शुक्रवार, 15 मई 2009

कहानी-17



चोट
सुभाष नीरव

सफदरजंग एअरपोर्ट के बस-स्टॉप से कुछ हटकर मोटरसाइकिल के समीप खड़े लड़के ने लड़की को अपने निकट आते देख कहा, “आज कितनी देर कर दी तुमने।”
“हाँ, थोड़ी देर हो गई। सॉरी। बस ही देर से मिली।”
“थोड़ी देर ?... पूरे एक घंटे से खड़ा हूँ।” लड़का गुस्से में था, “घर से ही देर से निकली होगी। किदवई नगर से एअरपोर्ट के लिए हर एक सेकेंड पर बस है।” हेल्मिट पहन मोटरसाइकिल स्टार्ट कर लड़का बोला।
लड़की ने एक बार इधर-उधर देखा और फिर उचक कर लड़के के पीछे बैठ गई।
“कहाँ चलना है ?” मोटरसाइकिल के आगे सरकते ही लड़के ने पूछा।
“कहीं भी, पर यहाँ से निकलो।” लड़की ने दायाँ हाथ लड़के के कंधे पर रख आगे सरकते हुए कहा।
“प्रगति मैदान या पुराना किला चलें ?”
“कहीं भी, जहाँ तुम चाहो।”
हवा से बचने के लिए लड़की ने हाथ लड़के के विनचेस्टर की जेबों में ठूँस लिए थे और अपनी छाती को लड़के की पीठ से चिपका लिया था। लड़की का ऐसा करना लड़के को अच्छा लगा। उसका गुस्सा जाता रहा।
“सुनो...” लड़की ने लड़के के दायें कान की ओर मुँह करके कहा, “हम लोग एअरपोर्ट वाले बस-स्टॉप पर नहीं मिला करेंगे।”
“क्यों ?”
“इस बस-स्टॉप से ऑफिस के कई लोग बस चेंज करते हैं।”
सामने रेड-लाइट आ गई थी। रुकना पड़ा। लड़के ने मुँह घुमाकर लड़की की ओर देखा। उसकी आँखों में चमक और होंठों पर मुस्कराहट थी। उसने पूछा, “फिर कहाँ मिला करूँ ?”
“ऊँ...” लड़की ने होंठों को गोल करते हुए कुछ देर सोचा और बोली, “मदरसे के बस-स्टॉप... पर तुम स्टॉप से कुछ दूर हटकर खड़े हुआ करो।”
हरी बत्ती होते ही लड़के ने बाइक गियर में लेकर एक्सीलेटर दबाया और वाहनों के बीच से लहराते हुए बाइक को निकालने लगा।
“क्या करते हो ?... ठीक से चलाओ।”
लड़का मस्ती में था। उसने बाइक और तेज कर दी। इस पर लड़की ने उसकी पीठ में चुकोटी काटी और बोली, “बहुत मस्ती आ रही है ?... हैं !”

