पिता अब नहीं रहे। गत 22 अक्तूबर 2009 (बृहस्पतिवार रात्रि 10.30 बजे) उन्होंने मुझसे छोटे दो भाइयों की गोद में अन्तिम सांस ली। जीवन भर दुख-तकलीफ़ों और मुश्किलों से लोहा लेने वाले पिता अपनी भंयकर बीमारी से भी अपनी जीर्ण-शीर्ण काया में बची खुची शक्ति से चुपचाप लड़ते -जूझते रहे। उन्हें दायें फेफड़े में कैंसर था जो अन्तिम स्टेज पर पहुंच चुका था। वह असहनीय और मर्मान्तक पीड़ा को हमसे हर क्षण छुपाने की कोशिश करते रहे, कभी दर्द में चीखे-चिल्लाये नहीं। कभी-कभी मद्धम-सी कराह जबरन उनके मुँह से निकलती तो लगता कि वह उसे भी अपने भीतर रोकने की भरसक कोशिश कर रहे थे। लेकिन उनके चेहरे पर खिंची असहनीय दर्द की लकीरें हमें भीतर तक रुला जाती थीं। अब वह घना छायादार वृक्ष हमारे सिर पर नहीं रहा जिसकी छाया तले हम अपने दुख-दर्द भूल जाते थे, दिन भर की थकान मिटा लेते थे। शेष रह गई हैं बस उसकी स्मृतियाँ ! जिस जीवट और साहस का परिचय पिता अपने जीवन में देते रहे, उसी जीवट और साहस से हमें जीवन की हर मुश्किल से लोहा लेना है। उनके दिखाये गए रास्तों पर चलना है। उनकी स्मृतियों की पूंजी को संजो कर रखना है, उन्हें विस्मृतियों की गर्द से बचा कर रखना है। इन स्मृतियों के सहारे ही अशरीरी पिता हमारे साथ रहेंगे।
शोक के इन क्षणों में पिता जी पर फिलहाल बस इतना ही लेकिन जल्द ही उनके जीवन संघर्षों पर विस्तार से लिखने का प्रयास करूंगा।
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भाई रूप सिंह चन्देल मेरे परिवार के हर दुख-सुख में सदैव आगे बढ़कर सम्मिलित होते रहे हैं। उन्होंने ही मेरे सभी मित्रों को फोन और ई-मेल के द्वारा इस बारे में सूचित करने का दायित्व निभाया। मेरे परिवार की इस दुखद घड़ी में अनेक मित्रों ने उपस्थित होकर, फोन अथवा ई-मेल द्वारा अपनी शोक संवेदनाएं प्रकट करके मुझे और मेरे परिवार को जो सांत्वना और शक्ति प्रदान की, उसके लिए मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूँ।
-सुभाष नीरव
24 टिप्पणियां:
तुम्हारे इस छोटे से संस्मरण ने मुझे पुराने दिनों की याद दिला दी जब मैं मुरादनगर तुम्हारे घर में बैठा होता था और पिता जी फैकट्री से आते थे हाथ में सब्जी थामे जिसे आंटी को देकर हाथ मुंह धोने चले जाते थे और लौटकर मुझसे पूछना नहीं भूलते थे कि मैंने चाय पी या नहीं.
बहुत कुछ है कहने के लिए --- लेकिन अब तो बस यादें ही रह गयी हैं. कभी समय निकालकर एक लंबा संस्मरण लिखो उनपर उनके संघर्षों को उद्घाटित करते हुए.
चन्देल
भाई नीरव जी,स्वर्गीय पिता जी मुझे जब जब मिले ,ऐसा लगा मनो संघर्ष की प्रतिमूर्ति से सामना हा हो.आप के भीतर जो जीवटता विद्यमान है वह उनका प्रभाव और संस्कार है.स्नेह जैसे वरसाते हुए मिलते थे.आप के जीवन को उनके पुण्य कर्मो का फल अवश्य मिलेगा.
पिता जी को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि सुभाष जी !!
अभी गवाक्ष का नया अंक देख रही थी, और फिर श्रीजन यात्रा का अंक देखा कि अचानक ये दुखद समाचार उसी में पढ़ा... विशवास नहीं हुआ क्यूंकि अभी कुछ दिन पहले ही तो आपसे बात हुए थी पिताजी को लेकर... मेरी विनम्र श्रधान्जली...
जिसकी छाया तले किरण थे सब
घर के आँगन का शजर याद आया.
