मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

लघुकथा





मित्रो
अपनी लघुकथा ‘कड़वा अपवाद’ को यहाँ प्रस्तुत करते हुए मुझे विक्रम सोनी जी की याद हो आ रही है और याद आ रही है, उनकी पत्रिका ‘लघु आघात’। विक्रम सोनी जी जितने सशक्त लघुकथा लेखक रहे, उतने ही अच्छे एक संपादक भी रहे हैं। 'लघु आघात' के माध्यम से उन्होंने हिन्दी लघुकथा लेखन को प्रोत्साहन दिया और उसके विकास के लिए जो काम किया, वह भुलाया नहीं जा सकता। मेरे शुरुआती लेखन के समय में विक्रम जी ने मेरी कई लघुकथाएं ‘लघु आघात’ में प्रकाशित की थीं। मुझे आश्चर्य होता था कि उन दिनों ‘सारिका’ में छपी मेरी लघुकथा(ओं) पर इतना नोटिस नहीं लिया गया था, जितना 'लघु आघात' में छ्पी मेरी लघुकथाओं पर लिया गया। लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तब सक्रिय अनेकों लेखकों ने मुझे जाना और कइयों से मेरा परिचय हुआ जो आज तक कायम है। आज लघुकथा के आकाश का यह सितारा गुमनामी के अंधेरे में है। कथाकार बलराम अग्रवाल ने बताया कि वह अब उज्जैन में रहते हैं और लिख-पढ़ सकने की स्थिति में नहीं हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ-सानन्द रखे, यही कामना करते हुए आपके समक्ष अपनी लघुकथा 'कड़वा अपवाद ' प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
सुभाष नीरव


