शनिवार, 12 मार्च 2011

लघुकथा



बहुत-सी रचनाओं का जन्म हमारे कार्यक्षेत्र के अनुभवों से जुड़ा होता है। मेरी ऐसी अनेक कहानियाँ, लघुकथाएँ हैं जो मेरी रोजी रोटी से जुड़े कार्यक्षेत्र के तनावों में से ही उपजीं। यहाँ 'अपने क्षेत्र का दर्द' शीर्षक से जो लघुकथा प्रस्तुत की जा रही है, यह उन दिनों की उपज है जब मेरी ड्यूटी भारत सरकार के एक केन्द्रीय मंत्री के कार्यालय में थी। सन् 80-85 के बीच की बात होगी। मंत्रियों के दोहरे चरित्र मैंने तभी बहुत करीब से देखे। उनकी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अन्तर देखने को मिला, आँखें फटी की फटी रह गईं। वो जो दिखते हैं, होते नहीं। जो होते हैं, वे दिखते नहीं। एक जबरदस्त तनाव और छटपटाहट के बीच हम पेट की खातिर कुछ नहीं कर पाते। परन्तु, उस ‘कुछ’ न कर पाने के अपराध बोध से लेखक मुक्ति का एक दूसरा रास्ता अपनाता है। मैंने भी अपनाया यानी अपने देखे-अनुभव किए को अभिव्यक्त करने का रास्ता। मैंने उस ‘सच’ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर अपने अपराधबोध और ग्लानि को कुछ कम करने का प्रयास किया और मैं सफल भी रहा। 'गोली दागो रामसिंह'(कहानी जो दिनमान टाइम्स, नई दिल्ली में प्रकाशित हुई), और 'रंग-परिवर्तन' (लघुकथा जो रमेश बत्तरा ने नवभारत टाइम्स में छापी) 'अपने क्षेत्र का दर्द' की भांति ऐसे ही माहौल से उपजी मेरी रचनाएँ हैं। 'गोली दागो रामसिंह' कहानी 'सृजन-यात्रा' में 'कहानियाँ' लेबल के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुकी है और 'रंग परिवर्तन' लघुकथाओं के क्रम में आगे आपके समक्ष प्रस्तुत होगी।
'अपने क्षेत्र का दर्द' लघुकथा भी 'सारिका' में सन् 1986 के आसपास प्रकाशित हुई। इसे बलराम ने वर्ष 1988 में प्रकाशित 'हिंदी लघुकथा कोश' में मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ शामिल किया था।
-सुभाष नीरव

अपने क्षेत्र का दर्द
सुभाष नीरव

मन्त्री जी के नाम आयी सारी-की-सारी डाक चपरासी ने मेज़ पर उसके सामने रख दी।
उन सबके बीच मुड़े-तुड़े मैले-से एक कागज ने उसका ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींच लिया। यह अस्पष्ट शब्दों में लिखा एक पत्र था। उसने उसे निकाला और अन्त तक पढ़ा। पत्र का एक-एक शब्द एक गरीब और असहाय बाप की पीड़ा को व्यक्त कर रहा था जिसकी इकलौती बेटी को दहेज के भूखे भेड़ियों ने जिन्दा जला डाला था। इलाके के थानेदार ने ससुराल वालों के खिलाफ़ रपट लिखने की बजाय, उल्टा उसे ही बुरी तरह मारा-पीटा और धमकाया था। 'गरीबों के मसीहा', 'ईश्वर', 'देवता' आदि कितने ही विशेषणों से मन्त्री जी को सम्बोधित करते हुए उसने अपने पत्र में न्याय दिलाने की गुहार लगाई थी।
पत्र को पढ़कर उसे अपनी बेटी का ध्यान हो आया। आये दिन वह एक नयी माँग के साथ धकेल दी जाती है - मायके में। क्या किसी दिन उसे भी ? नहीं-नहीं... वह भीतर तक काँप उठा।
उसने तुरन्त सम्बन्धित प्रदेश के मुख्य मन्त्री के नाम चिट्ठी टाइप करवाई और मन्त्री जी के हस्ताक्षर के लिए उनके कमरे में भेज दी।
थोड़ी ही देर बाद, मन्त्री जी ने उसे बुलाया।
''यह चिट्ठी तुमने भिजवाई है ?''
''जी सर! बेचारे गरीब की बेटी को जिन्दा जला डाला दरिन्दों ने दहेज के लालच में। यही नहीं सर, इलाके के थानेदार ने रपट तक दर्ज नहीं की और उस बूढ़े को बुरी तरह मारा-पीटा भी...।''
''हूँ...'' मन्त्री जी ने एक बार उसकी ओर देखा। चिट्ठी मन्त्री जी की उँगलियों के बीच झूल रही थी, ''तुमने पत्र मुझे दिखलाने से पहले ही चिट्ठी तैयार करवा दी! मुझसे पूछा तक नहीं ?''
''जी मैंने...'' उसने हकलाते हुए कारण स्पष्ट किया, ''बात यह है सर, कि पिछले दिनों ऐसी ही एक चिट्ठी के जवाब में आपने सम्बन्धित प्रदेश के मुख्य मन्त्री के नाम इसी प्रकार की सख़्त चिट्ठी भिजवाई थी, सो मैंने...''
''चिट्ठी तैयार करने से पहले मुझसे पूछ लिया करो।'' कहते हुए मन्त्री जी ने अपनी उँगलियों के बीच झूलती हुई चिट्ठी को चिन्दी-चिन्दी कर नीचे रखी टोकरी में फेंका और बोले, ''तुम्हें मालूम है, वह हमारे संसदीय क्षेत्र का मामला था, और यह...''
मन्त्री जी के कमरे में से निकलते हुए उसे लगा, जैसे उसकी अपनी बेटी जिन्दा जला दी गयी हो और वह कुछ न कर पाने के लिए शापित हो।
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