बुधवार, 2 जनवरी 2013

कहानी-18



मित्रो, नववर्ष के उपलक्ष्य में मेरी कहानी 'नए साल की धूप'राजस्थान पत्रिका'    के 31 दिसम्बर 2012(रविवार) के अंक में प्रकाशित हुई है। इसे मैं अपने ब्लॉग के माध्यम से आप सबसे भी साझा करना चाहता हूँ। आशा है, आपको पसंद आएगी और आप अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे।
   
नये साल की धूप
सुभाष नीरव
रोज की तरह आज भी बिशन सिंह की आँख मुँह-अँधेरे ही खुल गई, जबकि रात देर तक पति-पत्नी रजाई में घुसे टी.वी. पर अलविदा होते साल और नव वर्ष के आगमन को लेकर होने वाले कार्यक्रम देखते रहे थे और अपने जीवन के बीते वर्षों के दु:ख-सुख साझा करते रहे थे। रात्रि के ठीक बारह दोनों ने रेवड़ी के दानों से मुँह मीठा करते हुए एक-दूसरे को नये वर्ष की शुभकामनाएं दी थीं। फिर सुखवंती अपनी बिस्तर में घुस गई थी।
 एक बार आँख खुल जाए, फिर बिशन सिंह को नींद कहाँ। वह उठकर बैठ गया था। ठिठुरते-कांपते अपने बूढ़े शरीर के चारों ओर रजाई को अच्छी प्रकार से लपेट-खोंस कर उसने दीवार से पीठ टिका ली थी। एक हाथ की दूरी पर सामने चारपाई पर सुखवंती रजाई में मुँह-सिर लपेटे सोई पड़ी थी।
      'कहीं तड़के कहीं जाकर टिकी है। बिस्तर पर घुसते ही खांसी का दौरा उठने लगता है इसे। कितनी बार कहा है, जो काम करवाना होता है, माई से करवा लिया कर, पर इसे चैन कहाँ! ठंड में भी लगी रहेगी, पानी वाले काम करती रहेगी, बर्तन मांजने बैठ जाएगी, पौचा लगाने लगेगी। और नहीं तो कपड़े ही धोने बैठ जाएगी। अब पहले वाली बात तो रही नहीं। बूढ़ा शरीर है, बूढ़ा शरीर ठंड भी जल्दी पकड़ता है।' सुखवंती को लेकर न जाने कितनी देर वह अपने-आप से बुदबुदाता रहा।
      बाहर आँगन में चिड़ियों का शोर बता रहा था कि सवेरा हो चुका था। बिशन सिंह ने बैठे-बैठे वक्त का अंदाजा लगाया। उसका मन किया कि उठकर खिड़की खोले या आँगन वाला दरवाजा खोलकर बाहर देखे - नये साल की नई सुबह ! पर तभी, इस विचार से ही उसके बूढ़े शरीर में कंपकंपी की एक लहर दौड़ गई। कड़ाके की ठंड! पिछले कई दिनों से सूर्य देवता न जाने कहाँ रजाई लपेटे दुपके थे। दिनभर धूप के दर्शन न होते। तभी वह चिड़ियों के बारे में सोचने लगा। इन चिड़ियों को ठंड क्यों नहीं लगती? इस कड़कड़ाती ठंड में भी कैसे चहचहा रही हैं बाहर। फिर उसे लगा, जैसे ये भी चहचहाकर नये साल की मुबारकबाद दे रही हों।
      हर नया साल नई उम्मींदें, नये सपने लेकर आता है। आदमी साल भर इन सपनों के पीछे भागता रहता है। कुछ सपने सच होते हैं, पर अधिकांश काँच की किरचों की तरह ज़ख्म दे जाते हैं। जिन्दर को लेकर उन दोनों पति-पत्नी ने कितने सपने देखे थे। पर क्या हुआ?