कड़वा अपवाद
सुभाष नीरव

रेलवे क्रॉसिंग। फाटक बन्द होने के कारण बस एक झटके के साथ रुक गयी। तभी एक औरत गोद में बच्चा लिये हुए बस में चढ़ी।
''बाऊजी... भाई साहब... मुसीबत की मारी गरीब आपके आगे हाथ फैलाकर भीख मांगती... रात ठंड से मेरा आदमी गुजर गया साब... ल्हास के कफन के वास्ते मांगती... झूठ नीं बोलती... बाऊजी... बच्चे की कसम खाती... पेट की खातिर नहीं, आदमी की ल्हास के वास्ते हाथ फैलाती... वहाँ गली के मोड़ पर पड़ी है ल्हास... मेरी मदद करो, मेरे माई-बाप... रुपया-दो रुपया गरीब की झोली में डालकर... भगवान आपकी मदद करेगा, मेरे मालिक...''
उसका करुण रुदन सुनकर सभी के दिल पसीजने लगे। वह बार-बार बच्चे की कसम खाती, झुककर बैठे हुए लोगों के पैरों को छूती और जोरों से प्रलाप करने लगती।
लोग अपनी जेबें टटोलने लगे। एक ने दिया तो सभी देने लगे। कोई रुपया, तो कोई दो रुपया दे रहा था। किसी-किसी ने तो पाँच-दस का नोट भी दिया। देखते-देखते, उसके पल्लू में तीस-चालीस रुपये जमा हो गये। वह फिर भी मांगे जा रही थी। मेरे पास आकर उसने मेरे पैर भी छूने चाहे। मुझे यह सब ढोंग लग रहा था। जानता था कि भीख मांगने के लिए आजकल किस-किस तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। मैंने उसे बेरहमी से झिड़क दिया, ''बन्द करो यह ड्रामेबाजी... तुम्हारा कोई आदमी-वादमी नहीं मरा है... भीख मांगने का अनोखा तरीका खोज निकाला है तुम लोगों ने...''
''अरे भई, नहीं देना तो मत दो, पर बेचारी को डांटो तो नहीं...'' बस में से एक आवाज उभरी।
''यह सब नाटक कर रही है। अभी कुछ देर बाद इसका आदमी दूसरी बस में चढ़ेगा और कहेगा, मेरी औरत मर गयी... उसके कफन के वास्ते पैसे चाहिएँ...ये लोग भीख मांगने के लिए कभी अपनी माँ को मारते हैं तो कभी अपनी बीवी को...कभी बाप को तो कभी बेटे को...।''
''अरे, बेचारी अपने बच्चे की कसम खा रही है। कोई झूठ बोल रही होगी क्या ?'' दूसरी आवाज उभरी।
''जो भीख मांगने के लिए अपने आदमी को मार सकती है, उसके लिए बच्चे की कसम खाना कोई बड़ी बात नहीं है।'' मैं उत्तेजित होकर बोल रहा था, ''यह सब ढोंग है। नहीं यकीन तो चलो, मैं दिखाता हूँ... नशा करके पड़ा होगा इसका खसम...।''
मेरी बातों का कुछ असर-सा हुआ लोगों पर। फाटक अभी भी बन्द था। बस चलने में अभी काफी देर थी।
''चल, दिखा, कहाँ है लाश?'' मैंने उस औरत से कहा।
''उस गली के मोड़ पर पड़ी है।'' औरत ने इशारे से बताया।
मैंने संग चलने को कहा तो वह आनाकानी करने लगी। अब अन्य लोग भी उसके पीछे पड़ गये, ''चल दिखा, कहाँ मरा पड़ा है तेरा आदमी...।'' उसके लिए अब बचना मुश्किल था। वह चुपचाप चल दी। मैं कुछ लोगों के साथ उसके पीछे हो गया। गली के मोड़ पर पहुँचकर देखा, वहाँ कोई लाश वगैरह नहीं थी। एक विजयी मुस्कान मेरे होंठों पर तैर गई। लोगों ने सख्ती से पूछा, ''कहाँ है लाश ?... झूठ बोलती थी !''
वह रोती हुई कुछ और आगे बढ़ी।
कुछ ही दूरी पर कुछ लोग किसी को घेरे हुए खड़े थे। वह औरत आगे बढ़कर जमीन पर लेटे हुए आदमी से लिपट गयी और जोर-जोर से रोने लगी। मुझे लगा, मेरे पैर काँपने-से लगे हैं... तभी, मैं आगे बढ़कर बोला, ''साला, बन रहा है... नशा करके लेटा होगा...'' और मैंने एक झटके से उसके ऊपर की चिथड़ा हुई धोती को खींचकर एक तरफ कर दिया।
मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी। वह तो सचमुच ही ठंड से अकड़कर मर चुका था।

बुधवार, 9 नवंबर 2011

लघुकथा




मित्रो
‘वॉकर’ मेरी उन लघुकथाओं में से एक है जो मुझे भी बहुत प्रिय रही हैं। यह मेरी शुरूआती दिनों की लघुकथा है और कई बार पुरस्कृत हो चुकी है। यह उन दिनों की लघुकथा है, जब सौ रूपये का नोट बहुत अहमियत रखता था परन्तु आज सौ रूपये की कीमत कुछ भी नहीं है।
सुभाष नीरव





