सोमवार, 15 अप्रैल 2013

लघुकथा

मित्रो, ऐसा बहुत ही कम होता है कि इधर रचना लिखी और उधर वह कहीं छप छपा गई। अधिकांश रचनाएं लिखे जाने के बाद पत्रिकाओं का मुँह जोहती रहती हैं और उनके छपने में कई कई साल भी लग जाते हैं। कहीं किसी पत्र-पत्रिका में छ्पने के लिए स्वीकृत भी हो जाएँ तो भी एक लम्बा समय लगता है, उनके छपने में। मेरी बहुत-सी लघुकथाओं और कहानियों के संग ऐसा ही हुआ है। एक दिन जनवरी 12 के प्रथम सप्ताह में भाई कृष्ण बिहारी जी का मेल मुझे प्राप्त हुआ। उन्होंने मेरी बहु-चर्चित लघुकथा ‘बीमार’ मेरे इसी ब्लॉग पर पढ़ी थी, उन्हें अच्छी लगी थी और उन्होंने अपनी पत्रिका ‘निकट’ के लिए मुझसे कुछ लघुकथाएँ प्रकाशनार्थ मांगी। ‘निकट’ के बारे में सुन रखा था, पर यह पत्रिका देखी नहीं थी। कृष्ण बिहारी जी को उनकी कहानियों से जानता था। वह एक अच्छे कथाकार हैं और आबू धाबी(यू ए ई) में रहकर मौलिक लेखन से साथ साथ ‘निकट’ पत्रिका भी निकालते है। मैंने उन्हें अपनी चार लघुकथाएँ भेज दीं। परन्तु, बीच में कुछ व्यवधान के कारण ‘निकट’ का छपना स्थगित होता रहा और जनवरी 13 में कहीं जाकर ही इसका अंक आ पाया। मुझे ‘निकट’ में छपकर अच्छा लगा और सबसे अच्छा यह लगा कि भाई कृष्ण बिहारी जी ने मेरी लघुकथाओं को अपनी पत्रिका में ‘फिलर’ के तौर पर नहीं छापा। हिंदी की बहुत-सी पत्रिकाएँ आज भी अगर लघुकथा को छापती हैं तो ‘फिलर’ के तौर पर ही। उसको कहानी की तरह उसका वाजिब स्पेश नहीं देतीं। ‘निकट-6’ में मेरी चारों लघुकथाओं को अलग से उनका सम्मानीय स्पेश मिला। लघुकथाओं को यह सम्मान मिलना ही चाहिए। वे इसकी हक़दार भी हैं।
इस बार ‘सृजन-यात्रा’ में ‘निकट-6’ में छपी उन्हीं चार लघुकथाओं में से एक लघुकथा ‘इस्तेमाल’ आपसे साझा कर रहा हूँअन्य तीन भला मानुष, मकड़ी और बाँझ’ भी यथासमय ‘सृजन-यात्रा’ में अपने पाठकों से साझा करूंगा।
 -सुभाष नीरव

