शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

कहानी-12



साँप
सुभाष नीरव

"री, लक्खे तरखान के तो भाग खुल गए।"
"कौण?... ओही सप्पां दा वैरी?"
"हाँ, वही। साँपों का दुश्मन लक्खा सिंह।"
"पर, बात क्या हुई?"
"अरी, कल तक उस गरीब को कोई पूछता नहीं था। आज सोहणी नौकरी और सोहणी बीवी है उसके पास। बीवी भी ऐसी कि हाथ लगाए मैली हो।"
जहाँ गाँव की चार स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं, लक्खा सिंह तरखान की किस्मत का किस्सा छेड़ बैठतीं। उधर गाँव के बूढ़े - जवान मर्द भी कहाँ पीछे थे। उनकी ज‍़बान पर भी आजकल लक्खा ही लक्खा था।
"भई बख्तावर, लक्खा सिंह की तो लाटरी खुल गई। दोनों हाथों में लड्डू लिए घूमता है।"
"कौन?... बिशने तरखान का लड़का? साँपों को देखकर जो पागल हो उठता है...।"
"हाँ, वही।"
"रब्ब भी जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। कल तक यही लक्खा रोटी के लिए अन्न और चूल्हा जलाने के लिए रन्न(बीवी) को तरसता था।"
"हाँ भई, किस्मत के खेल हैं सब।"
गाँव में जिस लक्खा सिंह के चर्चे हो रहे थे, वह बिशन सिंह तरखान का इकलौता बेटा था। जब पढ़ने-लिखने में उसका मन न लगा और दूसरी जमात के बाद उसने स्कूल जाना छोड़ गाँव के बच्चों के संग इधर-उधर आवारागर्दी करना शुरू कर दिया, तो बाप ने उसे अपने साथ काम में लगा लिया। दस-बारह साल की उम्र में ही वह आरी-रंदा चलाने में निपुण हो गया था।
बिशन सिंह तरखान एक गरीब आदमी था। न उसके पास ज़मीन थी, न जायदाद। गाँव के बाहर पक्की सड़क के किनारे बस एक कच्चा-सा मकान था जिसकी छत के गिरने का भय हर बरसात में बना रहता। गाँव में खाते-पीते और ऊँची जात के छह-सात घर ही थे मुश्किल से, बाकी सभी उस जैसे गरीब, खेतों में मजूरी करने वाले और जैसे-तैसे पेट पालने वाले! बिशन सिंह इन्हीं लोगों का छोटा-मोटा काम करता रहता। कभी किसी की चारपाई ठीक कर दी, कभी किसी के दरवाजे-खिड़की की चौखट बना दी। किसी की मथानी टूट जाती- ले भई बिशने, ठीक कर दे। किसी की चारपाई का पाया या बाही टूट जाती तो बिशन सिंह को याद किया जाता और वह तुरंत अपनी औज़ार-पेटी उठाकर हाज़िर हो जाता। कभी किसी का पीढ़ा और कभी किसी के बच्चे का रेहड़ा! दाल-रोटी बमुश्किल चलती।
जब लक्खा सिंह की मसें भींजने लगीं तो बिशन सिंह आस-पास के गाँवों में भी जाने लगा- बढ़ईगिरी का काम करने। सुबह घर से निकलता तो शाम को लौटता। काम के बदले पैसे तो कभी-कभार ही कोई देता। गेहूँ, आटा, चावल, दालें वगैरह देकर ही लोग उससे काम करवाते। थोड़ा-बहुत लक्खा सिंह भी घर पर रहकर कमा लेता। इस प्रकार, उनके परिवार की दाल-रोटी चलने लगी थी।
दिन ठीक-ठाक गुज़र रहे थे और लक्खा सिंह की शादी-ब्याह की बातें चलने लगी थीं कि एक दिन...
चौमासों के दिन थे। एक दिन शाम को जब बिशन सिंह अपने गाँव लौट रहा था, लंबरदारों के खेत के पास से गुज़रते समय उसे एक साँप ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई।तभी से लक्खा सिंह को साँपों से नफ़रत हो गई। बाप के मरने के बाद कई दिनों तक वह लाठी लिए खेतों में पागलों की भाँति घूमता रहा था। बाँबियों को ढूँढ़-ढूँढ़कर नष्ट करता रहा था, साँपों को खोज-खोजकर मारता रहा था। गाँव के बड़े-बुजुर्गों के समझाने-बुझाने के बाद उसने ऐसा करना छोड़ा था।
लेकिन, गाँव में जब किसी के घर या पशुओं के बाड़े में साँप घुस आने की खबर उसे मिलती तो वह साँप मारने वालों में सबसे आगे होता। साँप को देखकर उसकी बाजुओं की मछलियाँ फड़कने लगती थीं। साँप कितना भी भयानक क्यों न होता, लक्खा सिंह लाठी लिए बेखौफ़ होकर उसे ढूँढ़ निकालता और जब तक उसे मार न लेता, उसे चैन न पड़ता। मरे हुए साँप की पूँछ पकड़कर हवा में लटकाए हुए जब वह गाँव की गलियों में से गुज़रता, बच्चों का एक हुजूम उसके पीछे-पीछे होता, शोर मचाता हुआ। घरों के खिड़की-दरवाज़ों, चौबारों, छतों पर देखने वालों की भीड़ जुट जाती।