वॉकर
सुभाष नीरव

''सुनो जी, अपनी मुन्नी अब खड़ी होकर चलने की कोशिश करने लगी है।'' पत्नी ने सोते समय पास सोयी हुई मुन्नी को प्यार करते हुए मुझे बताया।
''पर, अभी तो यह केवल आठ ही महीने की हुई है!'' मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।
''तो क्या हुआ? मालूम है, आज दिन में इसने तीन-चार बार खड़े होकर चलने की कोशिश की।'' पत्नी बहुत ही उत्साहित होकर बता रही थी, ''लेकिन, पाँव आगे बढ़ाते ही धम्म से गिर पड़ती है।''
मुन्नी हमारी पहली सन्तान है। इसलिए हम उसे कुछ अधिक ही प्यार करते हैं। पत्नी उसकी हर गतिविधि को बड़े ही उत्साह से लेती है। मुन्नी का खड़े होकर चलना, हम दोनों के लिए ही खुशी की बात थी। पत्नी की बात सुनकर मैं भी सोयी हुई मुन्नी को प्यार करने लग गया।
एकाएक पत्नी ने पूछा, ''सुनो, वॉकर कितने तक में आ जाता होगा ?''
''यही कोई सौ-डेढ़ सौ में...।'' मैंने अनुमानत: बताया।
''कल मुन्नी को वॉकर लाकर दीजियेगा।'' पत्नी ने कहा, ''वॉकर से हमारी मुन्नी जल्दी चलना सीख जायेगी।''
मैं सोच में पड़ गया। महीना खत्म होने में अभी दस-बारह दिन शेष थे और जेब में कुल डेढ़-दौ सौ रुपये ही बचे थे। मेरे चेहरे पर आयी चिन्ता की शिकन देखकर पत्नी बोली, ''घबराओ नहीं, सौ रुपये मेरे पास हैं, ले लेना। वक्त-बेवक्त के लिए जोड़कर रखे थे। कल ज़रूर वॉकर लेकर आइयेगा।''
सुबह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलने लगा तो पत्नी ने सौ का नोट थमाते हुए कहा, ''घी बिलकुल खत्म हो गया है और चीनी, चाय-पत्ती भी न के बराबर हैं। शाम को लेते आना। परसों दीदी और जीजा जी भी तो आ रहे हैं न!''
मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए सौ के नोट को देखा और फिर पास ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, ''मगर, वह मुन्नी का वॉकर...।''
''अभी रहने दो। पहले घर चलाना ज़रूरी है।''
मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म् से नीचे बैठकर रोने लगी।

00

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

लघुकथा





मित्रो
'सृजन-यात्रा' ब्लॉग पर जनवरी 2011 से मैंने अपनी लघुकथाओं का प्रकाशन प्रारंभ किया था। अब तक कुल छह लघुकथाएं ही प्रकाशित हुई हैं। अपनी सभी लघुकथाएं एक एक करके मैं 'सृजन-यात्रा' में प्रकाशित करुँगा। मेरी ये सभी लघुकथाएं शीघ्र ही पुस्तक रूप में भी आपके समक्ष होंगी - 'सफ़र में आदमी' शीर्षक से जो भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होने जा रहा है। इसी संग्रह में से इस बार प्रस्तुत है एक और लघुकथा- 'अकेला चना'... आशा है, आप अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत करायेंगे।
आप सबको दीप-पर्व दीपावली की अनेक शुभकामनाएं....
सुभाष नीरव


