शनिवार, 24 मई 2008

कहानी-3

अन्तत:

सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र
उसके चेहरे पर भय की रेखाएं खिंच आई थीं और वह हाँफ रहा था। बेतहाशा भागते हुए उसने यह देखने-जानने की कोशिश नहीं की थी कि वह कहाँ और किस रास्ते पर दौड़ रहा है। जहाँ, जिस तरफ रास्ता मिला, वह उसी ओर दौड़ता रहा...दौड़ता रहा और अब आगे गली बन्द थी।

उसने तेजी से इधर-उधर देखा और वहीं कहीं छिपने की जगह तलाश करने लगा। जल्द ही, उसकी निगाह गली के आखिरी मकान पर पड़ी। वह भीतर घुसा। गर्मियों की दोपहरी का सन्नाटा मकान के अहाते में पसरा हुआ था। अहाते के बायीं ओर की दीवार से सटकर मुर्गियों का दड़बा था। उसी से लगकर कुछ आड़-कबाड़ रखा हुआ था। इसी आड़-कबाड़ में दो टीन की पुरानी चादरें दीवार से इस तरह सटाकर रखी हुई थीं कि दीवार और उनके बीच कुछ जगह बन गई थी। उसने अब आगे कुछ नहीं सोचा और तेजी से वह उसी में छिपकर बैठ गया– दम साधे !
कुछेक पल ही बीते होंगे कि बाहर हल्का-सा शोर होता सुनाई दिया। शोर धीरे-धीरे करीब और तेज होता गया।
“कहाँ गया साला...”
“इधर नहीं आया शायद।"
“नहीं, इधर ही देखा था भागते...”
स्वर झल्लाये और खीझे हुए थे। शोर सुनकर उसकी आँखें खुद-ब-खुद मुंद गईं और वह मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा।
काफी देर बाद उसने महसूस किया कि वे लोग चले गए हैं। फिर भी, अभी बाहर निकलना उसे खतरनाक लगा। वह कुछ देर और वहीं दुबक कर बैठा रहा।
कुछ पल बाद ही उसने वहाँ से निकलना बेहतर समझा, क्योंकि यहाँ भी अधिक देर बैठना खतरे से खाली नहीं था। घर के अंदर से किसी के निकल कर इधर ही आ जाने का डर था। हो सकता था, उसे यूँ छिपा हुआ देख वह चिल्ला उठे या पूछताछ आरंभ कर दे।
वह वहाँ से उठकर बाहर निकल आया– गली में। गली सुनसान पड़ी थी। वह बहुत चौकन्ना होकर आगे बढ़ने लगा। हर मोड़ से पहले वह रुकता, स्थिति का जायजा लेता और इत्मीनान हो जाने पर तेजी से मुड़ जाता।

अब वह सड़क पर था।
दूर–दूर तक वे कहीं नहीं दिख रहे थे। वे लोग जो उसके पीछे भागे थे। उसने महसूस किया कि उसकी साँसें अभी भी तेज-तेज चल रही थीं और सीने में धुकधुकी मची थी।
वह तेज कदमों के साथ मुखर्जी रोड पर हो लिया।
यह उसका पहला अवसर था। इससे पहले उसने ऐसा कभी नहीं किया था। घर से निकला था, दूबे जी के स्कूल गया था। वहाँ से बस-स्टॉप तक उसके दिमाग में यह कतई नहीं था कि वह ऐसा करेगा ! करना तो दूर, इसकी कल्पना तक नहीं की थी उसने। यह सब कैसे, किस प्रेरणा से अकस्मात् हुआ, वह खुद अचम्भित था।
किसी से मालूम हुआ था कि गली नम्बर दो के दूबे जी ने एक छोटा-सा स्कूल खोला है। उन्हें एक मास्टर की तत्काल ज़रूरत है। ‘समथिंग इज बेटर दैन नथिंग’ वाली बात सोचकर वह आज सुबह-सुबह ही दूबे जी से उनके स्कूल में मिला था। जब वह पहुँचा, दूबे जी खुद ही बच्चों को पढ़ा रहे थे। कोई पचास-साठ बच्चे थे।
“हाँ, ज़रूरत तो है भई, एक मास्टर की।" दूबे जी ने उसे बैठने के लिए कहकर अपने चश्मे का शीशा साफ करते हुए कहा, “पर छह सौ रुपये से अधिक नहीं देते हम।“
चशमा आँखों पर चढ़ाकर दूबे जी ने उसकी ओर एकटक देखा और फिर पहचानते हुए-से बोले, “तुम... तुम रामप्रकाश जी के बड़े लड़के तो नहीं ?”
“जी...” उसके मुँह से बस इतना ही निकला।
“बड़े नेक आदमी हैं। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता हूँ।" दूबे जी अब तक अपनी कुर्सी पर बैठ चुके थे।
उसे लगा, उसका काम बन जाएगा। कुछ न होने से तो छह सौ रुपये ही ठीक। घर से अधिक दूर नहीं है स्कूल कि आने जाने में किराया खर्च होगा, पैदल ही आना-जाना हो जाएगा। और फिर कौन-सा हमेशा यहीं पढ़ाते रहना है। अच्छी नौकरी मिलते ही इसे छोड़ देगा।
दूबे जी कुछ सोचते हुए-से बोले, “कम्मो तुम्हारी ही बहिन है ?”
“जी।“ इस प्रश्न पर वह थोड़ा चौंका।
“बड़ी अच्छी लड़की है।" दूबे जी ने तारीफ की। वह चुपचाप सुनता भर रहा। एकाएक, दूबे जी बोले, “ऐसा क्यों नहीं करते, तुम कम्मो से कहो, वह बच्चों को पढ़ा दिया करेगी। वैसे भी वह घर में खाली पड़ी रहती होगी। समय भी कट जाया करेगा और कुछ आर्थिक मदद भी हो जाया करेगी, घर की।"
उसने सामने बैठे दूबे जी की आँखों में झांका। आँखों से परे उनके दिल में झांका। वहाँ एक स्वार्थी, लोभी, कामुक व्यक्ति दिखाई दे रहा था। कम्मो हाई-स्कूल पास थी। वह भी थर्ड-डिवीजन से और वह ग्रेजूएट था– थ्रू आउट फर्स्ट क्लास ! पर कम्मो लड़की थी और वह लड़का।
“तुम तो ब्रिलियेंट लड़के हो। थ्रू आउट फर्स्ट क्लास रहे हो। कहीं न कहीं तो जॉब मिल ही जाएगा। यहाँ मेरे स्कूल में छह सौ रुपल्ली की नौकरी कर क्यों अपना केरियर खराब करते हो...।" दूबे जी ने समझाने के अन्दाज में कहा। सहसा, वह आगे की ओर झुक आए और धीमी आवाज में बोले, “तुम... तुम कहो तो कम्मो को सात सौ दे दिया करुँगा।"
उस लगा, उसके अंदर कुछ खोलने लगा है। उसने एक बार मेज पर रखे पेपरवेट की ओर देखा और फिर दूबे जी की खोपड़ी की ओर। दूबे जी अभी भी उसकी ओर नज़रें गड़ाये थे।
वह कुछ कर पाता, इससे पहले ही वह वहाँ से उठकर बाहर आ गया। बाहर आकर उसने पिच्च् से थूका। थूकते वक्त उसे लगा, उसने ज़मीन पर नहीं मानो दूबे के चेहरे पर थूका हो।

बस-स्टॉप पर खड़ा वह अपने घर की दिन-प्रतिदिन दयनीय होती जाती स्थिति के विषय में सोच रहा था। अपनी बेकारी के बारे में सोच रहा था। दो वर्षों से वह निरन्तर सड़कें नाप रहा है। कई जगह एप्लाई किया। कई जगहों पर इंटरव्यू भी दिया। पर उसकी किस्मत के बन्द दरवाजे खुलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कहीं सोर्स तो कहीं रिश्वत आड़े आ जाती।

अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है...
शाहर की मशहूर गुप्ता एंड कम्पनी में क्लर्क की जगह खाली थी। उसने वहाँ खुद जाकर दरख्वास्त लगाई। दरख्वास्त लेने वाले व्यक्ति जिसे बार-बार अपनी नाक के बाल नोंचने की आदत थी, ने सवाल फेंका था– “कहीं काम किया है ?” जिसका जवाब था– “नहीं।" दूसरा सवाल जैसे पहले से ही तैयार था, “किसी की सोर्स है?” इसका भी जवाब था– “नहीं।" एक ही तरह के जवाब पाकर वह बौखला गया, “फिर यहाँ क्या करने आए हो? बेकार है बेकार...जाओ कहीं ओर जाओ...।"
उसने उस व्यक्ति को अपने सभी प्रमाणपत्र दिखाते हुए कुछ कहने की कोशिश की। लेकिन, वह व्यक्ति झल्ला उठा और उसके सभी प्रमाणपत्रों को एक ओर करते हुए लगभग चीखा, “अरे भई, जानता हूँ, तुम ग्रेजूएट हो... थू्र आउट फर्स्ट क्लास रहे हो... बी.ए. आनर्स में किया है्…यही न ! पर आजकल इनको कौन पूछता है। भले ही तुम यहाँ एप्लाई करो, पर रखा तो वही जाएगा, जिसकी सोर्स होगी या जो... जो...” कहते-कहते वह रुक-सा गया और फिर अपनी नाक के बाल नोंचने लगा।
कुछेक पल इधर-उधर देखने के बाद वह बोला, “जो... जो जेब गरम करने की हैसियत रखता हो। यहाँ तो यही होता है भई। होता आया है, और होता रहेगा। यहाँ क्या, सभी जगह होता है। समझे न !”
और फिर वह अपने काम में जुट गया। वह थोड़ी देर तक उस व्यक्ति के पास खड़ा-खड़ा सोचता रहा। आखिर, उसने धीमे से पूछ ही लिया, “भाई साहब, यह जेब कितने तक में गरम हो जाती है।"
उस व्यक्ति ने एकबारगी उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर आहिस्ता से बोला, “ढाई हजार रुपये की नौकरी है, है न ? इससे दुगने से कम में क्या जेब गरम होगी। और फिर, एक ही की जेब में तो जाता नहीं, बंटता है सब। समझे न !”
इतने रुपयों के इंतजाम की बाबत पिता से कहना फिजूल था। वह उनकी प्रतिक्रिया से बखूबी वाकिफ़ था। पिता वही संवाद जोर-जोर से चिल्लाने लगेंगे जिसे सुनते-सुनते उसके कान पकने लगे हैं, “कहाँ से लाऊँ इतने रुपये ?... खुद को बेच दूँ या डाका डालूँ ?... चोरी करुँ ?...” चीखते समय उनके मुँह से झाग निकलने लगेगा और नथुने फूलने लगेंगे।
पिता की ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है। वह तीन-तीन जवान होती लड़कियों का बाप भी है। बड़ी की शादी के लिए फंड के पैसे के अलावा और कोई पैसा उसके पास नहीं है। पत्नी है, जो सदैव बीमार रहती है और जिसकी दवा-दारू के लिए हर महीने काफी पैसा डाक्टर को चला जाता है। बेटे को जैसे-तैसे पेट काटकर पढ़ाया है। वह खुद देख रहा है, पिता दिन-रात परिवार की चिन्ता में कमजोर होते जा रहे हैं। अपनी सामर्थ्य में जितना होता है, करते हैं। घर की हालत बद से बदतर होती जा रही है। समय से पहले ही राशन-पानी खत्म हो जाता है। और महीने के आखिरी दिनों में तो फाकों की-सी स्थिति रहती है।
वह खुद चाहता था कि उसे छोटी-मोटी ही नौकरी मिल जाए जिससे घर का छुट-पुट खर्च वह सम्भाल ले। पर उसे लगता है, दूर-दूर तक फैला बेकारी का मरुस्थल कभी खत्म नहीं होगा शायद।

