शुक्रवार, 30 मई 2008

कहानी-4

दैत्य

सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र


वे दिन मेरी बेकारी के दिन थे। मैं इण्टर कर चुका था और नौकरी की तलाश में था। माता-पिता मुझे और आगे पढ़ाने में अपनी असमर्थता प्रकट कर चुके थे। घर में मुझसे बड़ी दो बहनें थीं– विमला और शान्ता। विमला जैसे-तैसे हाई-स्कूल कर चुकी थी लेकिन, शान्ता आठवीं जमात से आगे न बढ़ सकी। माता-पिता वैसे भी, लड़कियों को अधिक पढ़ाने के पक्ष में कतई नहीं थे। उनका विचार था कि अधिक पढ़ी-लिखी लड़कियों के लिए अपनी बिरादरी में वर ढूँढ़ने में काफी मुश्किलें आती हैं।
दोनों बहनें घर के कामकाज में माँ का हाथ बँटाती थीं। उन दोनों की बारियाँ बंधी थीं। सुबह का काम विमला देखती थी, शाम का शान्ता। बीच-बीच में माँ दोनों का साथ देती रहती थी। पड़ोस की अर्पणा आंटी से विमला सिलाई-कढ़ाई सीख चुकी थी और शान्ता अभी सीख रही थी। पिता एक सरकारी फैक्टरी में वर्कर थे। फैक्टरी में सुबह-आठ बजे से लेकर शाम पाँच बजे तक वह लोहे से कुश्ती लड़ते और शाम को हारे हुए योद्धा की भांति घर में घुसते। पिछले एक साल से फैक्टरी में ओवर-टाइम बिलकुल बन्द था। ओवर-टाइम का बन्द होना, फैक्टरी के वर्करों पर गाज गिरने के बराबर होता था। केवल तनख्वाह में जैसे-तैसे ही खींच-खांचकर महीना निकलता। हमारे घर की आर्थिक स्थिति ठीक न थी बल्कि दिन-ब-दिन और चरमराती जा रही थी। ऊपर से जवान होती लड़कियों और बेकार बैठे लड़के की चिन्ता, ये दो प्रमुख कारण थे जिसके कारण पिता दिन-रात परेशान रहते। चिन्ता में उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। धीरे-धीरे उनके शरीर पर से मांस गायब हो रहा था और हड्डियाँ उभरने लगी थीं। वह नौकरी से रिटायर होने से पूर्व दोनों लड़कियों की शादी कर देना चाहते थे। ऐसी स्थितियों में उनकी नज़रें मुझ पर टिकीं थीं और वह कहीं भीतर से आशान्वित भी थे कि उनका बेटा इस विकट स्थिति में उनका सहारा बनेगा और उनके कंधों पर पड़े बोझ को कुछ हल्का करेगा। मैं उनकी आँखों में तैरती अपने प्रति उम्मीद की किरणों को ना-उम्मीदी के अंधेरों में तब्दील नहीं होने देना चाहता था। इसीलिए मैं उस समय किसी भी तरह की छोटी-मोटी नौकरी के लिए तैयार था। लेकिन, नौकरी पाना इतना आसान नहीं था। बेकारी के मरुस्थल में भटकते हुए मुझे एक साल से भी ऊपर का समय होने जा रहा था, पर कहीं से भी उम्मीद की हल्की-सी भी किरण दूर-दूर तक नज़र न आती थी।
मेरे सामने जो बड़ी दिक्कत थी, वह यह कि घर पर कोई अखबार नहीं आता था। पड़ोस में मैं किसी के घर बैठकर अखबार पढ़ना नहीं चाहता था। दरअसल, मैं हर उस सवाल से बचना चाहता था जिसे हर कोई मुझे देखकर मेरी तरफ उछाल देता था, “क्यों ? कहीं लगे या अभी यूँ ही...” इस सवाल का नकारात्मक उत्तर देते हुए मुझमें हीनता का बोध पैदा हो जाता और मुझे लगता, मैं एक बेकार, आवारा, फालतू, निकम्मा लड़का हूँ जिसे अपने बुढ़ाते बाप पर ज़रा भी तरस नहीं आता... उस जैसे लड़के तो ऐसी स्थिति में माँ-बाप का सहारा बनते हैं और एक मैं हूँ कि...
अखबार के लिए मैं सुबह नौ-दस बजे तक घर से निकल पड़ता। दो-एक किलोमीटर पर बने पनवाड़ी के खोखों पर पहुँच हिचकते हुए अखबार उठाता। एक पर हिन्दी का अखबार देखता तो दूसरे पर अंग्रेजी का। अखबार कोई दूसरा पढ़ रहा होता तो मुझे इंतजार भी करना पड़ता। अखबार में से ‘सिच्युएशन वेकेंट’ के कालम देखता, कागज पर नोट करता और पोस्ट आफिस जाकर एप्लीकेशन पोस्ट करता।
ठीक इन्हीं दिनों पिता का परिचय राधेश्याम से हुआ था। राधेश्याम एक ठेकेदार था जो सरकारी, गैर-सरकारी कारखानों से तरह-तरह के ठेके लिया करता था। सन् 47 के विभाजन में पिता लाहौर के जिस गाँव से अपना सबकुछ गवां कर भारत आए थे, राधेश्याम भी उसी के आस-पास के इलाके का था। यही कारण था कि पिता उसमें दिलचस्पी लेने लगे थे और एक दिन राधेश्याम को अपने घर पर ले आये थे। जीप जब हमारे सरकारी क्वार्टर के बाहर आकर रुकी तो वह मौहल्ले के बच्चों के लिए कौतुहल का विषय थी। आस-पड़ोस वालों के लिए आँखें फाड़कर देखने की चीज– खैरातीलाल और उसके घर के बाहर जीप !
पिता ने राधेश्याम से अपने बच्चों का परिचय कराया था, “ये हैं मेरी दोनों लड़कियाँ– विमला और शान्ता। और यह है मेरा बेटा सुशील... अभी पिछले साल इण्टर किया है, सेकेण्ड डिवीजन में।”
राधेश्याम ने बन्द गले का कोट पहन रखा था। गले में मफलर, सर पर रोयेंदार टोपी। कुल मिलाकर वह हमारे लिए आकर्षण का केन्द्र था। पिता ने सुनाते हुए, खासकर मुझे और माँ को, कहा था, “अरे, इनकी बहुत-सी फैक्टरियों में जान-पहचान है। ठेकेदारी का कारोबार है इनका। लाहौर में जिस गाँव में हम लोग रहते थे, उसके पास के ही गाँव में थे इनके पिताजी। यानी राधेश्याम अपनी ही बिरादरी का आदमी है, पिता यह कहना चाहते थे। इसके बाद जैसा कि प्राय: होता, पिता उन दिनों की यादें ताजा करने लगे थे। सन् 47 के विभाजन के दहशतजदा किस्से सुनाने लगे थे कि कैसे वे लोग अपनी सारी जमीन-जायदाद, रुपया-पैसा, मकान आदि छोड़-छाड़कर कटी हुई लाशों के ढेरों में छिपते, धूँ-धूँ कर जलते मौहल्लों, गलियों में से डर-डरकर भागते-निकलते, प्यास लगने पर छप्पड़ों(पोखरों) का गन्दा पानी पीते, जान बचाते किसी तरह हिन्दुस्तान में घुसे थे। उनका अन्दाजेबयां ऐसा होता कि हमारे रोंगटे खड़े हो जाते।
दूसरी बार जब राधेश्याम घर आया तो पिता ने अपने मन की बात कह दी, “आपकी तो इतनी जान-पहचान है जी... कहीं किसी फैक्टरी में अड़ा दो न हमारे सुशील को... इंटर पास है।”
“हाँ-हाँ, करुँगा मैं बात... आप चिन्ता न करें,” राधेश्याम ने दिलासा देते हुए कहा, “अरे अपनों को नहीं लगवाएंगे तो किसे लगवाएंगे। आप फिक्र न करें जी, जहाँ कहोगे लगवा दूँगा।”
बस, फिर क्या था। पिता की दिलचस्पी राधेश्याम में बढ़ गई। जिस दिन उन्हें मालूम होता, वह फैक्टरी आया है, वह उसे जबरदस्ती अपने साथ घर ले आते।
इस प्रकार, राधेश्याम का आना-जाना हमारे घर में बढ़ने लगा था। अब वह जब कभी फैक्टरी आता, सीधा हमारे घर पहुँचता, चाहे पिता घर पर होते या न होते।
पिता की अनुपस्थिति में राधेश्याम जब भी हमारे घर में घुसता, पूरे घर में चहल-पहल शुरू हो जाती। घर में तेल-घी न होने पर पड़ोस से मांग-तूंग कर प्याज की पकौडि़याँ तली जातीं... चाय के कप उठाकर राधेश्याम को पकड़ाने के लिए दोनों बहनों के बीच होड़ लग जाती... माँ राधेश्याम से ‘अपना ही घर समझो’ कहती रहतीं... खाने का वक्त होता तो जबरन खाना खिलाया जाता। वह उठकर जाने लगता तो बहनें उससे थोड़ी देर और रुकने का इसरार करने लगतीं, “पिताजी आ जाएं तो चले जाइएगा।” और राधेश्याम कई-कई घंटे हमारे यहाँ बिताकर लौटने लगा।