अकेला चना
सुभाष नीरव

बस पहले ही आधा घंटा लेट हो चुकी थी। दफ्तर जाने वाले सभी यात्री चीख-चिल्ला रहे थे। रास्ते में चैकिंग-स्टाफ खड़ा था। बस रुकवाकर चैकिंग की जाने लगी। सभी गुस्से में बड़बड़ाने लगे। पिछले दो दिनों से मैं लेट पहुंच रहा था। बॉस ने कल वार्निंग भी दी थी। मुझसे नहीं रहा गया।
''बस पहले ही आधा घंटा लेट है। इसे रोककर चैकिंग करने से हम और लेट हो जायेंगे। आप चलती बस में चैकिंग क्यों नहीं करते ?'' सीट से उठकर मैंने चैकिंग-स्टाफ से कहा।
''तू म्हारा अफसर लागै है के ?'' उनमें से एक बोला, ''हमणै आपणी ड्यूटी करणी सै। बस लेट हो रीयै तो हम के करैं ?''
''यह गलत तरीका है आपका...!'' मैंने रोष प्रकट किया। मुझे लगा, मेरी आवाज़ हद से ज्यादा तेज़ हो गयी थी।
''घणा शोर नी कर, बस चैक होण दे।''
''चलती बस भी चैक हो सकती है। बेवजह आप बस को नहीं रोक सकते। हम सब लोग दफ्तर के लिए पहले ही लेट हुए जा रहे हैं।'' मैं अकेला ही उनसे अड़ गया।
''रोक कै ई होगी चैक...भले ही घंटा लागै।'' दूसरा चैकर मुझे घूरते हुए बोला, ''चल, आपणा टिकट दिखा।''
मैंने खीझते हुए अपना टिकट उसे थमा दिया। वह टिकट लेकर बस से नीचे उतर गया और बोला, ''इब तू नीचे आ जा... घणा शोर मचावै था, बेटिकट चले है...।''
मैंने प्रतिवाद किया, ''मेरा टिकट आपके हाथ में है, मैं बेटिकट नहीं हूँ ?''
वह हँसा। सभी चैकर मुझे घेरकर खड़े हो गये।
''इस बस का टिकट ना है ये।''
“इसी बस का है ये टिकट…” मैं लगभग चीख ही पड़ा था।
''हमणै बेईमान बताण लाग रीया सै...चल।'' उसने मुझे एक ओर धकेला और बस को चलने की व्हिसिल दे दी।
एक क्षण मैंने जाती हुई बस की ओर देखा। बस में बैठे हुए लोग उपहासभरी दृष्टि से मेरी ओर देख रहे थे।
''घणा नेता नी बणा करते... चल, निकाल सौ रुपइया...।''
हाथों में पकड़ी सौ रुपये की पर्ची को मैंने एक बार गुस्से से देखा और फिर दांत पीसते हुए उसे चिन्दी-चिन्दी करके वहीं हवा में बिखेर दिया।

शनिवार, 10 सितंबर 2011

लघुकथा


अच्छा तरीका

सुभाष नीरव


राकेश ने एम.ए. अंग्रेजी विषय लेकर किया था और मैंने हिन्दी विषय लेकर। दो सालों की बेकारी के बाद वह शहर के एक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने लगा था। मैं गाँव में ही रह गया और अभी भी बच्चों को इकट्ठा करके 'अ आ इ ई' पढ़ा रहा हूँ।

एक बार मुझे शहर जाना पड़ा। ठहरने के लिए मैं राकेश के घर चला गया। सुबह-सुबह जब मैं उसके घर पहुँचा तो वह कुछेक बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रहा था। दो-तीन बैच पढ़ाकर नौ बजे वह स्कूल चला गया। शाम को चार बजे के करीब लौटा। कुछ बच्चे पहले से ही आये बैठे थे। वह तुरन्त उनको पढ़ाने बैठ गया। आठ-आठ, दस-दस बच्चों के कई बैच उसने रात नौ बजे तक पढ़ाये।

जब सभी बच्चे पढ़कर चले गये तो मैंने उससे पूछा, ''राकेश, इतने बच्चों को तुम ट्यूशन....।''

''इसमें क्या मुश्किल है ? सीधा-सा तरीका है।''

''क्या ?'' मैंने उत्सुकता जाहिर की।

वह मेरे बहुत करीब खिसक आया जैसे कोई राज़ की बात बताने जा रहा हो।

''बात यह है, यार, परीक्षा के दिनों में अंग्रेजी विषय की कापियाँ मैं ही जाँचता हूँ। छमाही परीक्षा में मैं अधिकांश बच्चों को फेल कर देता हूँ, या बहुत कम नंबर देता हूँ। बच्चे हिन्दी में या किसी अन्य भाषा में भले ही कम नंबर लायें या फेल हो जायें, कोई भी अभिभावक यह नहीं चाहता कि उसका बच्चा अंग्रेजी में फिसड्डी रहे।''

''फिर ?''

