सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

कहानी-15



औरत होने का गुनाह
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

होश में आने पर मैंने स्वयं को अस्पताल के एक छोटे-से कमरे में पाया। गर्दन के नीचे के मेरे शरीर को एक जाली से ढ़का हुआ था। इधर मेरी चेतना लौटी, उधर मेरे शरीर में दर्द के असंख्य कीड़ों ने कुलबुलाना शुरू कर दिया। जलन की तीव्र और असहनीय पीड़ा के मैं कराह उठी। ऐसा लग रहा था मानो बिस्तर के नीचे भट्ठी दहक रही हो।
कमरे का दरवाजा खोल कर कोई अंदर आया है। मैंने धीमे से गर्दन घुमा कर देखा- नर्स थी। उसने बैड के सिरहाने टंगे कागजों को पहले उलटा-पुलटा है, फिर उन पर कुछ लिखा है।
अपनी पूरी ताकत बटोर कर मैं सिर्फ़ फुसफुसा भर सकी हूँ।
''सि...स्...ट...र ।''
नर्स ने शायद मेरी फुसफुसाहट को सुन लिया है। करीब आकर प्यार से बोली, ''बहोत दर्द होता ?... अंय...? होगा, सिक्सटी परसेंट से ज्यादा जल गया तुम। गॉड को याद करो, प्रार्थना करो, वही मदद करेगा।'' फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखकर उसने कहा है, ''तुम्हारी दवा का टाइम होता... अब्भी तुमको दवा देगा।'' यह कहकर वह कमरे से बाहर चली गई है।
कुछ ही देर बाद वह लौट आई है। दवा देकर लौटने लगी तो मैं पुन: फुसफुसाई हूँ- ''सिस्टर, मुझे यहाँ कौन लाया ?''
''पुलीस लाई तुमको यहाँ।''
''कोई आया था क्या मुझसे मिलने ?''
''इंस्पेक्टर आया, साथ में एक अखबारवाला... तुम्हारा बियान लेना माँगता.. पर तुम होश में नहीं था, बोला- फिर आएगा।''
''और कोई ?''
''देखा नहीं किसी को। बाहर शहर में कर्फ्यू लगा है, कौन आएगा भला ?... आया भी तो कमरे में नहीं आ सकता। उधर, शीशे से देख सकता, बस।'' उसने ठीक मेरे मुख के सामने वाली काँच की खिड़की की ओर संकेत किया।
खिड़की के उस पार कोई नहीं था।
मैं अपने आप से प्रश्न करती हूँ। किसकी उम्मीद किए बैठी हूँ ?...कौन आएगा ?... पिता ?... छोटे भाई ?... भाभियाँ ?... मालूम होने पर भी क्या वे आएंगे ?... नहीं। पर जावेद तो आ सकता है। वह मुझे खोजता हुआ ज़रूर आया होगा। शायद, उसे कमरे में नहीं आने दिया गया होगा। वह बाहर खिड़की से ही देखकर लौट गया होगा।
दवा के असर से दर्द के कीड़े धीरे-धीरे शान्त हो रहे हैं। मैं इधर-उधर देखती हूँ। कमरा है, दीवारें हैं, छत है, खिड़की है, सन्नाटा है, बिस्तर पर आधी से ज्यादा जली मेरी देह है। और... और मेरे जेहन में मेरे कड़वे अतीत की पुस्तक के फड़फड़ाते पृष्ठ हैं। चलचित्र की भाँति मेरे अतीत का एक-एक दृश्य मेरी आँखों के सामने आ रहा है...

वे घोर अवसाद से भरे दिन थे मेरे और मैं गहरी मानसिक पीड़ा से गुजर रही थी। तीन बरस के वैवाहिक जीवन का नरक भोग कर एक दिन मैं अपने मायके लौट आई थी। बेरहमी से क़त्ल हुए अपने सपनों की लाश उठाये, भीतर तक टूटी, क्षत-विक्षत ! पर मायके में आकर क्या मैं अपनी मानसिक पीड़ा से मुक्त हो सकी ? नहीं। ससुराल से कहीं अधिक मानसिक पीड़ा तो मुझे अपने मायके में झेलनी पड़ी। पिता, भाई, भाभियाँ कोई भी मेरी गुहार सुनने को तैयार नहीं था। मेरे द्वारा लिए गए निर्णय का तीखा विरोध हुआ था। पति से न बनने का सारा दोष मेरे माथे पर मढ़ा जा रहा था। भाभियों ने उठते-बैठते मुझे कौंचने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
''हुंह ! चली आई मुँह उठाए... कहती है, छोड़ आई हूँ उस घर को हमेशा के लिए। कहीं ऐसा भी होता है ? ब्याही लड़की अपने पति के घर ही अच्छी लगती है, माँ-बाप के घर में नहीं।''
ये सब लोग मुझे फिर उसी यातनागृह में लौट जाने की सीख दे रहे थे।
''आदमी लाख बुरा हो, पर अपना आदमी अपना होता है। उस घर से कदम बाहर निकालकर तुमने बहुत बड़ी भूल की है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम्हें लौट जाना चाहिए।''
उन दिनों पिता का घर साधु-संतों और स्थानीय नेताओं का डेरा बना हुआ था। पिता और दोनों भाई उनकी आवभगत में और उनके निर्देशों के अनुपालन में दिनभर व्यस्त रहते थे। मेरा दु:ख उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था।
एक दिन पिता ने आदेशात्मक स्वर में मुझसे कहा, ''मैंने प्रकाश से बात कर ली है। कुछेक दिन में वह आ रहा है तुम्हें लेने। चुपचाप उसके संग चली जाना। बखेड़ा खड़ा करने की ज़रूरत नहीं, समझीं!''
