मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

कहानी-16


सूराख़


सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

''तुम भी मिस्टर जोशी...''
मि. जोशी की सलाह सुन कर मंत्री महोदय ने बुरा-सा मुँह बनाया। मुखमुद्रा से लगा कि उन्हें मि. जोशी की सलाह बेहद कड़वी लगी है।
मि. जोशी आगे कुछ न बोल सके और शांत-से खड़े रहे, जस का तस।
मंत्री महोदय भीतर तक अस्थिर हो गए थे और अपनी इस अस्थिरता को कम करने के लिए वह कमरे में इधर-उधर टहलने लग पड़े। टहलते हुए वह सोच रहे थे कि अब उनके हितैषी भी वही भाषा बोलने लगे हैं जो आजकल उनके विरोधी बोल रहे हैं। मि. जोशी को अपना सच्चा हितैषी मानते थे वह। एक बेहद अंतरंग मित्र, एक अच्छा सलाहकार... सदैव उनके हित की सोचने वाला। और वह भी...।
मि. जोशी एक सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी थे और सेवामुक्त होने के बाद से वही उनका अधिकांश काम देख रहे थे- बिना किसी पद पर रहकर। सरकारी, गैर-सरकारी, देशी-विदेशी मामलों में वह मि. जोशी की महत्त्वपूर्ण सलाह लेते रहे हैं। इसके अतिरिक्त भी मि. जोशी बहुत से काम करते रहे हैं उनके- घरेलू काम से लेकर बहुत ही सीक्रेट किस्म के काम। मि. जोशी पर मंत्री महोदय के कई अहसान थे। असम से केन्द्र में वही लाए थे उन्हें। मि. जोशी का बेटा और बेटी अमेरिका में उन्हीं की बदौलत आज उच्च पदों पर कार्यरत है। मिसेज जोशी एक अंतर्राष्ट्रीय महिला संगठन की दिल्ली शाखा का कार्य देख रही हैं।
मि. जोशी ने उन्हें कुछ स्थिर और शांत पाकर कहा, ''सर, आप यह सोचना छोड़ें और थोड़ा आराम कर लें। इतना तनाव सेहत के लिए ठीक नहीं है। इस विषय पर फिर विचार किया जा सकता है।''
उन्हें मि. जोशी की यह सलाह अच्छी लगी। निश्चय ही उन्हें कुछ देर यह सोचना-विचारना छोड़ कर आराम करना चाहिए। उन्होंने जोशी को जाने के लिए कहा और स्वयं सोफे पर अधलेटे होकर आँखें मूँद सोने का उपक्रम करने लगे। पर ऐसे में क्या उन्हें नींद आ सकती है ? जब पाँव तले आग के अँगारे बिछे हों तो कोई आराम से कैसे सो सकता है ?
पिछले बीसेक बरस के उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे संकट कई बार आए थे। वे कई बार विचलित हुए हैं। किंतु कभी ऐसे संकटों में उन्होंने धैर्य और साहस नहीं छोड़ा।
यह उनका पाँचवा मंत्री पद था। इस बार उन पर भ्रष्टाचार के आरोप तब से लगने प्रारंभ हो गए थे जब मंत्री बने उन्हें चार-पाँच माह ही हुए थे। गत दो वर्षों में ये आरोप और तीखे हो गए थे और उनकी रातों की नींद उड़ाने लगे थे। उनके घोटालों को जग-जाहिर करने में प्रेस ने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन, सिवाय तिलमिलाने और भीतर-ही-भीतर संपादकों-पत्रकारों को कोसने के वह कुछ नहीं कर पाए थे। ऐसा भी नहीं कि वे हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। अपने तईं तो उन्होंने इनका मुँह बन्द करने और सबक सिखाने के बेहद प्रयत्न किए किंतु अपने इरादों में वह सफल न हो सके।
