शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

लघुकथा



जनवरी 2014 के ‘हंस’ में ‘सेंध’ लगी थी। फरवरी 2014 के ‘हंस’ में मेरी नई लघुकथा ‘तकलीफ़’ ने जगह पाई। चूंकि अब यह लघुकथा प्रकाशित हो गई है, अत: अपने ब्लॉग पर मैं इसे साहित्य प्रेमियों, विशेषकर लघुकथा प्रेमियों से साझा कर रहा हूँ ताकि जिन्हें ‘हंस’ उपलब्ध नहीं होता, वे इसे यहाँ पढ़ सकें। आशा है, पाठक मित्र अपनी बेबाक राय से मुझे अवगत कराएँगे।

-सुभाष नीरव


तकलीफ़
सुभाष नीरव



नई पड़ोसिन से मेरा परिचय मेरी पत्नी ने ही कराया था। उसे हमारे सामने वाले फ्लैट में आए अभी कुछ माह ही हुए थे। उसका पति किसी सरकारी आफिस में अच्छे पद पर था। एक बेटा था जो देहरादून में पढ़ता था। पत्नी ने उसे मेरे लेखक होने के बारे में भी बताया था और मेरी छपी किताबों की जानकारी भी दी थी। ऐसा वह प्राय: उन सबसे कहा करती है जो हमारे घर में पहली बार आते हैं। मेरे लेखक होने की एक अतिरिक्त योग्यता को बताते हुए उसे शायद गर्व की प्रतीति होती है। पड़ोसिन ने सकुचाते हुए बताया था कि वह भी कभी लिखा करती थी। कालेज की मैगजीन में कहानी, कविताएं छपती थीं। पर विवाह के बाद लिखना-पढ़ना बन्द-सा हो गया।
            वह अक्सर हमारे घर आती और घंटा-आध घंटा बैठकर पत्नी से गप्प-शप्प करती और कोई कोई पुस्तक पढ़ने के लिए मेरी अल्मारी में से ले जाती।
अब वह आती तो उसके हाथ में हस्तलिखित कागज होता। सकुचाते हुए मुझे दिखाती। पहली बार जब वह कुछ लिखकर लाई थी, तभी मैंने उसका नाम जाना था - निवेदिता घोष। नये लेखक की लेखनी में जो कच्चापन होता है, वह उसकी रचनाओं में साफ झलकता था, पर मैं उसे हतोत्साहित करता। तारीफ़ करता और लिखने के साथ साथ समकालीन साहित्य को पढ़ने की सलाह भी देता। हम लोग बैठकर बात कर रहे होते तो पत्नी बीच बीच में आतीं, कभी चाय-नाश्ता रख जातीं। कभी कुछ मिनट हमारे पास भी बैठतीं और फिर अपने काम में लग जातीं।
यह सिलसिला पिछले दो तीन माह से निरंतर चल रहा है। अब निवेदिता मेरे स्टडी रूम में सीधे चली आती। पुस्तकें लौटाती और साहित्य पर बात करती, हाल ही में किसी पत्रिका में छपी कहानी को लेकर बैठ जाती और उस पर खुल कर चर्चा करने लगती। और जब उठकर जाने लगती, संग लाई अपनी नई कहानी मुझे थमा जाती।
मेरी तारीफ़ उस पर अपना रंग दिखा रही थी। मेरे कहने पर वह अपनी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में भी भेजने लगी थी। जब किसी पत्रिका में उसकी पहली कहानी छपी तो वह बेहद खुश थी। वह इसका सारा श्रेय मुझे देती रही।
पर पत्नी का चेहरा मुझे कुछ उदास उदास-सा लगा।
एक दिन सोने से पहले वह बोली, ''सुनो जी, आपको नहीं लगता, ये निवेदिता आजकल आपसे मिलने कुछ ज्यादा ही आने लगी है।''
''अरे भई, तुम्हारी पड़ोसिन अब लेखिका बन गई है। अपना नया लिखा दिखाने-सुनाने जाती है।''
''पर मुझे कुछ ठीक नहीं लगता।''
''क्यों ? तुमने खुद ही तो परिचय करवाया था। खुद ही बताती रहती हो लोगों को कि मेरे पति लेखक हैं। अब क्या हुआ ?''
''वो तो ठीक है... मोहल्ले की औरतें क्या सोचेंगी कि जब देखो, नई पड़ोसन...''
''क्यों तुम भी तो घर में ही होती हो।''
''कुछ भी हो, उसका आपसे इतना ज्यादा घुलना मिलना ठीक नहीं। देखो , सीधे आपके स्टडी रूम में घुस जाती है। सारा समय आपसे ही बतियाने में लगी रहती है। मेरे लिए तो इसके पास समय ही नहीं रहा। पहले आती थी तो मेरे पास घंटों बैठती थी, गप्प-शप्प मारती थी। घर के काम में भी हाथ बंटा देती थी। कभी सब्जी काट देती थी, कभी दाल-चावल बीन देती... कभी मुझे ही अपने घर बुला लेती थी, पर अब तो महारानी जी...''
पत्नी की तकलीफ जानकर मेरे मुँह से बरबस हँसी निकल गई जिसे मैं बहुत देर तक रोक नहीं पाया।