शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

कविताएं



सृजन-यात्रा’ के पिछले अंक में मैंने अपनी कविता ‘काम करता आदमी’ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत की थी। अंक में प्रस्तुत हैं– पेड़ से जुड़ीं मेरी दो छोटी-छोटी कविताएं …


दो कविताएं/ सुभाष नीरव


पेड़-1

आँधी-पानी सहते हैं
धूप में तपते हैं, झुलसते हैं
तूफानों से करते हैं
मल्लयुद्ध
अपनी ज़मीन छोड़ कर
कहीं नहीं जाते ये पेड़।

मुसीबतों से डरना
और डर कर भागना
आता नहीं इन्हें।

कितने साहसी होते हैं ये पेड़
आदमी के आस पास होते हुए भी
आदमी की राजनीति से अछूते।

अपनी ज़मीन के प्रति
कितने वफ़ादार होते हैं ये पेड़ !
00


पेड़-2

मौसम ज़ुल्म ढाता है
और
चूसने लगता है जब
हरापन
दरख़्तों के चेहरे
पीले पड़ जाते हैं।

आपस में गुप्त
फ़ैसला होता है तब
और
सब के सब
दरख़्त
एकाएक नंगई पर उतर आते हैं।

हार कर एक दिन
मौसम अपने घुटने टेकता है
और तब फिर से
दरख़्तों पर
हरापन फूटता है।
00
(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

सोमवार, 6 जुलाई 2009

कविताएं


लेखन की शुरूआत कविता से हुई। बाद में, गद्य की ओर मुड़ गया यानी कहानी-लघुकथा की ओर। लेकिन, कविता से रिश्ता निरंतर बना रहा, टूटा नहीं। अच्छी कविताएं और उर्दू-शायरी को खोज-खोज कर पढ़ना आज भी जारी है। अगर मैं यह कहूँ कि जब-जब मैंने जीवन में स्वयं को अकेला महसूस किया है, कविता को ही अपने बहुत करीब पाया है, तो गलत न होगा। कविताओं ने कभी जीवन की चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा दी, तो कभी हताशा-निराशा के अँधेरों में उम्मीद की किरण बन कर चमकीं। कविता ने गद्य की तरह मुझसे अधिक कुछ नहीं मांगा। बस, थोड़ा-सा वक्त, थोड़ा-सा प्रकाश, थोड़ी-सी स्याही, थोड़ा-सा काग़ज़(कभी-कभी तो बस की टिकट के पिछ्ले हिस्से से भी काम चलाया)। लेखन के शुरूआती दिनों में सन् 1979 में मित्र रूपसिंह चन्देल के साथ मिलकर एक छोटा-सा कविता संकलन छ्पा- ‘यत्किंचित’ शीर्षक से। फिर काफी अंतराल के बाद वर्ष 2003 में एकल कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” आया। “सृजन-यात्रा” में अपने कविता संग्रहों और संग्रहों से बाहर की कविताएं मैं समय-समय पर ‘नेट’ की दुनिया के पाठकों के सामने रखता रहूँगा। इस अंक में प्रस्तुत हैं –मेरी एक कविता –‘काम करता आदमी’…



कविता



काम करता आदमी
सुभाष नीरव

कितना अच्छा लगता है
काम करता आदमी।

बहुत अच्छा लगता है
लोहा पीटता लुहार
रंदा लगाता बढ़ई
गोद में बच्चा लिए
पत्थर तोड़ती औरत
और
सड़क बनाता मजदूर।

कितना अच्छा लगता है
मिट्टी के संग मिट्टी हुआ किसान
अटेंशन की मुद्रा में
चौकसी करता जवान।

अच्छा लगता है
फाइलों मे खोया बाबू
पियानों की तरह
टाइपराइटर बजाता टाइपिस्ट।

बहुत अच्छी लगती है
धुआँते चूल्हे में फुंकनी मारती माँ
तवे के आकाश पर
चाँद-सी रोटी सेंकती बहन
धुले-गीले कपड़ों को
अलगनी पर सुखाती पत्नी।

दरअसल
काम करता आदमी
प्रार्थनारत् होता है
और
प्रार्थनारत् आदमी
किसे अच्छा नहीं लगता।
0
(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)