पुराने किले के बाहर पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वे दोनों झील के साथ वाले पॉर्क की ओर बढ़ गए।
झील का पानी सर्दियों की सुनहरी खिली धूप में चमक रहा था और उसमें बोटिंग करते लोगों से झील जैसे जीवंत हो उठी थी। वे झील के किनारे ढलान पर एक झाड़ी की ओट में बैठ गए। उनके बैठते ही बत्तखों का एक झुण्ड जाने किधर से आया और उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगा। लड़की लड़के को भूलकर बत्तखों से खेलने लगी। अब लड़की अपने आसपास की घास तोड़कर बत्तखों पर फेंक रही थी और हाथ बढ़ाकर उन्हें अपने पास बुला रही थी। जब कोई बत्तख उसके बहुत निकट आ जाती, वह डर कर उठ खड़ी होती। लड़की का जब यह खेल लम्बा खिंचने लगा तो लड़का उखड़ गया।
“छोड़ो भी अब...।”
लड़की लड़के की रुखाई देख हँस दी और तोड़ी हुई घास की बरखा लड़के पर करने लगी। लड़का फिर झुंझलाया, “क्या करती हो ?” और अपने कपड़े झाड़ने लगा। लड़की उसके समीप बैठते हुए बोली, “गुस्से में तुम अधिक सुंदर लगते हो।”
लड़के ने लड़की की बाईं हथेली पर अपनी दाईं हथेली रख दी। लड़की ने इधर-उधर देखा और लड़के की फैली हुई टांगों को सिरहाना बनाकर अधलेटी हो गई। अब लड़का रोमांचित हो रहा था। उसने घास के तिनके तोड़े और उन्हें लड़की के कान, नाक, गाल और गले पर फिराने लगा। लड़की को गुदगुदी होती तो वह हँसती हुई दोहरी हो जाती।
ढलान के ऊपर पटरी पर लोग आ-जा रहे थे। आरंभ में आते-जाते लोगों से लड़का-लड़की घबरा उठते थे और प्यार-भरी हरकतें करना बन्द कर देते थे। अब ऐसा नहीं करते। बस, लड़की चौकन्ना रहती है। कहीं आते-जाते लोगों में कोई परिचित चेहरा न निकल आए।
“चलो, किले के अंदर चलते हैं। बहुत दिन हो गए उधर गए।” लड़के ने एकाएक कहा। लड़की समझ गई, लड़के का आशय। एकांत वह भी चाहती थी। वह तुरन्त खड़ी हो गई।
किले के अंदर अपनी पुरानी जगह पर वे बैठ गए- एक टूटी दीवार से पीठ टिका कर। उनकी आँखों के ठीक सामने एक लम्बा लॉन था जिसकी मखमल-सी घास धूप में चमक रही थी। एक मालगाड़ी धीमी गति से निजामुद्दीन की ओर से आ रही थी, तिलक ब्रिज की ओर। लड़की ने कुछ देर गाड़ी के डिब्बे गिनने की कोशिश की, किन्तु ना-कामयाब रही।
“तुमने बताया नहीं, आज तुम देर से क्यों आई ?” लड़के ने लड़की की गोद में सिर छिपाते हुए पूछा। लड़की ने झुक कर लड़के का माथा चूमा और बोली, “बस, यूँ ही देर हो गई। दरअसल...।”
“दरअसल क्या ?”
“डिस्पेंसरी गई थी।”
“डिस्पेंसरी ?...” लड़का चौंका, “क्यों ? कौन बीमार है ? घर पर सब ठीक तो है ?” लड़के ने एक साथ कई सवाल कर डाले।
“सब ठीक है।”
“फिर, डिस्पेंसरी क्यों गई थीं ?”
“अपनी दवा लेने।”
“क्यों, क्या हुआ तुम्हें ?”
“कुछ नहीं।”
“यह ‘कुछ नहीं’ कौन-सा रोग है ?” लड़के ने लड़की का दायां हाथ अपने सीने पर रख लिया।
“है...तुम्हें नहीं मालूम ?” लड़की ने शरारत में उसकी नाक को पकड़ कर खींचा।
“ठीक-ठीक बताओ। मुझे तो चिंता हो रही है।”
“अच्छा !” लड़की आश्चर्य में मुस्कराई।
“बताओ न, क्या हुआ है तुम्हें ?”