ये वे दिन थे जब अपने काले अतीत को कंधों पर उठाए मैं पीड़ादायक वर्तमान से जूझ रही थी और भविष्य मुझे पूरी तरह अंधकारमय दीखता था। कहीं रोशनी की कोई किरण नज़र नहीं आती थी। न खाने को मन करता था, न पीने को। न सोने को, न जागने को। न मुझसे कोई प्यार से बोलकर राजी था, न मैं किसी से बात करके अपने दु:ख को बढ़ाना चाहती थी। जीवन नीरस और अर्थहीन लगने लगा था। और जब प्रकाश के आने से पहले मुझे नौकरी का नियुक्ति पत्र मिला, मैंने मायका छोड़ दिया और किराये पर एक छोटा-सा मकान लेकर अलग रहने लग पड़ी।
ऐसे में अगर कोई था जो मेरी पीड़ा को समझ रहा था, मेरे हर छोटे-बड़े काम में मददगार साबित हो रहा था तो वह था- जावेद। जावेद से मेरा परिचय एक नौकरी के इंटरव्यू के समय हुआ था। वह स्वयं भी इंटरव्यू देने आया था। छोटी-सी हमारी बातचीत धीरे-धीरे प्रगाढ़ मित्रता में बदल गई थी। जावेद का पलभर का साथ मेरी तकलीफों पर मरहम के फाहे लगा देता। कुछ पल को ही सही, मैं अपना दु:ख भूल जाती।
जावेद की मदद से ही मैंने तलाक की अर्जी लगा दी थी। तीन साल के बाद कहीं जाकर तलाक मंजूर हुआ। इस बीच, जावेद की भी नौकरी लग गई थी। अब जावेद मेरे घर पर भी आने-जाने लगा था। इस पर अड़ोस-पड़ोस में खुसुर-फुसुर भी शुरू हो गई थी। लोग अजीब सी नज़रों से देखते थे। मुँह भी बनाते थे। पीठ पीछे बातें भी करते होंगे शायद। लेकिन हम दोनों बेफिक्र थे, अपने में खोये। अपनी ही दुनिया में गुम। जावेद का अधिक से अधिक साथ मुझे अच्छा लगता था। प्यार क्या होता है, मैं नहीं जानती थी। प्रकाश, मेरे पति ने कभी मुझे प्यार किया ही नहीं था। सिर्फ भोगा था मुझे। जावेद के प्यार ने मुझमें जीने की उमंग जगा दी थी। मैं उसके प्यार में सराबोर हो उठती थी, भीग-भीग जाती थी। एक-दो रोज वह न मिलता तो अजीब-सी बेचैनी मुझे घेरने लगती। कुछ भी अच्छा नहीं लगता मुझे।
और एक दिन हम दोनों ने शादी करने का निर्णय लिया। जावेद के घरवाले इस फैसले से खुश नहीं थे, यह जावेद ने मुझे बता दिया था। मुझे अपने परिवारवालों की चिन्ता नहीं थी। उनके लिए तो मैं मर चुकी थी। जब से मैं उनसे अलग हुई थी, उनमें से कोई मेरी खैर-खबर लेने नहीं आया था।
हमने कोर्ट में शादी करने का निर्णय लिया। जिस दिन हमने कोर्ट में शादी के लिए अर्जी लगाई, उस दिन हम खूब घूमे। एक अच्छी-सी फिल्म देखी, रेस्तरां में उम्दा खाना खाया, बाज़ार में खूब शॉपिंग की और शाम को टहलते हुए हम घर लौटे। जावेद और मेरे हाथों में शॉपिंग का सामान था। हमारे चेहरों पर रौनक थी। हम बेहद खुश थे।

जावेद को गए अभी पाँच मिनट भी नहीं हुए थे कि बेल बजी। मैंने दरवाजा खोला। सामने खड़े थे मेरे बूढ़े पिता पंडित के.पी. शास्त्री, मुझसे छोटे दो भाई- रमेश और सुरेश शास्त्री और दोनों भाभियाँ। उन्हें अचानक अपने सामने पाकर मुझे कोई खुशी नहीं हुई थी। अचरज ही हुआ था। भीतर कहीं घृणा का भाव भी था। ये लोग मुझे समझाने-बुझाने आए थे। एक बार फिर मेरे फैसले पर अपना विरोध दर्ज क़रने।
''तुम्हारे इस फैसले से जानती हो, बिरादरी में कितनी थू-थू होगी।'' शुरूआत छोटे भाई सुरेश की बीवी ने की थी।
''प्रकाश से तुम्हारी निभी नहीं। तुम उससे अलग रहने लगी। जावेद के साथ तुमने संबंध बनाए, सब बर्दाश्त किया। पर अब तुम जावेद के संग शादी करने जा रही हो, गैर जात, गैर धर्म में !'' लगता था, तैयार होकर बड़ी वाली भी आई थी।
''अरी, अपनी जात, अपने धर्म में तुझे कोई भी न मिला ?... मिला भी तो एक कटल्ला ! पूरे खानदान की नाक कटा कर रख दी इस कुलक्षणी ने !'' पिता का स्वर बेहद रूखा था- क्रोध और घृणा से भरा हुआ। थोड़ा-सा बोलते ही वह हाँफने लगे थे। उन्हें अपनी इज्ज़त तार-तार होती और रसातल में जाती प्रतीत हो रही थी।