ममता किरण
अभी गवाक्ष का नया अंक देख रही थी, और फिर श्रीजन यात्रा का अंक देखा कि अचानक ये दुखद समाचार उसी में पढ़ा... विशवास नहीं हुआ क्यूंकि अभी कुछ दिन पहले ही तो आपसे बात हुए थी पिताजी को लेकर... मेरी विनम्र श्रधान्जली...
जिसकी छाया तले किरण थे सब
घर के आँगन का शजर याद आया.
ममता किरण
प्रिय भाई,
माँ पर लिखी मेरी कुछ कविताएँ तुमने प्रकाशित की थीं। वे कविताएँ तुम्हारे जैसे ही भाई सरीखे मित्र की माँ के देहान्त ने मुझे दी थीं। तुम्हारे पिताजी का जाना भी मुझे अपने पिताजी के जाने जैसा ही झकझोर गया है। देह और आत्मा का सारा दर्शन जानते हुए भी हम माता-पिता के जाने को झेल नहीं पाते हैं। जैसे माँ हमारे खून में बसी होती है, वैसे ही पिता हमारी हड्डियों में समाए होते हैं। वक्त की आँधियों को झेलते हुए मजबूती के साथ कैसे डटे रहना है, ग़रीबी और मुफ़लिसी के दिनों में सभी तरह के मतान्तरों को किनारे रखते हुए अपने जीवन-साथी से सामन्जस्य बनाए रखना और उसके कन्धे से कन्धा मिलाकर सन्तान को किसी योग्य बनाने की तरफ ध्यान केन्द्रित रखना हमें इन दोनों ने ही सिखाया होता है। कोई माँ कैसे खून बनती है और पिता कैसे हड्डियाँ बनता है--यह मैंने, तुमने और गरीब माता-पिता द्वारा पाले गए हम-जैसे अनगिनत बच्चों ने प्रत्यक्ष देखा है। तुम अपना संस्मरण जरूर लिखो। वह हममें से बहुतों का अपना संस्मरण होगा--मैं जानता हूँ।
सुभाष जी से मेरा परिचय अधिक समय से नहीं है। बस यही समझें कि जब दुनिया इंटरनेटीय हुई तो जो पहले मित्र मिले वो भाई सुभाष नीरव ही हैं। इनसे तो कई बार मिलना हुआ है इनके सादिक नगर वाले घर पर और लक्ष्मीबाई नगर वाले निवास पर भी। सबसे मिला भी हूं पर मेरा सौभाग्य नहीं रहा कि पिताजी के दर्शन हुए होते। उनके चित्र के दर्शन भी मैं साहिबाबाद में ही रस्म पगड़ी कार्यक्रम में ही कर पाया। वहीं पर इनके भाई और अन्य संबंधियों से भी मुलाकात हुई। मौका यह भी चूक गया होता अगर भाई सुरेश यादव का फोन न आया होता। मुझे भी प्रतीक्षा रहेगी भाई सुभाष नीरव जी के संस्मरण की और भाई चन्देल और सुरेश जी से भी कहूंगा कि वे भी सुभाष जी के पिताजी की स्मृतियों को अवश्य साझा करें। पिताजी को नमन।
भावभीनी श्रद्धांजलि ..
पिताजी को भावभीनी श्रद्धांजलि ..पिताजी से सम्बंधित संस्मरण की प्रतीक्षा रहेगी ...
सुभाष जी, मैं आप के दर्द को समझ सकती हूँ, मैंने अपने सात जन खोये हैं..
जब भी किसी के माता जी या पिता जी के निधन की खबर सुनती हूँ, तो मेरे घाव हरे हो जाते हैं. भावभीनी श्रद्धांजलि ..
पिताजी से सम्बंधित संस्मरण की प्रतीक्षा रहेगी ...
आत्मीय नीरव भाई!
हम सहभागी
शोक में...
*
अभी-अभी तो
गँवा पिता को
सर से छांह गवाई है.
अब मालूम हुआ
यह अपनी
दुनिया मुई पराई है.
बात लगावट की करती है
शेष लगाव न लोक में.
हम सहभागी
शोक में...
*
मुँह देखे
रिश्ते-नातों का
माया जाल निराला है.
मुँहबोले
नाते-रिश्तों ने
उठकर सदा सम्हाला है.
शोक बाँटने स्नेह-सलिल
लेकर आया हूँ ओक में,
हम सहभागी
शोक में...
*
आत्मीय नीरव भाई!
हम सहभागी
शोक में...
*
अभी-अभी तो
गँवा पिता को
सर से छांह गवाई है.
अब मालूम हुआ
यह अपनी
दुनिया मुई पराई है.
बात लगावट की करती है
शेष लगाव न लोक में.
हम सहभागी
शोक में...
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मुँह देखे
रिश्ते-नातों का
माया जाल निराला है.
मुँहबोले
नाते-रिश्तों ने
उठकर सदा सम्हाला है.
शोक बाँटने स्नेह-सलिल
लेकर आया हूँ ओक में,
हम सहभागी
शोक में...
*
ओह.....सुभाष जी दुखद समाचार है ...बड़ों की छत्र-छाया ही काफी होती है दुःख-सुख में ....मेरे श्रद्धा- सुमन उन्हें .....!!
पिताजी को भावभीनी श्रद्धांजलि
---- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
बड़े ही दुख की बात है सुभाष जी पिता जी एक बड़े छायादार वृक्ष के समान होते है जो सूरज की आग को झेल कर अपने नीचे विश्राम करने वालों को राहत देता है बस पुत्र वैसे ही पिता की छाया में सुख पाते हैं...
परंतु ईश्वर के आगे किसी की नही चलती भगवान आपके पिता जी के आत्मा को शांति प्रदान करें!!
सुभाष जी,
वृद्ध जीवन और उसके संघर्षों के प्रति आप पर्याप्त सजग रहे हैं और उनका मार्मिक चित्रण आपकी कई कहानियों में होता रहा है. 'जीवन का ताप' , 'इतने बुरे दिन' और 'तिड़के घड़े' का खास उल्लेख करना चाहूंगी. पिताजी के गुजरने से पहले की मुलाकात हृदय में अंकित है. उस ऊंची कद-काठी में आपकी कहानियों के कई किरदार समाये हैं. मैं उन सभी का नमन करती हूँ जिन्होंने आपकी सोच को सृजनात्मक और सकारात्मक बनाये रखा.
पिताजी की पुण्य स्मृति को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !
अलका सिन्हा
सुभाष जी, आपके इस लेख मे हम जैसे उन तमाम अभागे पुत्रो का दर्द है जिन्होने जीवन की इस आपा धापी मे अपने सर के ऊपर की इस छाया को खोया है. हम सभी माता पिता के जीवन मे उन्हे थोडा सा भी सुख दे सके और उनकी सेवा कर सके ऐसा कोइ मौका हमे हाथ से नही जाने देना चाहिये. आपके दुख मे आपके साथ है.
सुभाष जी आपका आना सुखद लगा ....आपके ही ब्लॉग में सर्वप्रथम मेरी रचनायें छपी थीं जिसे पाठकों ने बेहद सराहा ....मैं तो ऋणी हूँ आपकी ....मुझे याद है आपसे हुई बातचीत ...आपने तखल्लुस की बात उठाई थी मैंने कहा था मेरी ज़िन्दगी इस तखल्लुस से बहुत जुडी हुई है ....पिछले दिनों पाबला जी , लक्ष्मी शंकर बाजपेई , मधुकर 'हैदराबादी' आदि से हुई बातचीत में भी उनका भी अनुरोध था ...और अब इमरोज़ जी का 'हीर' लिखना मुझे भावविह्वल कर गया ...उनका दिया ये तखल्लुस रखना मेरे लिए उन्हें सम्मान देना ही है ...बस आप सब की दुआ और आर्शीवाद चाहिए ......!!
एक बार फिर पिता जी अश्रु पूर्ण नमन ....!!
प्रिय सुभाष जी,
सीने में दर्द को छुपाये पिताजी की मुस्कराहट जीवन की विषम परिस्थितियों में भी मुस्कराते रहने का हौसला देगी. इस जीवट व्यक्तित्व को श्रद्घा सहित नमन !
मनु सिन्हा
आपके इस लेख की गहरी संवेदना को समझ सकते हैं की किसी अपने पर जब कष्ट कारक समय होता है तो कितनी तकलीफ होती है ! दर्द उनको होता है लेकिन असहनीय दर्द प्रिय जन को होता है और तब अधिक होता है जब हम कुछ बाँट नहीं सकते|
अश्रुपूरित श्रधांजलि !!!!
पिता जब नहीं रहते ज़िंदगी हाथ से रेत की तरह फिसल जाती है।
पिता को भावभीनी श्रद्धांजलि......
दुख सहने की आन्तरिक शक्ति मिले, मेरी सम्वेदना।
विजय शर्मा
09430381718
I pay my homage to departed soul.
you must write about his struggle,hopes and pains of life.
भाई दु:ख की इस घड़ी में आपके साथ हूं। आज तीन महीने पर नेट खोला तो पता चला। खैर....अफ़सोस...
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