वाली हथेली असलम की ओर बढ़ा दी। असलम ने चुटकी भरी और उसे निचले होंठों में दबाकर बोला, “अगर चुनाव-उनाव लड़ने का इरादा नहीं तो काहे दौड़-धूप किए रहते हो ?” असलम ने समझाने के लहजे में कहना प्रारंभ किया, “देखिए विलफेयर बाबू, आज की दुनिया में अपने काम से ही मतलब रखना चाहिए। सरबप्रिय को सरबप्रिय बनाने का ठेका आपने काहे उठा रखा है ?”
हरिदा समझ रहे थे कि इतनी आसानी से ये लोग समझने वाले नहीं हैं। बोले, “ठेका लेने की बात तो मैं नहीं कहता, लेकिन आप लोग साथ दो या न दो, पर मैं तो सर्वप्रिय के लिए जो बन पड़ेगा, करता रहूँगा। मैंने इस कालोनी में आप लोगों से बहुत पहले मकान बनवाया था, तब जब यहाँ जंगल-बियाबान था।... बस, समझ लो, इस कालोनी से लगाव हो गया है मुझे।”
तभी, देश में चुनाव के दिन आ गए। वोटों के चक्कर में सरकार ने अनअप्रूड कालोनियों को पास करना शुरू कर दिया। सर्वप्रिय भी पास हो गई। कालोनी के लोग खुश थे। सबसे अधिक हरिदा।
चुनाव के बाद कालोनी के कुछ लोगों ने वेलफेयर एसोसिएशन बनाने का प्रस्ताव रखा तो दस-बारह लोगों को छोड़कर सभी तैयार हो गए। एसोसिएशन बनी। एसोसिएशन के लिए अध्यक्ष, महामंत्री तथा सदस्यों का चुनाव किया गया। पांडेय जी को अध्यक्ष और हरिदा को महामंत्री पद हेतु चुना गया।
असलम ने हरिदा को बधाई दी और साथ ही कहा, ”आ गए न विलफेयर बाबू लाइन पर... हमने तो पहले ही कहा था, ये पार्टी पुलिटिक्स का नशा यूँ ही नहीं उतरता। आज एसोसिएशन के महामंतरी बने हैं, कल कुछ और भी बन जाइएगा। लगे रहिए बस लाइन पर।”
हरिदा असलम के व्यंग्य पर नाराज नहीं हुए। बोले, “असलम भाई, मुझे पोलिटिक्स-वोलिटिक्स कुछ नहीं करनी है। मैं तो कालोनी के लोगों और कालोनी की निःस्वार्थ सेवा करना चाहता हूँ, बस।”
और सच में, सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन के महामंत्री बनने के बाद तो हरिदा और अधिक सक्रिय हो उठे। कमेटी के दफ्तर में आए दिन उनका चक्कर लगने लगा। अब वे कई एप्लीकेशन्स लिखकर ले जाते और पुरानी दी गई एप्लीकेशन्स के बारे में तहकीकात करते कि क्या हुआ ? लोगों के छोटे-मोटे काम करवाने में सदैव आगे रहते। किसी को बिजली का कनेक्शन नहीं मिल रहा तो उसको संग लेकर बिजली दफ्तर में जा रहे हैं। किसी को सीमेंट मिलने में दिक्कत हो रही है तो उसे सीमेंट दिलवाने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। अखबारों में सर्वप्रिय कालोनी की समस्याओं पर पत्र छपवा रहे हैं। उनकी लिखा-पढ़ी से कालोनी में बिजली के खंभे लगे, कच्ची सड़कें पक्की बनीं और सार्वजनिक “शौचालय बने। नगर निगम ने कालोनी में एक प्राथमिक पाठशाला और एक डिस्पेंसरी खोलने की घोषणा भी कर दी। यह सब हरिदा की लगन और तत्परता से हुआ।
कालोनी के लोग भी आदर करते थे वेलफेयर बाबू का। किसी के घर पर बच्चे का मुंडन है या जन्म दिन, लड़की की शादी है या लड़के की, अखंड-पाठ या भजन-कीर्तन, वेलफेयर बाबू को अवश्य याद किया जाता और वह सहर्ष सम्मिलित भी होते। पहुँचने में जरा देरी क्या होती कि लोग ‘वेलफेयर बाबू नहीं आए’, ‘वेलफेयर बाबू को नहीं बुलाया क्या ?’ आदि प्रश्न करते दिखाई देते।
अब कालोनी में न पानी की दिक्कत थी, न बिजली की। बस-सेवा भी सुबह-शाम के अलावा अब दिनभर रहने लगी थी।

हरिदा शाम के समय घर के बाहर खड़े थे कि असलम सामान उठाए बस-स्टैंड की ओर जाता दिखाई दिया।
“क्यों असलम भाई, कहाँ की तैयारी हो गई ?”
“गाँव जा रहे हैं विलफेयर बाबू, दो महीने के लिए।” असलम ने रुककर जवाब दिया, “आजकल आप बहुत व्यस्त हैं, विलफेयर बाबू। लगे रहिए... नगर निगम के अब की चुनाव हों तो खड़े हो जाइएगा आप भी। खुदा कसम, जरूर जीतिएगा आप।” कहकर असलम बस-स्टैंड की ओर बढ़ गया। हरिदा खड़े-खड़े सोचते रहे असलम के विषय में - कैसा आदमी है यह भी !
जब से कालोनी के निकट एक हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट बने हैं, मार्किट आदि की सुविधा के अलावा अन्य कई सुविधाएं भी कालोनी वालों को मिलने लगीं। यही नहीं, चार-पाँच साल पहले शहर से कटी हुई यह कालोनी अब शहर से बिलकुल जुड़-सी गई थी।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन हरिदा के ऊपर जैसे गाज गिरी। वह स्तब्ध रह गए। वह समझ ही नहीं पाए एक पल के लिए कि यह उनके साथ क्या होने जा रहा है !... ऐसा कैसे हो सकता है ?... फिर स्वयं से ही जैसे बोले उठे, “ऐसा कैसे हो सकता है ?... अंधेरगर्दी है क्या ? वह शहर के विकास प्राधिकरण के आफिस जाएंगे और पूछेंगे- यह कैसे हो सकता है ?”
कालोनी के जिस किसी व्यक्ति ने भी सुना, हत्प्रभ रह गया- ‘यह वेलफेयर बाबू के संग क्या हुआ ?’ हर कोई दौड़ा-दौड़ा उनके पास आया, यह जानने के लिए कि जो कुछ उन्होंने सुना है, क्या वह वाकई सच है ?