दोनों भाई आँखें तरेरे बैठे थे। छोटी ने फिर कमान संभाली, ''जानती हो, वे कैसे लोग हैं ?... बहुत खतरनाक हैं वे ! जावेद के घरवाले इस शादी से नाखुश हैं, इसलिए कुछ भी कर सकते हैं।''
मैं हत्प्रभ थी। इन्हें न केवल मेरी एक-एक गतिविधि की खबर थी, बल्कि ये लोग जावेद के घरवालों की भी खबर रखते थे जिन्हें मैंने आज तक नहीं देखा था।
मैं शांतचित्त सुन रही थी उनकी तीखी बातें, झेल रही थी उनका तीखा विरोध। जब विरोध असहनीय हो उठा तो मैं चुप न रह सकी, बोल ही उठी, ''आप लोग मेरी चिंता छोड़ दें। मैंने और जावेद ने खूब सोच-समझकर ही फैसला लिया है। आप लोग तो पिछले चार सालों से मुझसे सारे संबंध खत्म किए हुए हैं। मैं तो आपके लिए कब की मर चुकी हूँ। पिता ने बेटी को, भाइयों ने बहन को मरा समझ कर इन चार वर्षों में एक बार भी सुध नहीं ली। फिर आज ये मृत संबंध एकाएक कैसे जीवित हो उठे ?... जावेद और मैं शादी करके रहेंगे। ऐसा करने से हमें कोई नहीं रोक सकता।''
''पगला गई है ये ! मति भ्रष्ट हो गई है इसकी !... बूढ़े बाप की इज्जत की परवाह नहीं है इसे ! शहर में आँख उठाकर चलना दूभर हो गया है।'' पिता फिर चीखने लगे थे, ''पैदा होते ही मर जाती करमजली तो ये दिन देखना नसीब न होता।''
मैं मन ही मन हँस दी थी पिता की बात पर। इच्छा हुई थी कि कहूँ - पिता जी, मार तो आप मुझे माँ की कोख में ही देना चाहते थे। बेटियाँ आपको प्यारी ही कब थीं। लेकिन मैं शान्त रही।
''देखो दीदी, पहले ही बहुत मिट्टी पलीद हो चुकी है हमारी। तुम अपना फैसला बदल लो वरना...।'' यह चेतावनी भरा स्वर था छोटे भाई सुरेश का।
''वरना ?...'' मैंने प्रश्नसूचक दृष्टि सुरेश के चेहरे पर गड़ा दी।
''यह नहीं मानेगी। उस जावेद के बच्चे का ही कुछ करना होगा।'' रमेश ने सुरेश की धमकी को स्पष्ट कर दिया।
मुझे लगा कि अब बर्दाश्त की सारी सीमाएँ खत्म हो चुकी हैं। मैं लगभग चीख ही उठी थी, ''आप लोगों को जो करना हो, कर लीजिए और यहाँ से चले जाइए।''
वे गुस्से में बड़बड़ाते चले गए थे और मैं न जाने कितनी देर तक संज्ञाविहीन-सी बैठी रही थी। दिनभर एक बेचैनी-सी छाई रही थी। किसी भी काम में मन नहीं लगा था। एक उथल-पुथल सी मची थी मेरे भीतर। सोच रही थी कि जब स्त्री का एक स्वतंत्र फैसला तक बर्दाश्त नहीं होता तो किस स्त्री-स्वतंत्रता का ढोल पीटा जाता है ? स्त्री के जन्म का विरोध, उसकी इच्छा का विरोध ! उसके स्वतंत्र फैसले का विरोध ! औरत तो जीती ही विरोधों के बीच है- जन्म से लेकर मृत्यु तक। उसके स्वतंत्र अस्तित्व को कहाँ स्वीकार किया जाता है ? माँ बताया करती थी हमें अपने पास लिटा कर, अकेले में - हम अनचाही बेटियों के जन्म को लेकर अनेक बातें। तब मैं बहुत छोटी थी, माँ की बातें मेरी समझ में न आती थीं। बड़ी होने पर मौसी से जाना था उन बातों को और जाना था माँ के दर्द को, उसकी पीड़ा को।
दो लड़कियों के बाद माँ जब फिर से उम्मीद से हुई तो दादी से लेकर पिता तक का स्वर था- ''इस बार हमें लड़की नहीं, लड़का चाहिए। समझीं !'' यह एक हुक्म था एक औरत के लिए। मानो यह सब औरत के वश में हो। आदमी चाहे तो उसकी इच्छापूर्ति के लिए वह अपने गर्भ में लड़के के बीज ही ग्रहण करे। जैसे यह औरत के हाथ में हो कि वह गर्भ में आकार लेती लड़की को हटाकर वहाँ लड़के को प्रत्यारोपित कर दे।
मेरे जन्म पर घर में शोक जैसी स्थिति थी। चूँकि मैंने जन्म लेकर उनकी इच्छाओं पर कुठाराघात किया था, अत: कोई मेरी सूरत देखने को तैयार न था। गोद में उठाकर प्यार करना तो दूर की बात थी। माँ ही थी जिसने मुझे अपनी छाती से लगाए रखा, अपना दूध पिलाती रही, चूमती और प्यार करती रही।
