सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

लघुकथा



मित्रो,
जिस समय मैंने लघुकथा लेखन में प्रवेश किया उस समय लघुकथा लेखन में एक आन्दोलन- जैसी स्थिति थी। बड़ी व्यवसायिक पत्रिकाएँ तो लघुकथा के लिए स्थान बना ही चुकी थीं और उन्हें ससम्मान छापने भी लगी थीं। हिंदी की प्रसिद्ध कथा पत्रिका ‘सारिका’ के ‘लघुकथा विशेषांकों ने इसमें गति भी प्रदान की। इसके अतिरिक्त बहुत सी लघु- पत्रिकाएं भी मैदान में थीं जो पूरी तरह समर्पित भाव से लघुकथा के विकास और संवर्द्धन के लिए खुद को कटिबद्ध किये हुए थीं। मुझे याद आती हैं –‘लघु-आघात’ ‘मिनीयुग’ ‘क्षितिज’ ‘सनद’ पत्रिकाएँ जो अच्छी और मानक लघुकथाओं के प्रकाशन के लिए उस दिनों जानी जाती थीं और हर नया पुराना लेखक यदि कोई नई लघुकथा लिखता था तो इन पत्रिकाओं में उसे छपवाने के लिए लालायित रहता था। मेरी शुरूआती दौर की कई लघुकथाओं को ‘लघु-आघात’, ‘क्षितिज’ और ‘सनद’ में प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त हुआ है। आरंभ में ये पत्रिकाएँ मुझे भाई रमेश बत्तरा उपलब्ध कराया करते थे, बाद में फिर मैं इनका सदस्य बन गया था और ये मुझे डाक से मिलने लग पड़ी थीं। भाई रमेश बत्तरा जब विवाह के बाद राजौरी गार्डन से नया गाजियाबाद शिफ्ट हुए तो मैं अक्सर अवकाश वाले दिन उनके घर चला जाता था। इसके दो कारण थे। एक तो उनके यहाँ ढेरों नई-पुरानी हिंदी-पंजाबी की पत्र-पत्रिकाएँ आया करती थीं जिनको देखने-पढ़ने का लालच मुझे खींच ले जाता था और दूसरा यह भी कि मैं उन दिनों मैं गाजियाबाद के बहुत निकट मुरादनगर में रहता था, जिसके कारण आने-जाने में कोई परेशानी नहीं आती थी। रमेश भाई ‘सारिका’ के दफ्तर में जब मिलते तो बहुत कम बोलते थे। उनके मुँह में पान होता और वह अपने काम में व्यस्त-से रहते। बीच-बीच में छोटी-छोटी कोई एक आध बात कर लेते थे। लेकिन घर पर वह खुलकर बात करते, घर-परिवार के बारे में, साहित्य के बारे में, नये लिखे के बारे में। कभी-कभी राजनीति के बारे में भी। वे मुझे अच्छी पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजने के लिए प्रेरित करते रहते।

उन दिनों बहुत से ऐसे कॉमन-से विषय थे जिनपर हर कोई कलम चला रहा था। जैसे सामाजिक- राजनैतिक भ्रष्टाचार, पुलिस और नेताओं के चरित्र, आदि। दनादन लिखी जा रही लघुकथाओं की भीड़ में बहुत-सी अच्छी लघुकथाएँ भी दब कर रह जाती थीं। यहाँ प्रस्तुत मेरी लघुकथा ‘दिहाड़ी’ वर्ष 1984 में लिखी गई और ‘सारिका’ के वर्ष 1985 के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई। कथाकार बलराम ने इसे मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ “हिंदी लघुकथा कोश”(वर्ष 1988) में संकलित किया। यह लघुकथा भी मेरी अन्य लघुकथाओं की भाँति पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर छपी।
-सुभाष नीरव


दिहाड़ी
सुभाष नीरव

महीने के आखिरी दिन चल रहे थे।
इन दिनों घर में राशन-पानी सब खत्म हो चुका होता है। जब वह ड्यूटी पर रहता था तो किसी तरह खींच-खाँचकर ले जाता था-पहली तारीख तक। पुलिस में सिपाही होने का यह फायदा तो था ही उसे। लेकिन पिछले दो महीनों से वह मेडिकल-लीव पर चल रहा था- पीलिया के कारण। उसने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के आगे बहुत मिन्नत-चिरौरी की कि उसे ड्यूटी दे दे, पर वह नहीं माना और एक महीने का रेस्ट और बढ़ा दिया।
सुबह बच्चे बिना खाये-पिये ही स्कूल चले गये थे। पत्नी ने पड़ोसियों से कुछ भी माँगने से साफ इन्कार कर दिया था। वह चुपचाप चारपाई पर लेटा सोचता रहा- सुबह तो बच्चे भूखे-प्यासे चले गये, शाम को भी क्या बिना खाये-पिये सोना पड़ेगा उन्हें ?
वह उठकर बैठ गया। बहुत देर तक सोचता रहा।
एकाएक उसकी नज़र खूँटी पर टँगी वर्दी पर टँगकर रह गयी।
शाम होते ही वह वर्दी पहनकर अपने इलाके में पहुँच गया।
रेहड़ी-पटरी वालों में उसे देखते ही हरकत आ गयी। बहुत दिनों बाद दिखाई दिया था वह। सब सलाम ठोंकने लगे। वह डंडा घुमाता हुआ सबके सामने से गुजरा- बेहद चौकन्नेपन और सावधानी के साथ।
''अरे रतन, तू तो मेडिकल-लीव पर था! ड्यूटी ज्वाइन कर ली क्या ?''
जिस बात का उसे डर था, वही हो गयी। घर वापसी के समय सामने से आते हुए रामसिंह ने रोककर पूछ ही लिया।
''नहीं यार, घर पर सारा दिन यूँ ही पड़े-पड़े बोर हो जाता हूँ। सोचा, थोड़ा टहल ही आऊँ। सो, इधर ही आ गया।'' उसने सफाई दी।
''वर्दी में हो, मैंने सोचा...''
''वो...वो क्या है कि पत्नी ने आज सभी कपड़े धोने के लिए भिगो दिये थे। सो, वर्दी ही पहनकर आ गया इधर।'' उसने मुस्कराते हुए बात को घुमाने की कोशिश की।
''और यह डंडा ?''
रामसिंह का यह प्रश्न डंडे की भाँति ही आया। उसे लगा, इस प्रहार से वह चारों खाने चित्त हो गया है।
''आदत-सी पड़ गयी है न। वर्दी पहनते ही डंडा हाथ में आ जाता है।''
और वे दोनों एक-साथ हँस पड़े।
रामसिंह से विदा ले, जब वह घर की ओर चला तो बहुत उत्साहित था। जेब में आयी दिहाड़ी को उसने टटोलकर देखा- काफी है।
लेकिन तभी एक बात उसके जेहन में तेजी से उभरी और सुन्न-सा करती चली गयी- कल फिर अगर रामसिंह या कोई और टकरा गया तो!
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17 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

विचारने योग्य लघु कथा

बलराम अग्रवाल ने कहा…

पड़ी हुई आदत जब लत बन जाती है, तब आसानी से नहीं छूटती।

बेनामी ने कहा…

बेहद मर्मस्पर्शी लघुकथा। जाने कितने घुटते होंगे ऐसे।
shail agrawal
shailagrawal@hotmail.com

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

विचारणीय विषय ....अच्छी लगी कहानी ....

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

@आदत सी पड़ गई है न वर्दी पहनते ही डंडा हाथ में आ जाता है .....

बड़ा प्यारा सा चालाकी भरा जवाब था ये ......):

@ रामसिंह का ये प्रश्न डंडे की भांति ही आया ...
लाजवाब पंक्ति ........

कथा जहां पुलिस वालों की पोल खोलती है ..
वहीँ उनके कम वेतन से होने वाली असुविधाओं को भी दृष्टिगत करती है ...
मर्मस्पर्शी लघुकथा ....

इस कथा के सारिका और लघुकथा में प्रकाशन के लिए भी बधाई आपको .....!!

PRAN SHARMA ने कहा…

GREEBEE BHEE BHRASHTACHAR KAA
KAARAN HAI . LEKHAK NE IS SACHCHAAEE KO BADEE KHOOBEE KE
SAATH APNEE LAGHU KATHAA " DIHADEE"
MEIN DIKHAAYAA HAI .

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

कई बार किसी भ्रष्ट को भला-बुरा कहते वक़्त हम एक बार भी उन परिस्थितियों के बारे में नहीं सोचते तो किसी इंसान को भ्रष्ट बना सकती हैं...। एक अच्छी रचना के लिए बधाई...।

प्रियंका गुप्ता

PRAN SHARMA ने कहा…

SUBHASH NEERAV KAA LAGHU KATHAAKARON MEIN BHEE JANA - PEHCHANA
NAAM HAI . " DIHAADEE " LAGHU KATHA
MEIN UNHONNE GAAGAR MEIN SAAGAR
BHAR DIYAA HAI . CHAND SHABDON MEIN
ITNEE BADEE BAAT VE HEE LIKH SAKTE
HAI . GAREEBEE BHEE BHRASHACHAAR KAA KAARAN HAI , IS BAAT KAA KHULASA UNHONNE BADEE KHOOBEE KE
SAATH KIYA HAI.

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

पेट का सवाल पुलिस वाले को भी पस्‍त कर देता है।

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

पहले भी पढ़ी थी तुम्हारी यह लघुकथा, लेकिन आज पढ़कर नए अर्थ खुले. बहुत सुंदर है. पिछले सप्ताह ही एक सिपाही और एक सब इंस्पेक्टर को सब्जीवालों को धमकाते हुए देखा था. तुम्हारे पात्र की भले ही यह विवशता थी, लेकिन पुलिस तंत्र की उगाही के सामने बड़े बड़े लाचार हैं. दुनिया में भारत के इस तंत्र से अधिक शायद ही कहीं इतना भ्रष्ट महकमा हो. फिर मानवीय दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट लघुकथा है.

चन्देल

Sushil Kumar ने कहा…

सुभाष नीरव जी का कथा-संसार रोज़मर्रा का जाना-पहचाना संसार है जिसमें बड़ी आत्मीयता और सादगी से वह लोक को गुनते-बुनते हैं। यहाँ देशज शब्दों का प्रयोग देखते ही बनता है। प्रस्तुत लघु-कथा "दिहाड़ी" उसकी ही एक बानगी है। कथाकर ने बड़ी सहजता और दक्षता से इस लघु-कथा में एक मध्यम-वर्गीय परिवार जिसका नायक एक सिपाही है, की विवशताओं, सामाजिक सरोकार और वर्जनाओं को अभिव्यक्त किया है जो उनके साहित्य को व्यापक पाट और उँचाई देता है। भाई सुभाष नीरव जी लोक-रंग में रंगी इस उत्कृष्ट लघु-कथा के लिये मेरी बधाई लें। - सुशील कुमार

ashok andrey ने कहा…

subhash jee aapki yeh laghu katha jeevan ki ek badi sachchi ko vayakt kar jaati hai bahut khoob,badhai.

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सुभाष भाई मुझे लगता है अंतिम दो पंक्तियां अगर इसमें न हों तो यह और मारक बन जाती है।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

पहली बार आपकी रचना पढी है ।शिल्प खूबसूरत है किन्तु दो माह के मेडीकल पर वेतन न मिलना और एक सरकारी नौकर के भूखों मरने की नौबत आना कुछ समझ नही आया ।वास्तव में यह आदत बन गई भ्रष्ट मनोवृत्ति के कारण हुआ जो सहानुभूति नही व्यंग्य का आधार बनता है ।

उमेश महादोषी ने कहा…

Ise vivasata kaha jaye ya beyimani ki lat! shayad vivasatapurn beyimani bhi kaha ja sakata hai.Jo bhi ho isake pichhe ki samvedana ko samajhana hi padega. Ek jatil sthiti ko kureda hai aapane.

Devi Nangrani ने कहा…

Samsyaaon ke sansaar mein jakda hua ek aam insaan is daldal se nikalne ki koshish mein aur hi dhansta jaata hai. MuKhtasar Zindagi ki itni lambi yatra..aur ye sab jhelna!! UF
shubhkamnaon sahit

Dr. Anjana Bakshi ने कहा…

shubhash ji aapka rachna snsaar aapke anubhvo ke taap me tapkr paathko ke samksh abhivykt hoota hain ............aapko lghukathakaar ke rup me mene aaj pahli baar jaana hain .
sch kaha aapne aadt si padh gyi hain.............