हरिदा को शहर विकास प्राधिकरण की ओर से नोटिस मिला था। उनका मकान कालोनी के नक्शे से बाहर दर्शाया गया था। और जिस जमीन पर वह बना था, उसे सरकारी जमीन घोषित किया गया था। नोटिस में कहा गया था कि एक माह के भीतर वह अपना इंतजाम दूसरी जगह कर लें अन्यथा मकान गिरा दिया जाएगा।
हरिदा और उनकी पत्नी नोटिस पढ़कर भूख-प्यास सब भूल बैठे। यह क्या हो गया? बैठे-बिठाये ये कैसा पहाड़ टूट पड़ा उन पर ? हरिदा भीतर से दुःखी और परेशान थे- यह सरासर अंधेरगर्दी और अन्याय है। पाँच साल के बाद उन्हें होश आ रहा है कि यह सरकारी जमीन है। नक्शे से बाहर दिखा दिया उनका मकान ! कहते हैं, एक माह तक खाली कर दूसरी जगह चले जाओ। मकान गिराया जाएगा।
“हुंह ! गिराया जाएगा। कैसे गिरा देंगे ! पूरी कालोनी खड़ी कर दूँगा अपने मकान के आगे।” वह गुस्से में बुदबुदाने लगे।
शाम को वह मकान की छत पर टहलते रहे और दूर-दूर तक बने कालोनी के मकानों को देखते रहे। उनका मकान कालोनी के पूर्वी कोने में है। एक तिकोनी खुली जगह में उनका ही अकेला मकान है। उनके मकान और कालोनी के बीच एक पतली सड़क है। सामने ही हाउसिंग सोसायटी के फ्लैट बने हैं। बीच की खाली जगह पर शहर विकास प्राधिकरण सिनेमा-कम-शापिंग सेंटर बना रहा है। टहलते हुए वह फिर बुदबुदाने लगे- ‘पूरी कालोनी में एक उन्हीं का मकान दिखा उन्हें ! वह भी देखते हैं, कैसे गिराते हैं उनका मकान !”
अंधेरा घिरने लगा तो वह नीचे उतर आए। नीचे आकर चुपचाप बिस्तर पर लेट गए। दिमाग में जैसे कोई चकरी-सी घूम रही थी।
इस बीच सर्वप्रिय वेलफेयर एसोसिएशन के कुछ लोगों को संग लेकर वह कहाँ-कहाँ नहीं दौड़े-फिरे। शहर विकास प्राधिकरण के अधिकारियों से मिले। चेयरमैन से भी। अपने इलाके के काउंसलर और एम.पी. के पास जाकर भी गुहार लगाई। जहाँ-जहाँ जा सकते थे, गए। पर घर लौटकर उन्हें लगता था कि उनकी यह दौड़-धूप सार्थक नहीं होने वाली।
इलाके के काउंसलर और एम.पी. का दबाव पड़ने से प्राधिकरण ने हरिदा को मुआवजा देना स्वीकार कर लिया तो वह बौखला उठे, “मुआवजा देंगे ! अरे, छह सौ रुपये गज से भी ऊपर का रेट है यहाँ और तुम दोगे मुझे बहत्तर रुपये गज के हिसाब से मुआवजा ! मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा मुआवजा... मैं लडूंगा... इस अंधेरगर्दी के खिलाफ लड़ूंगा।“
अब हरिदा को न खाना अच्छा लगता, न पीना। रात-रात भर जागकर न जाने क्या सोचते रहते। पत्नी अलग दुःखी थी। वह कहती, “दुःख के पहाड़ किस पर नहीं टूटते। पर क्या कोई खाना-पीना छोड़ देता है ? खाओगे-पिओगे नहीं तो लड़ोगे कैसे ?” कालोनी के लोगों को उनसे पूरी सहानुभूति थी। वे उनके सम्मुख सरकार की आलोचना करते। पांडे जी और कुछ अन्य लोगों ने हरिदा को मुआवजा ले लेने की सलाह दी। उनका विचार था कि सरकार से लड़ा नहीं जा सकता। उन्हें दूसरी जगह प्लाट लेकर मकान बना लेना चाहिए, या बना बनाया खरीद लेना चाहिए। इसी कालोनी में मिल भी जाएगा, ठीक रेट पर।
पत्नी समझाती, “आजकल रिश्वत का बोलबाला है। अफसरों को कुछ दे-दिलाकर खुश कर दो तो शायद...।” चुपचाप सुनते रहते हरिदा। ‘हाँ-हूँ’ तक नहीं करते।
चिंता और भय के तले दिन व्यतीत होते रहे और एक मास पूरा हो गया। फिर दूसरा। बीच-बीच में हरिदा प्राधिकरण आफिस में जाकर पता करते रहे- यही मालूम होता कि उनके प्रार्थनापत्र पर विचार किया जा रहा है, लेकिन उम्मीद बहुत कम है।
धीरे-धीरे तीन माह बीत गए तो हरिदा ने सोचा, शायद उनके प्रार्थनापत्र पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया गया है। इसीलिए मामला ठंडा पड़ गया है और उनका मकान गिराने का इरादा सरकार ने छोड़ दिया है। कालोनी के लोग भी हरिदा को तसल्ली देते- “अब कुछ नहीं होगा, विलफेयर बाबू ! होना होता तो अब तक दूसरा नोटिस आ गया होता या आ गए होते वे मकान गिराने।”
धीरे-धीरे हरिदा चिंतामुक्त होने लगे थे कि एक दिन दलबल के साथ प्राधिकरण के अधिकारी आ पहुँचे- दैत्याकार बुलडोजर लेकर ! सुबह का वक्त था। हरिदा नाश्ता करके उठे ही थे। प्राधिकारण के अधिकारियों ने आगे बढ़कर उन्हें घंटेभर की मोहलत दी, सामान निकालकर बाहर रख लेने के लिए। पर हरिदा तो स्तब्ध और सन्न् रह गए थे। फटी-फटी आँखों से वह अपने मकान के बाहर खड़ी भीड़ को देखते रहे। कुछ सूझा ही नहीं, क्या बोलें, क्या करें। चीखें-चिल्लाएं या रोएं। पत्नी घबराहट और भय में रोने- चिल्लाने लगी थी और बदहवास-सी कभी बाहर आती थी, कभी घर के अंदर जाती थी। पुलिस वालों ने घेरा बना रखा था। कालोनी के किसी भी आदमी को अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था। पांडे जी, प्रकाश बाबू और शंकर ने आगे बढ़कर विरोध किया तो अधिकारियों ने कहा, “हमने इन्हें पहले ही काफी समय दे दिया है। यह सरकारी जमीन है। मकान तो अब गिरेगा ही। आप हमारे काम में दखल न दें और हमें अपना काम करने दें।” यही नहीं, पुलिस वालों ने उन्हें खदेड़कर घेरे से बाहर भी कर दिया था।
अधिकारीगण हरिदा को फिर समझाने लगे। वे कुछ भी नहीं सुन रहे थे जैसे। संज्ञाशून्य से बस अपलक देखते रहे।
घंटेभर की अवधि समाप्त होते ही अधिकारियों ने पुलिस की मदद से सामान बाहर निकालना आरंभ कर दिया। हरिदा की पत्नी छाती पीट-पीटकर रोने लगी। सारा सामान निकालकर बाहर खुले में रख दिया गया। पुलिस वालों ने हरिदा और उनकी पत्नी को मकान से बाहर खींच लिया। एकाएक हरिदा चीख उठे, “नहीं, तुम मेरा मकान नहीं गिरा सकते। पहले मुझ पर चलाओ बुलडोजर ! फिर गिराना मेरा मकान !... जीते-जी नहीं गिरने दूंगा मैं अपना मकान।” और वह बुलडोजर के आगे लेट गए। सिपाहियों ने उन्हें उठाकर एक ओर किया तो वह फिर चीखने-चिल्लाने लगे, “मैं तुम सबको देख लूँगा... मैं हाईकोर्ट में जाऊँगा... तुम मेरा मकान नहीं गिरा सकते।” और फिर वह विक्षिप्त -से होकर गालियाँ देने लगे। पत्थर उठाकर फेंकने लगे। सिपाहियों ने उन्हें आगे बढ़कर दबोच लिया।
हरिदा चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे लेकिन उनकी चीख-चिल्लाहट नक्कारखाने में तूती की आवाज-सी अपना दम तोड़ रही थी। वह अवश थे, असहाय थे। कोई साथ नहीं दे रहा था। कोई दीवार बनकर खड़ा नहीं हो रहा था, इस अन्याय के विरुद्ध ! पूरी कालोनी शांत थी, हलचल विहीन ! डरी-डरी, सहमी-सी। बस, पुलिस घेरे के बाहर खड़ी तमाशा देखती रही।
देखते-ही-देखते, बुलडोजर ने हरिदा का मकान धराशायी कर दिया। ‘यह जमीन सरकारी है’ का बोर्ड भी गाड़ दिया गया वहाँ पर।
तभी, असलम गाँव से लौटा था। बस से उतरा तो वेलफेयर बाबू के घर के बाहर भीड़ देखकर हैरत में पड़ गया। आगे बढ़कर देखा तो अवाक् रह गया वह। वेलफेयर बाबू का मकान मलबे में तब्दील हो चुका था। पुलिस और प्राधिकरण के अधिकारी अब जाने की तैयारी में थे। असलम ने देखा, वेलफेयर बाबू की पत्नी रो-रोकर बेहाल हो रही थी और कह रही थी, “देख लिया, देख लिया आपने ! बड़ा गुमान था न आपको कालोनी के लोगों पर ! कहते थे- दीवार बनकर खड़े हो जाएंगे। अरे, कोई नहीं आता, मुसीबत की घड़ी में आगे... सब दूर खड़े होकर तमाशा देखते रहे... हे भगवान ! कहाँ जाएंगे अब हम ?” और वह मुँह में साड़ी का पल्लू दबाकर रोने लगी।
असलम ने हाथ में उठाया सामान वहीं जमीन पर रखा और वेलफेयर बाबू की पत्नी के निकट आकर बोला, “आप ठीक कहती हैं, भाभीजान ! जिन विलफेयर बाबू ने बिना स्वारथ इस कालोनी के लिए रात-दिन एक किया, जो दौड़-दौड़कर लोगों का काम करते रहे, उन्हीं का मकान इनके सामने टूटता रहा और ये लोग चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देखते रहे। कितने मतलबी और स्वारथी हैं इह लोग...”
हरिदा मकान के मलबे के पास खड़े होकर पथराई आँखों से अपनी तबाही का मंजर देख रहे थे और सोच रहे थे- यह कैसा अंधड़ था जो अभी-अभी आया था और उनका सबकुछ तहस-नहस कर गया।
असलम ने आगे बढ़कर पीछे से उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “मेरा मकान खाली पड़ा है, विलफेयर बाबू ! चलिए, जब तक जी चाहे, चलकर रहिए।”
हरिदा ने मुड़कर असलम की ओर देखा। एक पल टकटकी लगाए देखते रहे पनीली आँखों से असलम की ओर। सहसा, उनके होंठ कांपे, नथुने हिले और वह वहीं ईंटों के ढेर के पास बैठ फूट-फूटकर रोने लग पड़े।

( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” में संग्रहित )