मैं अभी साल भर की भी नहीं हुई थी कि माँ को फिर उसी यंत्रणा से गुजरना पड़ा। माँ जैसे एक मशीन थी- जब तक इन लोगों की इच्छापूर्ति न हो जाती, जब तक उन्हें कुल का दीपक न मिल जाता, उसे वे इस यंत्रणा से कैसे मुक्त कर सकते थे। माँ ने इस बार भी लड़की को जन्म दिया था किंतु मरी हुई लड़की को। पिता और दादी ने राहत की साँस ली थी।
फिर, माँ ने एक के बाद एक दो बेटे जने। दूसरे बेटे के जन्म के बाद माँ को न जाने क्या हुआ कि वह सूखकर पिंजर हो गई और एक दिन उसने सदैव के लिए आँखें मूंद लीं।
माँ की मौत पर घर में किसी को कोई विशेष दु:ख नहीं हुआ था सिवाय हम बहनों के। माँ ने हमें कभी दूसरी नज़र से नहीं देखा था। मगर माँ के निधन के बाद हमने महसूस किया कि भाइयों के आगमन के बाद हमारी घोर उपेक्षा होनी शुरू हो गई थी।
''लड़कियों को पढ़ा-लिखा कर क्या करना है ? इनसे क्या हमें नौकरी करवानी है ?'' वाली मानसिकता के तहत हमें स्कूल भी नहीं भेजा गया था। हम तो घर के कामकाज के लिए ही जन्मी थीं। इसी में हमें निपुण होना था ताकि शादी के बाद ससुराल में चौका-बर्तन, झाड़ू-बुहार से लेकर सुई-धागे तक के घर के सारे काम हम बखूबी निभा सकें। हमें इस घेरे में से बाहर नहीं निकलना था चूँकि हम लड़कियाँ थीं। औरत होना एक गुनाह ही तो है जिसकी सजा हमें बचपन से ही मिलनी प्रारंभ हो जाती है ताकि हम उसकी अभ्यस्त हो सकें।
बड़ी बहन शांता सात बरस की हुई कि उसे मियादी बुखार ने घेर लिया। दवा-दारू ठीक से न हो सकने के कारण वह चल बसी। अब इतने बरसों बाद लगता है, शायद जानबूझ कर ही उसकी सही दवा-दारू नहीं की गई थी। तीन अनचाही लड़कियाँ उस घर में साँस ले रही थीं। एक मर भी गई तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। मुझसे बड़ी रूपा छह बरस की थी- दुबली, पतली। शांता के न रहने पर घर का सारा कामकाज हम दोनों बहनों पर आ पड़ा। दूध तो हमें कभी नसीब ही नहीं हुआ था। दूध दोनों भाई पीते थे या पिता। दादी का विचार था कि मर्दों को दूध-घी ठीक से मिलना चाहिए क्योंकि सारे घर का बोझ उन्हीं के कंधों पर रहता है।
एक दिन मौसा हमारे घर आए। उनकी शादी हुए कई बरस बीत गए थे लेकिन अभी तक संतान न हुई थी। मौसा ने जब मुझे गोद लेने का प्रस्ताव रखा तो किसी को ऐतराज न हुआ। मैं मौसा के घर आ गई। मौसा के घर रहकर ही मैंने हाई स्कूल किया, फिर इंटर। बीच-बीच में मैं राखी, दशहरा और दीपावली पर कुछेक दिनों के लिए पिता के घर भी जाती रही।
इसी बीच, रूपा की शादी कर दी गई एक गाँव में। शादी के एक वर्ष के बाद जब रूपा मुझे मिली तो फूट-फूट कर रो पड़ी, ''तू अच्छी रही सुनीता। मैं तो जैसी यहाँ थी, वैसी ही वहाँ हूँ।'' वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, अपने दु:ख बताना चाहती थी लेकिन सिसकियों और आँखों से बहते अविरल आँसुओं ने उसे कुछ न कहने दिया, सब कुछ स्वयं ही कह दिया।
विपदाएँ कभी बताकर नहीं आतीं। मैं बी.ए. में दाखिला लेने ही जा रही थी कि मुझ पर वज्रपात हुआ। एक सड़क दुर्घटना में मौसा-मौसी दोनों की मृत्यु हो गई। विवश होकर मुझे फिर पिता के घर लौटना पड़ा। उस समय दोनों छोटे भाई- रमेश और सुरेश क्रमश: दसवीं और नौवीं कक्षा में थे। लेकिन मुझे आगे पढ़ने से रोक दिया गया। रूपा के जाने के बाद घर का चौका-बर्तन दादी के कंधों पर आन पड़ा था। मेरे लौट आने पर सबसे अधिक खुशी दादी को हुई। पहले दिन से ही घर का सारा कामकाज उसने मुझे सौंप दिया।
और फिर हुआ मेरा विवाह !
