मित्रो
'सृजन-यात्रा' में इस माह अपनी लघुकथाओं के प्रकाशन के सिलसिले को विराम देते हुम 'माँ दिवस' पर अपनी एक ग़ज़ल आपसे साझा कर रहा हूँ। यह तो ग़ज़ल के पारखी ही बताएँगे कि यह ग़ज़ल है भी कि नहीं, पर 'माँ' को लेकर मेरे भीतर जो पवित्र भावना रही है, उसे इसी रूप में अभिव्यक्त कर पाया हूँ। आशा है, आप भी मेरे भीतर की भावना से सहमत होंगे…
सुभाष नीरव
माँ
दुनिया भर की दुख- तक़लीफें भुला लिया करता हूँ
माँ के दामन में जब सर को छुपा लिया करता हूँ
माँ देती जब ढारस मुझको मेरी नाकामी पे
अपने भीतर दूनी ताकत जुटा लिया करता हूँ
खफ़ा खफ़ा सी नींद मेरी तब मुझे मनाती है
माँ की बांहों को तकिया जब बना लिया करता हूँ
माँ ही मंदिर, माँ ही मस्जिद, माँ गिरजा - गुरद्वारा
रब के बदले माँ को मैं सर नवा लिया करता हूँ
यही हुनर सीखा है मैंने हर पल खटती माँ से
बोझ कोई भी हो हंस कर उठा लिया करता हूँ
मायूसी के अँधियारों में जब-जब घिर जाता हूँ
माँ की यादों के दीपक तब जला लिया करता हूँ
माँ के दामन में जब सर को छुपा लिया करता हूँ
माँ देती जब ढारस मुझको मेरी नाकामी पे
अपने भीतर दूनी ताकत जुटा लिया करता हूँ
खफ़ा खफ़ा सी नींद मेरी तब मुझे मनाती है
माँ की बांहों को तकिया जब बना लिया करता हूँ
माँ ही मंदिर, माँ ही मस्जिद, माँ गिरजा - गुरद्वारा
रब के बदले माँ को मैं सर नवा लिया करता हूँ
यही हुनर सीखा है मैंने हर पल खटती माँ से
बोझ कोई भी हो हंस कर उठा लिया करता हूँ
मायूसी के अँधियारों में जब-जब घिर जाता हूँ
माँ की यादों के दीपक तब जला लिया करता हूँ
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