कुछ समय बाद लक्खा सिंह की माँ भी चल बसी। अब लक्खा सिंह अकेला था।इसी लक्खा सिंह को कोई अपनी लड़की ब्याह कर राजी नहीं था। जब तक माँ-बाप ज़िंदा थे, उन्होंने बहुत कोशिश की कि लक्खे का किसी से लड़ बँध जाए। इसका चूल्हा जलाने वाली भी कोई आ जाए। ऐसी बात नहीं कि रिश्ते नहीं आते थे। रिश्ते आए, लड़की वाले लक्खा सिंह और उसके घर-बार को देख-दाखकर चले गए, पर बात आगे न बढ़ी। माँ-बाप के न रहने पर कौन करता उसकी शादी की बात! न कोई बहन, न भाई, न चाचा, न ताऊ, न कोई मामा-मामी। बस, एक मौसी थी फगवाड़े वाली जो माँ-बाप के ज़िंदा रहते तो कभी-कभार आ जाया करती थी लेकिन, उनके परलोक सिधारने पर उसने भी कभी लक्खा सिंह की सुध नहीं ली थी।
जब लक्खा सिंह पैंतीस पार हुआ तो उसने शादी की उम्मीद ही छोड़ दी। गाँव की जवान और बूढ़ी स्त्रियाँ अक्सर आते-जाते राह में उससे मखौल किया करतीं, "वे लखिया! तू तो लगता है, कुँवारा ही बुड्ढ़ा हो जाएगा। नहीं कोई कुड़ी मिलती तो ले आ जाके यू.पी. बिहार से... मोल दे के। कोई रोटी तो पका के देऊ तैनूं...।"
मगर लक्खा सिंह के पास इतना रुपया-पैसा कहाँ कि मोल देकर बीवी ले आए। ऐसे में उसे गाँव का चरना कुम्हार याद हो आता जो अपनी बीवी के मरने पर बिहार से ले आया था दूसरी बीवी- रुपया देकर। दूसरी बीवी दो महीने भी नहीं टिकी थी उसके पास और एक दिन सारा सामान बाँधकर चलती बनी थी। रुपया-पैसा तो खू-खाते में गया ही, घर के सामान से भी हाथ धोना पड़ा। चरना फिर बिन औरत के- रंडवा का रंडवा!
चरना को याद कर लक्खा सिंह कानों को हाथ लगाते हुए मसखरी करती औरतों को उत्तर देता, "मोल देकर लाई बीवी कल अगर भांडा-टिंडा लेकर भाग गई, फिर?... न भई न। इससे तो कुँवारा ही ठीक हूँ।"
फिर, कभी-कभी लक्खा सिंह यह भी सोचता, जब उस अकेले की ही दाल-रोटी मुश्किल से चल रही है, तब एक और प्राणी को घर में लाकर बिठाना कहाँ की अकलमंदी है।इसी लक्खा सिंह तरखान का सितारा एकाएक यों चमक उठेगा, किसी ने सपने में भी न सोचा था। खुद लक्खा सिंह ने भी नहीं। घर बैठे-बैठे पहले नौकरी मिली, फिर सुन्दर-सी बीवी।सचमुच ही उसकी लॉटरी लग गई थी।
सन पैंसठ के दिन थे। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की जंग अभी ख़त्म ही हुई थी। एक रात उधर से गुज़र रही एक सेठ की कार ऐन उसके गाँव के सामने आकर खराब हो गई। आस-पास न कोई शहर, न कस्बा। ड्राइवर ने बहुत कोशिश की मगर कार ठीक न हुई। इंजन की कोई छोटी-सी गरारी टूट गई थी। सेठ और ड्राइवर ने लक्खा सिंह का दरवाज़ा जा थपथपाया और सारी बात बताई। पूछा, "आस-पास कोई मोटर-मैकेनिक मिलेगा क्या?"लक्खा सिंह उनका प्रश्न सुनकर हँस पड़ा।
"बादशाहो, यहाँ से दस मील दूर है कस्बा। वहीं मिल सकता है कोई मकेनिक। पर इतनी रात को वहाँ भी कौन अपनी दुकान खोले बैठा होगा। आप लोग मेरी मानो, रात यहीं गाँव में गुज़ारो। तड़के कोई सवारी लेकर चले जाणा कस्बे और मकेनिक को संग ले आणा।"
सेठ और ड्राइवर परेशान-सा होकर एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।
"वैसे हुआ क्या है, गड्डी को?"
"यह गरारी टूट गई..." ड्राइवर ने हाथ में पकड़ी गरारी दिखाते हुए कहा।
"हूँ..." कुछ सोचते हुए लक्खा सिंह बोला, "बादशाहो, तुसी बैठो। देखता हूँ, क्या हो सकता है।"
लक्खा सिंह ने अपनी औज़ार-पेटी खोली, औज़ार निकाले और लकड़ी की एक गाँठ लेकर बैठ गया। लैम्प की रोशनी में आधे घंटे की मेहनत-मशक्कत के बाद उसने हू-ब-हू लकड़ी की गरारी तैयार कर दी और बोला, "चलो जी, इसे फिट करके देखते हैं।"
ड्राइवर और सेठ हैरान थे कि यह लकड़ी की गरारी क्या करेगी? लेकिन जब लक्खा सिंह ने सच्चे बादशाह को याद करते हुए गरारी को उसकी जगह पर फिट किया और गाड़ी स्टार्ट करने को कहा तो न केवल गाड़ी स्टार्ट हुई बल्कि गियर में डालते ही चल भी पड़ी।
"लो भई बादशाहो, ये मेरी गरारी आपको शहर तक तो पहुँचा ही दे शायद।"
सेठ और ड्राइवर बहुत खुश थे। सेठ ने लक्खा सिंह को रुपये देने चाहे जिन्हें लेने से लक्खा सिंह ने इन्कार कर दिया। बोला, "बादशाहो, आपकी गाड़ी हमारे गाँव के पास आकर खराब हुई। आप हमारे मेहमान हुए। मेहमानों से क्या कोई पैसे लेता है? आपकी हम जितनी सेवा कर सकते थे, कर दी। रुपये देकर हमें शरमिंदा न करो।"