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

कहानी- 9



लड़कियों वाला घर
सुभाष नीरव


मिसेज़ शर्मा ने कब सोचा था कि किराये का मकान छोड़ सरकारी मकान में आने की खुशी इतनी जल्दी पंख लगाकर ‘फुर्र...’ हो जाएगी। जिस सरकारी कॉलोनी में उन्हें मकान अलॉट हुआ है, उसमें टाइप- टू क्वार्टरों के दोमंजिलें ब्लॉक हैं। ये क्वार्टर बाबू किस्म के लोगों को आवंटित हैं। वैसे इनमें असली मालिक कम, किरायेदार अधिक हैं। उनके क्वार्टर और मेन रोड के बीच एक पतली पक्की सड़क है जिस पर मेन रोड पर चलने वाले ट्रैफिक से भी अधिक गति में बाबू लोगों के स्कूल-कॉलेजी लड़के ‘कावासाकी’ और ‘हीरो होंडा’ दौड़ाते फिरते हैं। पलक झपकते जाने किधर से आते हैं और पलक झपकते ही फुर्र हो जाते हैं। आए दिन दुर्घटनाएं मेन रोड से अधिक इसी पतली सड़क पर होती हैं।
लेकिन, मिसेज़ शर्मा की चिंता का कारण यह नहीं है, बल्कि कुछ और है।
मेन रोड पर एक बस-स्टॉप है। यह बस-स्टॉप ठीक इक्कीस नंबर के सामने और इक्कीस नंबर में रहता है– शर्मा परिवार। यानी मि. शर्मा, उनकी पत्नी मिसेज़ शर्मा, बी.ए. फर्स्ट ईअर और हायर सेकेंडरी में पढ़तीं उनकी दो लड़कियाँ और आठवीं कक्षा में पढ़ता एक लड़का। दिन चढ़ने से लेकर रात नौ-दस बजे तक बस-स्टॉप पर एक जमघट-सा लगा रहता है। पंद्रह-बीस लोग हर समय बसों के इंतज़ार में खड़े रहते हैं। सुबह-शाम इस संख्या में वृद्धि हो जाती है। घर का दरवाजा खोलो या खिड़कियाँ, बस-स्टॉप पर खड़ा एक-एक आदमी देख-गिन लो। मिसेज़ शर्मा की परेशानी और चिंता स्वाभाविक है। घर में जवान लड़कियाँ हैं। जब देखो, बस-स्टॉप पर खड़ा कोई न कोई इधर ही घूरता मिलता है।
बैठने-उठने की थोड़ी-सी जगह मेन रोड की ओर ही है। घर के सामने छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा है जिस पर कहीं-कहीं घास उगी है। इस टुकड़े को इक्कीस नंबर वाले लॉन की तरह इस्तेमाल करते हैं। अब लड़कियाँ भी क्या करें। हर समय कमरों में बंद तो रहा नहीं जा सकता। खुली हवा में सांस लेने के लिए खिड़की-दरवाजा खोल ही बैठती हैं।
दोपहर के समय जब लड़कियाँ स्कूल-कालेज से लौटती हैं, कुछ लड़कों की सूरतें बस-स्टॉप पर रोज़ ही दिखलाई देने लगी हैं। मिसेज़ शर्मा मन ही मन कुढ़ती हैं और बुदबुदाती है– “नासपिटे ! कैसे दीदे फाड़-फाड़कर देखते हैं।”
गर्मी के दिन हैं। शाम होते ही, इस ओर कुर्सियाँ डालकर बैठने का उत्साह लड़कियों में दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। शाम पाँच बजे से लेकर रात के नौ-दस बजे तक इधर ही बनी रहती हैं वे। बस-स्टॉप पर बात करते हुए लड़कों को देखकर मिसेज़ शर्मा को लगता है मानो वे उन्हीं की लड़कियों को लेकर खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। मन होता है, उठकर सबक सिखा दें इन आवारा छोकरों को। पर अंदर ही अंदर कुढ़कर रह जाती हैं वह। आँखें लाल-पीली करके लड़कियों को अंदर कमरे में बैठने का संकेत करती हैं। लड़कियाँ कुछ ढीठ होती जा रही हैं। कभी मुस्कराकर भीतर आ जाती हैं और कभी माँ की लाल-पीली आँखों की परवाह न करते हुए वहीं बनी रहती हैं। कभी-कभी तो पलटकर जवाब दे देती है–“क्या है मम्मी ? तुम तो बस्स...।”
उस शाम मि. शर्मा और मिसेज़ शर्मा में वाकयुद्ध होता है। मिसेज़ शर्मा उनके आफिस से लौटते ही लड़कियों की ढीठता का ब्यौरा देने लगती हैं। बस-स्टॉप पर आवारा लड़कों के जमघट का लगातार बढ़ना बताती हैं और जल्द-से-जल्द मकान बदलने के लिए जोर डालती हैं। मि. शर्मा पहले चुपचाप सुनते रहते हैं, फिर समझाते हैं, और बाद में पत्नी की रट से खीझकर चिल्लाने लग पड़ते हैं। मिसेज़ शर्मा को लगता है, समस्या जितनी गंभीर होती जा रही है, मि. शर्मा उसे उतना ही लाइटली लेने लगे हैं। मि. शर्मा सोचते हैं, पत्नी बेवजह शक करती है लड़कियों पर।
मिसेज़ शर्मा लड़कियों पर बराबर नज़र रखे हुए हैं। वे दोनों सुबह स्कूल-कॉलेज के लिए निकलती है तो मिसेज़ शर्मा दरवाजे पर आ खड़ी होती हैं। जब तक लड़कियों को बस नहीं मिल जाती, वह वहीं खड़ी रहती हैं।
दोपहर को जब लड़कियाँ लौटती हैं, मिसेज़ शर्मा पहले से ही दरवाजे पर खड़ी होकर उनका इंतज़ार करती मिलती हैं। मिसेज़ शर्मा देखती हैं, वही लड़के उनकी लड़कियों के संग बस से उतरते हैं जो सुबह के वक्त उन्हीं के साथ बस में चढ़े थे, हो-हल्ला मचाते हुए।
वह लड़कियों से पूछती हैं, “ये कौन लड़के हैं ? तुम जानती हो इन्हें ?”
“हमें नहीं मालूम...” कहकर दोनों मुस्कराती हुईं अपनी-अपनी ड्रेस बदलने के लिए बाथरूम में जा घुसती हैं और मिसेज़ शर्मा केवल तड़पकर रह जाती हैं।

मिसेज़ शर्मा अब बेहद चौकस और सतर्क रहती हैं। महानगर की सरकारी कॉलोनियों में आए दिन होने वाली चोरी-डकैती की खबरें अख़बार में पढ़कर उनके भीतर धुकधुकी-सी होने लगती है। एक भय रात-दिन उन्हें सताता रहता है। उन्होंने अपने खर्चे पर पीछे का बरामदा भी कवर करवा लिया है। कहीं आती-जाती हैं तो बच्चों को सख़्त ताकीद कर जाती हैं– “कोई भी हो, दरवाजा न खोलना। छेद से पहले अच्छी तरह देख लेना।”
भय और चिंता के इस आलम में मिसेज़ शर्मा रात में ठीक से सो भी नहीं पाती हैं। तरह-तरह की आशंकाएँ मन में उठती हैं और उनका रक्तचाप बढ़ा देती हैं। इससे तो किराये के मकान में ही अच्छे थे, वह सोचती हैं।
जाने कैसे तो सरकारी मकान का नंबर आया। वरना, रिटायरमेंट में जब कुछ वर्ष शेष रह जाते हैं, तब जाकर कहीं अलॉट होता है मकान। मकान अलॉट होने की खबर जिसने भी सुनी, उसने मि. शर्मा को बधाई दी थी। आफिस के लोगों ने पार्टी भी ली। बोले– “मि. शर्मा लकी हो, मकान अलॉट हुआ भी तो सेंट्रल एरिया में। अरे, यहाँ के लिए तो बड़ी-बड़ी सिफारिशें लगती हैं, तब कहीं जाकर मिलता है ऐसे इलाके में मकान। कहीं चुपचाप कोई सोर्स-वोर्स तो नहीं लगवाया।”
लेकिन, अब... मि. शर्मा ने चेंज के लिए एप्लीकेशन दी थी। मगर कोई सुनवाई नहीं हुई। अब वे स्वयं देख-महसूस कर रहे हैं, बस-स्टॉप के ऐन सामने के मकान में रहने का दर्द। उन्हें लगता है– कुछ मनचले लड़के जान-बूझकर जमे रहते हैं बस-स्टॉप पर और उनके घर की ओर ही ताकते रहते हैं। लड़कियाँ भी ढीठ होती जा रही हैं। किसी-न-किसी बहाने बहार निकलना, ताकना-झाँकना उनकी आदत में शुमार होता जा रहा है। अब पत्नी की बातें उन्हें सही प्रतीत होती हैं। वह तो सारा दिन आफिस में रहते हैं, पीछे पत्नी बेचारी को ही भुगतना पड़ता है सब कुछ। मन पर पत्थर रखकर देखना पड़ता है यह सारा नाटक।
मि. शर्मा चेंज के लिए फिर से अपनी कोशिशें तेज कर देते हैं। बहुत दौड़-धूप करने पर किसी मंत्री के पी.ए. से संपर्क सधा है उनका। उसने मंत्री की ओर से चिट्ठी भिजवाने का आश्वासन दिया है। मि. शर्मा बराबर उससे मिलते रहते हैं, हफ्ते-दस दिन के बाद।
और, जिस दिन मंत्री की ओर से चिट्ठी गई, उस दिन से वे बहुत खुश थे। मिसेज़ शर्मा भी। अब तो काम हुआ ही समझो। मंत्री की बात थोड़े ही टाल सकते हैं। लेकिन, यह खुशफहमी जल्दी ही टूट गई। महीने-भर में ही उनका आवेदन पत्र रिग्रेट हो गया।
मिसेज़ शर्मा उदास होकर बोलीं, “तो क्या रिटायरमेंट तक यहीं रहना पड़ेगा ?... तब तक कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।”
मि. शर्मा खामोशी ओढ़े रहते हैं। बोलें भी तो क्या बोलें ! उन्होंने अपनी ओर से तो पूरी कोशिश की थी। माँ-बाप का कोई पुश्तैनी मकान तो इस महानगर में है नहीं कि छोड़-छाड़कर चले जाएं वहाँ। अब तो रहना ही होगा यहीं।
मिसेज़ शर्मा चाय बना लाती हैं और मि. शर्मा को प्याला थमाकर खुद भी उनके समीप ही बैठ जाती हैं। एकाएक उन्हें कुछ याद हो आता है। वह आगे झुककर मि. शर्मा को बताती हैं, धीमे स्वर में, “तुम्हें पता है, तीन नंबर वालों की लड़की ने इक्तीस नंबर वालों के लड़क से कोर्ट मैरिज कर ली है...।”
मि. शर्मा चुपचाप चाय पीते रहते हैं। उनके चेहरे पर न उत्सुकता है, न विस्मय की लकीरें। मिसेज़ शर्मा उनकी कोई प्रतिक्रिया न पाकर कुछ देर के लिए मौन हो जाती हैं। पर उनके दिमाग में फिर कुछ कौंधता है और वह लगभग खुश-सी होती हुई कहती हैं, “सुनो जी, हम ऐसा न करें कि यह मकान किराये पर चढ़ा दें और खुद कहीं और किराये पर रहें।”
“पागल हो गई हो क्या ?” मि. शर्मा अपना मौनव्रत छोड़कर तोप की तरह दग पड़ते हैं, “जानती हो, कितना रिस्की है यह ! किसी ने शिकायत कर दी तो लेने के देने पर जाएंगे।” सहसा, उन्हें अपने आफिस के बिहारीलाल की याद हो आती है। बिहारीलाल ने अपना पूरा मकान किराये पर दे रखा था। किसी की शिकायत पर इस्टेट आफिस वालों ने एक दिन छापा मार दिया। बिहारीलाल दौड़ा-दौड़ा फिरा, कितने ही दिन। उसके खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई। मकान तो छिना ही, साथ ही उसे जब से मकान अलॉट हुआ था, तब से यानी चार साल का मार्केट रेंट भी चुकाना पड़ा था।
मिसेज़ शर्मा ने अपनी चाय खत्म करते हुए कहा, “अरे, कुछ नहीं होगा। तुम तो खामख्वाह डरते हो। यहाँ क्या सभी अपने-अपने मकानों में रहते हैं। हर ब्लॉक में दो-चार घर को छोड़कर सभी किराये पर हैं।”
“तो क्या ! मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगा।” मि. शर्मा खाली चाय का प्याला नीचे रखते हुए अपना फैसला सुना देते हैं।
एक शाम तो हद हो गई। मिसेज़ शर्मा अंदर किचन में थीं और लड़कियाँ लॉन में कुर्सी डाले बैठी थीं। पास ही छोटा भाई खेल रहा था। तभी कागज का एक रॉकेट उनके बीच आकर गिरा। लड़कियों ने बस-स्टॉप की ओर मुड़कर देखा तो कुछ लड़के खिलखिलाकर हँस पड़े। एक लड़के ने मुँह में उंगलियाँ डालकर और अपनी दाईं आँख दबाकर सीटी भी बजा दी। “बदतमीज...” कहकर लड़कियों ने उधर से नज़रें हटाईं तो एक और रॉकेट हवा में उड़ा और उनके ऊपर आकर गिरा।
एकाएक बड़ी लड़की उठी और बस-स्टॉप की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे छोटी भी चल दी। लड़का तुरन्त अंदर जाकर मम्मी को बुला लाया। मिसेज़ शर्मा ने बाहर आकर देखा, बड़ी लड़की ने एक लड़के का कॉलर पकड़ रखा था और छोटी लड़की चप्पल से उसे पीट रही थी– “तेरी माँ-बहन नहीं है क्या ?... बेशर्म... कागज के रॉकेट मार रहे थे... तेरी और तेरे यारों की तो...”
मिसेज़ शर्मा ने दौड़कर लड़कियों के हाथों से लड़के को छुड़ाया और धमकाते हुए बोलीं, “जा, भाग जा यहाँ से, नहीं तो दो-चार मैं भी लगाऊँगी।”
लड़का मुँह लटकाये वहाँ से खिसक गया। अन्य लड़के पहले ही इधर-उधर हो लिए थे। बस-स्टॉप पर खड़े लोग घेरा बनाकर खड़े थे। मिसेज़ शर्मा लड़कियों के संग घेरे से निकलकर अपने घर में आ गईं। दिल उनका धकधक कर रहा था लेकिन भीतर-ही-भीतर खुश भी थीं। लड़कियों से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी उन्हें। ये रूप तो उन्होंने पहली बार ही देखा था। उनका सिर गर्व से ऊँचा हो गया।
मि. शर्मा तो किस्सा सुनकर उछल-से पड़े– “क्या ?... मेरी बेटियाँ इतनी बहादुर भी हैं!”
उस शम मि. शर्मा को चाय बहुत अच्छी लगी। रात को सोते वक्त मि. शर्मा ने पत्नी से कहा, “हमारी लड़कियाँ ऐसी-वैसी नहीं हैं जैसा कि तुम अब तक समझी बैठी थीं।”
“वो तो ठीक है,” मिसेज़ शर्मा बोलीं, “पर इन बदमाश छोकरों का क्या भरोसा? लड़कियाँ स्कूल-कालेज बस से अकेली आती-जाती हैं। कल कोई और ही मुसीबत न खड़ी कर दें।”
“अरे, कुछ नहीं होगा। इन नए-नए जवान हो रहे छोकरों में इतना साहस कहाँ ?” मि. शर्मा ने कहा, “जब तक लड़कियाँ चुप रहती हैं, वे उछलते फिरते हैं। जहाँ लड़कियों ने भरी भीड़ में इनकी बेइज्जती की कि बस, सारी आश्काई फु...र्र हो जाती है।”
“फिर भी, यह मकान ठीक नहीं है,” मिसेज़ शर्मा पुराने मुद्दे पर आ गईं, “चोर-उच्चकों का डर बना रहता है यहाँ।”
“अरे भागवान, चोर-उच्चकों का डर कहाँ नहीं है आजकल।” मि. शर्मा ने समझाते हुए कहा, “बस, ज़रा सतर्क और होशियार रहने की ज़रूरत है आज के जमाने में।”
बातों-बातों में मिसेज़ शर्मा की कब आँख लग गई, मि. शर्मा को पता ही नहीं चला।

दास बाबू के बच्चे का जन्म दिन था। मि. शर्मा दफ्तर से छूटकर अपने कुछ सहकर्मियों के संग सीधे दास बाबू के घर चले गए थे। दास बाबू पहले मि. शर्मा के दफ्तर में ही थे। आजकल दूसरे मंत्रालय में डेपुटेशन पर हैं। दास बाबू को भी सरकारी मकान अलॉट है। उनका मकान नीचे का ही नहीं, कोने का भी है। तीन तरफ़ खुली ज़मीन को उन्होंने खूबसूरत लॉन में बदल रखा है। पटरंज और मेहँदी की ऊँची-ऊँची बाड़ से लॉन को कवर कर रखा है।
पार्टी से लौटकर मि. शर्मा रातभर कुछ सोचते रहे। अगले दिन जल्दी उठ गए जबकि इतवार का दिन था। छुट्टी के दिन वह नौ-दस बजे से पहले कभी नहीं उठते।
बाहर निकलकर मि. शर्मा काफी देर तक घर के सामने की ज़मीन के टुकड़े को देखते रहे। फिर एकाएक वह भीतर गए और स्टोर से एक टूटा जंग खाया हुआ फावड़ा उठा लाए। पत्थर के टुकड़े से ठोंक-पीटकर उसे ठीक किया और ज़मीन के टुकड़े को एक किनारे से खोदने लगे।
पहले मिसेज़ शर्मा ने उन्हें देखा, फिर बच्चों ने। सभी हैरान-से खड़े थे। आखि़र मिसेज़ शर्मा ने पूछ ही लिया, “यह क्या कर रहे हैं आप ?”
“यहाँ हम मेहँदी लगाएंगे।” खोदना क्षणभर को रोक कर उन्होंने पत्नी की ओर मुस्कराते हुए देखा और कहा, “बड़ी होने पर वह बाड़ का काम करेगी... अब रहना भी तो यहीं है न।”
अब, उनका साथ मिसेज़ शर्मा ही नहीं, बच्चे भी दे रहे थे।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” में संग्रहित )

