शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

कहानी- 9



लड़कियों वाला घर
सुभाष नीरव


मिसेज़ शर्मा ने कब सोचा था कि किराये का मकान छोड़ सरकारी मकान में आने की खुशी इतनी जल्दी पंख लगाकर ‘फुर्र...’ हो जाएगी। जिस सरकारी कॉलोनी में उन्हें मकान अलॉट हुआ है, उसमें टाइप- टू क्वार्टरों के दोमंजिलें ब्लॉक हैं। ये क्वार्टर बाबू किस्म के लोगों को आवंटित हैं। वैसे इनमें असली मालिक कम, किरायेदार अधिक हैं। उनके क्वार्टर और मेन रोड के बीच एक पतली पक्की सड़क है जिस पर मेन रोड पर चलने वाले ट्रैफिक से भी अधिक गति में बाबू लोगों के स्कूल-कॉलेजी लड़के ‘कावासाकी’ और ‘हीरो होंडा’ दौड़ाते फिरते हैं। पलक झपकते जाने किधर से आते हैं और पलक झपकते ही फुर्र हो जाते हैं। आए दिन दुर्घटनाएं मेन रोड से अधिक इसी पतली सड़क पर होती हैं।
लेकिन, मिसेज़ शर्मा की चिंता का कारण यह नहीं है, बल्कि कुछ और है।
मेन रोड पर एक बस-स्टॉप है। यह बस-स्टॉप ठीक इक्कीस नंबर के सामने और इक्कीस नंबर में रहता है– शर्मा परिवार। यानी मि. शर्मा, उनकी पत्नी मिसेज़ शर्मा, बी.ए. फर्स्ट ईअर और हायर सेकेंडरी में पढ़तीं उनकी दो लड़कियाँ और आठवीं कक्षा में पढ़ता एक लड़का। दिन चढ़ने से लेकर रात नौ-दस बजे तक बस-स्टॉप पर एक जमघट-सा लगा रहता है। पंद्रह-बीस लोग हर समय बसों के इंतज़ार में खड़े रहते हैं। सुबह-शाम इस संख्या में वृद्धि हो जाती है। घर का दरवाजा खोलो या खिड़कियाँ, बस-स्टॉप पर खड़ा एक-एक आदमी देख-गिन लो। मिसेज़ शर्मा की परेशानी और चिंता स्वाभाविक है। घर में जवान लड़कियाँ हैं। जब देखो, बस-स्टॉप पर खड़ा कोई न कोई इधर ही घूरता मिलता है।
बैठने-उठने की थोड़ी-सी जगह मेन रोड की ओर ही है। घर के सामने छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा है जिस पर कहीं-कहीं घास उगी है। इस टुकड़े को इक्कीस नंबर वाले लॉन की तरह इस्तेमाल करते हैं। अब लड़कियाँ भी क्या करें। हर समय कमरों में बंद तो रहा नहीं जा सकता। खुली हवा में सांस लेने के लिए खिड़की-दरवाजा खोल ही बैठती हैं।
दोपहर के समय जब लड़कियाँ स्कूल-कालेज से लौटती हैं, कुछ लड़कों की सूरतें बस-स्टॉप पर रोज़ ही दिखलाई देने लगी हैं। मिसेज़ शर्मा मन ही मन कुढ़ती हैं और बुदबुदाती है– “नासपिटे ! कैसे दीदे फाड़-फाड़कर देखते हैं।”
गर्मी के दिन हैं। शाम होते ही, इस ओर कुर्सियाँ डालकर बैठने का उत्साह लड़कियों में दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। शाम पाँच बजे से लेकर रात के नौ-दस बजे तक इधर ही बनी रहती हैं वे। बस-स्टॉप पर बात करते हुए लड़कों को देखकर मिसेज़ शर्मा को लगता है मानो वे उन्हीं की लड़कियों को लेकर खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। मन होता है, उठकर सबक सिखा दें इन आवारा छोकरों को। पर अंदर ही अंदर कुढ़कर रह जाती हैं वह। आँखें लाल-पीली करके लड़कियों को अंदर कमरे में बैठने का संकेत करती हैं। लड़कियाँ कुछ ढीठ होती जा रही हैं। कभी मुस्कराकर भीतर आ जाती हैं और कभी माँ की लाल-पीली आँखों की परवाह न करते हुए वहीं बनी रहती हैं। कभी-कभी तो पलटकर जवाब दे देती है–“क्या है मम्मी ? तुम तो बस्स...।”
उस शाम मि. शर्मा और मिसेज़ शर्मा में वाकयुद्ध होता है। मिसेज़ शर्मा उनके आफिस से लौटते ही लड़कियों की ढीठता का ब्यौरा देने लगती हैं। बस-स्टॉप पर आवारा लड़कों के जमघट का लगातार बढ़ना बताती हैं और जल्द-से-जल्द मकान बदलने के लिए जोर डालती हैं। मि. शर्मा पहले चुपचाप सुनते रहते हैं, फिर समझाते हैं, और बाद में पत्नी की रट से खीझकर चिल्लाने लग पड़ते हैं। मिसेज़ शर्मा को लगता है, समस्या जितनी गंभीर होती जा रही है, मि. शर्मा उसे उतना ही लाइटली लेने लगे हैं। मि. शर्मा सोचते हैं, पत्नी बेवजह शक करती है लड़कियों पर।
मिसेज़ शर्मा लड़कियों पर बराबर नज़र रखे हुए हैं। वे दोनों सुबह स्कूल-कॉलेज के लिए निकलती है तो मिसेज़ शर्मा दरवाजे पर आ खड़ी होती हैं। जब तक लड़कियों को बस नहीं मिल जाती, वह वहीं खड़ी रहती हैं।
दोपहर को जब लड़कियाँ लौटती हैं, मिसेज़ शर्मा पहले से ही दरवाजे पर खड़ी होकर उनका इंतज़ार करती मिलती हैं। मिसेज़ शर्मा देखती हैं, वही लड़के उनकी लड़कियों के संग बस से उतरते हैं जो सुबह के वक्त उन्हीं के साथ बस में चढ़े थे, हो-हल्ला मचाते हुए।
वह लड़कियों से पूछती हैं, “ये कौन लड़के हैं ? तुम जानती हो इन्हें ?”
“हमें नहीं मालूम...” कहकर दोनों मुस्कराती हुईं अपनी-अपनी ड्रेस बदलने के लिए बाथरूम में जा घुसती हैं और मिसेज़ शर्मा केवल तड़पकर रह जाती हैं।

मिसेज़ शर्मा अब बेहद चौकस और सतर्क रहती हैं। महानगर की सरकारी कॉलोनियों में आए दिन होने वाली चोरी-डकैती की खबरें अख़बार में पढ़कर उनके भीतर धुकधुकी-सी होने लगती है। एक भय रात-दिन उन्हें सताता रहता है। उन्होंने अपने खर्चे पर पीछे का बरामदा भी कवर करवा लिया है। कहीं आती-जाती हैं तो बच्चों को सख़्त ताकीद कर जाती हैं– “कोई भी हो, दरवाजा न खोलना। छेद से पहले अच्छी तरह देख लेना।”
भय और चिंता के इस आलम में मिसेज़ शर्मा रात में ठीक से सो भी नहीं पाती हैं। तरह-तरह की आशंकाएँ मन में उठती हैं और उनका रक्तचाप बढ़ा देती हैं। इससे तो किराये के मकान में ही अच्छे थे, वह सोचती हैं।
जाने कैसे तो सरकारी मकान का नंबर आया। वरना, रिटायरमेंट में जब कुछ वर्ष शेष रह जाते हैं, तब जाकर कहीं अलॉट होता है मकान। मकान अलॉट होने की खबर जिसने भी सुनी, उसने मि. शर्मा को बधाई दी थी। आफिस के लोगों ने पार्टी भी ली। बोले– “मि. शर्मा लकी हो, मकान अलॉट हुआ भी तो सेंट्रल एरिया में। अरे, यहाँ के लिए तो बड़ी-बड़ी सिफारिशें लगती हैं, तब कहीं जाकर मिलता है ऐसे इलाके में मकान। कहीं चुपचाप कोई सोर्स-वोर्स तो नहीं लगवाया।”
लेकिन, अब... मि. शर्मा ने चेंज के लिए एप्लीकेशन दी थी। मगर कोई सुनवाई नहीं हुई। अब वे स्वयं देख-महसूस कर रहे हैं, बस-स्टॉप के ऐन सामने के मकान में रहने का दर्द। उन्हें लगता है– कुछ मनचले लड़के जान-बूझकर जमे रहते हैं बस-स्टॉप पर और उनके घर की ओर ही ताकते रहते हैं। लड़कियाँ भी ढीठ होती जा रही हैं। किसी-न-किसी बहाने बहार निकलना, ताकना-झाँकना उनकी आदत में शुमार होता जा रहा है। अब पत्नी की बातें उन्हें सही प्रतीत होती हैं। वह तो सारा दिन आफिस में रहते हैं, पीछे पत्नी बेचारी को ही भुगतना पड़ता है सब कुछ। मन पर पत्थर रखकर देखना पड़ता है यह सारा नाटक।
मि. शर्मा चेंज के लिए फिर से अपनी कोशिशें तेज कर देते हैं। बहुत दौड़-धूप करने पर किसी मंत्री के पी.ए. से संपर्क सधा है उनका। उसने मंत्री की ओर से चिट्ठी भिजवाने का आश्वासन दिया है। मि. शर्मा बराबर उससे मिलते रहते हैं, हफ्ते-दस दिन के बाद।
और, जिस दिन मंत्री की ओर से चिट्ठी गई, उस दिन से वे बहुत खुश थे। मिसेज़ शर्मा भी। अब तो काम हुआ ही समझो। मंत्री की बात थोड़े ही टाल सकते हैं। लेकिन, यह खुशफहमी जल्दी ही टूट गई। महीने-भर में ही उनका आवेदन पत्र रिग्रेट हो गया।
मिसेज़ शर्मा उदास होकर बोलीं, “तो क्या रिटायरमेंट तक यहीं रहना पड़ेगा ?... तब तक कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।”
मि. शर्मा खामोशी ओढ़े रहते हैं। बोलें भी तो क्या बोलें ! उन्होंने अपनी ओर से तो पूरी कोशिश की थी। माँ-बाप का कोई पुश्तैनी मकान तो इस महानगर में है नहीं कि छोड़-छाड़कर चले जाएं वहाँ। अब तो रहना ही होगा यहीं।
मिसेज़ शर्मा चाय बना लाती हैं और मि. शर्मा को प्याला थमाकर खुद भी उनके समीप ही बैठ जाती हैं। एकाएक उन्हें कुछ याद हो आता है। वह आगे झुककर मि. शर्मा को बताती हैं, धीमे स्वर में, “तुम्हें पता है, तीन नंबर वालों की लड़की ने इक्तीस नंबर वालों के लड़क से कोर्ट मैरिज कर ली है...।”
मि. शर्मा चुपचाप चाय पीते रहते हैं। उनके चेहरे पर न उत्सुकता है, न विस्मय की लकीरें। मिसेज़ शर्मा उनकी कोई प्रतिक्रिया न पाकर कुछ देर के लिए मौन हो जाती हैं। पर उनके दिमाग में फिर कुछ कौंधता है और वह लगभग खुश-सी होती हुई कहती हैं, “सुनो जी, हम ऐसा न करें कि यह मकान किराये पर चढ़ा दें और खुद कहीं और किराये पर रहें।”
“पागल हो गई हो क्या ?” मि. शर्मा अपना मौनव्रत छोड़कर तोप की तरह दग पड़ते हैं, “जानती हो, कितना रिस्की है यह ! किसी ने शिकायत कर दी तो लेने के देने पर जाएंगे।” सहसा, उन्हें अपने आफिस के बिहारीलाल की याद हो आती है। बिहारीलाल ने अपना पूरा मकान किराये पर दे रखा था। किसी की शिकायत पर इस्टेट आफिस वालों ने एक दिन छापा मार दिया। बिहारीलाल दौड़ा-दौड़ा फिरा, कितने ही दिन। उसके खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई। मकान तो छिना ही, साथ ही उसे जब से मकान अलॉट हुआ था, तब से यानी चार साल का मार्केट रेंट भी चुकाना पड़ा था।
मिसेज़ शर्मा ने अपनी चाय खत्म करते हुए कहा, “अरे, कुछ नहीं होगा। तुम तो खामख्वाह डरते हो। यहाँ क्या सभी अपने-अपने मकानों में रहते हैं। हर ब्लॉक में दो-चार घर को छोड़कर सभी किराये पर हैं।”
“तो क्या ! मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगा।” मि. शर्मा खाली चाय का प्याला नीचे रखते हुए अपना फैसला सुना देते हैं।
एक शाम तो हद हो गई। मिसेज़ शर्मा अंदर किचन में थीं और लड़कियाँ लॉन में कुर्सी डाले बैठी थीं। पास ही छोटा भाई खेल रहा था। तभी कागज का एक रॉकेट उनके बीच आकर गिरा। लड़कियों ने बस-स्टॉप की ओर मुड़कर देखा तो कुछ लड़के खिलखिलाकर हँस पड़े। एक लड़के ने मुँह में उंगलियाँ डालकर और अपनी दाईं आँख दबाकर सीटी भी बजा दी। “बदतमीज...” कहकर लड़कियों ने उधर से नज़रें हटाईं तो एक और रॉकेट हवा में उड़ा और उनके ऊपर आकर गिरा।
एकाएक बड़ी लड़की उठी और बस-स्टॉप की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे छोटी भी चल दी। लड़का तुरन्त अंदर जाकर मम्मी को बुला लाया। मिसेज़ शर्मा ने बाहर आकर देखा, बड़ी लड़की ने एक लड़के का कॉलर पकड़ रखा था और छोटी लड़की चप्पल से उसे पीट रही थी– “तेरी माँ-बहन नहीं है क्या ?... बेशर्म... कागज के रॉकेट मार रहे थे... तेरी और तेरे यारों की तो...”
मिसेज़ शर्मा ने दौड़कर लड़कियों के हाथों से लड़के को छुड़ाया और धमकाते हुए बोलीं, “जा, भाग जा यहाँ से, नहीं तो दो-चार मैं भी लगाऊँगी।”
लड़का मुँह लटकाये वहाँ से खिसक गया। अन्य लड़के पहले ही इधर-उधर हो लिए थे। बस-स्टॉप पर खड़े लोग घेरा बनाकर खड़े थे। मिसेज़ शर्मा लड़कियों के संग घेरे से निकलकर अपने घर में आ गईं। दिल उनका धकधक कर रहा था लेकिन भीतर-ही-भीतर खुश भी थीं। लड़कियों से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी उन्हें। ये रूप तो उन्होंने पहली बार ही देखा था। उनका सिर गर्व से ऊँचा हो गया।
मि. शर्मा तो किस्सा सुनकर उछल-से पड़े– “क्या ?... मेरी बेटियाँ इतनी बहादुर भी हैं!”
उस शम मि. शर्मा को चाय बहुत अच्छी लगी। रात को सोते वक्त मि. शर्मा ने पत्नी से कहा, “हमारी लड़कियाँ ऐसी-वैसी नहीं हैं जैसा कि तुम अब तक समझी बैठी थीं।”
“वो तो ठीक है,” मिसेज़ शर्मा बोलीं, “पर इन बदमाश छोकरों का क्या भरोसा? लड़कियाँ स्कूल-कालेज बस से अकेली आती-जाती हैं। कल कोई और ही मुसीबत न खड़ी कर दें।”
“अरे, कुछ नहीं होगा। इन नए-नए जवान हो रहे छोकरों में इतना साहस कहाँ ?” मि. शर्मा ने कहा, “जब तक लड़कियाँ चुप रहती हैं, वे उछलते फिरते हैं। जहाँ लड़कियों ने भरी भीड़ में इनकी बेइज्जती की कि बस, सारी आश्काई फु...र्र हो जाती है।”
“फिर भी, यह मकान ठीक नहीं है,” मिसेज़ शर्मा पुराने मुद्दे पर आ गईं, “चोर-उच्चकों का डर बना रहता है यहाँ।”
“अरे भागवान, चोर-उच्चकों का डर कहाँ नहीं है आजकल।” मि. शर्मा ने समझाते हुए कहा, “बस, ज़रा सतर्क और होशियार रहने की ज़रूरत है आज के जमाने में।”
बातों-बातों में मिसेज़ शर्मा की कब आँख लग गई, मि. शर्मा को पता ही नहीं चला।

दास बाबू के बच्चे का जन्म दिन था। मि. शर्मा दफ्तर से छूटकर अपने कुछ सहकर्मियों के संग सीधे दास बाबू के घर चले गए थे। दास बाबू पहले मि. शर्मा के दफ्तर में ही थे। आजकल दूसरे मंत्रालय में डेपुटेशन पर हैं। दास बाबू को भी सरकारी मकान अलॉट है। उनका मकान नीचे का ही नहीं, कोने का भी है। तीन तरफ़ खुली ज़मीन को उन्होंने खूबसूरत लॉन में बदल रखा है। पटरंज और मेहँदी की ऊँची-ऊँची बाड़ से लॉन को कवर कर रखा है।
पार्टी से लौटकर मि. शर्मा रातभर कुछ सोचते रहे। अगले दिन जल्दी उठ गए जबकि इतवार का दिन था। छुट्टी के दिन वह नौ-दस बजे से पहले कभी नहीं उठते।
बाहर निकलकर मि. शर्मा काफी देर तक घर के सामने की ज़मीन के टुकड़े को देखते रहे। फिर एकाएक वह भीतर गए और स्टोर से एक टूटा जंग खाया हुआ फावड़ा उठा लाए। पत्थर के टुकड़े से ठोंक-पीटकर उसे ठीक किया और ज़मीन के टुकड़े को एक किनारे से खोदने लगे।
पहले मिसेज़ शर्मा ने उन्हें देखा, फिर बच्चों ने। सभी हैरान-से खड़े थे। आखि़र मिसेज़ शर्मा ने पूछ ही लिया, “यह क्या कर रहे हैं आप ?”
“यहाँ हम मेहँदी लगाएंगे।” खोदना क्षणभर को रोक कर उन्होंने पत्नी की ओर मुस्कराते हुए देखा और कहा, “बड़ी होने पर वह बाड़ का काम करेगी... अब रहना भी तो यहीं है न।”
अब, उनका साथ मिसेज़ शर्मा ही नहीं, बच्चे भी दे रहे थे।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” में संग्रहित )

5 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

padhkar mujhe bhi sukun mila.......

बेनामी ने कहा…

ur story is very good

वर्षा ने कहा…

कहानी अच्छी थी, कम से कम मिस्टर और मिसेज़ शर्मा ने अपनी बेटियों पर विश्वास तो किया।

Ila ने कहा…

acchi lagi yah kahani. skaratmak drishtikone ho to bahut kuch badala ja sakata hai, anukool banaya ja sakata hai.

सुभाष नीरव ने कहा…

रश्मि प्रभा जी, इला जी, वर्षा जी और बेनामी जी, आपने अपनी राय से अवगत करवाया, मैं आपका आभारी हूँ।