गत वर्ष के मानसून सत्र में जब सदन में विरोधी दलों ने उनको लेकर खूब हो-हल्ला मचाया और सदन की कार्रवाई कई दिनों तक नहीं चलने दी, तब विवश होकर उन्होंने घोषणा की कि यदि वे भ्रष्ट हैं तो सरकार एक जाँच कमेटी नियुक्त करके इसकी जाँच करवा सकती है।
बस, यहीं वह गलती कर बैठे।
विरोधी दलों के हमले से बचने के लिए सरकार ने एक जाँच कमेटी बिठा दी थी। उन्होंने सोचा था, जब तक जाँच कमेटी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी, तब तक अगले चुनाव आ जाएँगे। और, इन जाँच कमेटियों को भी वे भली-भाँति जानते थे। कहीं भीतर से आश्वस्त भी थे कि कमेटी की रिपोर्ट अपने विरुद्ध नहीं जाने देंगे। ऐसा प्रभाव व दबाव वे परोक्ष रूप से कमेटी पर डाल भी चुके थे। किंतु कमेटी ने निर्धारित समय में ही अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। वह दंग रहे गए थे यह जान कर कि उनके प्रभाव व दबाव का कोई असर नहीं पड़ा था। उनके विरुद्ध लगाए गए भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों को रिपोर्ट में सही बताया गया था।
रिपोर्ट के पेश होते ही जैसे भूचाल आ गया। विरोधी दलों ने ही नहीं, उनकी अपनी पार्टी के उन सभी सदस्यों ने भी खूब हो-हल्ला मचाया जो अभी मंत्री पद पर सुशोभित नहीं हो पाए थे। मंत्री पद से उन्हें तुरंत बर्खास्त करने की आवाज़ें हर ओर से गूँजने लगी थीं। अब प्रेस और अधिक आक्रामक नज़र आ रहा था उनके मामले में।
उन्हें इस बात से भी हैरानी हुई थी कि उन्हीं के साथी मंत्री ने जिसका नाम भी रिपोर्ट में यत्र-तत्र आया था, रिपोर्ट के पेश होने के कुछ दिन बाद ही इस्तीफा दे दिया था। इससे उन पर मंत्री पद छोड़ने का दबाव और बढ़ गया।
लेकिन वह इतनी जल्दी हार मान लेने वालों में से नहीं थे। अपने इस पद को इस हो-हल्ले के कारण वे छोड़ दें, यह उनके अहं को स्वीकार नहीं था। उन्होंने चुप रहकर कुछ दिनों तक स्थिति का जायज़ा लिया और फिर जहाँ से, जिस तरह से हो सकता था, अपने ऊपर लगे आरोपों का दृढ़ता से खंडन किया। साथ ही साथ, वह प्रधानमंत्री के संकेत की प्रतीक्षा करते रहे। जब कई दिनों तक प्रधानमंत्री की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला तो वह निश्चिंत हो गए। वह सोचने लगे- ऐसे हो-हल्ले तो मचते ही रहते हैं... सत्ता में रहकर ऐसे संकटों से क्या घबराना ? घबराए तो गए।
इन्हीं दिनों एक गैर-सरकारी टी.वी. समाचार एजेंसी ने अपने 'दृष्टिकोण' कार्यक्रम के लिए उनका इंटरव्यू लेना चाहा। उन्हें लगा, यह एक स्वर्णिम अवसर है उनके लिए, अपनी बात को टी.वी. जैसे माध्यम द्वारा लोगों के समक्ष रखने का। उन्हें विश्वास था, वह स्वयं को ईमानदार और पाक-साफ सिद्ध कर ही देंगे अपने शब्दजाल से। इस कला में अगर एक राजनीतिज्ञ माहिर न हो तो वह कैसा नेता ? उन्हें स्वयं पर अटूट भरोसा था। उन्होंने इंटरव्यू की अनुमति दे दी।
