शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

लघुकथा










मित्रो, मेरे पहले एकल लघुकथा संग्रह सफ़र में आदमी में संग्रहित लघुकथाओं को एक-एक कर जब मैंने अपने इस ब्लॉग सृजनयात्रा पर देना प्रारंभ किया था तो सोचा नहीं था कि पाठक मेरी लघुकथाओं को इतनी तरज़ीह देंगे… पर मुझे खुशी है कि नेट की दुनिया के पाठक निरंतर मेरे इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो रही लघुकथाओं को पढ़ रहे हैं और अपनी बेबाक प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं… पाठक लेखक का आईना होते हैं… पाठकों से ही लेखक को अपने कद का पता चलता है और पता चलता है कि वह सृजनात्मक भूमि पर कहाँ खड़ा है? लेखक तो रचना लिख कर अलग हो जाता है। वह फिर पाठकों की हो जाती है। पाठक ही बताते हैं कि वह कितनी स्वागत योग्य है ? उन्हें उस रचना ने कितना छुआ अथवा अप्रभावित किया। कई बार लेखक को अपनी कमजोरी का पता पाठकों से ही चलता है। इससे लेखक को अपने लेखन को सुधारने, उसे और अधिक सशक्त और संप्रेषित बनाने में मदद मिलती है… खैर, मैंने यह पाया है कि लेखक पाठकों की राय को चाहे वह अच्छी हो या बुरी दरकिनार नहीं कर सकता। यही उसके लिए और उसके लेखन के लिए बहुत बड़ी शक्ति होती है।

तो, मित्रो आपकी हर राय का मैं बेसब्री से इंतज़ार करता हूँ। इस अंक में प्रस्तुत लघुकथा क़त्ल होता सपना पर भी आपकी बेबाक राय की मुझे प्रतीक्षा रहेगी…
-सुभाष नीरव

क़त्ल होता सपना
सुभाष नीरव


लड़की ने एम.ए. करने के बाद जब पी.एचडी करने की अपनी इच्छा प्रकट की तो माँ को चिंता सताने लगी। अगर लड़की इतना पढ़-लिख जायेगी तो इसकी शादी में मुश्किल हो सकती है। उसने लड़की के बाप से कहा, ''सुनो जी, लड़की के लिए कोई लड़का-वड़का ढूँढ़ो और हाथ पीले करो इसके।... आगे हमें नहीं पढ़ाना है।...हमारी बिरादरी में इतने पढ़े-लिखे लड़के कहाँ मिलते हैं... शादी में दिक्कत होगी, कहे देती हूँ।''
     बाप ने इस बात को गम्भीरता से लिया और लड़के की खोज आरंभ कर दी। महीनों की दौड़-धूप के बाद भी कोई उपयुक्त लड़का नहीं मिला। बिरादरी में कोई ऐसा लड़का नहीं था जो इतना पढ़ा-लिखा होता। कोई हाई-स्कूल था तो कोई ज्यादा-से-ज्यादा इंटर फेल। पर उनके नखरे थे कि आसमान को छूते थे। काम के नाम पर कोई परचून-किरयाने की दुकान चलाता था तो कोई किसी छोटे-मोटे दफ्तर में चपरासी लगा था। दान-दहेज की उनकी मांग सुनकर तो पसीने अलग से छूटते थे।
     आखिर, एक घर में बात तय हो गयी। लड़का बाप के साथ आटे की चक्की पर बैठता था। पढ़ाई के नाम पर हाई-स्कूल फेल था। लड़के के माँ-बाप ने कोई ज्यादा मांग नहीं की थी। और जो की थी, वह उनके बूते के अन्दर थी।
     लड़की को मालूम हुआ तो वह पहली बार अपने माँ-बाप के सामने मुँह खोल बैठी, ''पिताजी, अच्छे पढे-लिखे लड़के बिरादरी में नहीं मिलते तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि बिरादरी के किसी भी अनपढ़, कम पढ़े-लिखे गंवार लड़के के साथ बांध दी जाऊँ...बिरादरी के बाहर भी तो सुन्दर, सुशील और पढ़े-लिखे लड़के मिल सकते हैं।''
     माँ-बाप दोनों ने दाँतों तले उँगली दबा ली। बोले, ''चार आखर क्या पढ़ गयी, ज्यादा बोलना आ गया तुझे! बिरादरी के बाहर आज तक हमारे खानदान में न किसी लड़की की शादी हुई है, न होगी।... समझी!''
     ''पर, मैं करुँगी पिताजी... आखिर मुझे इतना पढ़ाया-लिखाया क्यूँ गया ?...'' लड़की ने अपना फैसला सुना दिया।
     माँ-बाप सन्न् रह गये। बाप ने दो दिन तक खाना नहीं खाया। माँ सारे समय रोती रही और लड़की को कोसती रही।
     तीसरे दिन बाप ने धमकी दी, ''अगर तूने बिरादरी के बाहर शादी की तो मैं रेल के नीचे अपना सिर दे दूँगा।...''
     पिता की धमकी ने लड़की पर असर किया। वह अपने हाथों अपने सपने का क़त्ल कर बैठी।

11 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सुभाष जी यह कितनी ही लड़कियों की ज़िंदगी की सच्चाई है, जो अपने अपनी इस कथा के माध्यम से सामने रखी है... हम सिर्फ कहने भर को आधुनिक हुये हैं. लड़की को स्कूल भेजकर या जीवन के ऊपरी रख रखाव में आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ाकर स्वयं को प्रगतिशील मानने लगते हैं.. लेकिन अन्दर से अभी भी वही जात-बिरादरी की रूढ़िवादी सोच लिए बैठे हैं... शायद आप जैसे सशक्त लेखकों को ही अपनी लेखनी के ज़रिये समाज को जागरूक करने के लिए अलख जगानी पड़ेगी... सुंदर एवं सन्देश देती हुयी रचना के लिए बधाई स्वीकारें...
सादर
मंजु

vandana gupta ने कहा…

मंजु जी ने मेरे मन की बात कह दी।

बेनामी ने कहा…

आम लड़कियों के सपने यूं ही कत्ल होते हैं ... जब माँ - बाप लड़कियों को पढ़ा लिखा रहे हैं तो इतने दक़ियानूसी क्यों बन जाते हैं ... सार्थक संदेश देती अच्छी लघु कथा …
-संगीता स्वरुप ( गीत )

राजेश उत्‍साही ने कहा…

आपकी यह लघुकथा एक नकारात्‍मक संदेश देती है।
आपने जो उदाहरण लिया उसमें लड़का पिता के साथ चक्‍की पर बैठता है,यानी काम तो करता है। हां बहु‍त पढ़ा लिखा नहीं है। दहेज की बात भी नहीं कर रहा। तो क्‍या कम पढ़ा लिखे होने से कोई व्‍यक्ति नकारा हो जाता है। और फिर यह बात समझ नहीं आई कि लड़की ने अपने सपनों का कत्‍ल कैसे कर लिया। अगर वह एमए पास है तो वह तो कोई नौकरी कर ही सकती है। पीएचडी भी वह वहां कर ही सकती है।
मुझे लगता है कि यह एक कमजोर लघुकथा है।

PRAN SHARMA ने कहा…

KAHANI KAEE PARIWAARON KEE SACHCHAAEE
KO UKERTEE HAI . STHITI KAA AAPNE
ACHCHHA JAAYZAA LIYA HAI.

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

भाई नीरव,

तुम्भारी सभी लघुकथाएं मैंने पढ़ी हैं. इसे भी पढ़ रखा था, लेकिन इसके अंत को लेकर तब मेरे मन में यह विचार नहीं आया था. यद्यपि तुमने हकीककत बयां की है और हो यही रहा है और होता भी यही आया है. लेकिन आज कुछ परिदृश्य बदला है. पढ़ी-लिखी और नौकरीपेशा लड़कियां मां-पिता की ऎसी धमकियों का माकूल उत्तर देने लगी हैं. वे आजीवन अविवाहित रहने तक को तैयार हैं लेकिन मां-पिता के थोपे अननुकूल पति स्वीकार करने को तैयार नहीं.

हम लेखकों का यह दायित्व है कि हम ऎसी रूढि़यों को तोड़ने के लिए लड़कियों का मनोबल बढ़ाएं. मैं पिछले कुछ दिनों से सोच रहा हूं (और इस बार के वातायन का सम्पादकीय भी इस पर केन्द्रित करना चाह रहा हूं) कि नयी पीढ़ी की लड़कियों को अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है. जो परिवार तनिक भी दहेज की मांग करे लड़कियों को वहां शादी करने से इंकार कर देना चाहिए. रूढियों से बंधे मां-पिता और दहेजलोभी लोगों को सबक देने के लिए यदि एक पीढ़ी का बड़ा हिस्सा ऎसे त्याग के लिए तैयार हो जाए तो देश से इन कुरीतियों को मिटाया जा सकता है.

चन्देल

ashok andrey ने कहा…

priya bhai Subhash jee aapne ek sachchaii ko bayaan kii hai maine khudh kaee ladkion ko iss isthition se do-chaar hote dekhaa hai jiske kaaran ve jindagii bhar apne sapno ko geele rumaal se pochhtin rahii hain kayonki sasuraal vaale kabhii bhii uski udaan ke aage jhukte nahiin hai unka aham takraane lagtaa hai,badhai deta hoon.

प्रेम गुप्ता `मानी' ने कहा…

सामाजिक विसंगति पर प्रहार करती एक सार्थक रचना...बधाई...।

मानी

girish pankaj ने कहा…

badhai...sundra laghukathaa hai. kuchh laghukathaye mujhe bhee bhej de..''sadbhavana darpan' ke liye

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक पोस्ट , आभार .
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें, आभारी होऊंगा .

Kishore Patel ने कहा…

हमारी लडकियाँ पढ़ाई में क्यों नहीं आगे बढ़ पाती? यह एक ऐसी ज्वलंत सामाजिक समस्या है जो कई वर्षो से उपेक्षित है आपने उसे उजागर दिया. बहुत अच्छा काम किया है आपने!