शनिवार, 5 सितंबर 2009

कविता









आग और धुआँ

सुभाष नीरव

धुआँ देख
हरकत में नहीं आते हैं वे।


‘दीखती नहीं हैं लपटें
नहीं, यह नहीं है आग…’

धुएँ का होना
उनके लिए आग नहीं है।

वे बैठे हैं बेहरकत
और धुआँ
इधर से उधर
उधर से इधर
ऊपर से ऊपर
गाढ़ा हो फैलता ही जाता है।


‘वो उठीं लपटें…
हाँ, यह है आग…’
और हरकत में आ जाते हैं वे।

चीखने लगते हैं सायरन
बजने लगती हैं घंटियाँ
दौड़ने लगती हैं दमकलें…


लेकिन
जब तक पहुँचते हैं वे आग तक
घंटियाँ और सायरन बजाती
दमकलों के साथ
कुछ नहीं रहता शेष
शेष रहता है
मातम
धुआँ
राख !
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)