शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

लघुकथा



मित्रो, भूमंडलीकरण ने बाज़ार को बहुत ज्यादा स्पेश दिया। इसकी गिरफ़्त में विश्व का हर छोटा-बड़ा व्यक्ति तेजी से आया। इसने अपने लुभावने स्वरुप का जो मकड़जाल बुना, उससे कोई नहीं बच पाया है। इस बाज़ार पर मैंने एक लघुकथा ‘मकड़ी’ लिखी थी जो इस बाज़ार के मकड़जाल में फंसे व्यक्ति की दुखद परिणिति को रेखांकित करती है। इस बाज़ार का आज मनुष्य के जीवन के हर क्षेत्र में अपना गहरा हस्तक्षेप है। और तो और, इसने ‘साहित्य’ को भी नहीं बख्शा। ‘साहित्य’ में राजनीति तो थी और है ही, यह बाज़ार भी ‘साहित्य’ में तेजी के साथ पनपा है। इसी को लेकर मेरी एक ताज़ा लघुकथा ‘बाज़ार’ हिंदी की प्रतिष्ठित कथा पत्रिका ‘कथादेश’ के अगस्त 2013 में प्रकाशित हुई है। इसे मैं अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’ के माध्यम से भी अपने मित्र पाठकों के संग साझा कर रहा हूँ। आपकी राय की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
-सुभाष नीरव


बाज़ार
सुभाष नीरव

साहित्य-समीक्षा की जानी-मानी पत्रिका 'आकलन' के संपादक ने तीन दिन पहले मृणालिनी शर्मा के दो सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह उन्हें पहुँचाए थे। इस अनुरोध के साथ कि वे इन पर यथाशीघ्र एक विस्तृत समीक्षा लिखकर भेज दें। पहले भी वे आकलन के लिए लिखते रहे हैं।
     एक सप्ताह में उन्होंने दोनों पुस्तकें पढ़ डाली थीं। आज सुबह वह लिखने बैठ गए थे।
लगातार तीन घंटे जमकर लिखा। दस पृष्ठों की लंबी समीक्षा पूरी करने के बाद एक गहरी नि:श्वास छोड़ी। कागज़-कलम मेज़ पर रख दिए। कुर्सी की पीठ से कमर टिका आराम की मुद्रा में बैठ गए और धीमे-से मुस्कराए।
          अभी भी उनके भीतर बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा था जिसे वे रोक नहीं पाए - कल की लेखिका, अपने आप को जाने समझती क्या है? केवल दो किताबें आई थींएक कहानी संग्रह और एक उपन्यासऔर बन बैठी देश की जानी-मानी हिंदी पत्रिका की संपादिका। पिता राजनीति में अच्छी-ख़ासी हैसियत रखते हैं इसीलिए न! संपादिका क्या बनी, आकाश में ही उड़ने लगी! दूसरे को कुछ समझती ही नहीं।  मिलने के लिए दो बार उसके ऑफिस गया और दोनों ही बार अपमानित-सा होकर लौटा। अगली ने समय ही नहीं दिया, चपरासी से कहलवा दिया कि बिजी हूँ मीटिंग में। जब-जब रचना प्रकाशनार्थ भेजी, तीसरे दिन ही लौट आई। चलो, समीक्षा के बहाने ही सही, ऊँट आया तो पहाड़ के नीचे!'
          फिर, वे कुर्सी से उठ खड़े हुए। दो-चार कदम कमरे में इधर-उधर टहले, फिर कमर सीधी करने को दीवान पर लेट गए। तभी फोन घनघना उठा। ''कौन?'' चोगा कान से लगाकर उन्होंने पूछा।
     ''अखिल जी बोल रहे हैं?'' दूसरी तरफ से मिश्री-पगा स्त्री स्वर सुनाई पड़ा।
          ''जी हाँ।''
     ''जी, मैं मृणालिनी, एडीटर साप्ताहिक भारत। कैसे हैं आप?''
     ''ठीक हूँ। कहिए...।''
          ''अखिल जी, केन्द्रीय भाषा अकादमी वालों का फोन आया था। वे इस बार अपना वार्षिक सम्मेलन गोवा में आयोजित करने जा रहे हैं। विषय है - 'समकालीन महिला हिंदी लेखन' । तीन विद्वानों के परचे पढ़े जाने हैं। मुझसे परामर्श ले रहे थे कि तीसरा पर्चा किससे लिखवाया जाए। आपने तो हिंदी आलोचना में बहुत काम किया है। सो, मैंने उन्हें आपका नाम रिकमंड कर दिया है। वे आपसे जल्द ही सम्पर्क करेंगे। इंकार न कीजिएगा। बाई एअर लाने-ले जाने और पंचतारा होटल में ठहराने की व्यवस्था के साथ-साथ अच्छा मानदेय भी मिलेगा। बस, आप सम्मेलन में पढ़ने के लिए पर्चा तैयार कर लें।…'' कुछ रुककर उधर से मनुहारभरी मीठी आवाज़ पुन: आई, ''और अखिल जी, ‘साप्ताहिक भारत के पाठकों के लिए अपनी कोई ताज़ा कहानी फोटो और परिचय के साथ दीजिए न!''
          उनकी समझ में न आया कि क्या जवाब दें इस मनुहार का। ठीक है, आपने कहा है तो...इतना ही वाक्य निकल पाया कंठ से।
''अच्छा अखिल जी, फिर बात होगी, अभी कुछ जल्दी में हूँ। बाय...।''
फोन बंद हो चुका था। चोगा अपनी जगह पर टिक चुका था, परन्तु मिश्री-पगी स्वर-लहरियाँ उनके कानों में अभी भी गूँज रही थीं।
     एकाएक वे उठे, अपनी राइटिंग-टेबुल तक पहुँचे, खड़े-खड़े एक नज़र कुछ समय पहले लिखी समीक्षा पर डाली, कलम उठाई और कुर्सी खींचकर बैठ गए।