और जब वाकई कार ने सेठ को उसके शहर तक पहुँचा दिया तो सेठ लक्खा सिंह से बहुत प्रभावित हुआ। उसका अपना लकड़ी का कारोबार था। देहरादून और पौढ़ी-गढ़वाल में आरा मशीनें और फर्नीचर के कारखाने थे उसके। उसने अगले दिन ही अपना आदमी भेजकर लक्खा सिंह को अपने पास बुला लिया।
सेठ ने पूछा, "मेरे यहाँ नौकरी करोगे? सौ रुपया महीना और रहने को मकान।"
लक्खा सिंह को और क्या चाहिए था। उसने 'हाँ` कर दी। शहर में सेठ का बड़ा गोदाम था। फिलहाल, सेठ ने उसे वहीं रख लिया।
इधर शहर में उसकी नौकरी लगी, उधर फगवाड़े वाले मौसी एक लड़की का रिश्ता लेकर आ गई। लक्खा सिंह की हाँ मिलते ही लड़की वाले अगले महीने ही शादी के लिए राजी हो गए। शादी में सेठ भी शरीक हुआ।
लक्खे की बीवी लक्खे की उम्र से छोटी ही नहीं, बेहद खूबसूरत भी थी।गाँव वाले कहते, "लखिया, वोहटी तो तेरी इतनी सोहणी है कि हाथ लगाए मैली हो। रात को दीवा बालने की भी ज़रूरत नहीं तुझे।"
लक्खा सिंह की बीवी का नाम वैसे तो परमजीत था, पर गाँव की स्त्रियों ने आते-जाते उसे सोहणी कहकर बुलाना आरंभ कर दिया था। अब लक्खा भी उसे सोहणी कहकर ही बुलाने लगा। शादी के बाद जितने दिन वे गाँव में रहे या तो लक्खा सिंह की किस्मत के चर्चे थे या फिर उसकी बीवी की खूबसूरती के।
लक्खा सिंह खुद अपनी किस्मत पर हैरान और मुग्ध था।
छुट्टी बिताकर बीवी को संग लेकर जब वह काम पर लौटा तो सेठ बोला, "लक्खा सिंह, गोदाम वाला मकान और नौकरी तेरे लिए ठीक नहीं। अब तू अकेला नहीं है। साथ में तेरी बीवी है। तू ऐसा कर, गढ़वाल में मेरा एक कारखाना है। वहाँ एक आदमी की ज़रूरत भी है। तू वहाँ चला जा। रहने को मकान का भी प्रबंध हो जाएगा। कोई दिक्कत हो तो बताना।"
प्रत्युत्तर में लक्खा सिंह कुछ नहीं बोला, दाढ़ी खुजलाता रहा।
"मेरी राय में तू बीवी को लेकर वहाँ चला ही जा। तेरे जाने का प्रबंध भी मैं कर देता हूँ। पहाड़ों से घिरा खुला इलाका है, तुझे और तेरी बीवी को पसंद आएगा।"
सेठ की बात सुनकर लक्खा सिंह बोला, "घरवाली से पूछकर बताता हूँ।"
सेठ के पास उसका ड्राइवर भी बैठा था। लक्खा सिंह का उत्तर सुनकर बोला, "पूछना क्या? तू जहाँ ले जाएगा, वह चुपचाप चली जाएगी। तेरी बीवी है वो। लोग पहाड़ों पर हनीमून मनाने जाते हैं। समझ ले, तू भी हनीमून मनाने जा रहा है। हनीमून का हनीमून और नौकरी की नौकरी !" कहकर ड्राइवर हँस पड़ा।
लक्खा सिंह सेठ की बात मान गया।
पहाड़ों और जंगलों से घिरी कलाल घाटी। इसी घाटी की तराई में जंगल से सटा था सेठ का छोटा-सा लकड़ी का कारखाना। कस्बे और आबादी से दूर। शान्त वातावरण और समीप ही बहती थी- मालन नदी। लकड़ी के लिए जंगल के ठेके उठते। पेड़ काटे जाते और दिन-रात चलती आरा मशीनें रुकने का नाम न लेतीं। कटी हुई लकड़ी जब कारखाने के अंदर जाती, तो फिर खूबसूरत वस्तुओं में तब्दील होकर ही बाहर निकलती- विभिन्न प्रकार की कुर्सियों, मेज़ों, सोफों, पलंगों और अलमारियों के रूप में! ट्रकों पर लादकर यह सारा फर्नीचर शहर के गोदामों में पहुँचा दिया जाता। तैयार माल की देखरेख और उसे ट्रकों पर लदवाकर शहर के गोदामों में पहुँचाने का काम करता था- प्रताप, चौड़ी और मज़बूत कद-काठी वाला युवक।
सेठ के कहे अनुसार इसी प्रताप से मिला लक्खा सिंह इस कलाल घाटी में, सेठ के फर्नीचर कारखाने पर। प्रताप ने उसे मैनेजर से मिलवाया। मैनेजर ने प्रताप से कहा, "प्रताप, सरदार जी को पाँच नंबर वाले मकान पर ले जा। सरदार जी वहीं रहेंगे।" फिर, लक्खा सिंह की ओर मुखातिब होकर बोला, "सरदार जी, आज आप आराम करें। सफ़र में थक गए होंगे। कल से काम पर आ जाना।"
कारखाने से कोई एक कोस दूर पहाड़ी पत्थर से बने थे पाँच-छह मकान। खुले-खुले। प्रताप उन्हें जिस मकान में ले गया, वह सबसे पीछे की ओर था। उसके पीछे से जंगल शुरू होता था। जंगल के पीछे पहाड़ थे। मकान खुला और हवादार था। पहले छोटा-सा बरामदा, फिर एक बड़ा कमरा, उसके बाद रसोई और आखिर में पिछवाड़े की तरफ़ शौच-गुसलखाना। आगे और पीछे की खुली जगह को पाँचेक फीट ऊँची दीवार से घेरा हुआ था।
लक्खा सिंह सचमुच पहाड़ की खुली वादी को देखकर खुश था। मकान देखकर और भी खुश हो गया। लेकिन, लक्खा सिंह की घरवाली घबराई हुई थी।
"मैंने नहीं रहना यहाँ, इस जंगल-बियाबान में... देखो न, कोई भी चोर-लुटेरा आगे-पीछे की दीवार कूदकर अंदर घुस सकता है। आप तो चले जाया करोगे काम पर, पीछे मैं अकेली जान... न बाबा न!"
सोहणी के डरे हुए चेहरे को देखकर लक्खा सिंह मुस्करा दिया। बोला, "ओ सोहणियो, पंजाब की कुड़ी होकर डर रहे हो?"
प्रताप ने समझाने की कोशिश की, "नहीं भाभी जी, आप घबराओ नहीं। चोरी-डकैती का यहाँ कोई डर नहीं। बेशक खिड़की-दरवाज़े खुले छोड़कर चले जाओ। हाँ, कभी-कभी साँप ज़रूर घर में घुस आता है।"
"साँप!" सोहणी इस तरह उछली जैसे सचमुच ही उसके पैरों तले साँप आ गया हो।
लक्खा सिंह भी साँप की बात सुनकर सोच में पड़ गया और मन-ही-मन बुदबुदाया - यहाँ भी साँप ने पीछा नहीं छोड़ा।
सोहणी बहुत घबरा गई थी। लक्खा सिंह की ओर देखते हुए बोली, "सुनो जी, वापस दिल्ली चलो... सेठ से कहो, वह वहीं गोदाम पर ही काम दे दे। हमें नहीं रहना यहाँ साँपों के बीच। साँपों से तो मुझे बड़ा डर लगता है जी।"
लक्खा सिंह ने प्रेमभरी झिड़की दी, "ओए, पागल न बन। कुछ दिन रहकर तो देख। कोई साँप-सूँप नहीं डसता तुझे।" फिर घबराई हुई बीवी के कंधे पर अपना हाथ रखकर बोला, "अगर आ ही गया तो देख लूँगा। बड़े साँप मारे हैं मैंने अपने पिंड में...।"
"अच्छा तो मैं चलता हूँ। कोई तकलीफ़ हो तो बुला लेना। मैं सामने वाले दो मकान छोड़कर तीसरे में रहता हूँ।" जाते-जाते प्रताप ने कहा, "वैसे मैं सारा दिन घर पर ही रहता हूँ। सुबह थोड़ी देर के लिए कारखाने जाता हूँ और लौट आता हूँ। फिर शाम को चार-पाँच बजे जाता हूँ। बस, दिनभर में यही दो-ढाई घंटों का काम होता है मेरा।"
सेठ के कारखाने में मैनेजर को मिलाकर कुल सात लोग काम करते थे। रघबीर, कांती और दिलाबर फर्नीचर तैयार करते थे जबकि बंसी और मुन्ना का काम वार्निश, रंग-रोगन आदि का था। प्रताप का काम था- तैयार माल की देखरेख करना और उसे शहर के गोदामों में भेजना। लक्खा सिंह को फर्नीचर तैयार करने के काम पर लगा दिया गया था।
लक्खा सिंह सुबह काम पर चला जाता और शाम को लौटता। दिनभर सोहणी घर पर अकेली रहती, डरी-डरी, सहमी-सहमी-सी। लक्खा सिंह लौटता तो उसका डर से कुम्हलाया चेहरा देखकर परेशान हो उठता। अंधेरा होने के बाद तो सोहणी रसोई की तरफ़ जाने से भी डरती थी। शौच-गुसल तो दूर की बात थी। लक्खा सिंह ने टार्च ख़रीद ली थी। बिजली न होने के कारण दिए की मद्धम रोशनी में सोहणी नीचे फर्श पर पैर रखते हुए भी भय खाती थी। हर समय उसे लगता मानो साँप उसके पैरों के आस-पास ही रेंग रहा हो। रस्सी का टुकड़ा भी उसे साँप प्रतीत होता।
कुछ ही दिन में लक्खा सिंह ने महसूस किया कि सोहणी के चेहरे का सोहणापन धीमे-धीमे पीलेपन में बदलता जा रहा है। लक्खा सिंह उसके भीतर के डर को निकालने की बहुत कोशिश करता, उसे समझाता मगर सोहणी थी कि उसका डर जैसे उससे चिपट गया था- जोंक की तरह। वह हर बार दिल्ली लौट चलने की बात करती। इतवार को लक्खा सिंह की छुट्टी हुआ करती थी। उस दिन वह सोहणी को शहर ले जाता। उसे घुमाता, गढ़वाल के प्राकृतिक दृश्य दिखलाता। मालन नदी पर भी ले जाता। सोहणी घर से बाहर जब लक्खा सिंह के संग घूम रही होती, उसके चेहरे पर से डर का साया उतर जाता। वह खुश-खुश नज़र आती। लेकिन, घर में घुसते ही सोहणी का सोहणा चेहरा कुम्हलाने लग पड़ता।सोहणी के इसी डर के कारण लक्खा सिंह अब दिन में भी एक चक्कर घर का लगाने लगा था। साथ काम करते कारीगर उससे चुस्की लेते तो मैनेजर भी उनमें शामिल हो जाता।
एक दिन प्रताप भी मैनेजर के पास बैठा था जब लक्खा सिंह ने दोपहर को घर हो आने की इजाज़त माँगी।
"सरदार जी, माना आपकी नई-नई शादी हुई है, पर उस बेचारी को थोड़ा तो आराम कर लेने दिया करो।" मैनेजर मुस्करा कर बोला।
"ऐसी कोई बात नहीं है जी... वो तो बात कुछ और ही है। दरअसल..." कहते-कहते लक्खा सिंह रुक गया तो दिलाबर बोल उठा, "दरअसल क्या?... साफ-साफ क्यों नहीं कहता कि बीवी की याद सताने लगती है।"
मुन्ना और कांती एक साथ हँस पड़े।
"नहीं जी, दरअसल बात यह है कि मेरी घरवाली को हर समय साँप का डर सताता रहता है।"
"साँप का डर?" रघबीर ने हैरानी प्रकट की।
"बात यह है जी कि पहले दिन ही प्रताप ने कह दिया था कि घर में साँप घुस आते हैं कभी-कभी। मेरी बीवी को साँपों से बड़ा डर लगता है। बेचारी दिन भर डरी-डरी-सी रहती है।"
"क्यों प्रताप? यह क्या बात हुई? तूने लक्खा सिंह की बीवी को डरा दिया।" मैनेजर ने पास बैठे प्रताप के चेहरे पर नज़रें गड़ाकर हँसते हुए पूछा।
"मैंने झूठ कहाँ कहा? साँपों का घर में घुस आना तो यहाँ आम बात है।" प्रताप ने सफ़ाई दी। फिर उसने लक्खा सिंह के आगे एक प्रस्ताव रखा, "लक्खा सिंह जी, इतना घबराने की ज़रूरत नहीं। मैं पास ही रहता हूँ। अगर ऐसी ही बात है तो दिन में मैं देख आया करूँगा भाभी को।"
लक्खा सिंह को प्रताप की बात जँच गई, बोला, "तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी।"
एक डेढ-माह बाद लक्खा सिंह ने महसूस किया कि सोहणी के चेहरे पर अब पहले जैसा डर नहीं रहा है। अब शाम को अंधेरा हो जाने के बाद पिछवाड़े की ओर वह अकेली चली जाती थी। यह देखकर लक्खा सिंह ने राहत की साँस ली थी।
एक दिन दोपहर में काम नहीं था। लक्खा सिंह का मन घर पर हो आने को हुआ। काफी दिनों से वह दिन में घर पर गया भी नहीं था। मैनेजर से कहकर वह घर की ओर चल पड़ा।
घर पर प्रताप सोहणी से बातें कर रहा था। सोहणी खुश नज़र आ रही थी। सोहणी को खुश देखकर लक्खा सिंह भी खुश हो गया।
"लक्खा सिंह जी, अब आप चिंता न करें। इनका डर अब खत्म होता जा रहा है। अगर मुझे मालूम होता कि ये साँप से इतना ही डरती हैं तो मैं साँप वाली बात करता ही नहीं।" प्रताप लक्खा सिंह को देखकर बोला।
"नहीं जी, डर तो मुझे अभी भी लगता है। साँप का क्या भरोसा जी, कब आ जाए। जब से दिन में एक-दो बार प्रताप भाई आकर पता कर जाते हैं, थोड़ा हिम्मत-सी बँध गई है।" सोहणी ने कहा।
कुछ देर बाद प्रताप चला गया तो लक्खा सिंह ने देखा, सोहणी के चेहरे पर रौनक थी। वह ऐसी ही रौनक उसके चेहरे पर हर समय देखना चाहता था।
"सोहणियों! मलाई दे डोनियों!! आज तो बड़े ही सोहणे लग रहे हो..." कहकर लक्खा सिंह ने सोहणी को अपने आलिंगन में ले लिया।
"हटो जी, आपको तो हर वक्त मसखरी सूझती रहती है।" सोहणी लजाते हुए अपने आपको छुड़ाते हुए बोली।
पहले तो सोहणी दिन के उजाले में ही रात का खाना बना लिया करती थी ताकि रात को रसोई की तरफ़ न जाना पड़े। लक्खा सिंह से भी उजाले-उजाले में घर लौट आने की ज़िद्द करती थी। लेकिन, अब ऐसी बात न थी। शाम को अंधेरा होने पर जब लक्खा सिंह लौटता तो वह रसोई में अकेली खड़ी होकर खाना बना रही होती। दिन में धो कर पिछवाड़े की रस्सी पर डाले गए कपड़े रात को सोने से पहले खुद ही उतार लाती।
जाड़े के सुहावने दिन शुरू हो गए थे। गुनगुनी धूप में बैठना अच्छा लगता था। ऐसी ही एक गुनगुनी धूप वाले दिन लक्खा सिंह दोपहर को काम पर से आ गया। सोहणी की खनखनाती हँसी घर के बाहर तक गूँज रही थी। बेहद प्यारी, मन को लुभा देने वाली हँसी! जैसे गुदगुदी करने पर बच्चे के मुख से निकलती है। वह हँसी लक्खा सिंह को बड़ी प्यारी लगी। लेकिन, वह अकेली क्यों और किस बात पर हँस रही है? वह सोचने लगा। तभी पुरुष हँसी भी उसे सुनाई दी। घर पर प्रताप था। लक्खा सिंह को यों अचानक आया देखकर दोनों की हँसी गायब हो गई।
"वो जी... आज... मैंने साँप देखा... गुसलखाने में। मैं तो जी डर के मारे काँपने ही लगी..." सोहणी के स्वर में कंपन था, "कि तभी प्रताप भाई आ गए। इन्होंने ही उसे भगाया।"
"भगाया? मारा क्यों नहीं?"
"मैं तो मार ही देता, पर वह बचकर निकल गया।" प्रताप के मुख से निकला।
सोहणी फिर पुरानी रट पकड़ने लगी, "जी, मैंने नहीं रहना यहाँ। आज तो देख ही लिया साँप... कभी आप आओगे तो मरी पड़ी मिलूँगी मैं...।"
"पगली है तू, एक साँप देखकर ही डर गई।"
उस दिन लक्खा सिंह दुबारा काम पर नहीं गया। प्रताप से मैनेजर को कहलवा दिया।
रघबीर के बेटा हुआ तो उसने सभी को लड्डू खिलाए। पिछले बरस ही उसकी शादी हुई थी। "लो भई, रघबीर ने तो लड्डू खिला दिए। लक्खा सिंह जी, तुम कब मुँह मीठा करवा रहे हो?" मैनेजर ने आधा लड्डू मुँह में डाल, आधा हाथ में पकड़कर लक्खा सिंह से प्रश्न किया।
"हम भी करवा देंगे जल्दी ही अगर रब्ब ने चाहा तो..." लक्खा सिंह लकड़ी पर रंदा फेरते हुए मुस्कराकर बोला।
"सिर्फ़ मुँह मीठा करवाने से बात नहीं बनेगी। पार्टी होगी, पार्टी...।" बंसी अपने हाथ का काम रोककर कहने लगा।
"अरे, इसके तो जब होगा तब देखी जाएगी, पहले रघबीर से तो ले लो पार्टी। लड्डू से ही टरका रहा है।" मुन्ना भी बोल उठा।
"हाँ-हाँ, क्यों नहीं..." रघबीर ने कहा, "पर तुम सबको मेरे घर पर चलना होगा, बच्चे के नामकरण वाले दिन।"
खूब अच्छी रौनक लगी नामकरण वाले दिन रघबीर के घर। लक्खा सिंह सोहणी को लेकर प्रताप के संग पहुँचा था। उधर कांती भी अपनी पत्नी को लेकर आया था। मैनेजर, दिलाबर, बंसी और मुन्ना पहले ही पहुँचे हुए थे। रघबीर ने दारू का भी इंतजाम किया हुआ था। बंसी को छोड़कर सभी ने पी। लक्खा सिंह की सोहणी और कांती की बीवी घर की स्त्रियों के संग घर के कामकाज में हाथ बँटाती रही थीं। खाने-पीने के बाद शाम को घर की स्त्रियाँ आँगन में दरी बिछाकर ढोलक लेकर बैठ गईं। रघबीर ने आँगन में एक ओर दो चारपाइयाँ बिछा दीं जिन पर मैनेजर, दिलाबर, मुन्ना, बंसी, लक्खा और प्रताप बैठ गए और स्त्रियों के गीतों का आनंद लेने लगे। तभी, प्रताप अपनी जगह से उठा और एक स्त्री के पास जाकर उसके कान में कुछ फुसफुसाया।
अब सभी स्त्रियाँ सोहणी को घेर कर बैठ गईं। वह 'न-नुकर` करने लगी तो लक्खा सिंह बोल उठा, "सोहणियों, सुना भी दो अब...।"
काफी देर तक लजाती-सकुचाती सोहणी ने आखिर ढोलक पकड़ ही ली।
इसके बाद तो सब चकित ही रह गए। खुद लक्खा सिंह भी। सोहणी जितनी अच्छी ढोलक बजाती थी, उतना ही अच्छा गाती थी। उसने पंजाब के कई लोकगीत सुनाए। एक के बाद एक।
आजा छड्ड के नौकरी माहिया,
कल्ली दा मेरा दिल न लग्गे...
0
पिप्पल दिया पित्ताय केही खड़-खड़ लाई वे...
पत्ता झड़े पुराणें, रुत नवियाँ दी आई वे...
पिप्पल दिया पित्तायँ, तेरियाँ ठंडियाँ छाँवाँ...
झिड़कदियाँ ससाँ, चेते आउंदियाँ ने माँवाँ...
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ऐधर कणकाँ, ओधर कणकाँ
विच्च कणकाँ दे टोया
माही मेरा बुड्ढ़ा जिहा
देख के दिल मेरा रोया...
लै लो दाल फुल्लियाँ, लै लो दाल-छोले...
इस गीत को सोहणी ने जिस अंदाज़ में गाया, उससे सभी खिलखिलाकर हँस पड़े। मैनेजर लक्खा सिंह की जाँघ पर हाथ मारकर बहुत देर तक हँसता रहा।
अब ढोलक कांती की घरवाली को देकर सोहणी उठकर खड़ी हो गई और चुन्नी को कमर में बाँधकर गिद्धा डालने लग पड़ी।
बारी बरसीं खटण गिया सी,
खट के लियादाँ ताला
तेरे जिहे लख छोकरे...
मेरे नाम दी जपदे माला...
सोहणी को नाचते देख लक्खा सिंह और प्रताप भी खड़े होकर नाचने लगे। महफ़िल में रंगत आ गई।
गिद्धे विच नचदी दी गुत्त खुल जाँदी आ
डिगिया परांदा देख सप्प वरगा
तेरा लारा वे शराबियाँ दी गप्प वरगा
इस बार सोहणी ने लक्खा सिंह की ओर इशारा किया तो मैनेजर, प्रताप और मुन्ना की हँसी छूट गई।
मित्तरा पड़ोस दिया
कंध टप्प के आ जा तू
माही मेरा कम्म ते गिया...
लक्खा सिंह झूम उठा, "बल्ले-बल्ले ओ सोहणियों... खुश कर दित्ता तुसी तां..."
जब नाचते-नाचते सोहणी हाँफने लगी तो वह बैठ गई। लेकिन गाना उसने बन्द नहीं किया था। अब ढोलक फिर उसके हाथ में थी।
आ जोगिया, फेरा पा जोगिया...
साडा रोग बुरा हटा जोगिया...फेरा पा जोगिया
आ गिया नी, फेरा पा गिया नी
सानुं फनीअर नाग लड़ा गिया नी... जोगी आ गिया नी
आ गिया नी, फेरा पा गिया नी
सानुं रोग जुदाइयाँ दा पा गिया नी... जोगी आ गिया नी
सोहणी का यह रूप तो लक्खा सिंह ने देखा ही नहीं था। वह इतना उन्मुक्त होकर नाच-गा रही थी जैसे वह पंजाब में अपने गाँव में नाच-गा रही हो।
नीं सप्प लड़िया, मैंनूं सप्प लड़िया
जद माही गिया मेरा कम्म ते
घर विच आ वड़िया... सप्प लड़िया
मैंनूं सुत्ती जाण के अड़ियो
मंजे उत्ते आ चढ़िया... सप्प लड़िया

देर रात गए जब प्रताप, लक्खा सिंह और सोहणी घर की ओर लौट रहे थे तो सोहणी बेहद खुश और उमंग से भरी लग रही थी। रास्ते भर प्रताप उसकी तारीफ़ें करता रहा और वह खिलखिलाकर हँसती रही। लगता था, उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, वह हवा में उड़ रही थी। इधर लक्खा सिंह मन-ही-मन सोच रहा था- साँपों से डरने वाली सोहणी के गीतों में साँप कहाँ से आ गए?
दिलाबर की माँ बीमार थी और कांती को अपनी घरवाली को छोड़ने जाना था। इसलिए दोनों एक हफ्ते की छुट्टी लेकर चले गए थे। काम पूरा करने और समय पर देने के लिए मैनेजर ने डबल-शिफ्ट लगा दी थी। अब रात में भी काम होने लगा था।
शुरू में सोहणी ने इसका विरोध किया, बोली, "दिन तो जैसे-तैसे गुज़र जाता है, रात में अकेले... मेरी तो जान ही निकल जाएगी।"
जब लक्खा सिंह ने मजबूरी बताई और कहा कि दो-चार दिन की ही बात है और चार पैसे बढ़कर ही मिलेंगे तो वह मान गई।
उस रात काम कोई अधिक नहीं था। रात ग्यारह बजे तक सब निबट गया था। मैनेजर के कहने पर लक्खा सिंह घर की ओर चल दिया। ठंडी हवा चल रही थी और पूरी वादी अंधकार में डूबी थी।
रात के समय सोहणी बाहर वाले दरवाज़े में अंदर से ताला लगा लिया करती थी। लक्खा सिंह ने दरवाज़े की ओर हाथ बढ़ाया अवश्य था लेकिन वह हवा में ही लटक कर रह गया था। तेज‍ साँसों की आवाज़ उसके कानों में पड़ी थी। जैसे कोई साँप फुँकार रहा हो। वह घबरा उठा। तो क्या साँप? सोहणी साँप के डर से काँप रही होगी। ऐसे में वह दरवाज़ा कैसे खोल सकती है? वह सोच में पड़ गया। तभी, वह दीवार पर चढ़ गया। वह दबे पाँव घर में घुसना चाहता था, पर दीवार से कूदते समय खटका हो ही गया।दीये का मद्धम प्रकाश कमरे में पसरा हुआ था। सोहणी बेहद घबराई हुई दिख रही थी। बिस्तर अस्त-व्यस्त-सा पड़ा था।
"क्या बात है सोहणी? इतना घबराई हुई क्यों हो? क्या साँप?.."
"हाँ-हाँ, साँप ही था... वहाँ... वहाँ बिस्तर पर..." घबराई हुई सोहणी के मुख से बमुश्किल शब्द निकल रहे थे, "मैं उधर जाती... वह भी उधर आ जाता। कभी इधर, कभी उधर... अभी आपके आने का खटका हुआ तो भाग गया।"
लक्खा सिंह ने हाथ में लाठी और टॉर्च लेते हुए पूछा, "किधर?... किधर गया?"
"उधर... उस तरफ़।" सोहणी ने घबराकर पिछवाड़े की ओर संकेत किया।लक्खा सिंह ने टॉर्च की रोशनी पिछवाड़े में फेंकी। सचमुच वहाँ साँप था। काला, लम्बा और मोटा साँप! दीवार पर चढ़ने की कोशिश करता हुआ।
"ठहर!" लक्खा सिंह के डोले फड़क उठे। उसने हाथ में पकड़ी लाठी घुमाकर दे मारी। एक पल को साँप तड़पा, फिर दीवार के दूसरी ओर गिर गया।
"जाएगा कहाँ बच के मेरे हाथों..." लक्खा सिंह टॉर्च और लाठी लिए दीवार पर चढ़ने लगा। तभी, सोहणी ने उसकी बाँह पकड़ ली।
"क्या करते हो जी... छुप गया होगा वह जंगल की झाड़ियों में। ज़ख्मी साँप वैसे भी ख़तरनाक होता है।"
जाने क्या सोचकर लक्खा सिंह ने अपना इरादा बदल दिया।"बच गया सा...ला, नहीं तो आज यहीं ढेर कर देता।"
उस रात सोहणी जब उससे लिपटकर सोने का यत्न कर रही थी, लक्खा सिंह उसके दिल की धड़कन साफ़ सुन रहा था। कितना डरा रखा था इस साँप ने। अब हिम्मत नहीं करेगा। क्या सोहणी सचमुच ही साँप से डर रही थी?
सुबह हल्की-हल्की बूँदाबाँदी होती रही। आकाश में बादल ही बादल थे। ठंड भी बढ़ गई थी। बारिश कुछ थमी तो लक्खा सिंह कारखाने पहुँचा।
सेठ दिल्ली से आया हुआ था।सेठ के एक ओर उसका ड्राइवर खड़ा था और दूसरी ओर काला कंबल ओढ़े प्रताप।
"क्या बात है प्रताप?" सेठ प्रताप से पूछ रहा था।
"कुछ नहीं सेठ जी, रात से तबीयत ठीक नहीं।"
"तबीयत ठीक नहीं? दवा ली? जा, जाकर आराम कर।" सेठ प्रताप से कह ही रहा था कि उसकी नज़र आते हुए लक्खा सिंह पर पड़ी।
"क्या हाल है लक्खा सिंह? कोई तकलीफ़ तो नहीं?"
"सब ठीक है सेठ जी, कोई तकलीफ़ नहीं।" पास आकर लक्खा सिंह ने कहा।
"कैसी है तेरी बीवी?... उसका दिल लगा कि नहीं?"
"ठीक है वह भी, पर..."
"पर क्या?"
"कुछ नहीं सेठ जी, साँप ने उसे तंग कर रखा था। मेरे पीछे घर में घुस जाता था। कल रात मेरे हाथ पड़ गया। वो ज़ोरदार लाठी मारी है कि अगर बच गया तो दुबारा घर में घुसने की हिम्मत नहीं करेगा।"
इधर लक्खा सिंह ने कहा, उधर कंबल लपेटे खड़े प्रताप के पूरे शरीर में कँपकँपी दौड़ गई और उसकी पीठ का दर्द अचानक तेज़ हो उठा।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” तथा भावना प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दुख” में संग्रहित )

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Aap ki kahani achi lagi, Kabhi apko samye mile to Mera blogg filhal dekgen, dhanyavad

giri kishore(girikishore@yahoo.com)

Rutchee ने कहा…

बहुत अच्छी कहानी..
जिस तरह अन्त की ओर ले गये आप, पाठकों की रुचि बनाये रखते हुए वो सराहनीय है.
आप की अन्य कहानियां भी पढीं..
अत्यंत ही सम्वेदनशील लेखक हैं आप.
जिसे हम अंग्रेज़ी में change of mind कहते हैं , उसे आप अपनी कहानियों में बहुत ही खूबसू्रती से चित्रित करते हैं.

बेनामी ने कहा…

Priya Bhai Subhash,

Kahani Saanp parh li. Achchi lagi lekin kuchh vimarsh bhi mangti hai. Yahi achchi kahani ki pehchan hai aur achche pathak ki bhi.

Ek photograph bhej raha hun. Yeh mere us aalekh ke sath lagaya ja sakta hai. Mere chaukhate mein kya rakha hai. Vaise, niryan tumhara hai.

Samvaad dena. Intazar rahega.

Regards

Ashok Gupta
ashok267@gmail.com

बेनामी ने कहा…

Avaidh sambandhon par padee lathee sachmuch tilmila deti hai.
kahanee kee panjabiyat se parivesh jeevant ho gaya hai.
Ashok Lav
Lav13nov@gmail.com

Rutchee ने कहा…

Hello,
I just came back to say something..
I saw "Heaven on Earth" by Deepa Mehta today.
I think the movie is very much inspired by this story..

How emotions transform into reality..

Do see it whenever you have some time Mr. Subhash.
-Ruchira