रविवार, 4 जुलाई 2010

दो कविताएं/सुभाष नीरव



आदमी की फितरत

पहले तुमने मुझे
अपने होंठों से लगाया
फिर आँच दे दी
मेरा जीवन शुरू हो गया

उठाते रहे लुत्फ़ तुम
कश-दर-कश
जब तक मुझमें आँच थी

पर क्या मालूम था मुझे
जब यही आँच बनने लगेगी खतरा
तुम्हारी उंगलियों के लिए
तुम मुझे फर्श पर फेंक
अपने जूते की नोक से
बेरहमी से मसल दोगे।
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शिखरों पर लोग

जो कटे नहीं
अपनी ज़मीन से
शिखरों को छूने के बाद भी
गिरने का भय
उन्हें कभी नहीं रहा

जिन्होंने छोड़ दी
अपनी ज़मीन
शिखरों की चाह में
वे गिरे
तो ऐसे गिरे
न शिखरों के रहे
न ज़मीन के।
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

17 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

Aadmee kee fitrat aur Shikhron ke
log dono hee kavitaaon kee sundar
sahaj bhavabhivyakti achchhee lagee
hai.Shikhron ke log kee ye panktiyan to khoob hain --
JO KATE NAHIN
APNEE ZAMEEN SE
SHIKHRON KO
CHHONE KE BAAD BHEE
GIRNE KAA BHAY
UNHEN KABHEE NAHIN RAHAA
Subhash jee,aapkee kavya
panktiyon ke seedhe-saade bhaav
seedhee -saadee bhasha mein jab
padhtaa hoon tab meree yah dharna bantee hai ki kisee manje hue sheersh kavi kee kavitaaon ko maine
padh kar aanand liya hai.Isee tarah
aap likhte rahiye aur jan - maanas
ko rijhate rahiye.Shubh kaamnaa.

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

सच ही कहा तुमने कि जिन्होंने शिखरों की चाह में अपनी जमीन छोड़ दी वे कहीं के नहीं रहे.

दोनों ही कविताएं छोटी होते हुए भी अपने में गहन भाव समेटे हुए हैं.

बधाई.

चन्देल

बलराम अग्रवाल ने कहा…

दूसरों की दी हुई आँच को ही अपनी ज़िन्दगी का मक़सद समझने वालों का हस्र इससे अलग शायद ही होता हो। आदमी (यानी कि भोगने के लिए आँच देने वाले) की इसमें कोई ग़लती नहीं। जेहाद के नाम पर आग बने फिरते सारे आतंकी इस श्रेणी में आते हैं। एक बार सुलगाए और भोग लिए जाने के बाद अन्तत: वे मसले जरूर जाते हैं। दूसरा कोई रास्ता उनके लिए नहीं होता।
दूसरी कविता अपने-आप में स्वयं व्याख्यायित है। यही होता है, यही होना भी चाहिए।

सुरेश यादव ने कहा…

नीरव जी 'शिखरों के लोग ' बेजोड़ कविता है.पहले भी कई वार पढी है.नपे तुले शब्दों में उन पर गहरी चोट करती कविता ----जो रंगीन पतंग की तरह आसमान में बहुत ऊँची उड़ान तो भरते हैं लेकिन जिस ज़मीन पर आकर गिरते हैं वह उनकी नहीं रहती है.बधाई.

उमेश महादोषी ने कहा…

यथार्थ के धरातल पर अच्छी कवितायेँ हैं। पढवाने के लिए धन्यवाद !

सहज साहित्य ने कहा…

शिखरों पर लोग अच्छीइ कविता है ऽअपका कवि रूप सचमुच सराहनीय है ।

pakheru ने कहा…

कविताएं दोनों सचमुच बहुत अच्छी हैं, लेकिन भाषा की नदी को पार पाना कठिन है.

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई रंजन ज़ैदी का आभारी हूँ कि उन्होंने मेरी कविता "आदमी की फितरत" में आए गलत शब्द की ओर संकेत किया। दरअसल, टंकण में कई बार अशुद्धियाँ चली जाती हैं। अब वह शब्द सही कर लिया गया है।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सचमुच कविताएं ऐसी हैं कि उनके लिए कुछ भी कहना उनका अपमान करना है। आपकी पहली कविता इतनी सहजता से अंदर तक उतर जाती है जैसे कोई मुहावरा हो। बधाई।

बेनामी ने कहा…

सचमुच कविताएं ऐसी हैं कि उनके लिए कुछ भी कहना उनका अपमान करना है। आपकी पहली कविता इतनी सहजता से अंदर तक उतर जाती है जैसे कोई मुहावरा हो। बधाई।
राजेश उत्‍साही
utsahi@gmail.com

बेनामी ने कहा…

सचमुच कविताएं ऐसी हैं कि उनके लिए कुछ भी कहना उनका अपमान करना है। आपकी पहली कविता इतनी सहजता से अंदर तक उतर जाती है जैसे कोई मुहावरा हो। बधाई।
राजेश उत्‍साही
utsahi@gmail.com

विधुल्लता ने कहा…

जिये गये सच की तरह आपकी कवितायें कमाल हेँ ...इनमे एक संभावना की तलाश है ..बधाई

Kavita Vachaknavee ने कहा…

देर से, कई दिन बाद आई हूँ| आकर अच्छा लगा| एक एक कर आपके सभी ब्लॉग ब्लॉग पढ़े हैं अभी|

यथार्थ के धरातल पर उगी इन उर्ध्वगामी रचनाओं के लिए आपको बधाई|

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

बहुत बढ़िया लगीं आप की कविताएँ --सहज ही भीतर कहीं उतर गईं

सुनील गज्जाणी ने कहा…

सुभाष जी ,.
नमस्कार
आप कि दोनों कविताओ का सार देखे तो शायद येही लगेगा कि इंसान मौका परस्त है भले ही सिगरेट के रूप में आप चितरं हो या सिखर छूने कि चाह में अपना धरातल भूल जाना ! जब सिगरते को अवसर मिलता है तो जहा वो अपना रूप देखा देती है तो चोटिया भी अपने धरातल पे गेरो को कदम रखने नहीं देती ,
आभार

मंजुला ने कहा…

बहुत सटीक बहुत अछि पन्तियाँ है ...

मंजुला ने कहा…

बहुत सटीक बहुत अछि पन्तियाँ है ...