मुझे ससुराल भेजकर पिता तो गंगा नहा लिए लेकिन मेरी यातनाओं का दौर शुरू हो गया। पति ने पहले दिन से ही मुझे अपने पाँव की जूती समझा। मैं किसी के संग बात नहीं कर सकती थी, अपनी इच्छा से कहीं उठ-बैठ नहीं सकती थी। जो पति कहता, मुझे करना पड़ता। अपनी इच्छा-अनिच्छा को भूलकर उसकी हर इच्छा की पूर्ति मुझे तत्काल करनी पड़ती। ज़रा-सी कोताही होते ही न सिर्फ़ गंदी गालियों की बौछार आरंभ हो जाती, उसके हाथ-पैर भी चलने लगते। उसे खाने को उम्दा भोजन चाहिए था, पीने को शराब और भोगने को औरत का जिस्म ! विरोध करने का हक कहाँ था ? विवाह का लाइसेंस लेकर वह दिन-रात पत्नी से बलात्कार करने को स्वतंत्र था।
ससुराल में घर के अन्य सदस्यों को मुझसे कोई सहानुभूति नहीं थी। सास और ननदें थीं जो औरत होकर औरत पर होते अत्याचार से दु:खी प्रतीत न होती थीं। उल्टा मुझे ही सीख दी जाती-
''अब भई, तेरा खसम है। कमाता है, घर चलाता है, पूरे घर का स्वामी है जैसा कहेगा, करना तो पड़ेगा। जिस हाल में रखेगा, रहना पड़ेगा। औरत की खुशी आदमी की खुशी में ही होती है।''
दिनभर के कामकाज से थकी मेरी देह रात को घड़ीभर आराम चाहती मगर आराम कहाँ था। रात होते ही पति हिंस्र पशु का रूप धार लेता। रातभर मेरी देह नोंचता-रौंदता रहता। मेरी पीड़ा, मेरी तकलीफ़ का उसे तनिक भी ख़याल न था। बल्कि मुझे उत्पीड़ित करके देह-सुख भोगने में उसे कुछ अधिक ही मजा आता। एक दिन किया था विरोध तो देह पर गहरे नील उभार दिए थे उसने !
यह था मेरा काला अतीत - कड़वा, घिनौना और दु:खभरा। इस अतीत को याद करके मैं उस रात सो न सकी। अपने इस कड़वे अतीत से मैं कट जाना चाहती थी, जीना चाहती थी अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से, अपनी इच्छानुसार। लेकिन स्त्री-विरोधी इस समाज में क्या ऐसा संभव था ?

लंच का समय था। चपरासी ने आकर बताया, ''आपसे मिलने कोई लड़की आई है। रिसेप्शन पर बैठी है।'' लड़की ?... कौन हो सकती है ? इसी उधेड़बुन में मैं जब रिसेप्शन पर पहुँची तो वहाँ छरहरे बदन की एक खूबसूरत-सी अनजानी लड़की को बैठा पाया। मुझे देखते ही वह उठ खड़ी हुई।
''आप सुनीता ?''
''हाँ, पर...''
''मैं शहनाज... जावेद की बहन।''
मैं शहनाज से पहली बार मिल रही थी। मैं उसे लेकर कैंटीन में आ गई। एक कोने में खाली पड़ी कुर्सियों पर हम बैठ गए। मैंने चाय का ऑर्डर दिया। शहनाज के चेहरे पर अपनी दृष्टि स्थिर करते हुए मैंने पूछा, ''कहो शहनाज, कैसे आना हुआ ?''
''मैं आपको भाभीजान कह सकती हूँ ?''
मैं मुस्करा दी, ''तुम्हारी मर्जी। पर पहले यह बताओ, तुम्हें मेरा पता किसने दिया ?''