इंटरव्यू से पूर्व उन्होंने अपने मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को आदेश दिया कि वे इस संबंध में उन्हें ब्रीफ करें। अधिकारियों ने कल शाम ही उन्हें ब्रीफ कर दिया था। ब्रीफिंग के दौरान सभी संभावित प्रश्नों के उत्तर उन्हें बताए गए थे। मंत्रालय में उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों और उपलब्धियों की जानकारी भी दी गई।
इस ब्रीफिंग के बाद रात देर तक वह मि. जोशी से भी इस विषय में सलाह लेते रहे। मि. जोशी ने कई नए संभावित प्रश्नों की ओर संकेत किया था जो घोटालों और भ्रष्टाचार को लेकर, जाँच कमेटी की रिपोर्ट को लेकर और उनके द्वारा अब तक इस्तीफा न दिए जाने को लेकर हो सकते थे। मि. जोशी ने यह भी सलाह दी थी कि उन्हें इंटरव्यू के दौरान बेहद शालीनता, संयम और धैर्य के साथ प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। किसी भी तीखे और कड़वे प्रश्न पर वह उत्तेजित न हों बल्कि संयम का परिचय देते हुए उसके उत्तर को घुमा दें।
पर क्या वह मि. जोशी की सलाह पर कायम रह सके ? क्या ऐसा उनके लिए संभव था ? प्रश्नकर्ता तीर सरीखे प्रश्नों की बौछार किए जा रहा था और उनकी अब तक की राजनैतिक छवि को छिन्न-भिन्न करते हुए उन्हें एक भ्रष्ट नेता सिद्ध करने पर तुला हुआ था। उनकी दलीलें, उनका शब्दजाल सब धूल-धूसरित हो रहे थे। ऐसे में, वह उत्तेजित कैसे न होते ? क्यों न उसे अहसास दिलाते कि जितनी उसकी उम्र है, उससे कहीं अधिक का उनका पोलीटिकल कैरियर रहा है। क्यों न वह कहते अगर लोग मुझे भ्रष्ट सिद्ध करने पर तुले हुए हैं तो वे भी कहाँ पाक-साफ हैं। वे अपने अपने गिरेबाँ में पहले क्यों नहीं झाँकते ? क्यों न वह यह कह सकने को विवश होते कि अगर मैं भ्रष्ट हूँ तो माननीय पी.एम. ने मुझे अब तक बर्खास्त क्यों नहीं किया?
उस समय वह अंदर ही अंदर बुदबुदाये थे- कल का छोकरा, मुझे मेरी नैतिक जिम्मेदारी समझाने चला है। और यहीं गड़बड़ हो गई थी। वह अपने गुस्से पर नियंत्रण न रख सके। बौखलाहट में प्रश्नकर्ता को उसकी औकात समझाने लगे। वह भूल गए कि वह एक इंटरव्यू दे रहे हैं। वह भी एक गैर-सरकारी एजेंसी को। उनके उत्तरों में खीझ और बौखलाहट थी। उनकी भाषा तीखी और नुकीली ही नहीं, बीच बीच में आपत्तिजनक भी हो गई थी।
इंटरव्यू के बाद भी वह काफी समय तक अशांत रहे। मि. जोशी ने उनसे कहा, ''सर, जिस बात का मुझे भय था, वही हो गई। आपका यह इंटरव्यू जब टेलीकास्ट होगा तो और अधिक हड़कंप मचेगा। और यदि यह इंटरव्यू पी.एम. साहब ने...।''
वह एकाएक चेते। यह क्या कर डाला उन्होंने ? इस ओर तो उन्होंने सोचा ही नहीं।
''तो फिर...'' उन्होंने मि. जोशी की ओर इस प्रकार देखा जैसे वे ही इस समस्या से उन्हें उबार सकते हैं।