इस बीच, कई महीने बीत गए। राधेश्याम हमारे यहाँ आता, ठहरता, गप्प-शप्प करता और खा-पीकर चला जाता। वह आता तो बहनों के चेहरे खिल उठते और जाता तो उन्हीं चेहरों पर उदासी के रंग पुत जाते। पिता उससे बहुत उम्मीद लगाए बैठे थे। हर रोज वह सोचते, आज वह आएगा और कहेगा, ‘मैंने सुशील के बारे में फलाँ फैक्टरी में बात कर ली है, कल से उसे भेज दो...’ पर होता इसके उलट। राधेश्याम आता, इधर-उधर की बातें करता, हँसता-हँसाता, खा-पीकर चलता बनता। जितनी देर वह घर पर रुकता, पिता की आँखें और कान उसी की ओर लगे रहते।
पिता की बेसब्री का बांध अब टूट रहा था। आखिर, उन्होंने हिम्मत कर एक बार फिर राधेश्याम से मेरे बारे में बात की। वह जैसे सोते से जागा था, “अरे, मैं तो भूल ही गया। आपने भी कहाँ याद दिलाया।” राधेश्याम कुछ सोचते हुए बोला, “आप फिक्र न करें जी... अब आपने याद दिलाया है तो इसे कहीं-न-कहीं ज़रूर अड़ा दूँगा।”
इसके बाद उसने खाना खाया और चला गया।
पिता इतने भर से फूलकर गुब्बारा हो गए थे। काफी देर तक वह हमारे सामने उसका गुणगाण करते रहे।
और फिर, पूरा एक महीना राधेश्याम दिखाई नहीं दिया।

एक दिन दोपहर के समय हमारे क्वार्टर के बाहर जीप आकर रुकी। शान्ता दौड़कर बाहर निकली। देखा, राधेश्याम था। उसके हाथ में एक पैकेट था जिसे लेकर शान्ता झूमती हुई भीतर दौड़ गई थी।
“क्या है ?” मेरे प्रश्न को उसने अनसुना कर दिया था। अब वह पैकेट विमला के हाथ में था। विमला के चेहरे पर भी खुशी के भाव तैर आए थे। मैं चीख-सा उठा, “क्या है इसमें ?”
“तुम्हें क्या ?... कुछ भी हो। अंकल हमारे लिए लेकर आए हैं तो तुम्हें क्यों जलन होती है ?...” शान्ता ने पलटकर मेरी चीख का जवाब दिया। मुझे उससे ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। आज तक वह मुझसे ऊँची आवाज में नहीं बोली थी। मैं कुछ और कहता कि बीच में माँ आ गई, “अरे कुछ नहीं है। दोनों की साडि़याँ है इसमें। मैंने मंगवाई थीं।”
अब तक चुप बैठा राधेश्याम एकाएक हँसते हुए बोला, “अहमदाबाद गया था। लौटते वक्त सोचा लेता जाऊँ... सस्ती हैं।” फिर मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोला, “तुम्हारे लिए भी पेंट-शर्ट देखी थी, पर सोचा, मालूम नहीं तुम्हें कौन-सा रंग पसंद है। इसलिए नहीं ला सका। अबकी बार जाऊँगा तो पूछकर जाऊँगा।”
शाम छह बजे तक वह हमारे घर पर रहा। अहमदाबाद की बातें बताता रहा। माँ और बहनें तन्मय होकर उसकी बातें सुनती रहीं। पिता के फैक्टरी से लौटने का वक्त हुआ तो राधेश्याम उठकर जाने लगा। माँ ने कहा, “उनके आने का वक्त हुआ तो आप जा रहे हैं... इतने दिनों बाद आए हैं, उसने मिलकर ही जाते।”
राधेश्याम को रुकना पड़ा। कुछ ही देर बाद पिता आ गए। वह तपाक से उनसे मिला और उनके कुछ बोलने से पहले ही अपने अहमदाबाद चले जाने की बातें करने लगा। पिता चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे। कुछ बोले नहीं। बहनें उठकर पहले ही दूसरे कमरे में चली गई थीं और माँ रसोई में चाय का पानी चढ़ाने लगी थी। कुछेक क्षणों तक कमरे में चुप्पियों का बोलबाला रहा। एकाएक, राधेश्याम ने मुँह खोला, “अगले हफ्ते फिरोजाबाद-आगरा जा रहा हूँ... वहाँ की कई फैक्टरियों में मुझे काम हैं। सुशील के लिए बात करुँगा।”
पिता अभी भी चुप थे। वह सुन रहे थे बस।
“सुशील को साथ लेता जाऊँगा। आमने-सामने बात हो जाएगी।” राधेश्याम मेरी ओर देखकर बोला, “कभी आगरा गए हो ?...ताज देखने की चीज है... इस बहाने तुम उसे भी देख लेना।... अँ...।”
मेरे मन में ताजमहल देखने की इच्छा पिछले कई सालों से थी। कालेज की ओर से एक टूर गया था, छात्र-छात्राओं का। सबने सौ-सौ रुपये मिलाये थे। मैं सौ रुपयों के कारण न जा सका था।
“इधर ही कहीं देखते तो अच्छा रहता।... इतनी दूर...।” पिता के मुँह से काफी देर बाद बोल फूटे थे। लगता था, जबरन आवाज को भीतर से बाहर धकेलने की कोशिश कर रहे हों।
“अरे भाई साहब... एक-दो साल उधर कर लेगा। कुछ एक्सपीरियेंस हो जाएगा तो इधर किसी अच्छी फैक्टरी में लगवा दूँगा। आप फिक्र क्यूँ करते हैं ?...”

उस दिन मैं बहुत खुश था। एक दिन पहले ही मैंने अपनी इकलौती पेंट-शर्ट धोकर, प्रेस कराकर रख ली थी। और दिनों की अपेक्षा उस दिन मैं सुबह जल्दी उठ गया था और नहा-धोकर तैयार होकर बैठा था।
पिता के फैक्टरी चले जाने के तुरन्त बाद राधेश्याम पहुँचा था। कुछ देर बैठने के बाद उसने आवाज़ लगाई, “अरे भई, तुम लोग जल्दी तैयार होओ... नहीं तो लौटने में देर हो जाएगी।”
मैं तैयार था और राधेश्याम मुझे देख चुका था। लेकिन उसका ‘तुम लोग’ मुझे हैरान करने लगा। थोड़ी ही देर में सारी स्थिति साफ हो गई। शान्ता और विमला तैयार होकर बाहर निकल आई थीं।
मेरा सारा उत्साह एकाएक ठंडा पड़ गया। मेरी इच्छा कपड़े उतारकर फेंक देने की हुई। बहनों की हँसी मुझे अन्दर तक चुभ रही थी। राधेश्याम की चालाकी पर मुझे गुस्सा आ रहा था। मेरी और पिता की अनुपस्थिति में राधेश्याम और बहनों के बीच ज़रूर कोई खिचड़ी पकती है। मुझे नौकरी दिलाने नहीं, इस बहाने विमला और शान्ता के साथ मौज-मस्ती के उद्देश्य से जा रहा था वह।
“कोई नहीं जाएगा... न मैं, न शान्ता, न विमला।” मैं चीखकर कहना चाहता था, पर चीख मेरे अन्दर ही तड़फड़ा कर दम तोड़ गई।
माँ को भी शायद इस बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। दोनों लड़कियों को तैयार हुआ देख, उसने पूछा, “तुम दोनों कहाँ चलीं तैयार होकर !”
राधेश्याम उठकर आगे बढ़ आया, बोला, “बच्चियाँ है, ताज देखने की उत्सुकता होना स्वाभाविक है बच्चों में। इस बहाने सुशील के संग ये भी घूम लेंगी आगरा... कहाँ रोज-रोज जाना होता है।”
“वो तो ठीक है पर, इनसे पूछे बिना मैं कैसे लड़कियों को भेज सकती हूँ।... ये फिर कभी चली जाएंगी। अभी तो आप सुशील की नौकरी के लिए जा रहे हैं। जाने कहाँ-कहाँ, किन-किन फैक्टरियों में जाना-रुकना पड़ेगा आपको... आप सुशील को ही ले जाएँ।”
माँ की बात पर राधेश्याम भीतर-ही-भीतर मन मसोस कर रह गया था। ऐसा उसके चेहरे से लग रहा था। बहनों के चेहरे लटक गए थे। लटके हुए चेहरे लिए वे पैर पटकती हुई अन्दर दौड़ गई थीं। क्षणभर को गमी जैसा वातावरण बन गया था। राधेश्याम चुप था। माँ दुविधा में थी। मैं खुश भी था और नहीं भी।
“चलो...” राधेश्याम ने मेरी ओर देखकर कहा और जीप में जा बैठा। जीप स्टार्ट हो चुकी थी लेकिन मैं अभी भी माँ के पास असमंजस की स्थिति में खड़ा था। माँ ने पल्लू में बंधे सौ रुपये मुझे थमाए और कहा, “रख ले। ज़रूरत पड़ जाती है कभी-कभी।”
मैं चुपचाप जाकर जीप में बैठ गया। मेरे बैठते ही जीप झटके से आगे बढ़ गई।

