बुधवार, 9 नवंबर 2011

लघुकथा




मित्रो
‘वॉकर’ मेरी उन लघुकथाओं में से एक है जो मुझे भी बहुत प्रिय रही हैं। यह मेरी शुरूआती दिनों की लघुकथा है और कई बार पुरस्कृत हो चुकी है। यह उन दिनों की लघुकथा है, जब सौ रूपये का नोट बहुत अहमियत रखता था परन्तु आज सौ रूपये की कीमत कुछ भी नहीं है।
सुभाष नीरव





वॉकर
सुभाष नीरव

''सुनो जी, अपनी मुन्नी अब खड़ी होकर चलने की कोशिश करने लगी है।'' पत्नी ने सोते समय पास सोयी हुई मुन्नी को प्यार करते हुए मुझे बताया।
''पर, अभी तो यह केवल आठ ही महीने की हुई है!'' मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।
''तो क्या हुआ? मालूम है, आज दिन में इसने तीन-चार बार खड़े होकर चलने की कोशिश की।'' पत्नी बहुत ही उत्साहित होकर बता रही थी, ''लेकिन, पाँव आगे बढ़ाते ही धम्म से गिर पड़ती है।''
मुन्नी हमारी पहली सन्तान है। इसलिए हम उसे कुछ अधिक ही प्यार करते हैं। पत्नी उसकी हर गतिविधि को बड़े ही उत्साह से लेती है। मुन्नी का खड़े होकर चलना, हम दोनों के लिए ही खुशी की बात थी। पत्नी की बात सुनकर मैं भी सोयी हुई मुन्नी को प्यार करने लग गया।
एकाएक पत्नी ने पूछा, ''सुनो, वॉकर कितने तक में आ जाता होगा ?''
''यही कोई सौ-डेढ़ सौ में...।'' मैंने अनुमानत: बताया।
''कल मुन्नी को वॉकर लाकर दीजियेगा।'' पत्नी ने कहा, ''वॉकर से हमारी मुन्नी जल्दी चलना सीख जायेगी।''
मैं सोच में पड़ गया। महीना खत्म होने में अभी दस-बारह दिन शेष थे और जेब में कुल डेढ़-दौ सौ रुपये ही बचे थे। मेरे चेहरे पर आयी चिन्ता की शिकन देखकर पत्नी बोली, ''घबराओ नहीं, सौ रुपये मेरे पास हैं, ले लेना। वक्त-बेवक्त के लिए जोड़कर रखे थे। कल ज़रूर वॉकर लेकर आइयेगा।''
सुबह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलने लगा तो पत्नी ने सौ का नोट थमाते हुए कहा, ''घी बिलकुल खत्म हो गया है और चीनी, चाय-पत्ती भी न के बराबर हैं। शाम को लेते आना। परसों दीदी और जीजा जी भी तो आ रहे हैं न!''
मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए सौ के नोट को देखा और फिर पास ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, ''मगर, वह मुन्नी का वॉकर...।''
''अभी रहने दो। पहले घर चलाना ज़रूरी है।''
मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म् से नीचे बैठकर रोने लगी।

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14 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

bahut hee sundar, aam aadmi ke haalat ko bayaan karti yeh laghukath mun ko chhu gaee,us vakt
sou rupay ki kimat jo thee veh aaj bhee utni hee mehngee hai kayonki rupay ka avmulyan bhee usi teji se hua hai jise aam admi badi shiddat se mehsoos kar rahaa hai aaj bhee,badhai.

अनुपमा पाठक ने कहा…

हृदयस्पर्शी लघुकथा!
बदलती प्राथमिकता और मजबूरी आँखें नम कर जाती है!

जितेन्द्र 'जीतू' ने कहा…

aapki lekhni hamesha se hi prabhavit karti hai!! shubhkamnayen!!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज 10 - 11 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

छोटी छोटी इच्छाओं को अनदेखा कर घर चलाना पड़ता है .. बहुत संवेदनशील कहानी

PRAN SHARMA ने कहा…

MARM KO CHHOOTEE UMDA LAGHU KATHA .

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

प्राथमिकताओं के चलते इंसान किस कदर मजबूर हो जाता है, इस का बहुत सटीक और हृदयस्पर्शी चित्रण है...बधाई...।
प्रियंका गुप्ता

उमेश महादोषी ने कहा…

लघुकथा जितनी आपको प्रिय है, पाठकों पर उससे भी अधिक प्रभाव डालने वाली है. धन्यवाद!

Udan Tashtari ने कहा…

मर्मस्पर्शी..सीमित आय में सारे समीकरण मन मार कर बैठाना पड़ता है..प्रभावी रचना!!

प्रेम गुप्ता `मानी' ने कहा…

एक आम मध्यवर्गीय परिवार की दशा को दर्शाती हुई बहुत हृदस्पर्शी और मार्मिक लघुकथा है...मेरी बधाई...।
मानी

पखेरू ने कहा…

मेरे निर्मम और अवांछित हस्तक्षेप के लिए क्षमा, लेकिन यह ज़रूरी है.रचना का कथ्य-संवाद क्या है...? रचनात्मक कृति से ऐसे संवाद का आना ज़रूरी है. काश, यह रचना यह बात ज़ोरदार ढंग से कह पाती कि मुन्नी का चलना रिश्तेदारी निभाने की दुनियादारी से ज्यादा अहमियत रखता है. अमूमन लोग इसी दुनियादारी के दिखावे को महत्त्व हैं, लेकिन बंधु, मां बाप के लिए मुन्नी के चलने की चिंता तो सबसे ऊपर रखना स्वार्थी व्यवहार नहीं कहा जाना चाहिए अभी यह रचना इस सन्दर्भ में विवश अंडरटोन की दुविधा में फंसी दिखती है.
अशोक गुप्ता

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

भाई नीरव,

यह लघुकथा पहले भी कई बार पढ़ी थी, लेकिन भाई अशोक गुप्ता की प्रतिक्रिया ने इसे पुनः पढ़ने और अपनी बात कहने के लिए विवश किया. मैं अशोक से सहमत नहीं हूं. हम समाज का हिस्सा हैं और सामाजिक व्यवहारों का निर्वाह भी उतना ही आवश्यक है जितना मुन्नी के वाकर का आना. वाकर अगले माह भी आ सकता है, क्योंकि उसने तो अभी चलना ही सीखा है, लेकिन रिश्तेदार कब आएगें यह कहना कठिन है. इसलिए पात्र ने मुन्नी के वाकर को महत्व न देकर रिश्तेदारों को महत्व दिया उसमें कुछ गलत नहीं. मेरी टिप्पणी भाई अशोक तक भी भेज देना.

चन्देल

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

भाई नीरव,

यह लघुकथा पहले भी कई बार पढ़ी थी, लेकिन भाई अशोक गुप्ता की प्रतिक्रिया ने इसे पुनः पढ़ने और अपनी बात कहने के लिए विवश किया. मैं अशोक से सहमत नहीं हूं. हम समाज का हिस्सा हैं और सामाजिक व्यवहारों का निर्वाह भी उतना ही आवश्यक है जितना मुन्नी के वाकर का आना. वाकर अगले माह भी आ सकता है, क्योंकि उसने तो अभी चलना ही सीखा है, लेकिन रिश्तेदार कब आएगें यह कहना कठिन है. इसलिए पात्र ने मुन्नी के वाकर को महत्व न देकर रिश्तेदारों को महत्व दिया उसमें कुछ गलत नहीं. मेरी टिप्पणी भाई अशोक तक भी भेज देना.

चन्देल

बेनामी ने कहा…

प्रि‍य भाई नीरव जी

आपका रचना संसार बहुत अच्‍छा है। इससे आपकी रचनाशीलता के संदर्भ में हमें पता चलता रहता है। वॉकर सच बहुत अच्‍छी कहानी है।

आपका

एस आर हरनोट