“कहा न, कुछ नहीं। वो मेरा बॉस है न, कह रहा था कि तुम आए दिन गोल हो जाती हो। कल ऑफिस जाऊँगी तो पूछेगा- क्यों, क्या हुआ मैडम ?... उसे डिस्पेंसरी की स्लिप दिखाऊँगी और कहूँगी- तबीयत खराब थी इसलिए नहीं आई। और एप्लीकेशन दे दूँगी।” पर्स खोल कर उसने पर्ची दिखाई और दवा भी, “डिस्पेंसरी में क्या है, कुछ भी जाकर कह दो, चक्कर आ रहे हैं... पेट में दर्द है या फिर रात में बुखार हो गया था, बस।”
लड़का लड़की की चालाकी पर मुस्कराया और उठ कर बैठ गया। “तो तुम बीमार हो...” कहते हुए उसने लड़की के होंठ चूम लिए। लड़की का चेहरा रक्तिम हो उठा।
सहसा, कहकहों और हँसी के फव्वारों ने उन दोनों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचा। कुछ युवा जोड़े बाई ओर की इमारत की दीवारों पर अपना नाम गोद रहे थे। ‘आई लव यू’, ‘माई स्वीट हार्ट’, ‘लव इज़ गॉड’ जाने कितनी ही ऐसी उक्तियों से यहाँ की हर दीवार भरी पड़ी थी। लड़का-लड़की अपने अतीत में खो गए। उन्हें अपने वे प्रारंभिक दिन याद हो आए जब वे भी ऐसे ही, इमारतों की दीवारों पर, दरख़्तों के तनों पर अपने नाम गोदा करते थे।
लड़की को याद आया, लोदी गार्डन में यूकलिप्टस के तने पर लड़के ने उसके लिए एक कविता ही गोद डाली थी, उसका हेयर-पिन लेकर। वह कविता उसने लड़के की डायरी में भी देखी। डायरी का वह पन्ना ही उसने ले लिया था और कई दिनों तक उन पंक्तियों को एकांत में पढ़-पढ़कर अभिभूत होती रही थी।
लड़की ने कविता की पंक्तियाँ याद करने की कोशिश की। फिर सोचा, लड़के को अभी भी याद होंगी। उसका मन हुआ, वह लड़के को आज फिर से वे पंक्तियाँ दोहराने को कहे। उसने लड़के को प्यार भरी नज़रों से देखा। लड़का न जाने किन हसीन ख़यालों में खोया था, आँखें मूंदे, उसकी उँगलियों से खेलता हुआ। एकाएक लड़की को एक पंक्ति याद हो आई और धीरे-धीरे अन्य पंक्तियाँ भी। वह अंदर-ही-अंदर बुदबुदाने लगी- “कैसे बताऊँ, क्या है, मेरे लिए तुम्हारा नाम... मायूसियों के गहन अँधेरों में जैसे उम्मीद की कोई किरण... हाँ, वैसे तुम्हारा नाम।” आगे की पंक्तियाँ ज़ेहन में गड्ड-मड्ड होने लगीं। थोड़ा जोर देने पर बीच की कुछ पंक्तियाँ पकड़ में आईं - “मेरा दिल, समुद्र-तट की रेत तो नहीं, कि जिस पर गोदा गया नाम, पानी की लहरें आएँ और मिटा कर चली जाएँ...।” इससे आगे की पंक्तियाँ स्मृति की पकड़ से बाहर थीं।
अब लड़का अधमुंदी आँखों से उसे निहार रहा था। चेहरे पर पड़ती सीधी धूप से लड़के का चेहरा लाल हो उठा था। लड़की का मन किया कि वह इस चेहरे पर प्यार की बरसात कर दे। तभी, कुछ सैलानी जिनमें कुछ विदेशी भी थे, गले में कैमरे लटकाए उधर से गुजरे तो लड़की ने अपने विचार को स्थगित कर दिया। उनके आगे बढ़ जाने पर लड़की ने अपना हेयर-क्लिप खोला और लड़के पर झुक गई। लड़की के रेशमी घने बालों में लड़के का चेहरा छिप गया था। तत्काल लड़की ने अपने स्थगित विचार को अंजाम दिया। लड़के को शायद इसकी उम्मीद नहीं थी। वह जैसे सुख के सरोवर में नहा रहा था।