''फिर क्या ?'' वह बोला, ''बस, कुछ ही दिनों बाद कुछ बच्चों के अभिभावक मुझसे मिलते हैं और अनुरोध करते हैं कि मैं उनके बच्चे को ट्यूशन पढ़ाऊँ। कुछेक अभिभावकों से मैं ख़ुद भी मिलता हूँ। उनसे कहता हूँ- देखिये, आपका बच्चा अंग्रेजी में बहुत कमजोर है। आप स्वयं भी इसे घर में पढ़ाया करें। बस, तुम तो जानते ही हो, आजकल किस अभिभावक के पास इतना समय है कि वह अपने बच्चों के संग सिर-खपाई करे। सो, वे कह उठते हैं- मास्टर जी, आप ही हमारे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा दिया कीजिये न। और मैं स्वीकार कर लेता हूँ।''

मुझे अवाक् देखकर उसने अपनी दायीं आँख होले से दबाई और मुसकराकर बोला, ''क्यों, अच्छा तरीका है न?''

00

सोमवार, 27 जून 2011

लघुकथा




रंग-परिवर्तन
सुभाष नीरव

आखिर मन्त्री बनने का मनोहर लाल जी का पुराना सपना साकार हो ही गया। शपथ-ग्रहण समारोह के बाद वह मंत्रालय के सुसज्जित कार्यालय में पहुँचे। वहाँ उनके प्रशंसकों का तांता लगा हुआ था। सभी उन्हें बधाई दे रहे थे।
देश-विदेश के प्रतिष्ठित चैनलों, पत्रों और पत्रिकाओं के सैकड़ों पत्रकार व संवाददाता भी वहाँ उपस्थित थे।
एक संवाददाता ने उनसे पूछा, ''मन्त्री बनने के बाद आप अपने मंत्रालय में क्या सुधार लाना चाहेंगे ?''
उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, ''सबसे पहले मैं फिजूलखर्ची को बन्द करूंगा।''
''देश और देश की जनता के बारे में आपको क्या कहना है ?''
इस प्रश्न पर वह नेताई मुद्रा में आ गये और धारा-प्रवाह बोलने लगे, ''देश में विकास की गति अभी बहुत धीमी है। देश को यदि उन्नति और प्रगति के पथ पर ले जाना है तो हमें विज्ञान और तकनॉलोजी का सहारा लेना होगा। देश की जनता को धार्मिक अंधविश्वासों से ऊपर उठाना होगा। तभी हम इक्कीसवीं सदी में अपने पहुँचने को सार्थक सिद्ध कर सकेंगे।''
तभी, उनके निजी सहायक ने फोन पर बजर देकर सूचित किया कि छत्तरगढ़ वाले आत्मानंदजी महाराज उनसे मिलना चाहते हैं। मन्त्री जी ने कमरे में उपस्थित सभी लोगों से क्षमा-याचना की। सब-के-सब कमरे से बाहर चले गये।
महाराज के कमरे में प्रवेश करते ही, मन्त्री जी आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श करते हुए बोले, ''महाराज, मैं तो स्वयं आपसे मिलने को आतुर था। यह सब आपकी कृपा का ही फल है कि आज...''
आशीष की मुद्रा में महाराज ने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया और चुपचाप कुर्सी पर बैठ गये। उनकी शान्त और गहरी आँखों ने पूरे कमरे का निरीक्षण किया और फिर यकायक चीख-से उठे, ''बचो, मनोहर लाल, बचो!.... इस हरे रंग से बचो। यह रंग तुम्हारी राशि के लिए अशुभ और अहितकारी है।''
मन्त्री महोदय का ध्यान कमरे में बिछे कीमती कालीन, सोफा-कवर्स और खिड़कियों पर लहराते पर्दों की ओर गया। पूरे कमरे में हरीतिमा फैली थी। अभी कुछ माह पहले ही पूर्व मन्त्री क़ी इच्छा पर इसे सुसज्जित किया गया था।
''जानते हो, तुम्हारे लिए नीला रंग ही शुभ और हितकारी है।'' महाराज ने चेताया।
मन्त्री महोदय ने तुरन्त निजी सचिव को तलब किया। उससे कुछ बातचीत की और फिर महाराज को साथ लेकर अपनी कोठी की ओर निकल गये।
अब मंत्रालय के छोटे-बड़े अधिकारी रंग-परिवर्तन के लिए युद्धस्तर पर जुटे थे।
00