''जावेद भाई आपसे शादी करने की जिद्द ठाने बैठे हैं। घर में अक्सर आपको लेकर बातें होती हैं। आप कहाँ रहती हैं, कहाँ काम करती हैं, आपके माँ-बाप कौन हैं, कहाँ रहते हैं, आपकी अपने पति से क्यूँ नहीं बनीं... सब बताया है जावेद भाई ने। वह तो अम्मी-अब्बू को आपसे मिलाना भी चाहते थे कि एकाएक यह हादसा हो गया।''
''हादसा ?''
''आपको मालूम है जावेद भाई पर किसी ने क़ातिलाना हमला करने की कोशिश की ?''
''जावेद पर हमला ?'' मैं घबरा उठी, ''कब ? कहाँ ? कैसा है जावेद ?'' मैं एक साँस में पूछ गई।
''पिछले शनिवार रात नौ बजे जब वह ख़लासी मुहल्ले के पास से गुजर रहे थे, कुछ लोगों ने उन्हें घेर कर मारने की कोशिश की। मगर जावेद भाई किसी तरह वहाँ से भागने में कामयाब हो गए। पीछे से फेंका गया चाकू उनकी दाईं बाजू को छीलता हुआ निकल गया। घबराने की बात नहीं है। हल्का-सा जख्म है। घर पर आराम फरमा रहे हैं।''
पिछले तीन-चार दिन से जावेद का मुझसे न मिलने का कारण मेरी समझ में अब आया।
''तुम मुझे जावेद से मिला सकती हो ?''
''अभी नहीं। आपको थोड़ा इंतज़ार करना होगा। घर में कोहराम मचा है। भाईजान को बाहर निकलने की सख्त मनाही है।''
कुछ देर रुक कर शहनाज ने फिर कहना प्रारंभ किया, ''घरवालों को राजी न होता देख जावेद भाई ने घर में ऐलान कर दिया था कि वह आपसे कोर्ट में शादी करने जा रहे हैं। अम्मी-अब्बू तो हल्के से विरोध के बाद शायद मान भी जाते मगर...''
''मगर क्या ?''
''दादूजान और चचाजान बहुत गुस्से में हैं। बेहद बौखलाये हुए हैं। जब से जावेद पर हमला हुआ है, मामूजान भी उनके साथ हो गए हैं। वे इस शादी के सख्त खिलाफ हैं। इसे वे अपनी तौहीन समझ रहे हैं। उनका मानना है कि जो उनकी मस्जिद नेस्तोनाबूद कर दें, जो उनके दुश्मन हों, उन काफ़िरों की बेटी को वे अपनी बहू बनाएँ, ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। दादूजान ने तो साफ कहा कि अगर...।''
''अगर क्या ?''
इस बीच चाय आ गई थी। चाय पीते हुए शहनाज धीमे स्वर में बोली, ''भाभीजान, आप कुछ रोज के लिए यह शहर छोड़ दें। भाईजान से न मिलें, इसी में भलाई है।'' उसकी आवाज़ बेहद घबराई हुई थी। मैंने देखा, उसकी आँखें गीली हो उठी थीं।
''शहनाज, यह मशविरा तुम दे रही हो या किसी ने... ?''
''यह मशविरा मेरा और अम्मीजान का है।''
कुछ देर बाद शहनाज चली गई। इसके बाद ऑफिस के काम में मेरा मन नहीं लगा। एक अजब-सी बेचैनी हो रही थी। शाम को घर लौटकर भी चैन नहीं पड़ा। कुछ पकाने, खाने को भी दिल नहीं किया। जावेद को लेकर परेशान रही। शहनाज का चेहरा, उसकी डबडबाई आँखें, उसका मशविरा याद आता रहा।
मुझे अधिक इंतज़ार नहीं करना पड़ा था। दो दिन बाद ही जावेद मुझसे मिला, मेरे ऑफिस के बाहर, शाम पाँच बजे। एक रेस्तराँ में बैठकर हमने बातें कीं। जावेद बोला, ''बाहर चला गया था इसलिए मिलना नहीं हुआ।''
''तुम्हारी बाजू का घाव कैसा है ?'' मैंने उसके झूठ को नज़रअंदाज करते हुए पूछा।
''कैसा घाव ?'' उसने अचकचा कर पूछा।
''जावेद, कौन थे वे लोग ?'' जावेद और बनने की कोशिश करता कि मैंने कहा, ''जावेद, शहनाज ने मुझे सब बता दिया है।''
''कब मिली थी वह तुमसे ?''
''तीनेक दिन हुए, ऑफिस में आई थी।''
जावेद चुप हो गया।
''तुमने बताया नहीं, कौन लोग थे वे ?''
''जानता नहीं। होंगे कोई गुंडे-बदमाश। अकेला पाकर लूटना चाहते होंगे।''
''तुम कुछ छिपा रहे हो।'' मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
''नहीं, नहीं। छिपाना क्या।'' फिर बात का रुख बदलते हुए बोला, ''चाय-कॉफी में ही टरकाना चाहती हो या कुछ खिलाओगी भी। बहुत भूख लगी है, कुछ खाना चाहता हूँ।''
मैंने जावेद को अधिक कुरेदना ठीक नहीं समझा। टेबल थपथपाते हुए उसके हाथों को अपने हाथों से ढकते हुए मैंने स्वर में मिठास लाकर पूछा, ''अच्छा बताओ, क्या खाओगे ?''