शनिवार, 5 जुलाई 2008

कहानी-8




गोली दागो रामसिंह
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

खिड़की के शीशों से होती हुई सुबह की धूप जब रामसिंह के बैड पर गिरी तो उसकी इच्छा हुई कि उठकर वह खिड़की खोल दे और बाहर की ताज़ा धूप-हवा को अन्दर आने दे। वार्ड में फैली अजीब-सी गन्ध कुछ तो कम होगी, यह सोचते हुए उसने उठकर खिड़की खोल दी। खिड़की खुलते ही बाहर से आए ताज़ी हवा के झोंके को रामसिंह ने अपने फेफड़ों में खींचा और फिर उसे धीरे-धीरे बाहर निकाला। इस क्रिया को उसने वहीं खड़े-खड़े कई बार दोहराया।
चार दिन हो गए उसे बैड पर पड़े-पड़े। कल उसे छुट्टी मिल जाएगी। डॉक्टर ने अभी कुछेक दिन ड्यूटी पर न जाने और घर पर आराम करने को कहा है।
खिड़की से हटकर रामसिंह फिर अपने बैड पर आ गया और अधलेटा-सा होकर खिड़की के बाहर देखने लगा। दृष्टि उसकी खिड़की से बाहर थी लेकिन मस्तिष्क किन्हीं विचारों में खोया था।
उसने सोचा, छुट्टी में वह गाँव जाकर घरवालों के संग रहेगा और आराम करेगा। वैसे भी, वह जब से दिल्ली में तैनात हुआ है, लम्बी छुट्टी पर गाँव नहीं गया। बीच में दो-एक दिन के लिए तो जाता रहा है वह !
लम्बे-तगड़े छह फुटे जवान रामसिंह को इन्टर करने के बाद भारतीय सीमा पुलिस में भर्ती होने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आई थी। तेरह साल की नौकरी हो चुकी है उसकी। पिछले बारह साल वह देश की उत्तर-पूर्व की विभिन्न सीमाओं पर तैनात रहा है। बीच में साल-दो साल में महीने-दो महीने की छुट्टी पर आता रहा है वह। दिल्ली के समीपवर्ती गाँव में घर है उसका। बस से कोई डेढ़-दो घंटे का सफ़र। गत एक वर्ष से वह दिल्ली में है। बाहर से जब उसकी पोस्टिंग दिल्ली में हुई थी तो वह कितना खुश था ! घर के नज़दीक होने का सुख कुछ और ही होता है !
दिल्ली आने के एक माह बाद उसे विशेष प्रशिक्षण देकर एक वी.आई.पी के साथ तैनात कर दिया गया। वी.आई.पी यानी केन्द्र सरकार का एक राज्य-मंत्री। मंत्री जी के साथ दो इंस्पेक्टर तैनात किए गए थे। एक वह और दूसरा- गनपत। दोनों की शिफ्ट ड्यूटी होती। मंत्री जी जहाँ जाते, उनमें से एक उनके साथ सदैव रहता– सादे वस्त्रों में। साथ में दो जवान भी। रामसिंह के लिए बिलकुल अलग किस्म का अनुभव था यह। अलग भी और नया भी। ड्यूटी के दौरान बहुत करीब से एक मंत्री को ही नहीं, बल्कि उसके कार्यकलाप को भी देखना, सचमुच रामसिंह के लिए रोमांचक था। मंत्री जी का लोगों से प्रतिदिन सुबह अपने निवास पर मिलना। उनके दुख-दर्द सुनना और उन्हें दूर करने की कोशिश करना। दिल्ली के बाहर के दौरे पर भी रामसिंह मंत्री जी के साथ कई बार गया। अपार जनसमूह में मंत्री जी के साथ साये की तरह रहकर उनकी सुरक्षा के प्रति हर पल सतर्क रहना, रामसिंह की ड्यूटी थी और वह उसे बखूबी निभा रहा था।
इन्हीं दिनों रामसिंह ने महसूस किया कि एक मंत्री के ऊपर देश का कितना बड़ा भार होता है। न रात को चैन, न दिन को आराम। कितना व्यस्त जीवन ! जिस मंत्री जी के साथ रामसिंह तैनात था, वह पहली बार मंत्री बने थे और अपनी कार्यशैली और सौम्य व्यवहार के कारण बहुत जल्द लोकप्रिय हो गए थे। जिस क्षेत्र से चुन कर वह आए थे, वह एक पिछड़ा हुआ क्षेत्र था। मंत्री बनने के बाद, उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। जैसे– सड़कें बनवाईं, स्कूल-अस्पताल खुलवाए। आजकल वह उस क्षेत्र की पेयजल समस्या को दूर करने के लिए कटिबद्ध थे।

धूप अब उसके बैड पर से उतरकर नीचे फर्श पर जा लेटी थी। रामसिंह ने खिड़की से दृष्टि हटाकर एकबारगी वार्ड में देखा और फिर विचारों में गुम हो गया। रामसिंह ने सोचा– अस्पताल से छुट्टी होने पर वह मंत्री जी से मिलकर अपने गाँव जाएगा। कितने प्यार से बुलाते हैं वह रामसिंह को ! गत एक वर्ष के दौरान मंत्री जी के साथ जुड़े कई सुखद प्रसंग उसे एकाएक स्मरण हो आए। वह आत्ममुग्ध उनमें न जाने कितनी देर डूबा रहा।
“कैसे हो रामसिंह ?” चावला था। मंत्री जी का पी.ए.। चावला को सामने पाकर रामसिंह जैसे सोते से जागा था।
“ठीक हूँ साब।”
बैड के निकट रखे स्टूल पर चावला को बैठने को कहते हुए वह अभिभूत-सा हो रहा था। ज़रूर मंत्री जी ने उसका हालचाल पूछने चावला को भेजा है।
“मंत्री जी कैसे हैं ?” चावला के बैठने पर रामसिंह ने पूछा, “अधिक चोट तो नहीं आई?”
चावला ने क्षणभर अपलक रामसिंह की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “ठीक हैं।... बायें कंधे पर एक ईंट लगी थी जिसकी वजह से अभी दर्द है। डॉक्टर ने कहा है कि कुछेक दिन में ठीक हो जाएगा।” थोड़ा रुककर गहरी सांस लेते हुए चावला फिर बोला, “शुक्र है, ईंट मंत्री जी के सिर पर नहीं लगी।”
“पर रामसिंह, ऐसी हालत में तुम्हें गोली चलानी चाहिए थी। साले सब भाग जाते। गोली के आगे कोई टिकता है !...” चावला की आवाज़ सामान्य से कुछ तेज और रूखी हो गई थी, “पाण्डे बता रहा था, बुरी तरह घिर जाने पर मंत्री जी ने तुमसे कहा भी था– गोली चलाने को...”
चावला की बात में कुछ ऐसा था या उसके कहने के ढंग में कि रामसिंह का स्वर आवेशमय हो उठा, “गोली चलाता भी तो सा’ब किस पर ?...भीड़ में इधर-उधर कुछ लोग थे जो यह सब शरारत कर रहे थे। वैसे भी बहुत मुश्किल होता है, भीड़ में दोषी व्यक्ति को ढूँढ़ पाना। पत्थरों की बरसात जिस प्रकार हो रही थी, उसमें मेरा पहला ध्येय था, मंत्री जी को किसी भी वहाँ से हटा लेना। गोली चलाना नहीं।”
क्षणांश, मौन के बाद रामसिंह ने फिर कहना प्रारंभ किया, लेकिन शांत और संयमित स्वर में, “गोली चलती तो निस्संदेह निर्दोष व्यक्ति भी मारे जाते। कुछ लोगों की शरारत का दंड निर्दोष लोगों को तो नहीं दिया जा सकता न ?”
प्रत्युत्तर में चावला कुछ नहीं बोला था। क्षणभर चुप्पी तनी रही थी दोनों के बीच। एकाएक चुप्पी को तोड़ते हुए रामसिंह ने प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया, “पर सा’ब, मंत्री जी का समारोह में जाना जब निश्चित था तो स्थानीय पुलिस को इन्फार्म किया था आपने ?”
“नहीं।” चावला को रामसिंह से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। वह बोला, “कर ही नहीं पाए। मंत्री जी एक रात पहले समारोह में न जाने का निर्णय ले चुके थे। हम आयोजकों को भी मंत्री जी के निर्णय से अवगत करा चुके थे। लेकिन, अगले ही दिन ठीक समारोह के समय जाने क्या सूझी कि एकाएक तैयार हो गए।” पलभर की चुप्पी के बाद चावला ने कहना जारी रखा, “तुम्हें तो मालूम ही है, लोकल कार्यक्रमों में तुम लोगों के अतिरिक्त अन्य सुरक्षा प्रबंध मंत्री जी कतई पसंद नहीं करते। अब इसमें हमारा क्या दोष ?”
हाँ, अकस्मात ही तो मंत्री जी ने समारोह में जाने का फैसला किया था। और, ऐसा वह प्राय: करते हैं। यह भी सही है, मंत्री जी लोकल कार्यक्रमों में उनके अलावा अन्य कोई विशेष सुरक्षा व्यवस्था कतई पसंद नहीं करते।
यही नहीं, रामसिंह ने तो दिल्ली से बाहर के दौरों के दौरान, विशेषकर मंत्री जी के अपने क्षेत्रीय दौरे के दौरान, देखा है कि मंत्री जी वहाँ के स्थानीय सुरक्षा प्रबंधों को कतई पसंद नहीं करते। स्थानीय सुरक्षा अधिकारी देखते ही रह जाते हैं और वह जाने कब ग्रामीण लोगों की भीड़ में गुम हो जाते हैं। स्वयं रामसिंह कई बार उनसे अलग-थलग पड़ जाता रहा है। भीड़ को चीरकर मंत्री जी तक पहुँचने में उसको कितनी दिक्कतें पेश आती रही हैं। एक मंत्री का इस प्रकार जनता के बीच कूद पड़ना, लोगों का प्यार जीतने के लिए काफी होता है। शायद, मंत्री जी इस बात को बखूबी जानते हैं। तभी तो जब-तब अपने सुरक्षा घेरे को तोड़कर जनता के बीच गुम हो जाना उन्हें अच्छा लगता है।
“अगर स्थानीय पुलिस का इंतज़ाम होता तो स्थिति जल्द ही नियंत्रण में आ सकती थी।” रामसिंह ने चावला की ओर देखते हुए कहा। फिर, कुछ देर रुककर उसने पूछा, “कुछ मालूम हुआ, कौन लोग थे जिन्होंने यह सारा बवंडर किया ?”
“हाँ, कुछ लोगों को पकड़ा है। यूनियन के नेताओं ने ऐसा करवाया। तुम तो जानते ही हो, उस कार्यालय की यूनियन पिछले कुछ महीनों से वेतन बढ़ाये जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन करती रही है। एक-दो बार उन्होंने मंत्री जी को भी इस बारे में ज्ञापन दिए थे लेकिन मंत्री जी ने उनकी मांगें स्वीकार नहीं की थीं।” चावला ने सविस्तार बताया।
“जब ऐसी बात थी तो मंत्री जी को उस कार्यक्रम में नहीं जाना चाहिए था। जाना भी था तो स्थानीय पुलिस को अवश्य सूचित करना था। उस दिन की घटना से तो लगता था कि सब कुछ पूर्वनियोजित था। जैसे वे जानते थे कि मंत्री जी अवश्य आएंगे और...”
इसी बीच नर्स दवा की ट्रे लिए वार्ड में आई और मरीजों को दवा देकर वार्ड से बाहर चली गई। रामसिंह ने अपनी दवा लेकर सिरहाने रख ली थी।
“अच्छा रामसिंह, चलता हूँ।” चावला ने घड़ी देख उठते हुए कहा, “वैसे तुमने भी मंत्री जी का आदेश न मानकर ठीक नहीं किया।”
‘ठीक नहीं किया...’ कील की तरह ठुके थे ये शब्द, रामसिंह की छाती में। चावला के जाने के बाद ये शब्द जाने कितनी देर तक रामसिंह को बेचैन और परेशान किए रहे।

उस दिन रामसिंह की ड्यूटी थी, पहली शिफ्ट की। मंत्री जी अपने निवास पर लोगों से मिलकर हटे थे और कोठी के लॉन के दायीं ओर बने छोटे से आफिस में चले गए थे। आफिस में घुसते ही उन्होंने पूछा था, “चावला, कोई खास फोन ?”
“जी सर ! वित्त मंत्री जी फोन पर बात करना चाहते थे। और वो दुबे जी...”
“छोड़ो दुबे को। वित्त मंत्री जी से मेरी बात कराओ।” मंत्री जी ने कहा था और वहीं पड़े सोफे पर बैठ गए थे। रामसिंह कुछ कदमों की दूरी पर खड़ा था। वित्त मंत्री से बात करने के बाद मंत्री जी ने पूछा था, “वो कोई आज का फंक्शन था न चावला ?”
“जी सर ! पर कल राम आपने जाने से मना किया था, इसलिए हमने रात को ही आयोजकों को इस बारे में बता दिया था।... अब...”
“बाय द वे... कितने बजे का फंक्शन है ?”
“जी दस बजे का।”
मंत्री जी ने घड़ी देखी थी। साढ़े दस हो चुके थे। उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा, “पर मैं सोचता हूँ, अपनी मिनिस्ट्री के अटैच्ड आफिस का फंक्शन है, मुझे अटैण्ड कर ही लेना चाहिए।”
“पर सर, अब इतनी जल्दी... हमें आपके जाने की सूचना...”
“छोड़ो सूचना-वूचना को। हम अपने कर्मचारियों को सरप्राइज देंगे।” मंत्री जी ने उठते हुए कहा था, “रामसिंह ! गाड़ी लगवाओ और पाण्डे तुम मेरे साथ चलोगे।”
“जी सर !” कहकर समीप खड़े पाण्डे ने जो मंत्री जी का सेकेण्ड पी.ए. था, अपनी गर्दन हिला दी थी और रामसिंह गाड़ी लगवाने लग गया था।

मंत्री जी के मंत्रालय के एक अधीनस्थ कार्यालय का वार्षिक समारोह था वह। कार्यालय के खुले प्रांगण को खूबसूरत शामयानों से घेरकर समारोह के लिए विशाल पंडाल तैयार किया गया था। सुसज्जित प्रवेशद्वार व मंच की आभा देखते ही बनती थी। समारोह में कुछ कर्मचारियों को उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए पुरस्कार भी प्रदान किए जाने थे।
मंत्री जी को समारोह में अकस्मात् उपस्थित देख आयोजकों के चेहरे खिल उठे थे। आगे बढ़कर उन्होंने फूलमालाओं से मंत्री जी का स्वागत किया था। अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए मंत्री जी मंच पर चढ़े थे। एकबारगी सामने बैठी भीड़ की ओर हाथ जोड़ते हुए विहंगम दृष्टि डाली थी और फिर अपनी कुर्सी पर विराजमान हो गए थे। रामसिंह मंत्री जी की कुर्सी के पीछे ‘सावधान’ की मुद्रा में खड़ा हो गया था और दोनों जवान मंच के नीचे दो कोनों में।
कुछेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के पश्चात् पुरस्कार वितरण आरंभ हुआ। हल्की-सी गड़बड़ पुरस्कार वितरण के समय ही आरंभ हो गई थी। इधर-उधर से इक्का-दुक्का नारे उछलने लगे थे। पुरस्कार लेनेवालों को मैनेजमेंट का चमचा कहा जा रहा था। अधिकारियों को चोर और रिश्वतखोर ! जनता का पैसा खानेवाले ! लेकिन, इस हल्के शोर-शराबे के बीच पुरस्कार वितरण चलता रहा।
पुरस्कार वितरण के बाद जब मंत्री जी ने अपना भाषण आरंभ किया तो नारे उनके खिलाफ भी लगने शुरू हो गए थे। नारों के रूप में कई मांगें भी उभरने लगी थीं। शोर-शराबे की परवाह न करते हुए मंत्री जी ने अपना भाषण जारी रखा था। माइक पर उनके शब्द गूंज रहे थे, “मेहनत, लगन और ईमानदारी से कार्य करनेवालों को उनकी मेहनत, उनकी लगन और ईमानदारी का पुरस्कार एक दिन अवश्य मिलता है। मिलना भी चाहिए... आज, ऐसे ही कर्मठ, लगनशील और ईमानदार लोगों को ज़रूरत है जिससे देश....”
और तभी, एक पत्थर भीड़ में से उछलकर मंच पर गिरा था। मंत्री जी माइक छोड़कर थोड़ा पीछे हटे थे। रामसिंह जब तक आगे बढ़ता, पत्थरों की बरसात प्रारंभ हो गई थी। मंच पर बैठे अन्य लोगों ने इधर-उधर दौड़ना आरंभ कर दिया था। सामने बैठी भीड़ में भी भगदड़-सी मचने लगी थी। रामसिंह मंत्री जी के आगे दीवार की भांति खड़ा हो गया था और जैसे-तैसे उन्हें मंच से उतारकर सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहता था। स्टेज के नीचे खड़े जवान मंत्री जी की ओर लपके थे।
एकाएक, पत्थरों के साथ-साथ ईंटें भी बरसने लगी थीं। पूरा मंच ईंट-पत्थरों से पट गया था। न जाने कितने ईंटें, कितने पत्थर रामसिंह के शरीर पर पड़े, लेकिन वह किसी तरह मंत्री जी को स्टेज से उतारकर एक कोने में ले जाने में सफल हो गया था। तभी एक पत्थर रामसिंह के सिर पर लगा था और खून का फव्वारा उसके कपड़ों को लाल कर गया। बदहवास से मंत्री जी ईंटों-पत्थरों से अपना बचाव करते हुए चीखे थे, “रामसिंह ! गोली चलाओ... गोली !” किन्तु, उनकी चीख इतनी मद्धिम थी कि रामसिंह और जवानों के अतिरिक्त शायद ही किसी के कानों में पड़ी हो !
रामसिंह ने तभी हवा में दो फायर किए थे। फायर होते ही जहाँ भीड़ में एक और हाहाकार मच गया था, भगदड़ में तेजी आ गई थी, वहीं अब पत्थर गोली सरीखे बरसने लगे थे। पत्थरों को देखकर लगता था, पूर्व-नियोजित तरीके से उन्हें इक्टठा किया गया हो जैसे।
एक जवान भागकर गाड़ी ले आया था। ऐसी स्थिति में ड्राइवर द्वारा गाड़ी चलाने से इन्कार कर दिए जाने पर, दूसरे जवान ने उछलकर स्टेयरिंग संभाल लिया था। रामसिंह ने मंत्री जी को लगभग धकेलते हुए गाड़ी के अन्दर किया था और खुद भी उनके ऊपर लेट-सा गया था। तभी स्थानीय पुलिस आ गई थी। शायद, किसी ने इस गड़बड़ की सूचना दे दी थी।
गाड़ी के शीशे चूर-चूर हो चुके थे। जैसे ही वह प्रवेशद्वार से बाहर निकली, एक पत्थर खिड़की से होते हुए राम​सिंह की कनपटी पर लगा और उसके बाद उसे नहीं मालूम कि क्या हुआ ! आँखें खुलीं तो खुद को उसने अस्पताल के एक बैड पर पाया।

शरीर पर लगी चोटों के घाव तो भरने लगे थे जब रामसिंह की अस्पताल से छुट्टी हुई। लेकिन मन से वह अस्वस्थ-सा प्रतीत हो रहा था। ‘ठीक नहीं किया’ शब्दों ने उसे भीतर से अव्यवस्थित कर दिया था। कहाँ तो मन था उसका कि अस्पताल से छुट्टी होने पर वह मंत्री जी से मिलकर अपने गाँव जाएगा, कहाँ वह उन्हें बिना मिले ही गाँव की बस में बैठ गया।
गाँव पहुँचकर रामसिंह ने आराम करने के बजाय अनेक छोटे-बड़े कामों में स्वयं को व्यस्त-सा कर लिया। सबसे पहले, बूढ़े पिता की आँखों का आपरेशन करवाया- कस्बे में लगे आई-कैंप में जाकर। फिर मकान की पिछली दीवार जो ढहने को हो रही थी, तुड़वा कर फिर से बनवाई। आँगन में हैण्ड-पम्प लगवाया और इन्हीं दिनों में एक अच्छा-सा लड़का देखकर बहन का रिश्ता पक्का कर दिया। लड़केवालों ने विवाह के लिए जल्दी मचाई तो दो माह बाद की एक तारीख पंडित से निकलवाकर तय कर दी। रामसिंह ने सोचा, जो काम हो जाए अच्छा। अब तो रामसिंह की पोस्टिंग दिल्ली में है। दो माह बाद फिर छुट्टी लेकर आएगा, बहन की शादी में। धूमधाम से करेगा बहन की शादी। एक ही तो बहन है उसकी।
रामसिंह को एकाएक मंत्री जी का ध्यान हो आया। शादी में वह मंत्री जी को भी आमंत्रित करेगा। खुद देगा निमंत्रण पत्र मंत्री जी को। जोर डालेगा तो न नहीं करेंगे। अवश्य आएंगे। अभी पीछे ही तो दुलीचन्द चपरासी के बेटे की शादी में सम्मिलित हुए थे। भले ही दो घड़ी को... अगर मंत्री जी उसकी बहन की शादी में घड़ी भर को भी गाँव में आ गए तो न केवल उसके गाँव में बल्कि आसपास के सभी गाँवों में धाक जम जाएगी रामसिंह की।
इन्हीं विचारों में डूबे-डूबे उसे सहसा अपने छोटे भाई चेतराम की याद हो आई थी जो पढ़-लिखकर बेकार बैठा था। यह भी कहीं लग जाता तो इसकी भी... और तभी, रामसिंह को जैसे रोशनी-सी हाथ लगी, ‘चेतराम की नौकरी के लिए मंत्री जी से क्यों न बात करे वह ? इतने लोगों का काम करवाते हैं, क्या अपने इंस्पेक्टर रामसिंह के भाई को छोटी-मोटी नौकरी नहीं दिलवा सकते ? ड्यूटी ज्वाइन करने पर वह सबसे पहला काम अब यही करेगा। अवसर पाकर बात करेगा वह चेतराम की नौकरी के बारे में। वह चाहें तो कहीं भी लगवा सकते हैं।’

दिन ऐसे बीते कि मालूम ही नहीं हुआ और छुट्टी भी खत्म होने को आ गई। तीन चार दिन शेष थे अब छुट्टी के। इस बार छुट्टी में वह इतना व्यस्त-सा रहा कि पत्नी के साथ घड़ी भर एकान्त में बैठने का अवसर ही नहीं निकाल सका। पत्नी की आँखों में इस बात का उलाहना वह दो-चार रोज से देख रहा था।

दोपहर का समय था।
भोजन कर वह लेटने ही जा रहा था कि डाकिया उसके नाम की चिट्ठी उसे थमा गया। सरकारी पत्र था। खोलकर पढ़ने के बाद रामसिंह सन्न् रह गया। जाने कितनी ही देर मूर्तिवत् खड़ा रहा वह। हफ्तेभर के भीतर एक सीमावर्ती इलाके में ड्यटी-ज्वाइन करने के आदेश थे उसके ! फिर से सीमावर्ती इलाके में पोस्टिंग ! बारह साल सीमाओं पर सेवा करने के बाद तो आया था पोस्टिंग होकर इधर। अपने होम-टाउन के पास। चिट्ठी ने उसके मस्तिष्क की दीवारें हिला दीं। दिल का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। उस रात देर तक उसे नींद भी न आई। बस, करवटें बदलता रहा वह और जाने क्या-क्या सोचता रहा।
ऐसी घड़ी में उसे फिर अनायास मंत्री जी का स्मरण हो आया। उसने बिस्तर पर लेटे-लेटे निर्णय-सा लिया– कल दिल्ली जाएगा वह। मंत्री जी से मिलेगा। चाहे जैसे भी हो। उसने खुद देखा है, कितनों के तबादले रुकवाये हैं उन्होंने। कितनों के करवाये हैं। वह भी उनसे अपनी पोस्टिंग रुकवायेगा। वह चाहें तो क्या नहीं हो सकता। डी.जी. को फोन कर देना ही काफी है। बहन की शादी, बूढ़े माँ-बाप की देखभाल की बात बताएगा तो मंत्री जी ज़रूर उसकी मदद करेंगे। बहुत नरमदिल है मंत्री जी। अभी दिल्ली आए उसे डेढ़ साल ही बीता है। ज्यादा नहीं तो एक-डेढ़ साल के लिए तो रुकवा ही सकते हैं। इस बीच बहन की शादी हो जाएगी। छोटा भाई भी कहीं-न-कहीं लग जाएगा। फिर भले ही हो जाए कहीं भी पोस्टिंग।
एक उम्मीद की डोर उसके हाथ लग गई थी। इसी डोर में बँधे-बँधे रामसिंह को नींद ने कब अपनी गिरफ्त में लिया, उसे मालूम ही नहीं हुआ।