शनिवार, 7 मई 2011

ग़ज़ल




मित्रो

'सृजन-यात्रा' में इस माह अपनी लघुकथाओं के प्रकाशन के सिलसिले को विराम देते हुम 'माँ दिवस' पर अपनी एक ग़ज़ल आपसे साझा कर रहा हूँ। यह तो ग़ज़ल के पारखी ही बताएँगे कि यह ग़ज़ल है भी कि नहीं, पर 'माँ' को लेकर मेरे भीतर जो पवित्र भावना रही है, उसे इसी रूप में अभिव्यक्त कर पाया हूँ। आशा है, आप भी मेरे भीतर की भावना से सहमत होंगे…

सुभाष नीरव



माँ

दुनिया भर की दुख- तक़लीफें भुला लिया करता हूँ
माँ के दामन में जब सर को छुपा लिया करता हूँ

माँ देती जब ढारस मुझको मेरी नाकामी पे
अपने भीतर दूनी ताकत जुटा लिया करता हूँ

खफ़ा खफ़ा सी नींद मेरी तब मुझे मनाती है
माँ की बांहों को तकिया जब बना लिया करता हूँ

माँ ही मंदिर, माँ ही मस्जिद, माँ गिरजा - गुरद्वारा
रब के बदले माँ को मैं सर नवा लिया करता हूँ

यही हुनर सीखा है मैंने हर पल खटती माँ से
बोझ कोई भी हो हंस कर उठा लिया करता हूँ

मायूसी के अँधियारों में जब-जब घिर जाता हूँ
माँ की यादों के दीपक तब जला लिया करता हूँ


00

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

लघुकथा



रफ़-कॉपी

सुभाष नीरव

बाबू रामप्रकाश खाना खा चुकने के बाद, रो की तरह आज भी अपने कमरे में बैठकर ऑफिस से लाया काम करने में जुट गये। कुछ ही देर बाद, उनका दस वर्षीय बेटा रमेश कमरे में दाख़िल हुआ और समीप आकर बोला, ''पापा, आप मेरे रफ-काम के लिए कापी नहीं लाए ?''

बाबू रामप्रकाश पलभर अपनी याददाश्त को कोसते रहे। पिछले तीन दिनों से वह भूलते आ रहे थे। आज फिर उन्होंने बेटे को समझाने की कोशिश की, ''ओह बेटा, हम आज फिर भूल गये। देखो न, कितना काम रहता है! याद ही नहीं रहता, सच।''

''हम कुछ नहीं जानते। आप तीन दिन से टाले जा रहे हैं। हमें कापी आज ही चाहिए।'' रमेश ज़िद करने लगा।

''बेटा, रात को इस वक्त दुकानें भी बंद हो गयी होंगी। कल हम ज़रूर ला देंगे।''

पर, बेटा अड़ा रहा। बाबू रामप्रकाश सोच में पड़ गये। एकाएक उनकी नज़र मेज़ पर रखे पतले-से उस नये रजिस्टर पर पड़ी जिसे वह आज ही दफ़्तर से नयी एंट्री करने के लिए लाये थे।

''लो बेटा, तुम इस पर अपना रफ़-काम कर लिया करो।'' उन्होंने रमेश को रजिस्टर थमाते हुए कहा।

रमेश ने रजिस्टर को खोलकर देखा, ''पापा, इसमें तो खाने बने हुए हैं।''

''तुझे रफ़-काम करने से मतलब है या खानों से ?'' बाबू रामप्रकाश एकाएक गुस्सा हो उठे। रमेश रजिस्टर लिये सहमा हुआ-सा कमरे से बाहर निकल गया।

बेटे के चले जाने के बाद बाबू रामप्रकाश ने मन ही मन सोचा - कल फिर स्टेशनरी-क्लर्क को नया रजिस्टर इशू करने के लिए चाय पिला देंगे। चाय कॉपी से सस्ती पड़ती है। फिर प्रसन्न से ऑफिस से लाया दूसरा काम करने में जुट गए।