''तुम्हें !'' उसने अपना मुँह मेरी ओर बढ़ाया।
''धत्...।'' मैंने झटके से अपना चेहरा पीछे करते हुए उसके सिर पर हल्की-सी चपत लगाई और बोली, ''रेस्तराँ में बैठकर खाओगे ?...भूखे कहीं के।''
रेस्तराँ से निकले तो अंधेरा गाढ़ा हो चुका था। जावेद मुझे गली के मोड़ तक छोड़कर चला गया।

दिसम्बर माह की ठंड थी। सुबह जल्दी उठने को मन नहीं करता था। उस दिन वैसे भी छुट्टी थी। मैं देर से उठी, पानी गरम करके नहाई और गीले बालों को तौलिए से लपेटकर अपने लिए नाश्ता बनाने की सोच ही रही थी कि जावेद आ गया। वह बेहद घबराया हुआ-सा लग रहा था। मैं कुर्सी खींचकर उसके सामने बैठ गई।
''क्या बात है जावेद, बहुत घबराए हुए से हो ?''
''न जाने क्या होने वाला है, सुनीता। शहर के हालात ठीक नहीं लगते।''
जब से एक सम्प्रदाय के कछ जुनूनी लोगों द्वारा अयोध्या में एक प्राचीन इमारत ढहा दी गई थी, तब से ही पूरा शहर एक अजीब-से तनाव की गिरफ्त में साँस ले रहा था। हिंदू-मुसलमान की लगभग बराबर-सी आबादी वाले इस छोटे-से शहर में एकाएक हर तरफ हरे और केसरिया झंडों की बाढ-सी आ गई थी। एक हिस्सा खुश था, आह्लादित था, नाच रहा था तो दूसरा हिस्सा खामोश था, भीतर ही भीतर तड़प रहा था, उबल रहा था।
मैंने जावेद के सिर में प्यार से उँगलियाँ फिराते हुए कहा, ''कुछ नहीं होगा। कुछेक दिन का ज्वार है, खुद-ब-खुद शांत हो जाएगा।''
''मुझे डर है, कुछ दिन का यह ज्वार अपने पीछे तबाही के मंजर न छोड़ जाए।''
मैं उठकर नाश्ता बना लाई। चाय पीते हुए जावेद ने कहा, ''सुनीता, मेरी एक बात मानोगी ?''
''क्या ?'' मुँह में ब्रेड ठूँसते हुए मैंने पूछा।
''सबसे पहले तुम दरवाजे पर टँगी अपनी नेम-प्लेट हटाओ।''
मैं हँस पड़ी, ''जावेद, इससे क्या होगा ? चलो, सुनीता शास्त्री के स्थान पर सुनीता खान कर देती हूँ।''
''खतरा फिर भी रहेगा।'' इस बार जावेद ने अपनी आँखें मेरी आँखों में लगभग गाड़ ही दी थीं, ''तुम समझती नहीं हो। खतरा दोनों ओर से है। सिरफिरे असामाजिक लोग दोनों ओर हैं और कुछ भी...।''
मैं जावेद की घबराहट को समझ रही थी। कुछ रोज पहले जावेद पर हुआ हमला और मुझे मिलने वाली धमकियाँ इस घबराहट की पुष्टि के लिए पर्याप्त थीं।
''सुनीता, चलो कुछ दिनों के लिए हम यह शहर छोड़कर कहीं और चले चलते हैं। हालात ठीक होने पर लौट आएंगे।''
''पर क्या गारंटी है, जहाँ जाएँगे वहाँ भी यह सब नहीं होगा।'' जावेद के हाथों को अपने हाथों में लेकर मैंने कहा, ''विकट परिस्थितियों से घबराकर भागना कोई हल नहीं है। जावेद, हम यहीं रहेंगे और स्थितियों का सामना करेंगे।''
जावेद चुप हो गया। कुछ न बोला।
मैंने आगे बढ़कर उसकी आँखों में झाँका और शरारत भरी मुद्रा में बोली, ''घबराहट में भी तुम इतने सुंदर लगोगे, मैं नहीं जानती थी।'' और एकाएक मैंने उसके चेहरे पर चुम्बनों की बौछार कर दी थी, फिर कसकर अपनी छाती से लगा लिया था- उसका सुर्ख हो उठा चेहरा।

एकाएक शहर में वारदातें होने लगी थीं। बाजार बंद होने लगे थे। स्कूल-कॉलेजों में सन्नाटा था, सड़कें सुनसान दीखती थीं। हरे और केसरिया झंडे सक्रिय हो उठे थे। जाने क्या होने वाला था। कौन-सी कयामत आने वाली थी। पिछले दो दिन से जावेद भी मुझसे नहीं मिला था।
रात के आठ बजे थे। मैं बिस्तर में लेटी कोई किताब पढ़ रही थी लेकिन मेरा ध्यान बार-बार शहर में हो रही वारदातों की ओर चला जाता था और जावेद को लेकर मैं परेशान हो उठती थी। एकाएक, बाहर गली में हल्का-सा शोर हुआ। उठकर खिड़की से झाँका, कुछ लोगों का हुजूम दिखाई दिया। कौन लोग थे वे, अँधेरा होने के कारण पहचान पाना कठिन था। तभी, एक पत्थर खिड़की का काँच तोड़ता हुआ ठीक मेरे पास गिरा। मैं घबराकर पीछे हट गई। तुरंत खिड़की दरवाजे ठीक से बंद किए और बिस्तर में आ बैठी।