दोपहर का समय था जब फिरोजाबाद की एक फैक्टरी में हमारी जीप घुसी। पूरे रास्ते न राधेश्याम मुझसे बोला था, न मैं राधेश्याम से। जीप से उतरकर वह सीधे फैक्टरी में जा घुसा था। मैं वहीं जीप में बैठा रहा। कोई एक घंटे के बाद वह फैक्टरी से निकला। मुझे अब कुछ-कुछ भूख व प्यास लग आई थी।
जीप अब फिर सड़क पर दौड़ रही थी। आधे घंटे के सफ़र के बाद जीप फिर एक फैक्टरी के बाहर रुकी। मुझे उतरने का इशारा हुआ। मैं उतरकर राधेश्याम के पीछे हो लिया। रिसेप्शन पर मुझे बिठा, वह फैक्टरी में घुस गया। बीस-पच्चीस मिनट बाद राधेश्याम लौटा तो बेहद खुश नज़र आ रहा था। मैंने सोचा, नौकरी की बात पक्की हो गई लगती है शायद। रिसेप्शन पर बैठे एक आदमी से उसने हँस-हँसकर बातें कीं और फिर उसे लेकर फैक्टरी के बाहर बने खोखे पर चाय पीने लगा। रिसेप्शन के शीशे के दरवाजों के पार मैं उन्हें चाय पीता देखता रहा। दोनों को चाय पीते देख मेरी भूख व प्यास एकाएक तेज हो उठी थी।
वहाँ से निकलने के बाद जीप फिर दौड़ रही थी– सड़क पर। राधेश्याम अब कोई फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मस्ती में जीप चला रहा था। एकाएक बोला, “मालूम है, अभी हम जिस फैक्टरी में गए थे, उस फैक्टरी से मुझे नेट डेढ़ लाख का मुनाफा होने जा रहा है... यह मेरा अब तक का सबसे बड़ा ठेका होगा।” उसके चेहरे पर रौनक थी। वह किसी फिल्मी हीरो की तरह जीप चला रहा था। झूमता... गाता... सीटी बजाता।
“सरकार से हवाई जहाजों में इस्तेमाल होने वाली काँच की छोटी चिमनियों का ठेका मिला है– एक लाख चिमनियों का। यह फैक्टरी बनाने को तैयार हो गई है। प्रति चिमनी फैक्टरी का ढाई रुपया खर्च होगा। सोढ़े तीन में मुझे देगी। मैं उसे सरकार को पाँच में दूँगा। यानी एक लाख चिमनियों पर नेट डेढ़ लाख का लाभ !”
उसकी खुशी का कारण अब मुझसे छुपा नहीं था। उसकी खुशी के पीछे मेरी नौकरी आदि की कोई बात नहीं थी। यह तो उसके ठेके में हो रहे मुनाफे की बात थी। मेरी नौकरी की बाबत उसने कोई बात भी की होगी, इसमें मुझे सन्देह हो रहा था।
राधेश्याम के अनुसार अब हम आगरा के बहुत नज़दीक चल रहे थे। इससे पूर्व रास्ते में एक छोटी फैक्टरी में राधेश्याम ने मेरी नौकरी की बात की थी। मैनेजर ने फिलहाल कोई वेकेंसी नहीं होने पर खेद प्रकट किया था। साथ ही, भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर बुलाने का आश्वासन देते हुए मेरे पर्टीकुलर्स आदि रख लिए थे।

हमारी जीप एक बार फिर एक फैक्टरी के बाहर रुकी। इस बार राधेश्याम भीतर घुसा तो दो घंटों से भी अधिक समय लगाकर बाहर निकला। जीप में बैठे-बैठे उसका इन्तज़ार करते मैं तंग आ गया था। इस बीच मैंने फैक्टरी के बाहर बने हैंड पम्प से पानी पिया था और वक्त काटने के लिए इधर-उधर चहल-कदमी करता रहा था। पानी पीने के बाद मेरी भूख तेज हो उठी थी। सुबह हल्का-सा नाश्ता करके ही चला था मैं। पास ही ढाबेनुमा एक दुकान थी। सोचा, राधेश्याम के बाहर निकलने से पहले कुछ खा लूँ। पैसे तो थे ही मेरे पास। मगर तुरन्त ही जाने क्या सोचकर मैंने अपने इस विचार को झटक दिया। दरअसल, मैं भीतर से भयभीत था कि कहीं राधेश्याम बाहर न निकल आए और मुझे खाता हुआ न देख ले।
मैं जीप में बैठ गया और अपना ध्यान इधर-उधर उलझाने लगा। लेकिन यह सिलसिला अधिक देर न चला। भूख के मारे मेरे सिर में हल्का-हल्का दर्द शुरू हो चुका था। तभी राधेश्याम बाहर निकला। शाम के साढ़े चार का वक्त हो रहा था तब। जीप में बैठते हुए राधेश्याम बोला, “इस फैक्टरी का मैनेजर बाहर गया है, होता तो तुम्हारी बात पक्की थी। अपना यार है, साथ-साथ पढ़े हैं हम।”
जीप स्टार्ट कर वह बोला, “तुम्हें ताज दिखा दें, फिर लौटते हैं। बहुत देर हो जाएगी नहीं तो। रात ग्यारह से पहले नहीं पहुँच पाएंगे।”
मैं चुप था। ताज देखने की इच्छा ने थोड़ी देर के लिए मेरी भूख को कम कर दिया था। कुछ किलोमीटर चलने पर ही ताज दिखने लगा था। राधेश्याम बोला, “वो देखो... ताज। कितना सुंदर लगता है। दूर से ऐसा लगता है जैसे कोई खूबसूरत सफेद परिन्दा आकाश में उड़ने को तैयार बैठा हो।... है न ?”
मैं उत्सुकता भरी नज़रों से ताज देखने लगा।
“देख लिया, अब यहीं से लौट चलें।... क्यों ?” राधेश्याम जीप धीमी करता हुआ बोला। मुझे लगा, मेरी सारी उत्सुकता का किसी ने जैसे हाथ बढ़ाकर बेरहमी से गला घोंट दिया हो।
“फिर कभी आएंगे।... सभी... तो देखेंगे करीब से। ग्रुप में देखने में कुछ और ही मजा है।...” जीप रुक गई थी। राधेश्याम की आँखें मेरे चेहरे पर स्थिर थीं। शायद वह मेरी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश कर रहा था।
“नहीं, मैं तो आज ही ताज देखकर जाऊँगा।... इतने नज़दीक पहुँचकर मैं बिना देखे नहीं जाऊँगा।” मैं हैरान था, मेरे गले से यह सब कैसे निकला। मेरा चेहरा तना हुआ था। आँखें अभी भी ताज को देख रही थीं। राधेश्याम ने बिना कुछ बोले जीप सड़क पर दौड़ानी आरंभ कर दी थी।
कोई आधे घंटे बाद हम ताज के पास थे। जीप पार्क कर राधेश्याम बोला, “मैं यहीं ठहरता हूँ। तुम आधे घंटे में देखदाख कर आओ। मैं यहीं पर मिलूँगा। ठीक !”
मैं अपनी अंतडि़यों में तेजी से छुरी की तरह कुछ घुमड़ता हुआ महसूस कर रहा था अब। भूख और सिरदर्द की वजह से खूबसूरत दीखने वाला ताज अब मुझे कतई अच्छा नहीं लग रहा था। अनमने भाव से मैं ताज की ओर बढ़ा। दूर से खूबसूरत सफेद परिन्दे-सा दीखने वाला ताज मुझे अब किसी विशाल सफेद दैत्य-सा लग रहा था। उसकी चारों मीनारें मुझे लम्बी-लम्बी बांहों के समान लग रही थीं। एक औरत की लाश को अपन चंगुल में फँसाये दैत्य हँस रहा था।
लगता था, सिर की नसें फट पड़ेंगी। पेट की अंतडि़यों में ऐंठन हो रही थी। मैं इस दैत्य के साये से खुद को जल्द ही बाहर निकाल लाया।
बाहर निकलकर देखा, राधेश्याम कहीं नहीं था। जीप भी खाली थी। लोगों के आते-जाते हुजूम में मैं राधेश्याम को ढूँढ़ता रहा था, कुछ देर तक। भूख और सिरदर्द के कारण मुझे चक्कर आ रहा था। लगता था, किसी भी क्षण गिर पड़ूँगा।
एकाएक, मुझे सामने कुछ ही दूर पर बने रेस्तरां के बाहर बिछी एक बेंच पर राधेश्याम पूरियाँ खाता दिखाई दे गया। वह जल्दी-जल्दी मुँह चला रहा था। ठीक इसी क्षण मैंने अपने भीतर, ऊपर से नीचे चीरती जाती तेजाब की एक धार को महसूस किया। मैं अधिक देर वहाँ खड़ा न रह सका।
वहाँ से हटकर मैंने तुरन्त बस-स्टैण्ड के लिए रिक्शा किया। घर पहुँचने के लिए माँ के दिए हुए सौ रुपये मुझे काफी लग रहे थे।
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[आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ” तथा भावना प्रकाशन, पटपड़गंज, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” में संग्रहित]

शनिवार, 24 मई 2008

कहानी-3

अन्तत:

सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र
उसके चेहरे पर भय की रेखाएं खिंच आई थीं और वह हाँफ रहा था। बेतहाशा भागते हुए उसने यह देखने-जानने की कोशिश नहीं की थी कि वह कहाँ और किस रास्ते पर दौड़ रहा है। जहाँ, जिस तरफ रास्ता मिला, वह उसी ओर दौड़ता रहा...दौड़ता रहा और अब आगे गली बन्द थी।

उसने तेजी से इधर-उधर देखा और वहीं कहीं छिपने की जगह तलाश करने लगा। जल्द ही, उसकी निगाह गली के आखिरी मकान पर पड़ी। वह भीतर घुसा। गर्मियों की दोपहरी का सन्नाटा मकान के अहाते में पसरा हुआ था। अहाते के बायीं ओर की दीवार से सटकर मुर्गियों का दड़बा था। उसी से लगकर कुछ आड़-कबाड़ रखा हुआ था। इसी आड़-कबाड़ में दो टीन की पुरानी चादरें दीवार से इस तरह सटाकर रखी हुई थीं कि दीवार और उनके बीच कुछ जगह बन गई थी। उसने अब आगे कुछ नहीं सोचा और तेजी से वह उसी में छिपकर बैठ गया– दम साधे !
कुछेक पल ही बीते होंगे कि बाहर हल्का-सा शोर होता सुनाई दिया। शोर धीरे-धीरे करीब और तेज होता गया।
“कहाँ गया साला...”
“इधर नहीं आया शायद।"
“नहीं, इधर ही देखा था भागते...”
स्वर झल्लाये और खीझे हुए थे। शोर सुनकर उसकी आँखें खुद-ब-खुद मुंद गईं और वह मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा।
काफी देर बाद उसने महसूस किया कि वे लोग चले गए हैं। फिर भी, अभी बाहर निकलना उसे खतरनाक लगा। वह कुछ देर और वहीं दुबक कर बैठा रहा।
कुछ पल बाद ही उसने वहाँ से निकलना बेहतर समझा, क्योंकि यहाँ भी अधिक देर बैठना खतरे से खाली नहीं था। घर के अंदर से किसी के निकल कर इधर ही आ जाने का डर था। हो सकता था, उसे यूँ छिपा हुआ देख वह चिल्ला उठे या पूछताछ आरंभ कर दे।
वह वहाँ से उठकर बाहर निकल आया– गली में। गली सुनसान पड़ी थी। वह बहुत चौकन्ना होकर आगे बढ़ने लगा। हर मोड़ से पहले वह रुकता, स्थिति का जायजा लेता और इत्मीनान हो जाने पर तेजी से मुड़ जाता।

