शनिवार, 12 जून 2010

कविता



धारा के विरुद्ध
सुभाष नीरव


बने बनाये साँचों में ढलना
बहुत आसान होता है

कठिन होता है
अपने लिए अलग साँचा बनाना
और खुद को उसमें ढालना

ऐसा करके देखो-
अलग दिखोगे।

धारा के साथ
हर कोई बह सकता है
कठिन होता है
धारा के विरुद्ध तैरना

तैर कर देखो-
अलग दिखोगे।

पतंग जब तक
हवा के साथ होती है
उड़ती है पर
ऊँचाइयाँ नहीं छूती

होती है जब
हवा के विरुद्ध
उठती है ऊपर, बहुत ऊपर
और दीखती है
सबसे अलग आकाश में !
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)