00

शनिवार, 12 मार्च 2011

लघुकथा



बहुत-सी रचनाओं का जन्म हमारे कार्यक्षेत्र के अनुभवों से जुड़ा होता है। मेरी ऐसी अनेक कहानियाँ, लघुकथाएँ हैं जो मेरी रोजी रोटी से जुड़े कार्यक्षेत्र के तनावों में से ही उपजीं। यहाँ 'अपने क्षेत्र का दर्द' शीर्षक से जो लघुकथा प्रस्तुत की जा रही है, यह उन दिनों की उपज है जब मेरी ड्यूटी भारत सरकार के एक केन्द्रीय मंत्री के कार्यालय में थी। सन् 80-85 के बीच की बात होगी। मंत्रियों के दोहरे चरित्र मैंने तभी बहुत करीब से देखे। उनकी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अन्तर देखने को मिला, आँखें फटी की फटी रह गईं। वो जो दिखते हैं, होते नहीं। जो होते हैं, वे दिखते नहीं। एक जबरदस्त तनाव और छटपटाहट के बीच हम पेट की खातिर कुछ नहीं कर पाते। परन्तु, उस ‘कुछ’ न कर पाने के अपराध बोध से लेखक मुक्ति का एक दूसरा रास्ता अपनाता है। मैंने भी अपनाया यानी अपने देखे-अनुभव किए को अभिव्यक्त करने का रास्ता। मैंने उस ‘सच’ को अपनी रचनाओं में रेखांकित कर अपने अपराधबोध और ग्लानि को कुछ कम करने का प्रयास किया और मैं सफल भी रहा। 'गोली दागो रामसिंह'(कहानी जो दिनमान टाइम्स, नई दिल्ली में प्रकाशित हुई), और 'रंग-परिवर्तन' (लघुकथा जो रमेश बत्तरा ने नवभारत टाइम्स में छापी) 'अपने क्षेत्र का दर्द' की भांति ऐसे ही माहौल से उपजी मेरी रचनाएँ हैं। 'गोली दागो रामसिंह' कहानी 'सृजन-यात्रा' में 'कहानियाँ' लेबल के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुकी है और 'रंग परिवर्तन' लघुकथाओं के क्रम में आगे आपके समक्ष प्रस्तुत होगी।
'अपने क्षेत्र का दर्द' लघुकथा भी 'सारिका' में सन् 1986 के आसपास प्रकाशित हुई। इसे बलराम ने वर्ष 1988 में प्रकाशित 'हिंदी लघुकथा कोश' में मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ शामिल किया था।
-सुभाष नीरव