अब वह सड़क पर था।
दूर–दूर तक वे कहीं नहीं दिख रहे थे। वे लोग जो उसके पीछे भागे थे। उसने महसूस किया कि उसकी साँसें अभी भी तेज-तेज चल रही थीं और सीने में धुकधुकी मची थी।
वह तेज कदमों के साथ मुखर्जी रोड पर हो लिया।
यह उसका पहला अवसर था। इससे पहले उसने ऐसा कभी नहीं किया था। घर से निकला था, दूबे जी के स्कूल गया था। वहाँ से बस-स्टॉप तक उसके दिमाग में यह कतई नहीं था कि वह ऐसा करेगा ! करना तो दूर, इसकी कल्पना तक नहीं की थी उसने। यह सब कैसे, किस प्रेरणा से अकस्मात् हुआ, वह खुद अचम्भित था।
किसी से मालूम हुआ था कि गली नम्बर दो के दूबे जी ने एक छोटा-सा स्कूल खोला है। उन्हें एक मास्टर की तत्काल ज़रूरत है। ‘समथिंग इज बेटर दैन नथिंग’ वाली बात सोचकर वह आज सुबह-सुबह ही दूबे जी से उनके स्कूल में मिला था। जब वह पहुँचा, दूबे जी खुद ही बच्चों को पढ़ा रहे थे। कोई पचास-साठ बच्चे थे।
“हाँ, ज़रूरत तो है भई, एक मास्टर की।" दूबे जी ने उसे बैठने के लिए कहकर अपने चश्मे का शीशा साफ करते हुए कहा, “पर छह सौ रुपये से अधिक नहीं देते हम।“
चशमा आँखों पर चढ़ाकर दूबे जी ने उसकी ओर एकटक देखा और फिर पहचानते हुए-से बोले, “तुम... तुम रामप्रकाश जी के बड़े लड़के तो नहीं ?”
“जी...” उसके मुँह से बस इतना ही निकला।
“बड़े नेक आदमी हैं। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता हूँ।" दूबे जी अब तक अपनी कुर्सी पर बैठ चुके थे।
उसे लगा, उसका काम बन जाएगा। कुछ न होने से तो छह सौ रुपये ही ठीक। घर से अधिक दूर नहीं है स्कूल कि आने जाने में किराया खर्च होगा, पैदल ही आना-जाना हो जाएगा। और फिर कौन-सा हमेशा यहीं पढ़ाते रहना है। अच्छी नौकरी मिलते ही इसे छोड़ देगा।
दूबे जी कुछ सोचते हुए-से बोले, “कम्मो तुम्हारी ही बहिन है ?”
“जी।“ इस प्रश्न पर वह थोड़ा चौंका।
“बड़ी अच्छी लड़की है।" दूबे जी ने तारीफ की। वह चुपचाप सुनता भर रहा। एकाएक, दूबे जी बोले, “ऐसा क्यों नहीं करते, तुम कम्मो से कहो, वह बच्चों को पढ़ा दिया करेगी। वैसे भी वह घर में खाली पड़ी रहती होगी। समय भी कट जाया करेगा और कुछ आर्थिक मदद भी हो जाया करेगी, घर की।"
उसने सामने बैठे दूबे जी की आँखों में झांका। आँखों से परे उनके दिल में झांका। वहाँ एक स्वार्थी, लोभी, कामुक व्यक्ति दिखाई दे रहा था। कम्मो हाई-स्कूल पास थी। वह भी थर्ड-डिवीजन से और वह ग्रेजूएट था– थ्रू आउट फर्स्ट क्लास ! पर कम्मो लड़की थी और वह लड़का।
“तुम तो ब्रिलियेंट लड़के हो। थ्रू आउट फर्स्ट क्लास रहे हो। कहीं न कहीं तो जॉब मिल ही जाएगा। यहाँ मेरे स्कूल में छह सौ रुपल्ली की नौकरी कर क्यों अपना केरियर खराब करते हो...।" दूबे जी ने समझाने के अन्दाज में कहा। सहसा, वह आगे की ओर झुक आए और धीमी आवाज में बोले, “तुम... तुम कहो तो कम्मो को सात सौ दे दिया करुँगा।"
उस लगा, उसके अंदर कुछ खोलने लगा है। उसने एक बार मेज पर रखे पेपरवेट की ओर देखा और फिर दूबे जी की खोपड़ी की ओर। दूबे जी अभी भी उसकी ओर नज़रें गड़ाये थे।
वह कुछ कर पाता, इससे पहले ही वह वहाँ से उठकर बाहर आ गया। बाहर आकर उसने पिच्च् से थूका। थूकते वक्त उसे लगा, उसने ज़मीन पर नहीं मानो दूबे के चेहरे पर थूका हो।

बस-स्टॉप पर खड़ा वह अपने घर की दिन-प्रतिदिन दयनीय होती जाती स्थिति के विषय में सोच रहा था। अपनी बेकारी के बारे में सोच रहा था। दो वर्षों से वह निरन्तर सड़कें नाप रहा है। कई जगह एप्लाई किया। कई जगहों पर इंटरव्यू भी दिया। पर उसकी किस्मत के बन्द दरवाजे खुलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कहीं सोर्स तो कहीं रिश्वत आड़े आ जाती।

अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है...
शाहर की मशहूर गुप्ता एंड कम्पनी में क्लर्क की जगह खाली थी। उसने वहाँ खुद जाकर दरख्वास्त लगाई। दरख्वास्त लेने वाले व्यक्ति जिसे बार-बार अपनी नाक के बाल नोंचने की आदत थी, ने सवाल फेंका था– “कहीं काम किया है ?” जिसका जवाब था– “नहीं।" दूसरा सवाल जैसे पहले से ही तैयार था, “किसी की सोर्स है?” इसका भी जवाब था– “नहीं।" एक ही तरह के जवाब पाकर वह बौखला गया, “फिर यहाँ क्या करने आए हो? बेकार है बेकार...जाओ कहीं ओर जाओ...।"
उसने उस व्यक्ति को अपने सभी प्रमाणपत्र दिखाते हुए कुछ कहने की कोशिश की। लेकिन, वह व्यक्ति झल्ला उठा और उसके सभी प्रमाणपत्रों को एक ओर करते हुए लगभग चीखा, “अरे भई, जानता हूँ, तुम ग्रेजूएट हो... थू्र आउट फर्स्ट क्लास रहे हो... बी.ए. आनर्स में किया है्…यही न ! पर आजकल इनको कौन पूछता है। भले ही तुम यहाँ एप्लाई करो, पर रखा तो वही जाएगा, जिसकी सोर्स होगी या जो... जो...” कहते-कहते वह रुक-सा गया और फिर अपनी नाक के बाल नोंचने लगा।
कुछेक पल इधर-उधर देखने के बाद वह बोला, “जो... जो जेब गरम करने की हैसियत रखता हो। यहाँ तो यही होता है भई। होता आया है, और होता रहेगा। यहाँ क्या, सभी जगह होता है। समझे न !”
और फिर वह अपने काम में जुट गया। वह थोड़ी देर तक उस व्यक्ति के पास खड़ा-खड़ा सोचता रहा। आखिर, उसने धीमे से पूछ ही लिया, “भाई साहब, यह जेब कितने तक में गरम हो जाती है।"
उस व्यक्ति ने एकबारगी उसे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर आहिस्ता से बोला, “ढाई हजार रुपये की नौकरी है, है न ? इससे दुगने से कम में क्या जेब गरम होगी। और फिर, एक ही की जेब में तो जाता नहीं, बंटता है सब। समझे न !”
इतने रुपयों के इंतजाम की बाबत पिता से कहना फिजूल था। वह उनकी प्रतिक्रिया से बखूबी वाकिफ़ था। पिता वही संवाद जोर-जोर से चिल्लाने लगेंगे जिसे सुनते-सुनते उसके कान पकने लगे हैं, “कहाँ से लाऊँ इतने रुपये ?... खुद को बेच दूँ या डाका डालूँ ?... चोरी करुँ ?...” चीखते समय उनके मुँह से झाग निकलने लगेगा और नथुने फूलने लगेंगे।
पिता की ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है। वह तीन-तीन जवान होती लड़कियों का बाप भी है। बड़ी की शादी के लिए फंड के पैसे के अलावा और कोई पैसा उसके पास नहीं है। पत्नी है, जो सदैव बीमार रहती है और जिसकी दवा-दारू के लिए हर महीने काफी पैसा डाक्टर को चला जाता है। बेटे को जैसे-तैसे पेट काटकर पढ़ाया है। वह खुद देख रहा है, पिता दिन-रात परिवार की चिन्ता में कमजोर होते जा रहे हैं। अपनी सामर्थ्य में जितना होता है, करते हैं। घर की हालत बद से बदतर होती जा रही है। समय से पहले ही राशन-पानी खत्म हो जाता है। और महीने के आखिरी दिनों में तो फाकों की-सी स्थिति रहती है।
वह खुद चाहता था कि उसे छोटी-मोटी ही नौकरी मिल जाए जिससे घर का छुट-पुट खर्च वह सम्भाल ले। पर उसे लगता है, दूर-दूर तक फैला बेकारी का मरुस्थल कभी खत्म नहीं होगा शायद।