पॉपकोर्न वाले की आवाज़ से लड़का-लड़की उठ बैठे। सामने एक बूढ़ा पॉपकोर्न के पैकेट्स हाथ में लिए उन्हीं की ओर हसरतभरी नज़रों से देख रहा था। लड़के ने इशारे से उसे पास बुलाया और दो पैकेट्स लिए। बूढ़ा खुश हो गया।
पॉपकोर्न खाते हुए वे वहाँ से उठे। दाईं ओर कुछ दूरी पर दीवार के पीछे चिडि़याघर था। वे उस ओर चल दिए। एकाएक, लड़के को जाने क्या सूझी, वह तेजी से दौड़ा और एक छोटी-सी दीवार पर चढ़ गया। लड़की ने भी उसी तरह चढ़ने की कोशिश की किन्तु सफल न हो सकी। लड़के ने लड़की का हाथ पकड़कर उसे ऊपर खींचा। हल्की-सी कोशिश में लड़की दीवार पर चढ़ने में सफल हो गई। इससे आगे एक बड़ी और ऊँची दीवार थी जिसके पीछे चिडि़याघर था। यहाँ कोई नहीं था। जहाँ वे खड़े थे, वहाँ बिलकुल एकांत था। लड़के को शरारत सूझी और लड़की को अपनी बांहों के घेरे में लेने को लपका। लड़की ऐसी जगहों पर सतर्क रहती है। वह बड़ी होशियारी से छिटक कर आगे बढ़ गई। लड़के ने गुस्से में मुँह बनाया और वहीं खड़ा रहा।
दीवार की खिड़की से लड़की ने चिडि़याघर की ओर झाँका।
एकाएक लड़की बच्चों की तरह चिहुँक उठी और खुशी में उछलती हुई-सी बोली, “इधर आओ... इधर आओ... वो देखो !”
लड़की के चेहरे पर अपार खुशी और उसके चहकने के ढंग को देखकर लड़का दंग था। लड़की बार-बार उचक-उचक कर खिड़की के बाहर देखती और हाथ से ठीक खिड़की के नीचे की ओर संकेत करती।
लड़के ने आगे बढ़कर नीचे झाँका। वहाँ कोई नव-विवाहित जोड़ा चिडि़याघर के लॉन में दीवार के पास टहल रहा था, हाथों में हाथ थामे। लड़की लाल गोटेवाली साड़ी पहने थी। उसकी गोरी-गोरी कलाइयों में गुलाबी और सफेद रंग का चूड़ा चमक रहा था। हथेलियों पर खूबसूरत मेंहदी रचाये लड़की बहुत सुंदर लग रही थी।
“देखो, इन्होंने शादी कर ली।” लड़की ने चहकते हुए कहा, “आखिर उसने प्रेमिका को पत्नी बना ही लिया।”
इस जोड़े को लड़का-लड़की पिछले दो सालों से देखते आ रहे थे- कभी कुतुब पर, कभी इंडिया गेट पर, कभी लोदी गार्डन, कभी मदरसा, कभी प्रगति मैदान, कभी तालकटोरा तो कभी यहीं पुराने किले में।
“शादी के बाद ये लोग कितने अच्छे लग रहे हैं...” लड़की ने बेहद उमंग में भरकर कहा। क्षणांश, वह भी खूबसूरत सपनों में खो गई। उसे लगा, विवाह के बाद वह भी घूम रही है, लाल जोड़ा पहने, कलाइयों में चूड़ा पहने, हाथों में मेंहदी रचाये... एकाएक, लड़की ने अपनी कलाइयों को हवा में लहराया, ऐसे जैसे वह पहने हुए चूड़े की खनक सुनना चाहती हो।
“बस, अब कुछ ही दिनों में इनका प्यार चुक जाएगा। शादी के बाद प्यार अधिक दिन नहीं रहता। देख लेना, छह-सात महीने या अधिक से अधिक सालभर बाद ये लोग इन जगहों पर यूँ हाथ में हाथ लिए घूमते हुए नहीं मिलेंगे।” लड़का बोल रहा था, लड़की की ओर देखे बिना।
“क्या कहते हो ?...” लड़की लड़के से सटकर खड़ी हो गई और उसके कंधे पर अपना सिर रखकर बोली, “प्रेमिका को उसने वाइफ बनाया है, अपनी जीवन-संगनि... अब तो और भी करीब हो जाएंगे। सुख-दुःख इकट्ठा फेस करेंगे। वाइफ बनकर यह लड़की प्रेम को लड़के की लाइफ में और प्रगाढ़, और सच्चा, और ऊष्मावान बना देगी।” लड़की की उमंग और उत्साह, दोनों देखने योग्य थे। उसकी आँखों में एक सपना झिलमिला रहा था। एक हसीन और खूबसूरत सपना...