बस-स्टॉप पर खड़े-खड़े वह यही सब सोच रहा था। सहसा, उसने अपने पास वाले व्यक्ति की ओर देखा। वह व्यक्ति जेब में से बटुआ निकालकर छुट्टे पैसे निकाल रहा था। बटुए में सौ और पाँच सौ के नोट थे। कितने होंगे, पता नहीं। नोटों को देखते ही उसे ढाई हजार रुपये की नौकरी याद हो आई। फिर, घर की दयनीय हालत...जवान बहनें...अपनी बेकारी...बीमार माँ... असहाय पिता... और... तभी बस आ गई। जाने कब और कैसे उसका हाथ भीड़ में बस पर चढ़ रहे उस आदमी की पिछली जेब पर चला गया। बस, फिर एक शोर मचा और वह उस आदमी की गिरफ्त में था। लोगों का हुजूम उस पर टूट पड़ा था। और वह जाने कैसे लोगों की टांगों के बीच से होता हुआ जिधर भी रास्ता मिला, तेजी से उसी ओर दौड़ पड़ा था।
अगर वह पकड़ा जाता... सोचते ही उसे कंपकंपी छूट गई।
चलते-चलते उसने देखा, वह शहर के बीचोंबीच पहुँच गया था। आसपास बड़ी-बड़ी इमारतें थीं। दफ्तर थे। दुकानें थीं।
वह सड़क के चौराहे के बीच बने पॉर्क की ओर बढ़ा और हरी घास पर लेट गया। थोड़ी ही देर बाद उसे नींद आ गई। जब उसकी आँखें खुलीं तो सामने बहुमंजिला इमारत के पीछे सूरज छिपने की तैयारी कर रहा था। वह घास पर से उठकर फर्श पर सीढि़यों से लगकर बैठ गया।
अचानक, उसे याद आया कि आज तो मंगलवार है। उसके जेहन में यह बात तेजी से उभरी कि आज वह ज़रूर बजरंग बली की कृपा से ही पकड़े जाने से बाल-बाल बचा है। जाने कहाँ से एक ताकत उसके शरीर में आ गई थी कि वह स्वयं को मजबूत गिरफ्त से छुड़ाते हुए लोगों की भीड़ को चीरता हुआ बिजली की-सी फुर्ती से दौड़ पड़ा था। उसने मन ही मन बजरंग बली को याद किया। बचपन में माँ के कहने पर वह हनुमान चालीसा का पाठ हर मंगलवार किया करता था। माँ उसे बताती थी कि चालीसा पढ़ने से विप​त्तियाँ भी रास्ता बदल लेती हैं। एकाएक, उसके हाथों में कुछ हरकत हुई। उसने इधर-उधर देखा और लाल ईंट का छोटा-सा टुकड़ा उठाकर फर्श पर बजरंग बली का चित्र बनाने लगा। चित्र बनाते समय उसकी मन:स्थिति किसी प्रार्थनारत् व्यक्ति-सी रही। चित्र बनाने में वह इतना तल्लीन था कि उसे अहसास ही नहीं हुआ कि उसके आस-पास भीड़ जमा होना शुरू हो गई है ! चित्र अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि टन्...टन्... की आवाज हुई और एक सिक्का फर्श पर गिरा। धीरे-धीरे और सिक्के गिरे। चित्र पूरा करके वह वहाँ से उठा और थोड़ा हटकर बैठ गया। उसने देखा, आते-जाते लोग एक क्षण वहाँ रुकते, मन ही मन शायद प्रणाम करते और फिर जेबें टटोलते। ‘टन्...न’ से एक सिक्का फर्श पर फेंकते और आगे बढ़ जाते।

अंधेरा गहराने लगा था और फर्श पर अब काफी सिक्के इकट्ठा हो गए थे। कुछेक पल वह और इंतजार करता रहा। वह चाहता था कि लोग कम हों तो वह उठे। कुछ ही देर बाद उसने देखा, दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था। वह फुर्ती से उठा और आनन-फानन में सारे सिक्के उठाकर पेंट की जेब में डाल लिए। खड़े होकर एकबारगी इधर-उधर देखा और आसपास किसी को न पाकर तेजी के साथ पॉर्क से बाहर निकल सड़क पर हो लिया।
अब सड़क पर ब​त्तियाँ जगमगाने लगी थीं और वह घर की ओर बढ़ रहा था।

[आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ” तथा भावना प्रकाशन, पटपड़गंज, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” में संग्रहित]

1 टिप्पणी:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

कहानी के चित्र देना से कहानी की खूबसूरती बढ़ जाती है. नई कहानी के लिए बधाई.

चन्देल