बस-स्टॉप पर खड़े-खड़े वह यही सब सोच रहा था। सहसा, उसने अपने पास वाले व्यक्ति की ओर देखा। वह व्यक्ति जेब में से बटुआ निकालकर छुट्टे पैसे निकाल रहा था। बटुए में सौ और पाँच सौ के नोट थे। कितने होंगे, पता नहीं। नोटों को देखते ही उसे ढाई हजार रुपये की नौकरी याद हो आई। फिर, घर की दयनीय हालत...जवान बहनें...अपनी बेकारी...बीमार माँ... असहाय पिता... और... तभी बस आ गई। जाने कब और कैसे उसका हाथ भीड़ में बस पर चढ़ रहे उस आदमी की पिछली जेब पर चला गया। बस, फिर एक शोर मचा और वह उस आदमी की गिरफ्त में था। लोगों का हुजूम उस पर टूट पड़ा था। और वह जाने कैसे लोगों की टांगों के बीच से होता हुआ जिधर भी रास्ता मिला, तेजी से उसी ओर दौड़ पड़ा था।
अगर वह पकड़ा जाता... सोचते ही उसे कंपकंपी छूट गई।
चलते-चलते उसने देखा, वह शहर के बीचोंबीच पहुँच गया था। आसपास बड़ी-बड़ी इमारतें थीं। दफ्तर थे। दुकानें थीं।
वह सड़क के चौराहे के बीच बने पॉर्क की ओर बढ़ा और हरी घास पर लेट गया। थोड़ी ही देर बाद उसे नींद आ गई। जब उसकी आँखें खुलीं तो सामने बहुमंजिला इमारत के पीछे सूरज छिपने की तैयारी कर रहा था। वह घास पर से उठकर फर्श पर सीढि़यों से लगकर बैठ गया।
अचानक, उसे याद आया कि आज तो मंगलवार है। उसके जेहन में यह बात तेजी से उभरी कि आज वह ज़रूर बजरंग बली की कृपा से ही पकड़े जाने से बाल-बाल बचा है। जाने कहाँ से एक ताकत उसके शरीर में आ गई थी कि वह स्वयं को मजबूत गिरफ्त से छुड़ाते हुए लोगों की भीड़ को चीरता हुआ बिजली की-सी फुर्ती से दौड़ पड़ा था। उसने मन ही मन बजरंग बली को याद किया। बचपन में माँ के कहने पर वह हनुमान चालीसा का पाठ हर मंगलवार किया करता था। माँ उसे बताती थी कि चालीसा पढ़ने से विप​त्तियाँ भी रास्ता बदल लेती हैं। एकाएक, उसके हाथों में कुछ हरकत हुई। उसने इधर-उधर देखा और लाल ईंट का छोटा-सा टुकड़ा उठाकर फर्श पर बजरंग बली का चित्र बनाने लगा। चित्र बनाते समय उसकी मन:स्थिति किसी प्रार्थनारत् व्यक्ति-सी रही। चित्र बनाने में वह इतना तल्लीन था कि उसे अहसास ही नहीं हुआ कि उसके आस-पास भीड़ जमा होना शुरू हो गई है ! चित्र अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि टन्...टन्... की आवाज हुई और एक सिक्का फर्श पर गिरा। धीरे-धीरे और सिक्के गिरे। चित्र पूरा करके वह वहाँ से उठा और थोड़ा हटकर बैठ गया। उसने देखा, आते-जाते लोग एक क्षण वहाँ रुकते, मन ही मन शायद प्रणाम करते और फिर जेबें टटोलते। ‘टन्...न’ से एक सिक्का फर्श पर फेंकते और आगे बढ़ जाते।

अंधेरा गहराने लगा था और फर्श पर अब काफी सिक्के इकट्ठा हो गए थे। कुछेक पल वह और इंतजार करता रहा। वह चाहता था कि लोग कम हों तो वह उठे। कुछ ही देर बाद उसने देखा, दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था। वह फुर्ती से उठा और आनन-फानन में सारे सिक्के उठाकर पेंट की जेब में डाल लिए। खड़े होकर एकबारगी इधर-उधर देखा और आसपास किसी को न पाकर तेजी के साथ पॉर्क से बाहर निकल सड़क पर हो लिया।
अब सड़क पर ब​त्तियाँ जगमगाने लगी थीं और वह घर की ओर बढ़ रहा था।

[आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ” तथा भावना प्रकाशन, पटपड़गंज, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” में संग्रहित]

शुक्रवार, 16 मई 2008

कहानी-2



आवाज़
सुभाष नीरव

पापा को कहीं बाहर जाना था। कल रात दुकान से लौटकर पापा ने बस इतना ही कहा कि वह सुबह सात बजे वाली ट्रेन पकड़ेंगे और परसों लौटेंगे, कुछ लोगों के साथ। यह सब बोलते समय पापा का स्वर कितना ठंडा था। ऐसा लगा, जैसे कुछ छिपा रहे हों।
सुबह वह पापा से पहले उठ गई। पापा को जगाया और खुद काम में लग गई। पापा अमूमन छह-साढ़े छह बजे तक उठ जाया करते हैं। जब तक वह नहा-धोकर तैयार होते हैं, वह सारा कामकाज निपटा चुकी होती है। पापा आठ बजे तक निकल जाया करते हैं– दुकान के लिए। नौ बजे तक वह भी कालेज के लिए निकल पड़ती है। पिंकी का स्कूल उसके रास्ते में पड़ता है, इसलिए रोज उसे अपने साथ लाती-ले जाती है वह।
आज छुट्टी का दिन है। छुट्टी के दिन वह खुद को बहुत अकेला महसूस करती है। अकेलेपन का अहसास न हो, इसलिए वह खुद को घर के हर छोटे-मोटे काम में जानबूझकर उलझाये रखती है।

पापा के चले जाने के बाद उसने पूरे मन से घर की साफ-सफाई की। खिड़की-दरवाजों के पर्दे धोकर सूखने के लिए डाल दिए। दीवारों पर की धूल को झाड़ा-पोंछा और खिड़कियों के शीशे चमका दिए। और तो और, सीलिंग-फैन को भी साफ कर दिया है और सेल्फ में इधर-उधर बिखरी पड़ी पुस्तकें भी करीने से सजा दी हैं।
कल ‘कुछ लोग’ आ रहे हैं, पापा के साथ। ‘कुछ लोग...’ उसके पूरे शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई यह सोचकर। क्षणांश, उसके तन और मन में गुदगुदी-सी हुई और दूसरे ही क्षण भय और घबराहट। हृदय की धड़कनें बढ गईं।...
कैसे वह उन लोगों के सम्मुख जा पाएगी ? वे क्या-क्या प्रश्न करेंगे उससे ? पहला अवसर है न... वह तो एकदम नर्वस हो जाएगी। मम्मी जीवित होती तो बहुत सहारा मिल जाता। उसकी सहेली सुमन ने ऐसे अवसरों के कितने ही किस्से एकान्त में बैठकर सुनाये हैं उसे। उन किस्सों की याद आते ही उसका दिल घबराने लगता है। कैसे अजीब-अजीब से प्रश्न पूछते हैं ये लोग ! एजूकेशन कहाँ तक ली है ? सब्जेक्ट्स क्या-क्या थे ? यह विषय ही क्यों लिया ? खाना बनाने के अलावा और क्या-क्या जानती हो ? फिल्म देखती हो ? कितनी ? कैसी फिल्में अच्छी लगती हैं ? वगैरह-वगैरह। अच्छा-खासा इंटरव्यू ! उत्तर ‘हाँ’ ‘न’ में नहीं दिया जा सकता। कुछ तो बोलना ही पड़ता है। शायद, मंशा यह रहती हो कि लड़की कहीं गूंगी तो नहीं, हकलाती तो नहीं। लड़की को जानबूझकर इधर-उधर बिठाएंगे-उठाएंगे, उसकी चाल परखेंगे। कहीं पांव दबाकर तो नहीं चलती ? यानी हर तरह से देखने की कोशिश की जाएगी।

कई दिनों से पापा कुछ ज्यादा ही परेशान से नज़र आते हैं। कहते तो कुछ नहीं, पर उनकी चुप्पी जैसे बहुत कुछ कह जाती है। सुबह पापा के कमरे में अधजली सिगरेटों का ढेर देखकर वह हैरत में पड़ जाती है। पहले तो पापा इतनी सिगरेट नहीं पीते थे !... लगता है, पापा रात भर नींद से कश-म-कश करते रहते हैं। रातभर जूझते रहते हैं अपने आप से, अपनी अन्तरंग परेशानियों से।
लेकिन, उसे लेकर अभी से इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है ? भीतर ही भीतर घुटते रहने की क्या आवश्यकता है ? क्या पापा अपनी चिन्ता को, अपनी परेशानियों को उससे शेयर नहीं कर सकते ? वह जवान होने पर क्या इतनी परायी हो गई है ? इस तरह के न जाने कितने प्रश्न उसके अंदर धमाचौकड़ी मचाये रहते हैं आजकल।