      तभी, सुखवंती ने करवट बदली थी। करवट बदलने से रजाई एक ओर लटक गई थी। उसका मन हुआ कि वह आवाज़ लगाकर उसे जगाये और रजाई ठीक करने को कहे। पर कुछ सोचकर उसने ऐसा नहीं किया। इससे उसकी नींद में खलल पड़ता। उसने खुद उठकर सुखवंती की रजाई ठीक की, इतनी आहिस्ता से कि वह जाग न जाए। जाग गई तो फिर दुबारा सोने वाली नहीं। वैसे भी सुखवंती, ठीक हो तो इतनी देर तक कभी नहीं सोती।
      वह फिर अपने बिस्तर में आकर बैठ गया था।
      स्मृतियाँ अकेले आदमी का पीछा नहीं छोड़तीं। बूढ़े अकेले लोगों का सहारा तो ये स्मृतियाँ ही होती हैं जिनमें खोकर या उनकी जुगाली करके वे अपने जीवन के बचे-खुचे दिन काट लेते हैं। वह भी अपनी यादों के समन्दर में गोते लगाने लगा।
      सुखवंती ब्याह कर आई थी तो उसके घर की हालत अच्छी नहीं थी। बस, दो वक्त की रोटी चलती थी। गाँव में छोटा-मोटा बढ़ई का उनका पुश्तैनी धंधा था। पर सुखवंती का पैर उसके घर में क्या पड़ा कि उसके दिन फिरने लगे। फिर उसको शहर के एक कारखाने में काम मिल गया। हर महीने बंधी पगार आने से धीरे-धीरे उसके घर की हालत सुधरने लगी। कच्चा घर पक्का हो गया। भांय - भांय करता घर हर तरह की छोटी-मोटी ज़रूरी वस्तुओं से भरने लगा। उसने गाँव में ही ज़मीन का छोटा-सा टुकड़ा खरीद लिया। चार दुकानें निकाल लीं। एक अपने पास रखकर बाकी तीन किराये पर चढ़ा दीं। हर महीने बंधा किराया आने लगा। कारखाने की पगार और दुकानों का किराया, और दो जीवों का छोटा-सा परिवार। रुपये-पैसे की टोर हो गई।
      सुखवंती ने फिर करवट बदली। अब उसने मुँह पर से रजाई हटा ली थी। बिशन सिंह उसके चेहरे की ओर टकटकी लगाये देखता रहा।
      ईश्वर ने हर चीज़ का सुख उनकी झोली में डाला था। बस, एक औलाद का सुख ही नहीं दिया। बहुत इलाज करवाया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। सुखवंती चाहकर भी यह सुख बिशन सिंह को न दे पाई। लोग बिशन सिंह को समझाते-उकसाते, दूसरा विवाह करवा लेने के लिए यह कहकर कि औलाद तो बहुत ज़रूरी है, जब बुढ़ापे में हाथ-पैर नहीं चलते तब औलाद ही काम आती है। पर उसने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कभी।
      इस बार, सुखवंती ने करवट बदली तो उसकी आँख खुल गई। मिचमिचाती आँखों से घरवाले को बिस्तर पर बैठा देखा तो वह उठ बैठी। पूछा, ''क्या बात है? तबीयत तो ठीक है?''
      ''हाँ, पर तू अपनी बता। आज डॉक्टर के पास चलना मेरे साथ।''
      ''कुछ नहीं हुआ मुझे।'' सुखवंती ने अपना वही पुराना राग अलापा, ''मामूली-सी खाँसी है, ठंड के कारण। मौसम ठीक होगा तो अपने आप ठीक हो जाएगी। पर मुझे तो लगता है, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं। कांपे जा रहे हो।''
      ''बस, ठंड के कारण कांप रहा हूँ। इस बार तो ठंड ने रिकार्ड तोड़ डाला।'' बिशन सिंह ने रजाई को अपने चारों ओर खोंसते हुए कहा।
      ''बैठे क्यों हो? लेट जाओ बिस्तर में। मैं चाय बनाकर लाती हूँ।''
      ''लेटे-लेट भी जी ऊब जाता है। धूप निकले तो बाहर धूप में बैठें। तीन दिन हो गये धूप को तरसते। पता नहीं, आज भी निकलेगी कि नहीं।''
      ''नहीं, अभी पड़े रहो बिस्तर में। बाहर हवा चल रही होगी। जब धूप निकलेगी तो चारपाई बिछा दूँगी बाहर।'' घुटनों पर हाथ रखकर सुखवंती उठी और 'वाहेगुरु - वाहेगुरु' करती हुई रसोई में घुस गई। कुछ देर बार वह चाय का गिलास लेकर आ गई। बिशन सिंह ने गरम-गरम चाय के घूंट भरे तो ठिठुरते जिस्म में थोड़ी गरमी आई। उसने सुखवंती को हिदायत दी, ''अब पानी में हाथ न डालना। अभी माई आ जाएगी। खुद कर लेगी सारा काम। आ जा मेरे पास, चाय का गिलास लेकर।''
      सुखवंती ने पहले अपना बिस्तर लपेटा, चारपाई को उठाकर बरामदे में रखा और फिर अपना चाय का गिलास उठाकर बिशन सिंह के पास आ बैठी, उसी के बिस्तर में। बिशन सिंह अपनी ओढ़ी हुई रजाई को खोलते हुए बोला, ''थोड़ा पास होकर बैठ, गरमाहट बनी रहेगी।''
      सुखवंती बिशन सिंह के करीब होकर बैठी तो उसे बिशन सिंह का बदन तपता हुआ-सा लगा।
      ''अरे, तुम्हें तो ताप चढ़ा है।'' सुखवंती ने तुरन्त बिशन सिंह का माथा छुआ, ''तुमने बताया नहीं। रात में गोली दे देती बुखार की। आज बिस्तर में से बाहर नहीं निकलना।''
      ''कुछ नहीं हुआ मुझे। यूँ ही न घबराया कर।'' बिशन सिंह ने चाय का बड़ा-सा घूंट भरकर कहा।
      फिर, वे कितनी ही देर तक एक-दूसरे के स्पर्श का ताप महसूस करते रहे, नि:शब्द! बस, चाय के घूंट भरने की हल्की-हल्की आवाजें रह-रहकर तैरती रहीं।
      फिर, पता नहीं सुखवंती के दिल में क्या आया, वह सामने शून्य में ताकती हुई बड़ी उदास आवाज में बुदबुदाई, ''पता नहीं, हमने रब का क्या बिगाड़ा था। हमारी झोली में भी एक औलाद डाल देता तो क्या बिगड़ जाता उसका। बच्चों के संग हम भी नया साल मनाते। पर औलाद का सुख...।''
      ''औलाद का सुख?'' बिशन सिंह हँसा।
      सुखवंती ने उसकी हँसी के पीछे छिपे दर्द को पकड़ने की कोशिश की।
      बिशन सिंह अपने दोनों हाथों के बीच चाय का गिलास दबोचे, चाय में से उठ रही भाप को घूर रहा था।
      ''औलाद का सुख कहाँ है सुखवंती। जिनके है, वह भी रोते हैं। अब चरने को ही देख ले। तीन-तीन बेटों के होते हुए भी नरक भोग रहा है। तीनों बेटे अपना-अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए। बूढ़ा-बूढ़ी को पूछने वाला कोई नहीं।''