''सर... आप घबराएं नहीं। सर ! मैं देखता हूँ, क्या हो सकता है...'' मि. जोशी ने अपने स्वर को धीमा रखते हुए कहा, ''मैं अभी एजेंसी को फोन करता हूँ।''
वह चुपचाप मि. जोशी की ओर देखते रहे। मि. जोशी ने पास रखे टेलीफोन पर एजेंसी का नंबर घुमाया और मि. शेखर से बात कराने को कहा। कुछ ही क्षणों में मि. शेखर लाइन पर थे।
''मंत्री जी ने अभी एक घंटा पूर्व आपके 'दृष्टिकोण' कार्यक्रम के लिए अपना इंटरव्यू दिया है। मंत्री जी कैसेट को अभी देखना चाहते हैं।''
''कैसेट अभी तक हमारे कार्यालय में नहीं पहुँची है। पहुँचते ही आपके पास भिजवाता हूँ।'' उधर से मि. शेखर का उत्तर था।
एक घंटा बीत जाने पर भी जब कैसेट नहीं पहुँची तो उन्होंने मि. जोशी की ओर प्रश्नसूचक नज़रों से देखा। मि. जोशी ने पुन: फोन लगाया। मि. शेखर का स्वर अब बदला हुआ था, ''सॉरी सर, इंटरव्यू लेने के बाद हम कैसेट तब तक किसी को नहीं देते, जब तक वह हमारे कार्यक्रम में टेलीकास्ट न हो जाए।''
मि. जोशी उसे डपटना चाहते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह प्रेस से उलझने का अर्थ समझते थे। उन्होंने अपने स्वर को संयत करते हुए कहा, ''ऐसा करें, इंटरव्यू में से आपत्तिजनक हिस्सों को हटा दें। मंत्री जी नहीं चाहते कि...।''
''देखें सर, इंटरव्यू में से क्या एडिट करना है, क्या नहीं, यह हमारा काम है। हमारे कार्यक्रम एक्जीक्यूटिव इस इंटरव्यू में से कुछ भी हटाना उचित नहीं समझते।''
मि. शेखर का दो-टूक उत्तर सुनकर मि. जोशी अवाक् रह गए।
मि. जोशी ने जब मंत्री महोदय को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो वह एक भद्दी गाली के साथ लगभग चीख ही उठे। मि. जोशी को स्वयं एजेंसी जाकर बात करने को कहा। मि. जोशी ऐसे कामों में पारंगत थे। वे जानते थे कि ऐसे मामलों में थोड़ा-सा लालच दिखलाकर अथवा सौदेबाजी करके सफलता प्राप्त की जा सकती है। अगर इससे भी काम न चले तो डरा-धमका कर काम बन जाता है। लेकिन, मि. जोशी का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ। वह वहाँ से निराश लौट आए।
''किसी भी तरह इस कैसेट को प्राप्त नहीं किया जा सकता क्या ?'' जब चिंतित स्वर ने उन्होंने मि. जोशी से पूछा तो मि. जोशी बोले, ''सर, अब तक तो कई प्रिंट भी लिए जा चुके होंगे।''
''ऐसा करो, सूचना और प्रसारण मंत्री को फोन लगाओ। मैं बात करता हूँ।''
''जी...'' मि. जोशी ने तुरंत फोन लगाया और उन्हें थमा दिया।
लगभग दसेक मिनट फोन पर बात हुई। फोन रखने के बाद उनका चेहरा और अधिक मुरझा गया। चिंता और घबराहट के चिह्न उनके चेहरे पर अंकित थे। मि. जोशी ने पूछा, ''क्या हुआ, सर ?''
एक क्षण उन्होंने मि. जोशी की ओर अपलक देखा और सोफे पर पसरते हुए बोले, ''कह रहे थे- दृष्टिकोण एक गैर-सरकारी चैनल का कार्यक्रम है इसलिए रोक पाना मुश्किल है।''
कुछ देर की चुप्पी के बाद वे बोले, ''जोशी, इंटरव्यू किसी भी तरह टेलीकास्ट होने से रोकना है।''
''पर कैसे सर ?''