पापा ऐसे न थे। कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है, पापा में अब। मम्मी की मौत ने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया है जैसे। कितने हँसमुख थे पहले ! इस घर में कहकहे गूँजते थे उनके ! दुकान पर भी ज्यादा नहीं बैठते थे। जब-तब किसी न किसी बहाने से घर आ जाया करते थे। प्यार से उसे ‘मोटी’ कहा करते थे। मम्मी से अक्सर कहा करते– “देखो, बिलकुल तुम्हारी तरह निकल रही है। जब तुम्हें ब्याहकर लाया था, तुम ठीक ऐसी ही थीं।...”
मम्मी पहले तो लज्जा जातीं, फिर नाराजगी जाहिर करते हुए कहतीं, “यह क्या हर समय मेरी बेटी को ‘मोटी-मोटी’ कहा करते हो ? नाम नहीं ले सकते ?”
मम्मी की याद आते ही उसकी आँखें भीग गईं। कितना चाहती थीं उसे ! जवानी की दहलीज पर पांव रख ही रही थी कि यकायक उसने मम्मी को खो दिया। वह दिन उसे भूल सकता है क्या ?... नहीं, कदापि नहीं। वह दृश्य उसकी आँखों के सामने अब भी तैर जाता है। ज़िन्दगी और मौत के बीच संघर्ष करती मम्मी। मम्मी मरना नहीं चाहती थी और मौत थी कि उन्हें और जिन्दा नहीं रहने देना चाहती थी। ऐसे दर्दनाक क्षणों में मम्मी को उसी की चिन्ता थी। आखिरी सांस लेने से पहले मम्मी ने पापा से कहा था– “देखो, सुमि को अच्छे घर ब्याहना। मेरी परी-सी बेटी का राजकुमार-सा दूल्हा हो।“
पापा ने शायद तब पहली बार महसूस किया होगा कि उनकी बेटी जवान हो रही है। उसके लिए अच्छा-सा वर ढूँढ़ना है। और शायद तभी से पापा की खोज जारी है।

पापा का उदास, चिन्तित चेहरा कभी-कभी उसे भीतर तक रुला देता है। ऐसे में, दौड़कर पापा की छाती से लिपट जाने और यह कहने की इच्छा होती है कि पापा, मैं अभी शादी नहीं करुँगी। अभी तो मैं बहुत छोटी हूँ।... लेकिन, कहाँ कह पाती है यह सब। पापा और उसके बीच, मम्मी की मौत के बाद जो खाई उभर आई है, चुप्पियों से भरी, उसे वह मिटा नहीं पाती। क्या जवान होने का अहसास, बाप-बेटी के बीच इतनी खाइयाँ पैदा कर देता है ! बस, वह सोचती भर रह जाती है यह सब।

“मैं जल्दबाजी में कुछ नहीं करना चाहता।" पापा का अस्फुट-सा स्वर।
“ठीक है, आप अच्छी तरह सोच लें।" बिचौलियानुमा व्यक्ति की आवाज़।
“...”
“पर, निर्णय तो आपको ही करना है, दुनिया का क्या है ?”
दबी-दबी जुबान में होतीं इस प्रकार की बातों के कुछ टुकड़े बगल के कमरे में बैठे हुए या किचन में चाय तैयार करते समय उसके कानों में अक्सर पड़ते रहते हैं। पिछले कुछ महीनों से इन लोगों का आना-जाना बढ़ा है। कौन है ये लोग, वह नहीं जानती।
पिछले कई दिनों से पापा कई बार मौसी और मामा के घर आये-गए हैं। जितनी जल्दी-जल्दी उनके यहाँ आना-जाना हुआ है पिछले दिनों, पहले नहीं होता था। पापा क्यों आजकल बार-बार मौसी और मामा के यहाँ आते-जाते हैं ? आखिर, बेटी का मामला ठहरा। कोई कदम उठाने से पहले वह अपने से बड़ों की राय ले लेना चाहते हैं शायद। लेकिन, यह भी सही है, पापा जब-जब मौसी और मामा के घर से लौटे हैं, ज्यादा ही थके और मायूस-से लौटे हैं।

कभी-कभी वह सोचती है, अभी तो इण्टर ही किया है उसने। घर का सारा कामकाज उसी के कंधों पर है। पिंकी की देखभाल भी उसे ही करनी पड़ती है। मम्मी की मौत के समय तो वह बहुत छोटी थी। वही उसके लिए सब कुछ है– मम्मी भी, दीदी भी। वह चली जाएगी तो कौन करेगा घर का सारा काम ? पापा तो दुकान पर रहते हैं, सारा-सारा दिन। शायद, तब कोई आया रख लें। पर, ऐसे में पिंकी की पढ़ाई, उसकी देखभाल, उसका विकास क्या सही ढंग से हो पाएगा ? क्या सोचकर पापा इतनी जल्दी मचा रहे हैं ? शायद, लड़के वाले जल्दी में हों और पापा को लड़का जँच गया हो।
मन में उठते जाने कितने ही प्रश्नों के उत्तर वह खुद ही गढ़ लेती है और उनसे संतुष्ट भी हो जाती है। लेकिन, जवान होती उम्र के साथ-साथ दिल में उमंगों का ज्वार कभी-कभी इतनी जोरों से ठाठें मारने लगता है कि वह ज़मीन से उठकर आकाश छूने लगती है। अकेले बैठे-बैठे वह सपनों की रंगीन दुनिया में पहुँच जाती है। लड़कियाँ शायद इस उम्र में ऐसे ही स्वप्न देखती हैं। अपने सपनों के राजकुमार की शक्ल आसपास के हर जवान होते लड़के से मिलाती हैं। उनका हर स्वप्न पहले से ज्यादा हसीन और खूबसूरत होता है। आसपास गली-मोहल्ले में कहीं बारात चढ़ेगी तो दौड़कर बारात देखने में आगे रहेंगी। और तो और, घोड़ी पर सवार किसी के सपनों के राजकुमार से अपने-अपने सपनों के राजकुमार की तुलना करेंगी। हर बार उन्हें अपने सपनों का राजकुमार अधिक हसीन नज़र आता है। तन-मन को एक सुख गुदगुदाता हुआ बह जाता है। ऐसा सुख जो न अपने में ज़ज्ब किए बनता है और न ही किसी से व्यक्त किए। ऐसे में, किसी अन्तरंग साथी की, मित्र की, बेइंतहा ज़रूरत महसूस होती है।
आजकल उसके साथ भी तो ठीक ऐसा ही हो रहा है। जब कभी वह तन्हां होती है, स्वयं को ऐसे ही सपनों से घिरा हुआ पाती है। उसे लगता है, वह गली-मोहल्ले की औरतों से, अपनी सखियों से घिरी बैठी है, शरमायी-सी ! हथेलियों पर मेंहदी की ठंडक महसूस हो रही है। ढोलक की आवाज़ के साथ-साथ गीतों के बोल उसके कानों में गूँजते हैं–

बन्ने के सर पे सेहरा ऐसे साजे
जैसे सर पे बांधें ताज, राजे-महाराजे
लाडो ! तेरा बन्ना लाखों में एक
काहे सोच करे...।

और तभी उसे मम्मी की याद आ जाती है। सपनों के महल जादू की तरह गायब हो जाते हैं। उसके इर्द-गिर्द गीत गातीं, चुहलबाजी करती स्त्रियाँ नहीं होतीं, खामोश दीवारें होती हैं। चुप्पियों से भरा कमरा होता है। सामने, ठीक आँखों के सामने, टेबुल पर रखा मम्मी का मुस्कराता चित्र होता है। बेजान ! वह उठकर मम्मी का चित्र अपने सीने से लगा लेती है। भीतर ही भीतर कोई रो रहा होता है उसके। मम्मी के बोल फिर एकबारगी हवा में तैरने लगते हैं– ‘सुमि को अच्छे घर ब्याहना। मेरी परी-सी बेटी का राजकुमार-सा दूल्हा हो।‘

आज पापा को लौटना है। कुछ लोगों के साथ। जाने कब लौट आएं। न पिंकी को स्कूल भेजा है, न ही वह खुद कालेज गई है। पिंकी को और खुद को तैयार करने में जितना अधिक समय उसने आज लगाया, पहले कभी नहीं लगाया। जितनी देर आइने के सामने बैठी रही, खुद के चेहरे में मम्मी का चेहरा ढूँढ़ती रही। साड़ी में कितनी अच्छी लगती है वह ! आज उसने मम्मी की पसन्द की साड़ी पहनी है– हल्के पीले रंग की। साड़ी पहनते समय उसे लगा, जैसे मम्मी उसके आस-पास ही खड़ी हों। जैसे कह रही हों– ‘नज़र न लग जाए तुझे किसी की !’
रह–रहकर उसका दिल जोरों से धड़कने लगता है।

शाम के चार बजे हैं। बाहर एक टैक्सी के रुकने की आवाज़ ने उसके हृदय की धड़कन तेज कर दी है। धक्...धक्... धड़कनों की आवाज़ कानों में साफ सुनाई देती है। पिंकी दौड़कर, खोजती हुई-सी उसके पास आई और फिर चुपचाप बिना कुछ कहे-बोले बैठक में चली गई। उसकी सहमी-सहमी आँखों में कौतुहल साफ दिखाई दे रहा था। बगल के कमरे में होने के बावजूद उसने हर क्षण के दृश्य को अपनी आँखों से पकड़ने की कोशिश की।...
पापा की आवाज़ उसे स्पष्ट सुनाई देने लगी। कैसे हँस-हँसकर बातें कर हैं पापा ! पापा की आवाज़ में अचानक हुए इस परिवर्तन को देख वह चौंक गई। बिलकुल वैसी ही आवाज़ ! जैसी मम्मी के रहते हुआ करती थी। उसके चेहरे पर एकाएक खुशी की एक लहर दौड़ गई। कब से तरस रही थी वह, पापा की इस आवाज़ के लिए।
पापा ने सहमी-सहमी-सी खड़ी पिंकी को शायद गोद में उठा लिया है। प्यार से चूमते हुए बोले हैं, “यह है हमारी पिंकी बिटिया...।“
“अरे बेटे, तुमने किसी को नमस्ते नहीं की ?... नमस्ते करो बेटे... अच्छा इधर देखो... ये कौन है ?... ये हैं... तुम्हारी... नई मम्मी...।“
नई मम्मी !
वह स्तब्ध रह गई।
सहसा, उसे लगा कि वह हवा में उड़ रही थी और अभी-अभी किसी ने उसके पर काट दिए हैं। वह ज़मीन पर आ गिरी है–धम्म् से ! इसकी तो उसने कल्पना तक न की थी !
उसकी समझ में कुछ नहीं आया। धराशायी हुए सपनों पर आँसू बहाये या अपनी नई मम्मी को पाकर खुश हो ! एकाएक, उसने खुद को संभालने की कोशिश की और अगले क्षणों के लिए स्वयं को तैयार करने लगी। यह सोचकर कि न जाने कब पापा उसे बुला लें, नई मम्मी से मिलवाने के लिए !
अब उसके कान पापा की आवाज़ का इन्तज़ार कर रहे थे।
[आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ” तथा भावना प्रकाशन, पटपड़गंज, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” में संग्रहित]

गुरुवार, 8 मई 2008

कहानी-1

अब और नहीं
सुभाष नीरव

“रोज रात ग्यारह-ग्यारह बजे तक बत्ती जलती है, बिल ज्यादा नहीं आएगा तो क्या कम आएगा?” यह बात उन्हें सुनाने के लिए कही गयी। जान-बूझकर वोल्यूम तेज रखा गया ताकि बात उनके बूढ़े कानों में घुस सके। मज़बूरन, लाला हरदेव प्रसाद को गीता का गुटका बंद कर देना पड़ा। चश्मा उतार कर उन्होंने एक ओर रखा और घड़ी देखी– नौ बजकर दस मिनट हो रहे थे, रात के।
उठकर उन्होंने अपना बिस्तर ठीक किया। छुटका उन्हीं के साथ सोया करता है। बहुत छोटा था तो जिद्द करके साथ सोता था– ‘दादा जी के तात सोऊँगा।...’ कितना अच्छा लगता था उन्हें, जब वह अपनी तोतली जुबान में ऐसा कहता था। लेकिन, अब उसे जबरदस्ती सुलाया जाता है। सारी रात पेट पर उसकी टांगें दनादन पड़ती हैं। ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा होकर सोता है कि बेचारे करवट भी ढंग से नहीं बदल पाते। कभी-कभी तो बिस्तर भी गीला कर देता है।
छुटके को सीधी तरह लिटाकर उन्होंने बत्ती बुझाई और बिस्तर में घुस गए। आँखें मूंदकर सोने का प्रयास करने लगे। पर, नींद !... नींद इतनी जल्दी कैसे आ सकती है ?... शुरू से ही रात में देर से सोने और सुबह मुँह-अंधेरे बिस्तर छोड़ देने की आदत रही है उनकी।
उन्हें याद आते हैं वे दिन जब पार्वती जीवित थीं। सुबह उठकर सबसे पहले शौच जाया करते। फिर नहा-धोकर पूजा-पाठ करते। इतने में दूध का वक्त हो जाता और वह बर्तन उठाकर दूध लेने चल देते। रास्ते में खाँ साहब मिल जाते तो उनसे बिजनेस के बारे में बतियाने लगते। अगर, शर्माजी दीख पड़ते तो उनकी नेतागिरी के हालचाल पूछने लगते। यही वक्त होता था उनके लिए गली-मौहल्ले वालों से उनकी खैर-ख़बर पूछने का। वहाँ से लौटते तो पार्वती चाय का पानी चढ़ा चुकी होती।

जब मोहन नहीं हुआ था, वह अपने को इधर-उधर के कामों में उलझाये रखते या पार्वती के काम में हाथ बंटाते। मोहन हुआ तो जैसे उनको खिलौना मिल गया। कभी उसको बाजुओं में लेकर उछालते और कभी घोड़ा बनकर उसे हँसाते। और इस तरह कब नौ बज जाते, पता ही न चलता। मोहन जब स्कूल जाने लगा तो वह रोज़ सुबह एक-डेढ़ घंटा उसे अपने पास बिठाकर पढ़ाते। बीच-बीच में उसे पाठ याद करने को कह, वह अपनी साइकिल की सफाई करते। दोनों पहियों की हवा देखते और ठीक नौ बजे घर छोड़ देते। वह कभी दफ्तर लेट नहीं पहुँचते थे। हमेशा आधा-पौना घंटा पहले ही पहुँचकर फाइलों को देखदाख कर तैयार कर लेते और साहब के आते ही उनके हस्ताक्षर-योग्य फाइलें उठाये उनके केबिन में घुस जाते। अपने काम में उन्होंने कभी गलती नहीं की थी और पूरी सर्विस में किसी अफसर से झाड़ नहीं खाई थी– लाला हरदेव प्रसाद ने !
अब रिटायर क्या हुए, लगता है, उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया एकदम से। उपहास और उपेक्षापूर्ण दृष्टियों के बीच वह महसूस किया करते हैं, जैसे वह कोई फालतू-सी चीज़ हों... उनसे हँसने-खेलने वाले बच्चे तक अब उनके पास तक नहीं फटकते। क्यों फटकें ?... टॉफी खरीदकर देने लायक पैसे भी उनके पास नहीं होते। यार-दोस्त ‘जल्दी में हूँ’ कहकर कन्नी काट जाते हैं, क्योंकि उनको बिठाकर एक प्याला चाय पिलाने की अब उनकी हैसियत नहीं रही।
पेंशन के जो रुपये मिलते हैं, वे भी अपने नहीं। सब बहू को दे देने पड़ते हैं। उन्हें रुपयों की क्या ज़रूरत ?... बेटे के उतरे जूते-चप्पल और कपड़े पहनने को मिल ही जाते हैं। दो वक्त की रोटी भी मिल जाती है। फिर इस बुढ़ापे में रुपयों की क्या ज़रूरत !

बगल के कमरे में अभी भी बत्ती जल रही थी। बहू और बेटे में हो रही खुसुर-फुसुर को उनके बूढ़े कान पकड़ नहीं पा रहे थे। एकबारगी उनकी इच्छा घड़ी देखने को हुई, पर उन्होंने अपनी इस इच्छा को दबा लिया।
एकाएक, छुटके ने टांगें चलानी आरंभ कर दीं। कभी-कभी तो इतनी जोर से टांगें मारता है कि पेट में दर्द हो उठता है। उन्होंने लेटे-लेटे ही उसे सीधा किया।

तबीयत ठीक न होने की वजह से आजकल सुबह जल्दी उठने को मन नहीं होता। पर, फिर भी उठना पड़ता है। दूध भी वही लाते हैं। पायजामा-कमीज और कभी-कभी चादर मिली तो ओढ़कर चल दिया करते हैं वह दूध लेने। कई बार सोचा, अब की पेंशन के पैसे मिलने पर एक पूरी बाजू का स्वेटर बनवायेंगे। या, एक गर्म चादर ही खरीदेंगे। पर, ऐसा कभी सोच से आगे नहीं बढ़ पाया।

मोहन ने जब नया सूट बनवाया, उसने पूरानी पैंट को पहनना ही छोड़ दिया। यूँ ही बेकार पड़ी थी। एक दिन उन्होंने हिम्मत कर कहा था– “बेटा, पुरानी पैंट तुम पहनते नहीं हो। वैसे ही बेकार पड़ी है। मैं... मैं ही पहन लिया करूँ ?”
इतना कहते हुए उन्होंने महसूस किया था, जैसे आवाज़ गले के बाहर निकलना ही नहीं चाह रही है और वह उसे जबरदस्ती बाहर धकेल रहे हैं। पूरे समय नज़रें भी झुकी-सी रहीं, जैसे वह भीख मांग रहे हों। एकबारगी तो अपने पर झुंझलाहट भी पैदा हुई– ‘क्या ज़रूरत थी कहने की ?... बेटे को खुद नहीं दीखता ?’
बेटे ने मना तो नहीं किया था, पर बात बहू पर डाल दी थी। साथ में यह कहते हुए, “सुधा से कहना, सिल भी देगी। कहीं-कहीं से फटी हुई है।”
कुछ दिन तक तो वे चुप रहे। और जब कहा तो कभी फुर्सत नहीं है, कभी धागा नहीं है, सिलूं किससे ? वगैरह-वगैरह सुनने को मिला। इसके बाद उन्होंने कहना ही छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद वही पैंट कुछ और पुराने उतरे कपड़ों के साथ बहू ने बर्तन बेचने वाली को दे दी और उसके बदले में तीन-चार चीनी-मिट्टी के बर्तन ले लिए। अच्छा होता, अगर यह सब उनकी आँखों के सामने न होता, तब कम से कम यह दर्द जो इस क्षण उनको भीतर तक चीरता चला गया था, महसूस तो न होता। एक क्षण को तो उन्हें रोना-सा आ गया। उनकी कीमत रिटायर हो जाने के बाद चीनी-मिट्टी के बर्तनों से भी गई बीती है ?...

