शनिवार, 12 जून 2010

कविता



धारा के विरुद्ध
सुभाष नीरव


बने बनाये साँचों में ढलना
बहुत आसान होता है

कठिन होता है
अपने लिए अलग साँचा बनाना
और खुद को उसमें ढालना

ऐसा करके देखो-
अलग दिखोगे।

धारा के साथ
हर कोई बह सकता है
कठिन होता है
धारा के विरुद्ध तैरना

तैर कर देखो-
अलग दिखोगे।

पतंग जब तक
हवा के साथ होती है
उड़ती है पर
ऊँचाइयाँ नहीं छूती

होती है जब
हवा के विरुद्ध
उठती है ऊपर, बहुत ऊपर
और दीखती है
सबसे अलग आकाश में !
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

7 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

HAR KOEE BAH SAKTA HAI
DHARA KE SAATH
KATHIN HOTA HAI
DHARA KE VIRUDDH BAHNA
SUBHASH JEE,KYA KHOOB KAHAA
HAI!YE PANKTIYAN AGAR CHHAND MEIN
HOTEE TO SANGEETMAYEE SUKTI BAN
JAATEE.

सहज साहित्य ने कहा…

धारा के विरुद्ध जब- जब बहना पड़ता है / इस मन को न जाने कितना कुछ सहना पड़ता है /

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सुभाष भाई कविता में आज का यर्थाथ है। कोशिश तो यही है कि धारा के खिलाफ चलें। पर आप जैसे सार्थक लोगों का साथ भी चाहिए।

निर्मला कपिला ने कहा…

कठिन होता है
अपने लिए अलग साँचा बनाना
और खुद को उसमें ढालना
बहुत सुन्दर सार्थक रचना है धन्यवाद्

सुरेश यादव ने कहा…

नीरव जी ,कविता पहले भी पढ़ी हुई है आज फिर ताज़ी सी लगी .सारा संघर्ष तो धारा के विरुद्ध है साथ वाहना तो निर्जीव सूखे पत्ते भी जानते हैं बधाई.

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

यार कमाल की कविता है, बहुत ही प्रेरणादायी.

बधाई.

चन्देल

बलराम अग्रवाल ने कहा…

प्रिय भाई
खतरनाक हो सकता है
अलग दिखने-भर के लिए
धारा के विरुद्ध तैरने का दुस्साहस करना
और
उससे भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है
किसी नासमझ का अपने लिए
साँचा तैयार करना।
तुम्हारी कविता जुझारुता के जिस धरातल की बात करती है वह धरातल सप्रयास पहले पैदा करना पड़ता है अपने भीतर। जहाँ तक मेरा अनुभव है, पतंगें भी वे ही ऊँचाइयाँ छू पाती हैं जो हवा के तल से ऊपर उठ जाने का सौभाग्य पा जाती हैं अन्यथा तो वे हवा के रुख का ही सहारा लेने को विवश रहती हैं।
कुल मिलाकर यह कि पूरी कविता जुझारुता के संस्कार की बात करती है। उसके बिना व्यक्ति विपरीत हालातों में सिवा टूटन के कुछ भी अन्य नहीं पा सकता।