      कुछ देर की ख़ामोशी के बाद वह बोला, ''वो अपने परमजीत को जानती हो? अरे वही, शिन्दर का बाप। औलाद के होते हुए भी बेऔलाद-सा है। रोटी-टुक्कड़ को तरसता। जब तक औलाद नहीं थी, औलाद-औलाद करता था। जब रब ने औलाद दी तो अब इस उम्र में कहता घूमता है- इससे तो बेऔलाद अच्छा था। सारी जायदाद बेटों ने अपने नाम करवा ली। अब पूछते नहीं। कहता है- मैं तो हाथ कटवा बैठा हूँ। अगर रुपया-पैसा मेरे पास होता, तो सेवा के लिए कोई गरीब बंदा ही अपने पास रख लेता।''
      ''पर सभी औलादें ऐसी नहीं होतीं।'' सुखवंती बिशन सिंह के बहुत करीब सटकर बैठी थी, पर बिशन सिंह को उसकी आवाज़ बहुत दूर से आती लग रही थी।
      चाय के गिलास खाली हो चुके थे। सुखवंती ने अपना और बिशन सिंह का गिलास झुककर चारपाई के नीचे रख दिया। उघड़ी हुई रजाई को फिर से अपने इर्दगिर्द लपेटते हुए वह कुछ और सरककर बिशन सिंह के साथ लगकर बैठ गई। बिशन सिंह ने भी अपना दायां बाजू बढ़ाकर उसे अपने संग सटा लिया।
      ''जिन्दर ने भी हमें धोखा दिया, नहीं तो...।'' कहते-कहते सुखवंती रुक गई।
      ''उसकी बात न कर, सुखवंती। वह मेरे भाई की औलाद था, पर मैंने तो उसे भाई की औलाद माना ही नहीं था। अपनी ही औलाद माना था। सोचा था, भाई के बच्चे तंगहाली और गरीबी के चलते पढ-लिख नहीं पाए। जिन्दर को मैं पढ़ाऊँगा-लिखाऊँगा। पर...'' कहते-कहते चुप हो गया वह।
      ''जब हमारे पास रहने आया था, दस-ग्यारह साल का था। कोई कमी नहीं रखी थी हमने उसकी परवरिश में। इतने साल हमने उसे अपने पास रखा। अच्छा खाने - पहनने को दिया। जब कोई आस बंधी तो उसने यह कारा कर दिखाया...।'' सुखवंती का स्वर बेहद ठंडा था।
      ''सबकुछ उसी का तो था। हमारा और कौन था जिसे हम यह सब दे जाते। जब उसने तुम्हारे गहनों पर हाथ साफ किया, तो दु:ख तो बहुत हुआ था, पर सोचा था, अपने किये पर पछतायेगा।'' बिशन सिंह ने सुखवंती का दायां हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबाकर थपथपाते हुए कहा, ''पर जब उसने दुकानें और मकान अपने नाम लिख देने की बात की तो लगा, यह तो अपना कतई नहीं हो सकता।''
      ''अच्छा हुआ, अपने आप चला गया छोड़कर।'' सुखवंती ने गहरा नि:श्वास लेते हुए कहा।
      ''सुखवंती, आदमी के पास जो नहीं होता, वह उसी को लेकर दु:खी होता रहता है उम्र भर। जो होता है, उसकी कद्र नहीं करता।'' कहकर बिशन सिंह ने सुखवंती का मुँह अपनी छाती से सटा लिया। सुखवंती भी उसके सीने में मुँह छुपाकर कुछ देर पड़ी रही। यह सेक, यह ताप दोनों को एकमेक किए था। इधर बिशन सिंह ने सोचा, ''जीवन का यह ताप हम दोनों में बना रहे, हमें और कुछ नहीं चाहिए'' और उधर सुखवंती भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी।
      तभी, धूप का एक छोटा-सा टुकड़ा खिड़की के कांच से छनकर कमरे में कूदा और फर्श पर खरगोश की भांति बैठकर मुस्कराने लगा। सुखवंती हड़बड़ाकर बिशन सिंह से यूँ अलग हुई मानो किसी तीसरे ने उन दोनों को इस अवस्था में देख लिया हो! फिर वे दोनों एक साथ खिलखिलाकर मुस्करा दिए, जैसे कह रहे हों,  ''आओ आओ... नये साल की धूप... तुम्हारा स्वागत है।''