कुछ देर बाद शोर थम गया-सा लगा। मैंने राहत की साँस ली। लेकिन, अधिक देर नहीं हुई जब मैंने कुछ पदचापों को अपनी ओर बढ़ता महसूस किया। धीरे-धीरे शोर मुखर हो उठा। अब वे मेरे घर का दरवाजा पीट रहे थे। मैं भयभीत हो उठी। साँसें तेज-तेज चलने लगी थीं।
बगल की खिड़की से मुहल्ले पर नज़र दौड़ाई। वहाँ अँधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग घरों में होकर भी घरों में नहीं थे जैसे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था- क्या करूँ ? क्या न करूँ ? ये लोग क्या करना चाहते हैं ? क्या इरादा है इनका ? खिड़की से कूद कर भाग जाऊँ या सामना करूँ ? इसी ऊहापोह में थी कि वे लोग दरवाजा तोड़ने में कामयाब हो गए। एक दीर्घ चीख मेरे मुख से निकली। वे मेरी ओर इस प्रकार झपटे जैसे छिपे हुए शिकार पर भूखे शिकारी झपटते हैं। उनके हाथ मेरे जिस्म की ओर बढ़ रहे थे। देखते ही देखते, उन्होंने मेरे वस्त्र तार-तार कर दिए। घर का सारा सामान उलट-पलट दिया। मेरी चीखें तेज हो उठी थीं पर मेरी चीख-पुकार का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था। मैं रो रही थी, चीख रही थी, खुद को बेहद निरीह और असहाय पा रही थी।
अचानक मेरा बदन चिपचिपे तरल पदार्थ से भीग उठा। मिट्टी के तेल की दुर्गन्ध जब मेरे नथुनों में घुसी, मैं पूरी ताकत से चीख उठी। यह चीख मेरी अब तक की चीखों से तेज और लंबी थी। मौत मेरे सामने खड़ी थी- जलती हुई तीली के रूप में। वे हँस रहे थे, उन्मादित हो रहे थे अपनी बर्बरता पर। तभी, जलती हुई तीली मेरी ओर उछली और मेरा जिस्म धू-धू कर जलने लगा। आग की लपटों के बीच न जाने कब तक मैं तड़पती रही, छटपटाती रही।

दवा का असर कम होते ही दर्द के कीड़े फिर से कुलबुलाने लगे हैं। मैं सामने काँच की खिड़की के पार देखती हूँ। शायद कोई अंदर झांक रहा है। कौन हो सकता है ?... जावेद ?... तभी धीमे से दरवाजा खुलता है। मेरी गर्दन हौले से दरवाजे की ओर घूम जाती है। एक वर्दीधारी व्यक्ति नमूदार होता है। उसके पीछे-पीछे एक और व्यक्ति गले में कैमरा लटकाए प्रवेश करता है। दोनों मेरी ओर बढ़ते हैं कैमरेवाला व्यक्ति कई कोणों से मेरा चित्र खींचता है। वर्दीधारी व्यक्ति मुझसे प्रश्न करता है। मैं जवाब देना चाहती हूँ, पर आवाज़ मेरा साथ नहीं देती। मुझे ख़ामोश देखकर वह खीझ उठता है। फिर एक फोटो मेरी आँखों के ऐन सामने लाकर पूछता है, ''इसे पहचानती हो ?''
यह तो जावेद का फोटो है। भीतर की सारी ताकत बटोर कर मैं फुसफुसाती हूँ, ''क्या हुआ इसे ?''
''कल रात यह तुम्हारे घर की ओर जा रहा था, तभी कुछ पागल लोगों की भीड़ के हमले का शिकार हो गया। जान से मार डाला इसे।”
मुझे लगा, धरती डोल रही है। वर्दीधारी व्यक्ति न जाने क्या-क्या पूछे जा रहा है। वह क्या पूछ रहा है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। मुझे सिर्फ़ उसके होंठ हिलते दिखाई देते हैं। धीरे-धीरे वे दोनों धुँधली आकृतियों में बदलते जा रहे हैं। धुँधली आकृतियाँ भी गायब होती जा रही हैं। मेरी आँखों के आगे गाढ़ा काला अँधेरा छाता जा रहा है। मेरी साँसों की नैया डूब रही है। दर्द के महासागर में चंद साँसों की छोटी-सी किश्ती अपने आपको डूबने से आखिर बचा भी कब तक सकती है !
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )