रविवार, 8 जून 2008

कहानी-5

बूढ़ी आँखों का आकाश
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र


शरीर पर धूप पड़ने लगी तो वह उठ बैठे। दस नहीं बजते कि धूप आनी शुरू हो जाती है इधर। तब से लेकर शाम चार बजे तक इधर धूप का जोर रहता है। इस ओर कोई पेड़-पौधा भी नहीं था जिसकी छाया तले वह अपनी चारपाई खिसका लेते। कुछेक पल यूँ ही बैठे रहे वह। धूप जब तेज महसूस होने लगी तो वह उठ खड़े हुए। दरवाजा भीतर से बन्द था। खटखटाने को आगे बढ़े लेकिन तभी उनके कानों में एक आवाज़ गूंजने लगी, “आफ्फ ओ ! क्या मुसीबत है। कभी चैन से न बैठेगा, न बैठने देगा।”
“नहीं... नहीं... वह इस आवाज़ को सुबह-सुबह अपने कानों से दूर ही रखना चाहते हैं। तीखी और कड़वाहट भरी आवाज़, सारे शरीर को तेजाब-सा चीरती चली जाती है। वह जानते हैं, यहीं पर इतिश्री नहीं हो जाएगी। जाने कितनी ही देर तक उन्हें अपने गुस्से का केन्द्र बनाया जाता रहेगा और वह सिवाय चुपचाप सुनने के कुछ नहीं कर पाएंगे। आज तो छुट्टी का दिन है। बेटा भी घर पर ही है। आगे-पीछे बहू कुछ भी बड़बड़ाती रहे, उन्हें इतनी तकलीफ़ महसूस नहीं होती जितनी बेटे के सामने ज़लील होने में। बेटे का खामोश-सा देखते-सुनते रहना उन्हें भीतर तक आहत करता चला जाता है।
कुछेक पल सोचने के पश्चात् उन्होंने जैसे कुछ तय किया। अपनी झोल खाई चारपाई को जैसे-तैसे उठाया और दो-तीन क्वार्टरों को लांघकर वह ब्लॉक के पिछवाड़े आ गए। पिछवाड़े में पेड़-पौधे हैं। रसोई और शौचालय के पानी की निकासी चूंकि इस ओर ही है, अत: झाड़-झंखाड़ भी बहुत है।
अमरूद के पेड़ों के नीचे उन्होंने अपनी चारपाई डाली ही थी कि पट-पट से तीन-चार बच्चे पेड़ों पर से नीचे कूदे और भाग खड़े हुए। एक तो वह हाँफ रहे थे, दूजे यह सब इतनी तेजी से हुआ था कि एक क्षण को वह समझ ही नहीं पाए कि हुआ क्या है। चारपाई पर बैठ उन्होंने दूर नज़रें दौड़ाईं तो देखा, बच्चे गए नहीं थे। काफी दूरी बनाए खड़े थे। और उन्हीं की ओर आँखें गड़ाये थे। शायद, इस ताक में थे कि बुढ़ऊ सोये तो हम अपना काम फिर से करें।
उन्होंने वहीं बैठे-बैठे उन्हें घूरा और झिड़का। इस पर बच्चे खिल-खिलाकर हँस पड़े और मुँह बिराने लगे। साथ ही साथ, हाथों से अश्लील हरकतें भी करने लगे। उन्हें गुस्सा हो आया। मन हुआ कि उठें और दौड़ कर पकड़ लें ससुरों को। लगायें दो-चार झापड़... यही सब सिखलाया है माँ-बाप ने इन्हें !
लेकिन वह कुछ नहीं कर पाएंगे। जानते हैं, दौड़ना उनके वश में नहीं। लिहाजा, उधर से आँखें हटाकर वह बच्चों के माँ-बाप को कोसने लगे- “जाने कैसे माँ-बाप हैं !... भरी दोपहरी में खुद तो खिड़की-दरवाजे बन्द करके सो रहते हैं और बच्चों को छोड़ देते हैं बाहर। इधर-उधर हुड़दंग मचाने के लिए।”