जिस समय रामसिंह मंत्री जी की कोठी पहुँचा, वह लोगों से मिलकर अन्दर जा चुके थे। गाड़ी लगी हुई थी और साथ इंस्पेक्टर गनपत तथा दो जवान ‘रेडी’ की मुद्रा में गाड़ी के निकट ही खड़े हुए थे। यानी मंत्री जी तैयार होकर मंत्रालय के लिए निकलने ही वाले थे।
रामसिंह को देर से पहुँचने का किंचित दुख हुआ लेकिन उसने मन ही मन सोचा– कोई बात नहीं। अभी जब मंत्री जी गाड़ी में बैठने के लिए बाहर निकलेंगे, तब बात कर लेगा। गाड़ी में बैठते-बैठते भी वह दो-चार लोगों से मिल लेते हैं। दो-तीन खद्दरधारी व्यक्ति इसी उद्देश्य से खड़े भी थे, आफिस के बाहर।
जवानों ने रामसिंह को देखकर ‘सा’ब नमस्ते !’ की तो उसे अच्छा लगा। गनपत ने ‘कैसे हो रामसिंह ? कैसे आना हुआ ?’ जब पूछा तो पहले प्रश्न का जवाब तो उसने सहजता से दे डाला कि ठीक हूँ अब, लेकिन दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए दिक्कत महसूस हुई उसे। कुछ रुककर उसने सोचते हुए उत्तर दिया, “बस यूँ ही... सोचा मंत्री जी से मिल लूँ।”
“चावला सा’ब तो होंगे न ?” रामसिंह ने गनपत से पूछा और जब गनपत ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया तो वह “ज़रा उनसे मिल लूँ... अभी आता हूँ” कहकर वह आफिस की ओर बढ़ गया।
“कैसे हो रामसिंह ?” चावला ने पूछा और उसका जवाब सुनने से पहले ही बज रहे फोन को उठाकर बात करने लगा। समीप ही पांडे बैठा था, स्वयं को बेहद व्यस्त दर्शाता हुआ। रामसिंह थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा। चावला ने फोन पर बात खत्म की तो रामसिंह ने पूछा, “मंत्री जी मंत्रालय जानेवाले हैं क्या ?”
“हूँ...” चावला ने कहा और मेज पर रखे कागजों को उलटने-पलटने लग पड़ा। रामसिंह अधिक देर वहाँ खड़ा न रह सका और बाहर आकर गाड़ी के समीप खड़ा होकर गनपत से बातें करने लगा।
तभी, मंत्री जी तैयार होकर बाहर निकले। चावला और पांडे भी लपककर गाड़ी के निकट आ गए।
“शर्मा जी, आप अभी भी खड़े हैं ?” मंत्री जी एक सफेद कुर्ता-पाजामाधारी व्यक्ति से बोले, “आपसे कहा है न ! परसों आइए... परसों। और, आप कैसे खड़े हैं ?” एक अन्य व्यक्ति की ओर उन्मुख होते हुए मंत्री जी ने पूछा। वह व्यक्ति कुछ कहने को आगे बढ़ा तो मंत्री जी बोल उठे, “इस वक्त कोई बात नहीं। प्रात: आठे से नौ बजे मैं लोगों से मिलता हूँ। उस वक्त क्यों नहीं आते ? चलिए, कल सुबह आठ बजे आइएगा।”
रामसिंह समीप ही खड़ा था और सोच रहा था कि अभी मत्री जी की दृष्टि उस पर पड़ेगी और वे उससे पूछेंगे– “कैसे हो रामसिंह ?...ठीक हो गए न ?” पर उसने देखा, रामसिंह की ‘नमस्ते’ हवा में ही टंगकर रह गई थी। रामसिंह को देखकर भी अनदेखा कर मंत्री जी गाड़ी में बैठ गए थे और चावला से बोले थे, “चावला, तुम मेरे साथ चलो। पांडे, तुम यहीं रहो।” और फिर, “ड्राइवर, गाड़ी चलाओ...” के साथ ही मंत्री जी की गाड़ी देखते ही देखते रामसिंह की आँखों के आगे से ओझल हो गई।
पांडे चुपचाप अन्दर आकर फोन पर बैठ गया। रामसिंह वहाँ से हटकर कोठी के गेट के पास ही बने जवानों के टेण्ट की ओर बढ़ गया। कुछेक जवान रात की ड्यूटी देकर सो रहे थे। कुछ शेव आदि बना रहे थे। रामसिंह को देखते ही एक बोला, “आइए साब !... ड्यूटी ज्वाइन कर ली आपने साब !”
“नहीं...नहीं।” रामसिंह ने फिर स्वयं को संकट में पाया, “यूँ ही मंत्री जी से मिलने आया था।”
“अच्छा-अच्छा।” दाढ़ी पर साबुन मलते हुए दूसरे जवान ने पूछा, “चाय पियेंगे साब?”
“नहीं, चाय की इच्छा नहीं है।” कहते हुए रामसिंह गेट के समीप ड्यूटी दे रहे जवान के पास जाकर बैठ गया।
“मेरी जगह कौन आया है बहादुर ?”
“जी, अनूपलाल आए हैं।” जवान ने जवाब दिया, “दोपहर बाद ड्यूटी है उनकी। आप कैसे हैं साब ?”
“ठीक हूँ।” कहकर रामसिंह ने पास ही रखे अखबार को उठाया और पढ़ने लगा।
“लंच में तो मंत्री जी आते हैं न ?”
“जी, आते तो हैं।” जब जवान ने कहा तो रामसिंह ने सोचा– ठीक है, तभी मिल लेगा रामसिंह मंत्री जी से। उनके कोठी के अन्दर जाने से पहले ही बात कर लेगा। सुबह के समय तो कितनी व्यस्तता रहती है ! शायद, इसीलिए उसे देखकर भी अनदेखा कर गए।
रामसिंह बैठा-बैठा सोचने लगा। दोपहर तक का समय काटना था रामसिंह ने। एकाएक, कुछ सोचकर वह उठा और कोठीवाले आफिस में जाकर मंत्रालय में फोन करने लगा। चावला को आने का मकसद बता देने में क्या हर्ज़ है ? वह चाहे तो वहीं आफिस में भी दो मिनट के लिए मंत्री जी से मिलवा सकता है।
फोन चावला ने ही उठाया था उधर।
“सा’ब !... मैं रामसिंह... मंत्री जी की कोठी से... वो सा’ब... मंत्री जी से मुझे दो मिनट मिलना था... बहुत ज़रूरी काम था। सुबह आपके सामने बात नहीं हो पाई... जल्दी में थे मंत्री जी। वो... वो बात ऐसी है सा’ब कि ऐरी पोस्टिंग कर दी गई है बार्डर पर। हाँ जी, घर पर ही चिट्ठी आई है। मैं इसी सिलसिले में मिलना चाहता था... दो माह बाद मेरी बहन की शादी है... मैं चाहता था कि अभी एक-दो साल के लिए... जी...जी... मंत्री जी चाहें तो रुक सकती है पोस्टिंग। कहें तो आ जाऊँ वहीं, ज्यादा नहीं, दो मिनट मिलवा दीजिएगा।” सामने बैठा पांडे रामसिंह का फोन पर गिड़गिड़ाना देख रहा था। उधर से चावला ने कहा, “अभी तो मंत्री जी नहीं मिल पाएंगे। बहुत व्यस्त हैं। लंच में कोठी पर आएंगे तो मिल लेना।” और फोन कट गया था।
रामसिंह वक्त काटने के लिए कोठी से बाहर निकल आया। कुछ ही दूर बने टैक्सी स्टैण्ड पर पहुँचकर उसकी इच्छा चाय पीने की हुई। कुछ ही फासले पर चाय का खोखा था। रामसिंह उसी ओर बढ़ गया।

दो बज रहे थे और मंत्री जी अभी लंच के लिए कोठी पर नहीं आए थे। रामसिंह गेट पर बैठे जवान के पास बैठकर बीड़ियाँ फूंकता रहा। अब उसे भूख भी लग आई थी। गाँव से चला था तो सोचा था, सुबह-सुबह ही मंत्री जी से बात हो जाएगी और दोपहर तक लौट आएगा गाँव में। रह-रहकर उसकी नज़र लोहे के गेट की ओर उठ जाती थी।
तीन बजे के करीब गाड़ी आई थी। पर मंत्री जी नहीं, गनपत और दोनों जवान उतरे थे गाड़ी से। गनपत ने पांडे से मंत्री जी का खाना मंत्रालय में ही भिजवाने को बोला तो रामसिंह से रहा न गया और उसने पूछ लिया, “क्यो, मंत्री जी इधर नहीं आएंगे?”
“नहीं रामसिंह, लंच वहीं आफिस में लेंगे और उसके बाद पी.एम. आफिस चले जाएंगे, एक मीटिंग में।” गनपत ने रामसिंह के निकट ही बैठते हुए कहा।
गनपत की ड्यूटी खत्म हो गई थी और अब दूसरी शिफ्ट के लिए रामसिंह के स्थान पर आया दूसरा इंस्पेक्टर अनूपलाल दो जवानों के साथ खाना लेकर उसी गाड़ी में बैठकर मंत्रालय के लिए रवाना हो गया था।
“रामसिंह !” गनपत ने बीड़ी सुलगाते हुए पूछा, “बहुत ज़रूरी काम था क्या ?”
रामसिंह ने सारी बात विस्तार से गनपत को बता दी।
“अच्छा तो मिल ही गए आदेश !...” गनपत ने ऐसे कहा, जैसे उसे मालूम था कि ऐसा होगा।
“तुम्हें मालूम है रामसिंह... मंत्री जी पर पत्थर फिंकवाने के जुर्म में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है। यूनियन के लोग थे। और चेयरमैन की तो छुट्टी कर दी गई। और वो अपना ड्राइवर था न, जिसकी उस दिन मंत्री जी के साथ ड्यूटी थी, जिसने गाड़ी चलाने से इन्कार कर दिया था, उसका दिल्ली से बाहर तबादला कर दिया गया है।”
कुछ रुककर गनपत ने पूछा, “तुम्हें मालूम है, तुम्हारी पोस्टिंग भी मंत्री जी की शिकायत पर ही...”
“शिकायत पर ?”
“मंत्री जी के कहने पर तुमने भीड़ पर उस दिन गोली दाग दी होती तो तुम्हें यह पुरस्कार नहीं मिलता।”
‘गोली दाग दी होती !’ मन ही मन रामसिंह ने बुदबुदाया तो जैसे एक धुन्ध-सी छट गई उसकी आँखां के आगे से। साथ ही, चावला के शब्द ‘ठीक नहीं किया’ पांडे की चुप्पी, मंत्री जी का देखकर भी उसे अनदेखा कर जाना, ये सब रामसिंह को अपना स्पष्ट अर्थ देने लगे थे।
यह वह क्या सुन रहा है... क्या यह सच है ?... यहाँ आकर उसने यूँ ही एक दिन बरबाद किया। उसे यहाँ नहीं आना चाहिए था। रामसिंह का अन्तर्मन एकाएक आत्मग्लानि से भर उठा। वह एक सिपाही है, सिपाही को हर क्षण कहीं भी, किसी भी इलाके में तैनात होने के लिए तैयार रहना चाहिए।
रामसिंह उठ खड़ा हुआ तो गनपत ने पूछा, “चल दिए रामसिंह, मंत्री जी से नहीं मिलोगे ? शाम को मिलकर ही जाते।”
“नहीं। शाम तक नहीं रुकूँगा। अच्छा, चलता हूँ। घर पहुँचकर पैकअप भी तो करना है।” कहकर रामसिंह ने गनपत से हाथ मिलाया और तेजी के साथ कोठी से बाहर हो गया।
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( आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)” में संग्रहित )