“नहीं, तुम्हारा ऐसा सोचना गलत है। प्रेमिका जब पत्नी बनती है तो प्यार के सारे समीकरण ही बदल जाते हैं। शादी शब्द एक चाकू की तरह है जो गहराते प्यार को, उसके अहसास को छीलने लगता है और धीमे-धीमे यह प्यार, यह निकटता, यह सुखानुभूति लहूलुहान होकर दम तोड़ देती है। प्रेमी-प्रेमिका का विवाह उनके बीच प्रेम की बहती नदी को सूखने के लिए मज़बूर कर डालता है, ऐसा मेरा मानना है।”
लड़का न जाने कैसी भाषा बोल रहा था। लड़की हतप्रभ थी। लड़के के कंधे पर से उसका सिर खुद-ब-खुद हट गया था। लड़की को लगा जैसे अकस्मात् उसके भीतर कुछ दरक गया है- बेआवाज़ ! उमंगित, उत्साहित, चहकता-खिलखिलाता उसका चेहरा एकाएक निस्तेज हो उठा। लड़की को वहाँ अधिक देर खड़ा होना तकलीफ़देह महसूस होने लगा। वह पीछे मुड़कर लौटने लगी। दीवार से कूदने की कोशिश में वह गिर पड़ी और बायां घुटना पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ गई। दर्द से उसकी आँखें छलछला आई थीं और निचले होंठ को उसने दांतों तले दबा रखा था।
लड़का फुर्ती से आगे बढ़कर उसके पास बैठ गया और उसका घुटना सहलाने लगा। फिर उसने अपने कंधों का सहारा देकर लड़की को ऊपर उठाया और चलने के लिए कहा। लड़की कुछ देर उसका सहारा लेकर लंगड़ाती हुई-सी चली, फिर सहारा छोड़ अपने आप चलने लगी, गुमसुम-सी।
लड़की को लगा, जैसे अंदर बेहद कुछ टूट गया है। वह सोचने लगी- क्या वह बहुत ऊँचा उड़ रही थी कि उसे ज़मीन दिखाना ज़रूरी था ? लड़की सोच रही थी- लड़के ने उसके घुटने की चोट तो देखी, पर क्या वह उस चोट को भी देख पाया है जो अभी-अभी उसके भीतर लगी है ?
दोपहर अपनी ढलान पर थी और पेड़ों, दीवारों के साये लम्बे होते जा रहे थे। पुराने किले से बाहर निकलते समय लड़की बेहद चुप थी। लड़के ने एक-दो बार रास्ते में उसे छेड़ने की कोशिश की लेकिन लड़की ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। वह जल्द-से-जल्द अब घर लौट जाना चाहती थी।
मोटरसाइकिल पर बैठते हुए लड़के ने कहा, “तुम्हें चोट लगी है, चलो तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ।”
“नहीं, मदरसा छोड़ दो। वहाँ से बस में ही जाऊँगी।” लड़की का स्वर कुछ इस प्रकार का था कि लड़का आगे कुछ न बोल सका और लड़की के बैठते ही मोटरसाइकिल उसने आगे बढ़ा दी।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित। यह कहानी प्रथम बार नवभारत टाइम्स के “रविवार्ता” में वर्ष 1992 प्रकाशित हुई थी और इसके बाद अन्य कई पत्रिकाओं में इसका पुनर्प्रकाशन हुआ और अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई। इस वर्ष फरवरी माह में यह कहानी वेब पत्रिका “अभिव्यक्ति” पर भी प्रकाशित हुई है।)