''के.के. की सेवाएँ कब काम आएँगी। उसे बुलाओ।''
मि. जोशी के.के. का नाम सुनते ही चौंक उठे। तो क्या मंत्री जी अब के.के. का सहारा लेंगे ? के.के. के लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं है। राजनीति में यह सब चलता है। जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।
''सर, मेरी मानें तो ऐसा कुछ न करें। इससे और बदनामी होगी। कहीं आप और संकट में न फँस जाएँ। आप ठंडे दिमाग से सोचें... बेहतर यही होगा कि आप पी.एम. से मिल लें और अपना इस्तीफा दे दें, कार्यक्रम टेलीकास्ट होने से पहले। तब यह इंटरव्यू खुद-ब-खुद अप्रासंगिक हो जाएगा।''
मि. जोशी की इसी सलाह पर वह उखड़ गए थे। उन्होंने जोशी से ऐसी उम्मीद नहीं की थी।

देर रात तक उन्हें नींद नहीं आई। विवश होकर नींद की गोलियाँ खानी पड़ीं।
सुबह उठे तो मन शांत था। वह कोठी के पीछे वाले लॉन में चले गए। कुछ देर हरी घास पर टहलते रहे। फिर लॉन में पड़ी कुर्सियों में से एक पर बैठ गए और सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनंद लेने लगे। सामने टेबल पर आज के अख़बार पड़े थे। मन किया कि अख़बार उठाकर ख़बरों पर एक नज़र घुमा लें लेकिन, तभी उन्होंने अपने इस विचार को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया। दरअसल, वह सुबह-सुबह अपने मुँह का स्वाद कसैला नहीं करना चाहते थे।
तभी, बद्री ने आकर बताया कि जोशी और अयंगर साब आए हैं। अयंगर उनका निजी सचिव था। वह उठकर कोठी के दाईं ओर बने अपने छोटे-से ऑफिस में चले गए। जोशी और अयंगर उन्हें देखते ही उठ खड़े हुए तो उन्होंने उन दोनों को बैठने का संकेत किया और स्वयं रिवाल्विंग चेयर में धँस गए।
सहसा, सामने दीवार के साथ रखे खूबसूरत एक्वेरियम पर उनकी दृष्टि पड़ी। यह एक्वेरियम एक विदेशी कंपनी ने उन्हें भेंट किया था। इसके जल में रंग-बिरंगी छोटी-छोटी मछलियाँ तैर रही थीं। एक छोटी-सी बोट भी बैटरी की मदद से इसमें गोल-गोल घूमा करती थी। आज वह पानी में डूबी पड़ी थी। डूबी हुई नाव को देखकर वह चौंक उठे और घंटी बजाकर बद्री को बुलाया।
बद्री ने एक्वेरियम का ऊपरी ढक्कन खोला और नाव को बाहर निकालकर उसे उलट-पुलट कर देखने लगा। मि. जोशी, अयंगर और उनकी स्वयं की निगाहें उधर ही लगी हुई थीं। एकाएक बद्री बोल उठा, ''यह देखिए साहब, इसकी तली में सूराख़ हो गया है। तभी डूब गई...।''
सहसा, वह कहीं खो-से गए। अब न उन्हें बद्री दिख रहा था, न एक्वेरियम। न मि. जोशी, न अयंगर। दिख रही थी तो बस एक नाव, एक नहीं अनेक सूराख़ों वाली नाव... नाव कि जिसके ऊपर वह सवार थे... और जिसे बहाव के विरुद्ध खेते जाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे।
वह जैसे अर्धनिद्रा से जगे। उन्होंने देखा, बद्री नाव लेकर जा चुका था और जोशी व अयंगर उन्हीं की ओर एकटक देख रहे थे। अकस्मात्, वह मुस्करा उठे। अयंगर से बोले, ''अयंगर, पी.एम. ऑफिस फोन करके टाइम लो। हम आज ही पी.एम. साहब से मिलेंगे।''
''जी, सर।''
''और जोशी, तुम मेरा इस्तीफा तैयार करो, अभी।'' इस पर जब मि. जोशी ने उनकी ओर फटी आँखों से देखा तो वह बोले, ''हमारी नाव में भी सूराख़ हो गए हैं, जोशी। इससे पहले कि नाव डूबे, हमें किनारे लग जाना चाहिए।''
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )