मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

लघुकथा





मित्रो
'सृजन-यात्रा' ब्लॉग पर जनवरी 2011 से मैंने अपनी लघुकथाओं का प्रकाशन प्रारंभ किया था। अब तक कुल छह लघुकथाएं ही प्रकाशित हुई हैं। अपनी सभी लघुकथाएं एक एक करके मैं 'सृजन-यात्रा' में प्रकाशित करुँगा। मेरी ये सभी लघुकथाएं शीघ्र ही पुस्तक रूप में भी आपके समक्ष होंगी - 'सफ़र में आदमी' शीर्षक से जो भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहा है। इसी संग्रह में से इस बार प्रस्तुत है एक और लघुकथा- 'अकेला चना'... आशा है, आप अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत करायेंगे।
आप सबको दीप-पर्व दीपावली की अनेक शुभकामनाएं....
सुभाष नीरव


अकेला चना
सुभाष नीरव

बस पहले ही आधा घंटा लेट हो चुकी थी। दफ्तर जाने वाले सभी यात्री चीख-चिल्ला रहे थे। रास्ते में चैकिंग-स्टाफ खड़ा था। बस रुकवाकर चैकिंग की जाने लगी। सभी गुस्से में बड़बड़ाने लगे। पिछले दो दिनों से मैं लेट पहुंच रहा था। बॉस ने कल वार्निंग भी दी थी। मुझसे नहीं रहा गया।
''बस पहले ही आधा घंटा लेट है। इसे रोककर चैकिंग करने से हम और लेट हो जायेंगे। आप चलती बस में चैकिंग क्यों नहीं करते ?'' सीट से उठकर मैंने चैकिंग-स्टाफ से कहा।
''तू म्हारा अफसर लागै है के ?'' उनमें से एक बोला, ''हमणै आपणी ड्यूटी करणी सै। बस लेट हो रीयै तो हम के करैं ?''
''यह गलत तरीका है आपका...!'' मैंने रोष प्रकट किया। मुझे लगा, मेरी आवाज़ हद से ज्यादा तेज़ हो गयी थी।
''घणा शोर नी कर, बस चैक होण दे।''
''चलती बस भी चैक हो सकती है। बेवजह आप बस को नहीं रोक सकते। हम सब लोग दफ्तर के लिए पहले ही लेट हुए जा रहे हैं।'' मैं अकेला ही उनसे अड़ गया।
''रोक कै ई होगी चैक...भले ही घंटा लागै।'' दूसरा चैकर मुझे घूरते हुए बोला, ''चल, आपणा टिकट दिखा।''
मैंने खीझते हुए अपना टिकट उसे थमा दिया। वह टिकट लेकर बस से नीचे उतर गया और बोला, ''इब तू नीचे आ जा... घणा शोर मचावै था, बेटिकट चले है...।''
मैंने प्रतिवाद किया, ''मेरा टिकट आपके हाथ में है, मैं बेटिकट नहीं हूँ ?''
वह हँसा। सभी चैकर मुझे घेरकर खड़े हो गये।
''इस बस का टिकट ना है ये।''
“इसी बस का है ये टिकट…” मैं लगभग चीख ही पड़ा था।
''हमणै बेईमान बताण लाग रीया सै...चल।'' उसने मुझे एक ओर धकेला और बस को चलने की व्हिसिल दे दी।
एक क्षण मैंने जाती हुई बस की ओर देखा। बस में बैठे हुए लोग उपहासभरी दृष्टि से मेरी ओर देख रहे थे।
''घणा नेता नी बणा करते... चल, निकाल सौ रुपइया...।''
हाथों में पकड़ी सौ रुपये की पर्ची को मैंने एक बार गुस्से से देखा और फिर दांत पीसते हुए उसे चिन्दी-चिन्दी करके वहीं हवा में बिखेर दिया।