हवा बन्द थी। पत्ता तक नहीं हिल रहा था। गरमी के कारण शरीर पसीने से नहा गया था। उन्होंने कमीज उतारी। उसे तहाकर सिरहाने रखा और बनियान में ही लेट गए। दिमाग में विचारों का जमघट लगा था जिसमें खीझ थी, गुस्सा था। यह भी कोई ज़िन्दगी है !... खाना-पीना तो अलग, अन्दर-बाहर बैठना-उठना भी बहू-बेटों पर निर्भर ! छह बाई छह के आड़-कबाड़ भरत छोटे-से कमरे में लेटो तो हर समय छत को घूरते रहो या दीवारों को। बाहर खुले में लेटना-बैठना हो तो चुपचाप सड़क पर आते-जाते इक्का-दुक्का लोगों को देखते रहो या फिर निगाहें ऊपर उठाकर जितना आकाश बूढ़ी पथराई आँखों में समा सके, निहारते रहो टकटकी लगाए! सुबह या संध्या समय घूमने-टहलने का मन हो तो बिजली के चार खम्भों से आगे बढ़ते ही टांगें जवाब दे जाएं। साँसें धौंकनी की तरह चलने लगें। और तो और, कहीं किसी से बैठकर पल दो-पल बतियाने का दिल करे तो लोग दूर से देखते ही कन्नी काट लें।

क्या चीज़ है बुढ़ापा भी! वह सोचते हैं। बेकार और फालतू चीज़ों-सा! निरर्थक। एक मुर्दा ज़िन्दगी ! घिसटते रहो चुपचाप। लाशनुमा देह को लिए हुए। इससे तो मौत अच्छी। कई बार मन में आया कि क्यों न अपना टेंटुआ ही दबा लें। बहुत कुछ देख-सह लिया। एक अन्तहीन व्यथा-वेदना का अन्त दिखाई भी देता है कहीं दूर तक... सिवाय मौत के। एकाएक, उनके हाथ हरकत में आ जाते हैं। कुछ ही पलों का खेल। इसके बाद सब शान्त। मुक्ति ! पर कमजोर हाथ तुरन्त ही लटक जाते हैं नीचे। बेजान से। वह शक्तिहीन हाथों को क्षणभर कोसते हैं। पर जल्द ही सोचते हैं– इसमें कमजोर हाथों का क्या दोष !... जितनी तीव्र इच्छा मरने की हमारे भीतर होती है, शायद उससे कहीं अधिक जीने की भी दबी-छिपी रहती है अन्दर। इतना सहज नहीं है यह, जितना वह समझे बैठे हैं।
एकाएक, परसों रात की घटना स्मरण हो आती है उन्हें। छुटके यानी राकेश के कुछेक दोस्त आये हुए हैं शाम के खाने पर। आधी रात होने को है और अभी तक पीना-पिलाना चल रहा है। वह बाहर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं कि ये लोग उठें तो वह भी खायें-पियें और सोयें। सहसा, उन्हें राकेश की आवाज़ सुनाई देती है। भीतर बुला रहा है वह। शायद, उनसे खाना खा लेने को कहेगा, वह सोचते हैं। वह उठकर भीतर चले जाते हैं। नशे की झोंक में सारे आत्मीय संबोधनों को ताक पर रखकर राकेश उन्हें भीतर आया देख बोल रहा है, “बाबू दीनदयाल ! कहाँ हो तुम !... अन्दर आकर काम में हाथ क्यों नहीं बंटाते, रमा का। बाहर बैठकर क्या उसी बुढि़या से आश्की चल रही है ?” वह अवाक् रह जाते हैं यह सुनकर। कोई बेहद नुकीली चीज जैसे तेजी से उनकी छाती में घुसती चली जाती है। यह उन्हीं का बेटा, उन्हीं का खून बोल रहा है! क्षंणाश तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि यह उनका बेटा बोल रहा है। और, एकाएक उन्हें लगा, वह समझ नहीं पा रहे हैं, क्या करें, क्या न करें। शराब की गन्ध भीगा ठहाका सारे कमरे में फैल जाता है तभी।
प्याज और टमाटर की सलाद बनाते हुए उनके कानों में ये वाक्य जबरन ही घुसते चले जाते हैं– “अजी साब, अच्छे नौकर कहाँ मिलते हैं आज के जमाने में ! सब साले हरामखोर... मुफ़्त की उड़ाने को तैयार...।”
मन होता है कि पूरी ताकत से चीख पड़ें। बता दें कि मैं तेरा नौकर नहीं, बाप हूँ। जिसने तुझे कभी इन बाजुओं में उठाकर खिलाया था। तेरा हगा-मूता इन्हीं हाथों से साफ किया था। जब बीमार होता था, रात-रातभर जागकर तेरे पास बैठा रहता था। अपना पेट काटकर तुझे पढ़ाता रहा। क्या इसीलिए कि तू अपने दोस्तों-यारों के सामने अपने ही बाप को बेइज्ज़त करे, नंगा करे !
पर वह भीतर तक उबल कर रह जाते हैं। कुछ नहीं कह पाते। जुबान ऐंठ गई लगती है। हाथ-पैर सुन्न हो गए हो जैसे ! और इन्हीं द्वंदमयी क्षणों में काँपते हाथों से चीनी-मिट्टी की प्लेट फर्श पर गिरकर चकनाचूर हो जाती है।
“कर दिया न सत्यानाश ! ज़रा-सा काम कहा था। वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो बैठो बाहर...।” बहू के तीर सरीखे शब्द जिस्म को बेंधते हुए आर-पार निकल जाते हैं। वह उठकर चुपचाप बाहर आ जाते हैं। पीड़ा के अतिरेक से आँखें पनीली हो जाती हैं और होंठ काँपने–से लगते हैं। मन में आता है, छोड़ दें यह माया-मोह। चले जाएं कहीं। क्या यही सब देखने-सुनने के लिए ही अपना सबकुछ लुटाया इनको ! गाँव छोड़ा, खेत-मकान बेच बेटों को शहरों में जमाया और...
रातभर उनकी छाती पर जैसे रह-रहकर मुक्के मारता रहा और वह दर्द से कराहते रहे– बेआवाज़ !

हरदेई ! इस नाम के जे़हन में आते ही धंसी आँखें और पिचके गालों वाला झुर्रियों से भरा एक चेहरा आँखों के आगे आ खड़ा होता है। उफ्फ ! कितने गन्दे और ओछे विचार लिए बैठे हैं सब। उनको और हरदेई को लेकर। सोचते ही, मन कड़वाहट से भर जाता है।
पास ही एक मुहल्ले में रहती है बेचारी। उन्हीं की तरह बहू-बेटों से तंग-परेशान। पूरा-पूरा दिन दड़बेनुमा कोठरी में पड़ी खुले आकाश को तरसती– हरदेई। मुक्ति की चाह लिए मौत के दिन गिनती– हरदेई। शाम होते ही वह अपनी कोठरी से निकल पार्क में आ बैठती है एक कोने में। जहाँ निस्तब्ध एकान्त होता है और सिर पर खुला आसमान। जहाँ बैठकर उसे नहीं लगता कि दीवारें उसका दम घोंट देंगी या छत किसी भी समय भरभराकर उसकी छाती पर आ गिरेगी। कोठरी, जहाँ अखबार और किताबों की रद्दी का ढेर है। खाली टिन और डिब्बे हैं। बेकार हुई साइकिल के हिस्से हैं। और इन्हीं के बीच उसकी छोटी-सी चारपाई है जिस पर टांगें भी सीधी नहीं हो पातीं। और जहाँ से एक टुकड़ा आकाश भी नहीं दीखता। जहाँ चूहों की खटर-पटर नींद उचाट देती है और मरे हुए चूहे जैसी बास चौबीस घंटे हवा में तैरती रहती है।
कहने को हरदेई के चार बेटे हैं। सभी अपने-अपने काम-धंधों में लगे हुए। किसी बात की कमी नहीं है उन्हें। रब की दया से सब कुछ है उनके पास। पर माँ को रखने के लिए कोई मन से राजी नहीं। सभी उसकी मौत का इंतज़ार कर रहे हैं बस।
यही हरदेई रोज शाम उनका इंतज़ार करने लगी। रोज शाम पॉर्क की खुली हवा में बैठकर दोनों अपने-अपने जीवन के बीते हुए क्षणों को घड़ी, दो घड़ी के लिए ताजा कर लेते। इनमें कभी सुखद दिनों की यादें होतीं तो कभी दुख और दर्द भरे लम्हों का जिक्र होता। प्राय: ये बैठकें इतनी लम्बी खिंच जातीं कि उन्हें समय का ध्यान ही नहीं रहता। बच्चे खेलकर जा चुके होते और सर्वत्र अन्धेरा और सन्नाटा छा चुका होता।
बहुत जल्द ही उनकी ये बैठकें गली-मुहल्ले में चर्चा का विषय बन गईं। बहू-बेटे को जैसे ही यह बात मालूम हुई, दोनों ने मिलकर उन्हें आड़े हाथों लिया।
“इस उम्र में यह क्या रोग लग गया आपको ?”
“रात देर-देर तक अंधेरे में बैठकर बतियाना तुम लोगों को शोभा देता है ?”
“बुढ़ापे में जवानी चढ़ी है। मुहल्ले भर में किस्से उड़ रहे हैं। अपनी उम्र और सफेद बालों का तो ख़याल करो।”
“उम्र माला जपने की है और चले हैं ये...।”
और न जाने क्या-क्या सुनते-झेलते रहे वह चुपचाप। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि दो वृद्ध व्यक्ति बैठकर आपस में अपना दुख-दर्द कह-सुन लेते हैं तो इसमें कौन-सी बुराई है। क्यों लोग हर बात को गलत और गन्दे ढंग से लेते हैं ?
और उस दिन के बाद से उन्होंने पॉर्क में जाना ही बन्द कर दिया।

एकाएक, उन्हें लगा कि उनका गला सूख गया है। प्यास लगी है। मन हुआ, उठकर पानी पी लें। पर, नहीं उठे। काफी देर तक इधर-उधर की सोचते हए प्यास को नकारते-झुठलाते रहे। और जब नहीं रहा गया तो सोचा, उठ ही लिया जाए। और उठ खड़े हुए। दरवाजे तक पहुँचे, खटखटाने को हाथ बढ़ाया, पर एकाएक रुक गए। पलभर यूँ ही खड़े रहे। सोचते रहे। और फिर चारपाई पर आकर लेट गए। लेकिन अधिक देर नहीं लेटा गया। एक निर्णय-सा लेते हुए फिर उठ बैठे। दरवाजा खटखटाया और प्रतीक्षा करने लगे। प्रतीक्षा लम्बी होने लगी तो फिर धीमे से खटखटाया। कोई असर नहीं हो रहा था। असमंजस की स्थिति में थे कि क्या करें। तभी एक झटके से दरवाजा खुला।
“क्या है ?” ऐसे लगा जैसे गोली दगी हो।
उन्हें कुछ नहीं सूझा। चुप रहें या कुछ कहें। कुछेक क्षण चुपचाप खड़े रहे दोनों। आमने-सामने। उनकी आँखें खुद-ब-खुद झुक-सी गईं। लगा जैसे कोई जु़र्म हो गया हो।
बेटा सामने से हटकर भीतर चला गया– भन्नाता हुआ। वह चुपचाप रसोई में गए और पानी लेकर पीने लगे।
दो बेटे हैं उनके। बड़का मोहन पढ़-लिखकर व्यापार में लग गया। अब बम्बई में है। बहू-बच्चों के संग। छुटका राकेश सरकारी नौकरी में है– हैड क्लर्क। बेटों की खातिर उन्होंने क्या कुछ नहीं किया। खेत बेच दिए। खुद तंगी में रहकर हर प्रकार की सुख-सुविधा बेटों को प्रदान की। उन्हें शहर भेजा, पढ़ने के लिए। फिर शादी की। और एक दिन इन्हीं बेटों के कहने पर बाकी की ज़मीन भी बेच दी। बाद में मकान भी। बड़के को व्यापार में पैर जमाने के लिए पैसों की ज़रूरत थी और छुटके को डवलपमेंट अथॉरिटी से मिले मकान का पैसा जमा करना था। बड़के ने कहा, “बापू, कहाँ गांव में अकेले रहोगे ? शहर आकर हमारे पास आराम से रहो और खाओ-पिओ।” छुटके ने कहा, “हमारे रहते अब तुम्हें खेती-वेती करने की क्या ज़रूरत है बापू... बहुत कर ली मेहनत। अब छोड़ो और चलकर मेरे साथ रहो शहर में...।”
उस क्षण उनकी आँखें खुशी से छलछला आयी थीं। छाती फूल गई थी गर्व से। कितना चाहते हैं उनके बच्चे ! भगवान ऐसे बेटे सभी को दे !
लेकिन, कुछ ही दिनों बाद हकीकत सामने थी। वह बाजी हार चुके थे। जब तक हाथ-गोड़ चलते थे, एक नौकर की कमी पूरी होती थी। अब उनसे होता नहीं तो खीझे रहते हैं बहू-बेटा।

उन्हें याद आते हैं वे दिन जब उनकी पत्नी मौत से जूझ रही थी। कितनी बीमार हो गई थी। हड्डियों का ढाँचा नज़र आती थी। दवा-दारू का कुछ भी असर नहीं हो रहा था उस पर। जी रही थी तो बस, इस आस पर कि उसका बड़ा बेटा बम्बई जैसे शहर में रहता है। जहाँ एक से बढ़कर एक बढ़िया अस्पताल है। माँ की बीमारी की चिट्ठी पाते ही दौड़ा चला आएगा वह। चिट्ठी पर चिट्ठी लिखवाती रही। पर उसे न आना था, न आया। और छुटका भी उसे लेकर नहीं गया। बस, कस्बे के डाक्टर से दवा आती रही।
एक रात अचानक हालत बिगड़ गई थी उसकी। वह सारी रात पत्नी के सिरहाने ही बैठे रहे। टट्टी-पेशाब भी वही कराते रहे। रात का तीसरा पहर रहा होगा जब पत्नी ने उनसे कहा, “सुनो, मेरे एक-दो जेवर पड़े हैं। उन्हें बेच दो और मुझे शहर के किसी अच्छे डाक्टर को दिखलाओ... शायद दो-चार दिन और सांस ले सकूँ...”
“जब तुम्हें लगता है कि तुम अब बचोगी नहीं तो... तो फिर कुछ दिन और किल्लतभरी ज़िन्दगी जीने का यह मोह क्यों, पारवती ?” वह रुआंसे से हो आए थे।
“मुझे जीने का मोह नहीं है जी... बस, एकबार बड़का...” आगे के शब्द गले में ही कहीं अटककर रह गए थे। बोलते-बोलते रुलाई फूट पड़ी थी। तकिये में मुँह छिपा लिया था उसने। कैसो-कैसा हो गया था उनका मन, पत्नी की यह हालत देखकर। उस समय उन्हें लगा था, औलाद चाहे कैसी भी हो, माँ अपनी ममता को मार नहीं सकती। पारवती के भीतर भी जैसे इन अन्तिम क्षणों में अपने पेट जाये बेटे को एक नज़र देख लेने की इच्छा ठांठें मार रही थीं। शायद आ ही जाए, किसी न किसी बहाने। अपनी माँ से मिलने। पर वह नहीं आया और पारवती अधिक दिन उसका इंतज़ार नहीं कर सकी।
यह सब सोचते हुए उनकी आँखें डबडबा आईं। उन्होंने अपनी आँखें पोंछी और अपना ध्यान इन सब बातों से जबरन हटाने की कोशिश करने लगे। पर ऐसा नहीं कर पाए वह।

शाम के छह बजे का वक्त हो रहा होगा शायद।
हवा न चलने के कारण बेहद घुटन-सी महसूस हो रही थी। एकाएक, उन्हें याद आया कि बहुत दिनों से पॉर्क नहीं गए वे। सोचा, घर में ताला लगाकर टहल आएं पॉर्क तक। हरदेई से भी शायद भेंट हो जाए। बहुत दिनों से उसे देखा नहीं। अच्छा अवसर है। बहू-बेटा कस्बे वाले शर्मा जी के घर गए हैं। टी.वी. पर फिल्म देखकर ही लौटेंगे अब। उनके लौटने से पहले ही लौट आएंगे। हर वक्त चारपाई पर पड़े रहना भी ठीक नहीं। यही सब सोच वह उठे और घर में ताला लगा, पॉर्क की ओर चल दिए।

हरदेई अपनी निश्चित जगह पर बैठी थी। गुमसुम सी। वह चुपचाप उसकी बगल में बैठ गए। उनके आने और बैठने का अहसास हरदेई को नहीं हुआ। जाने कहाँ खाई हुई थी वह। लगता था जैसे पत्थर की मूर्ति हो...।
“हरदेई...” बहुत धीमे स्वर में उन्होंने पुकारा।
पर हरदेई तो जैसे वहाँ थी ही नहीं। कोई हरकत न होने पर वह उसके और करीब खिसक आए और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, “हरदेई, कहाँ गुम हो ?”
“हूँ...” हरदेई जैसे सोते से जागी हो।
“इतने दिन कहाँ रहे ?” स्वर में उलाहना था।
“कहीं नहीं, घर पर ही रहा। टांगों में अब जोर नहीं रहा है न। चला नहीं जाता। सांसें फूलने लगती हैं, दो कदम चलते ही।” उन्होंने सफाई दी।
हरदेई फिर चुप हो गई। आगे कुछ नहीं बोली।
“हरदेई, तुम आज चुप क्यों हो ?... कुछ बोलोगी नहीं ?... आज अपना दुख-दर्द नहीं सुनाओगी ?” उनका स्वर काफी मुलायम था।
लेकिन हरदेई चुप थी। काफी देर तक चुप्पी तनी रही। मजबूरन वह भी चुप्पी लगा गए।
“सुनो...” हरदेई ने चुप्पी तोड़ी।
हरदेई के इस एक शब्द से उनके कानों में जैसे सितार बज उठे हों। कितना अपना-सा, आत्मीय-सा सम्बोधन ! बरसों हो गए सुने। पत्नी भी ऐसे ही बुलाती थी। मरते दम तक कभी नाम नहीं लिया था उसने। बहुत दिनों बाद हरदेई का सामीप्य उन्हें अच्छा लग रहा था। वह हरदेई के और करीब होते हुए बोले, “कहो।”
“सोचती हूँ, हरिद्वार चली जाऊँ। वहीं कहीं ज़िन्दगी के शेष दिन काट दूँ। गंगा के किनारे... यहाँ की हर समय की घुटन से तो मुक्ति मिलेगी। गंगा मैया का किनारा होगा और सिर पर एक खुला आकाश !”
“पर जाओगी कैसे ?” कुछेक क्षणों की चुप्पी के अन्तराल के बाद उन्होंने प्रश्न किया। पूछते वक्त उन्हें लगा, जैसे आवाज़ उनका साथ नहीं दे रही है।
“कल पंजाबी मोहल्ले के मंदिर से सत्संग वालों की एक बस हरिद्वार जा रही है। सोचती हूँ, उन्हीं के साथ चली जाऊँ।”
उन्होंने हरदेई की ओर देखा। कुछेक पल वह हरदेई के चेहरे को अपनी बूढ़ी आँखों से पढ़ने की कोशिश करते रहे। मुक्ति की चाह के अतिरिक्त वहाँ उन्हें कुछ नज़र नहीं आया।
“सुनो, तुम भी चलो न।”
सोचते रहे, इस आग्रह का क्या जवाब दें।
“लौटोगी नहीं फिर ?”
“नहीं...”
फिर दोनों की बीच चुप्पी आकर खड़ी हो गई। कोई नहीं बोला एक पल को। बस, दोनों सामने धीमे-धीमे गहराते जाते अंधेरे की ओर ताकते रहे।
“चलोगे ?”
“...”
“तुम साथ होगे तो...” आवाज़ गले में फंस कर रह गई। आँखों से पानी बहने लगा। उनका भी जी भारी हो आया। हिम्मत नहीं हुई कि हाथ बढ़ाकर हरदेई की आँखों के आँसू पोंछ दें।
अंधेरा गहराने लगा था। बच्चे भी पॉर्क से खेल-कूदकर अपने-अपने घरों को लौट चुके थे। सहसा, उन्हें घर का ख़याल हो आया और वह व्याकुल हो उठे। कहीं बहू-बेटा लौट न आए हों और घर पर ताला लगा हुआ पाकर उन्हें खोजते हुए इधर ही न आ जाएं। वह उठकर चलने लगे कि तभी हरदेई की आवाज़ ने उनके कदम रोक दिए।
“तुम... तुम नहीं चलोगे। सोच रहे होगे कि लोग...”
समझ नहीं पाए, क्या बोलें। क्या उत्तर दें हरदेई को। चुपचाप हरदेई के सम्मुख खड़े रहे कुछ पल। पर अधिक देर नहीं खड़ा रह पाए वह। बिना कुछ बोले-कहे, घर की ओर चल दिए। कुछ कदम चलकर उन्होंने मुड़कर देखा, हरदेई अभी भी वहीं बैठी थी। स्थिर... अडोल !

रातभर उन्हें नींद नहीं आई। करवटें बदलते रहे। गरमी और उमस से हाल बेहाल तो रोज ही रहा करता है। लेकिन आज... आज तो भीतर, कहीं भीतर एक युद्ध-सा चल रहा था उनके। बेचैनी उमड़-उमड़ पड़ रही थी। हरदेई के शब्द रह-रहकर उनके कानों में गूंज उठते थे। क्या हरदेई की ही तरह वह भी नहीं चाहते रहे हैं, इस कैद से मुक्ति ! उपेक्षा और तिरस्कार भरी ज़िन्दगी से छुटकारा ! बाहर-भीतर की घुटन से बचना ! एक खुले आकाश की चाह अपनी बूढ़ी आँखों में छुपाये हुए !
जाने कितनी रात गए तक वह लड़ते-जूझते रहे, भीतर ही भीतर।

समय हो गया था।
मंदिर पर भीड़ इकट्ठा होनी शुरू हो गई थी। बस अभी नहीं आई थी। सब बस का इंतज़ार कर रहे थे। और वह भीड़ से थोड़ा हटकर हरदेई की राह देख रहे थे। ‘हरदेई अभी तक क्यों नहीं आई ? उसे तो उनसे पहले पहुँच जाना चाहिए था यहाँ...’ वह सोच रहे थे कि एकाएक उनके बूढ़े कानों ने सुना– “रामधन की माँ नहीं रही।”
“कौन ? दो ब्लॉक वाली हरदेई ?”
“हाँ वही।” किसी ने बताया, आज सुबह चार बजे बेचारी चल बसी।
हरदेई को लेकर भीड़ में आवाज़ें बढ़ने लगी थीं कि तभी बस आ गई। लोगों में बस में चढ़ने की उतावली थी। देखते ही देखते बस भर गई। चढ़े हुए लोगों ने “गंगा मैया की जय” बोली और बस धूल उड़ाती हुई आगे बढ़ गई।
उन्होंने वहीं खड़े-खड़े एक नज़र जाती हुई बस की ओर देखा और फिर ऊपर आकाश की ओर। आकाश जो उनसे बहुत दूर था!

( आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रहदैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)में संग्रहित)

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Dear Subhash Sahib,
aapkay blog dekhte hein bahut khushi hoti hai
khush rahen yeh meri kamna hai

Kahani ka intzar hai


Chaand Shukla "Hadiabadi"
Director "Radio Sabrang"
Poet and Broadcaster.
Voelundsgade 11 1 TV
2200 N Denmark.
Tel: 0045-35833254

बेनामी ने कहा…

प्रिय सुभाष जी
आपकी रचनाएँ पढ़ रही हूँ। आपकी कलम स्मृद्ध है। विषयों की पकड़ काबिलेतारीफ़ है।
Usha Raje Saxena Co-Editor, PURWAI

Devi Nangrani ने कहा…

सुभाष जी
कहानी "बूडी माँ का आकाश" जिसका विस्तार निहायत ही अच्छा लगा
“कहीं नहीं, घर पर ही रहा। टांगों में अब जोर नहीं रहा है न। चला नहीं जाता। सांसें फूलने लगती हैं, दो कदम चलते ही।” उन्होंने सफाई दी।
हरदेई फिर चुप हो गई। आगे कुछ नहीं बोली।
“हरदेई, तुम आज चुप क्यों हो ?... कुछ बोलोगी नहीं ?... आज अपना दुख-दर्द नहीं सुनाओगी ?” उनका स्वर काफी मुलायम था।
बहुत अच्छी कहानी के लिये दाद हो
देवी नागरानी