इस्तेमाल
सुभाष नीरव


डोर-बेल बजने पर दरवाजा खोला तो मोहक मुस्कान बिखेरती एक सुन्दर युवती खड़ी मिली।
''आओ, कनक। मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।'' जाने-माने वयोवृद्ध लेखक श्रीयुत दीपांकर जी उसे देखकर चहक उठे।
          कनक लता ने झुककर दीपांकर जी के चरण छुए और आशीर्वाद पाकर बैठक में पड़े सोफे पर बैठ गई। दीपांकर जी पत्नी को चाय के लिए कहकर सामने वाले सोफे पर बैठे।
          ''आदरणीय, पिछली संगोष्ठी पर आपने जो बात मुझसे कही थी, उस पर मैंने अमल करना आरंभ कर दिया है।'' कनक ने बात की शुरुआत की।
          ''कौन-सी बात ?'' दीपांकर जी कुछ स्मरण करते-से सिर खुजलाते हुए बोले। फिर, यकायक जैसे उन्हें स्मरण हो आया, ''अच्छा-अच्छा...''
          ''त्रिवेदी जी का फोन आया था।'' कनक ने सोफे से पीठ टिकाकर बताना आरंभ किया, ''बहुत जोर दे रहे थे कि मैं उनकी पुस्तक पर होने वाली आगामी गोष्ठी का संचालन करुँ। पर मैंने संचालन करने से इन्कार कर दिया।''
          ''त्रिवेदी जी तो नाराज हो गये होंगे?'' दीपांकर जी ने कनक के चेहरे पर अपनी नज़रें स्थिर करते हुए कहा।
          ''होते हैं तो हो जाएँ। बहुत बरस हो गये संचालन करते-करते। सचमुच, मेरा अपना लेखन किल होता रहा, इन संचालनों के चक्कर में। दायरा तो बढ़ा, लोग मुझे जानने-पहचानने भी लगे, पर एक संचालिका के रूप में, एक लेखक के रूप में नहीं।'' कनक ने भौंहें सिकोड़कर अपना रोष और पीड़ा व्यक्त की। कुछ रुककर फिर बोली,      ''आप ही की कही बात पर सोचती हूँ तो लगता है, आपने ठीक कहा था कि आखिर कब तक मैं दूसरों का नाम मंच से पुकारती रहूँगी। मुझे एक लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनानी होगी लोगों के बीच। कोई मेरा भी नाम स्टेज से पुकारे, एक लेखक के तौर पर।'' कनक ने माथे पर गिर आई लट को पीछे धकेला और चश्मे को ठीक करने लगी।
          इस बीच चाय गई। चाय का कप उठाते हुए दीपांकर जी बोले, ''अच्छा निर्णय लिया तुमने। तुम्हारे अन्दर प्रतिभा है। अच्छा लिखती हो। तुम्हें अपनी ऊर्जा का इन फालतू के कामों में अपव्यय नहीं करना चाहिए। तुम्हें अपनी इस शक्ति और ऊर्जा को अपने लेखन में लगाना चाहिए।''
          चाय का कप उठाने से पहले, कनक ने झोले में से एक फाइल निकाली और दीपांकर जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ''इसमें मेरी कुछ नई कहानियाँ है। पुस्तक रूप में देना चाहती हूँ। चाहती हूँ, छपने से पहले आप इन्हें एक बार देख लें।... यदि कोई प्रकाशक सुझा सकें तो...''
          ''क्यों नहीं।'' फाइल उलट-पलटकर देखते हुए दीपांकर जी ने कहा, ''तुम अच्छा लिख रही हो। पुस्तक तो बहुत पहले जानी चाहिए थी। खैर, देर आयद, दुरुस्त आयद। मैं देखूंगा।''
          कनक ने चाय खत्म की और घड़ी की ओर देखा। बोली, ''आदरणीय, क्षमा चाहती हूँ, मुझे कहीं जाना है। फिर जल्द ही मिलती हूँ। तब तक आप इन्हें पढ़ लें।''
          कनक उठकर खड़ी हुई तो एकाएक दीपांकर जी को कुछ याद हो आया। बोले, ''सुनो कनक, शब्द-साहित्य वाले अगले सप्ताह आठ तारीख को मेरा सम्मान करना चाहते हैं। मैंने तो बहुत मना किया, पर वे माने ही नहीं। मैं चाहता हूँ, तुम्हारी भी उस कार्यक्रम में कुछ भागीदारी हो। डरो नहीं, तुम्हें संचालिका के रूप में नहीं, एक नवोदित लेखिका के रूप में बुलाया जाएगा।'' बगल के मेज पर से पाँच-छह किताबों का बंडल उठाते हुए वह बोले, ''ये मेरी कुछ किताबें हैं। पढ़ लेना। मैं चाहता हूँ, तुम मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर पन्द्रस-बीस मिनट का आलेख तैयार करो, समारोह में पढने के लिए। समय कम है, पर मुझे विश्वास है, तुम लिख लोगी।''
           कनक लता ने एक नज़र किताबों पर डाली, बेमन-से उन्हें झोले में डाला और प्रणाम कर बाहर निकल आई।