एकाएक, हड़बड़ाकर उठना पड़ा उन्हें। उठकर बत्ती जलाई। छुटके ने पेशाब कर दिया था। नीचे का गद्दा बुरी तरह से भीग गया था। सुलाने से पहले वह छुटके को पेशाब करा लेते हैं। फिर भी, कोई भरोसा नहीं। अब सारी रात गीले बिस्तर पर लेटो !... सोओ !... दूसरे कपड़े भी नहीं !
उन्होंने छुटके को उठाकर कन्धे से लगाया और नीचे का गद्दा पलटकर बिछाया। गद्दा पलटने के बाद भी गीला लग रहा था। आखिर, उसी पर लेटना था, सो लेट गए। नींद तो वैसे ही कोसो दूर थी आँखों के, अब और दूर हो गई। कुछ देर यूँ ही करवटें बदलते रहे। जब नहीं रहा गया तो उठकर फिर बत्ती जलाई और गैलरी में जाकर कुछ ढूँढ़ने लगे। वहीं कहीं ढूँढ़ने पर टाट का टुकड़ा मिल गया। उन्होंने उसे गीले हिस्से पर बिछाया और बत्ती बुझाकर लेट गए।

सुबह उठे तो बदन का जोड़-जोड़ दर्द कर रहा था। हल्का-हल्का बुखार-सा भी महसूस कर रहे थे वह। उठकर दूध लाने को मन नहीं किया उनका। लेकिन, वह अपने मन की कर कहाँ पाते हैं आजकल ! मज़बूरन, उठना पड़ा।
बाहर आँगन में धूप आ जाने पर चारपाई बिछा कर वह लेट गए। गर्म-गर्म चाय की तलब हो रही थी। पर, चाय !... मोहन के आफिस जाने से पहले !... आज तक नहीं हुआ।
सामने वाली गली में कुछ बच्चे खेल रहे थे। कुछ लोग आ-जा रहे थे। उन्होंने लेटे-लेटे ही आते-जाते लोगों को देखा। सभी इसी मोहल्ले में या आसपास रहने वाले लोग हैं। एकाएक उनकी नज़रें आते-जाते लोगों में कुछ खोजने-सी लगीं। कहीं कोई परिचित चेहरा निकल आए ! और पास से गुजरते हुए पूछ ही बैठे, “क्यों लाला जी, कैसे लेटे हैं ?... तबीयत वगैरह तो ठीक है न ?...” और वह अपने दुख को बताकर हल्का कर लें। पर ऐसा कहाँ नसीब ! ढूँढ़ने पर भी ऐसा कोई चेहरा नज़र नहीं आया।
यह वह मोहल्ला था जिससे उनकी ज़िन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा जुड़ा हुआ था। पूरा मोहल्ला कभी उनके अपने घर-सा हुआ करता था। आते-जाते छोटे-बड़े सभी से बतियाना, उनकी खै़र-ख़बर पूछना उनकी आदत थी। पड़ोस की रज्जी ताई हो या मियाँ गब्बन, स्कूल की मास्टरनी सिन्हा हो या डेरी वाले दूबे जी, कोई भी नहीं बच पाता था उनकी गिरफ्त से। घड़ी-दो-घड़ी, खड़े-खड़े बाते कर लिया करते थे वह।
गोकुलदास तो अक्सर अपना रोना रोया करता था उनके आगे– “क्या बताऊँ लाला जी, इस ज़िन्दगी से तो अच्छा है, भगवान उठा ले।”
“क्यों भाई, क्यों ?” वह उत्सुकता से पूछते।
“अब एक दुख हो तो बताऊँ ?... रिटायर क्या हुआ, कोई इज्ज़त ही नहीं रही। नौकरों की तरह घर का सारा काम करो और बात-बात पर उनकी बातें भी सुनो। न मन का खा सकते हैं, न पहन सकते हैं।” गोकुलदास रुआंसे-से हो उठते।
इस पर लाला हरदेव प्रसाद मुस्कराते हुए कहते– “गोकुलदास जी, आपने ज़िन्दगी भर ऐस की। अब बहू-बेटों को भी करने दो। वैसे बुढ़ापे में तुम ज़रा-ज़रा-सी बात पर इतना मत सोचा करो। जैसा मिल जाए, खा लिया करो और बैठकर भगवान का नाम जपा करो। मस्त रहा करो। इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दिया करो। समझे !... रही काम की बात, अरे भाई, कुछ न कुछ करते रहोगे तो शरीर भी ठीक रहेगा। खाली पड़े-पड़े तो रोग लग जाता है।”
पर आज जब गोकुलदास की याद आती है तो वह मन ही मन कह उठते हैं– ‘गोकुलदास, तुम्हें झूठी तसल्ली देने वाला मुझ जैसा तो था मोहल्ले में, मगर मुझे तसल्ली देने वाला तो कोई भी नहीं है।’

मोहन के आफिस चले जाने पर बहू जब चाय लाई तो उनका जी चाहा कहें, “देखना बहू, कोई बुखार की गोली पड़ी हो। आज तबीयत कुछ खराब है।” पर ऐसा वह चाहकर भी न कह पाए। सहसा, उन्हें याद हो आया, कल शाम ही तो बहू ने कहा था कि राशन की दुकान पर गेहूं और चावल आया है। कल जाकर ले आना। अब अगर वह अपनी तबीयत का रोना रोयेंगे तो बहू को चार बातें सुनाने का मौका मिल जाएगा।
थोड़ी ही देर में बहू ने थैला और राशनकार्ड थमा दिया। साथ में रुपये भी। पूरे-सूरे। न एक पैसा कम, न एक पैसा ज्यादा। वह जानते हैं, बहू ने गिनकर पूरे-सूरे पैसे क्यों दिए हैं। ज्यादा देगी तो बुड्ढ़ा खर्च करेगा। अभी पीछे ही तो बहू ने दस का नोट मिट्टी का तेल लाने को दिया था। बचे हुए पैसों में से उन्होंने कुछ पैसे खर्च कर दिए थे। कई दिनों से दाढ़ी बढ़ रही थी। सोचा, बाजार आए हैं तो बनवा लेते हैं। पर उन थोड़े से पैसों के लिए उन्हें सुनना पड़ा था, “घर पर शेविंग का सारा सामान किसलिए रखा है ? यहीं क्यों नहीं कर लिया करते ?... बेकार में बाहर पैसे दे आते हैं।”
चालीस किलो गेहूं और पांच किलो चावल। पूरा पैंतालीस किलो का बोझा ढो कर लाना होगा, एक मील से। और शरीर है कि पैदल चलने को तैयार ही नहीं।
दुकान पर पहुँचकर, भीड़ देखते ही लाला हरदेव प्रसाद की हिम्मत पस्त हो गई। लाइन में लगे तो ज्यादा देर खड़ा नहीं हुआ गया। हार कर वहीं बैठ गए। सहसा, पीछे से जबरदस्त धक्का आया और पीछे की सारी भीड़ उन पर गिर पड़ी। लाइन टूट गई और वह लाइन से बाहर जा पड़े। दोबारा अपनी जगह लेने लगे तो हल्ला मच गया, “ऐ बुड्ढ़े ! कहाँ से घुस रहा है ? पीछे जा।”
वह गिड़गिड़ाए। अपनी सफाई पेश की। कुछ लोगों के कहने पर वह फिर से अपनी जगह पा सके।
जिस समय राशन लेकर निकले, सूरज सिर के ऊपर पहुँच चुका था। सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। सिर्फ़ चाय पी कर ही निकले थे। इसलिए लग रहा था, जैसे शरीर में जान ही न रही हो।
जैसे-तैसे बोझा बांधकर, किसी से सिर पर रखवाया और चल दिए।
अभी कुछ ही दूर चले थे कि हिम्मत जवाब दे गई। आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। कदम आगे बढ़ाते तो ऐसा लगता, जैसे अंधेरे में पांव रख रहे हों। इससे पहले कि चकराकर गिर पड़े, उन्होंने बोझा एक ओर पटका और धम्म् से नीचे बैठ गए। काफी देर तक हाँफते रहे। दोनों हाथों से सिर को थामे, नीचे ज़मीन की ओर आँखें किए रहे।
सांसें कुछ सामान्य हुईं तो उन्हें गोकुलदास की याद हो आई अकस्मात्। गोकुलदास की एक-एक बात उनके दिमाग में दौड़ने लगी। उसकी हर बात सही और सत्य प्रतीत होने लगी। आज अगर गोकुलदास जीवित होते तो वह उससे ज़रूर कहते, “गाकुलदास, तुम सच कहते थे। बिलकुल सत्य!”
एकाएक, उन्हें स्वयं पर गुस्सा हो आया। आखिर, उन्होंने स्वयं को इतनी दयनीय स्थिति में लाकर क्यों खड़ा किया हुआ है ?... क्यों वह चुपचाप सह जाते हैं सबकुछ ?... क्यों नहीं प्रतिरोध करते ?...अपनी इस नारकीय स्थिति के लिए वह कहीं न कहीं खुद भी जिम्मेदार हैं।
आखिर, वह भी हाड़-मांस के बने हैं। उन्हें भी दुख-सुख की अनुभूति होती है। वह बहू से कह सकते थे, ‘तबीयत खराब है। छुट्टी वाले दिन मोहन स्वयं ले आएगा। या फिर रिक्शा के पैसे दे दो, ले आऊँगा।’ इसमें झिझक की क्या बात थी ? सहने की भी एक सीमा होती है!
कुछ देर वहीं बैठे-बैठे बुदबुदाते रहे गुस्से में। एकाएक, उनकी नज़र सामने से आती हुई खाली रिक्शा पर गई। उन्होंने एकदम से निर्णय लिया और हाथ देकर रिक्शा रुकवाया।
“बी-वन चलोगे ?”
“चलेंगे।” बोझे को रिक्शा में रखते हुए रिक्शावाला बोला, “पांच रुपया होगा।”
“हाँ-हाँ, दिला देंगे।... तुम चलो तो।” झल्लाये हुए स्वर में उन्होंने कहा और रिक्शा में बैठ गए।
[ कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)” में संग्रहित]