अपने क्षेत्र का दर्द
सुभाष नीरव

मन्त्री जी के नाम आयी सारी-की-सारी डाक चपरासी ने मेज़ पर उसके सामने रख दी।
उन सबके बीच मुड़े-तुड़े मैले-से एक कागज ने उसका ध्यान अपनी ओर बरबस ही खींच लिया। यह अस्पष्ट शब्दों में लिखा एक पत्र था। उसने उसे निकाला और अन्त तक पढ़ा। पत्र का एक-एक शब्द एक गरीब और असहाय बाप की पीड़ा को व्यक्त कर रहा था जिसकी इकलौती बेटी को दहेज के भूखे भेड़ियों ने जिन्दा जला डाला था। इलाके के थानेदार ने ससुराल वालों के खिलाफ़ रपट लिखने की बजाय, उल्टा उसे ही बुरी तरह मारा-पीटा और धमकाया था। 'गरीबों के मसीहा', 'ईश्वर', 'देवता' आदि कितने ही विशेषणों से मन्त्री जी को सम्बोधित करते हुए उसने अपने पत्र में न्याय दिलाने की गुहार लगाई थी।
पत्र को पढ़कर उसे अपनी बेटी का ध्यान हो आया। आये दिन वह एक नयी माँग के साथ धकेल दी जाती है - मायके में। क्या किसी दिन उसे भी ? नहीं-नहीं... वह भीतर तक काँप उठा।
उसने तुरन्त सम्बन्धित प्रदेश के मुख्य मन्त्री के नाम चिट्ठी टाइप करवाई और मन्त्री जी के हस्ताक्षर के लिए उनके कमरे में भेज दी।
थोड़ी ही देर बाद, मन्त्री जी ने उसे बुलाया।
''यह चिट्ठी तुमने भिजवाई है ?''
''जी सर! बेचारे गरीब की बेटी को जिन्दा जला डाला दरिन्दों ने दहेज के लालच में। यही नहीं सर, इलाके के थानेदार ने रपट तक दर्ज नहीं की और उस बूढ़े को बुरी तरह मारा-पीटा भी...।''
''हूँ...'' मन्त्री जी ने एक बार उसकी ओर देखा। चिट्ठी मन्त्री जी की उँगलियों के बीच झूल रही थी, ''तुमने पत्र मुझे दिखलाने से पहले ही चिट्ठी तैयार करवा दी! मुझसे पूछा तक नहीं ?''
''जी मैंने...'' उसने हकलाते हुए कारण स्पष्ट किया, ''बात यह है सर, कि पिछले दिनों ऐसी ही एक चिट्ठी के जवाब में आपने सम्बन्धित प्रदेश के मुख्य मन्त्री के नाम इसी प्रकार की सख़्त चिट्ठी भिजवाई थी, सो मैंने...''
''चिट्ठी तैयार करने से पहले मुझसे पूछ लिया करो।'' कहते हुए मन्त्री जी ने अपनी उँगलियों के बीच झूलती हुई चिट्ठी को चिन्दी-चिन्दी कर नीचे रखी टोकरी में फेंका और बोले, ''तुम्हें मालूम है, वह हमारे संसदीय क्षेत्र का मामला था, और यह...''
मन्त्री जी के कमरे में से निकलते हुए उसे लगा, जैसे उसकी अपनी बेटी जिन्दा जला दी गयी हो और वह कुछ न कर पाने के लिए शापित हो।
00

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

लघुकथा



मित्रो,
जिस समय मैंने लघुकथा लेखन में प्रवेश किया उस समय लघुकथा लेखन में एक आन्दोलन- जैसी स्थिति थी। बड़ी व्यवसायिक पत्रिकाएँ तो लघुकथा के लिए स्थान बना ही चुकी थीं और उन्हें ससम्मान छापने भी लगी थीं। हिंदी की प्रसिद्ध कथा पत्रिका ‘सारिका’ के ‘लघुकथा विशेषांकों ने इसमें गति भी प्रदान की। इसके अतिरिक्त बहुत सी लघु- पत्रिकाएं भी मैदान में थीं जो पूरी तरह समर्पित भाव से लघुकथा के विकास और संवर्द्धन के लिए खुद को कटिबद्ध किये हुए थीं। मुझे याद आती हैं –‘लघु-आघात’ ‘मिनीयुग’ ‘क्षितिज’ ‘सनद’ पत्रिकाएँ जो अच्छी और मानक लघुकथाओं के प्रकाशन के लिए उस दिनों जानी जाती थीं और हर नया पुराना लेखक यदि कोई नई लघुकथा लिखता था तो इन पत्रिकाओं में उसे छपवाने के लिए लालायित रहता था। मेरी शुरूआती दौर की कई लघुकथाओं को ‘लघु-आघात’, ‘क्षितिज’ और ‘सनद’ में प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त हुआ है। आरंभ में ये पत्रिकाएँ मुझे भाई रमेश बत्तरा उपलब्ध कराया करते थे, बाद में फिर मैं इनका सदस्य बन गया था और ये मुझे डाक से मिलने लग पड़ी थीं। भाई रमेश बत्तरा जब विवाह के बाद राजौरी गार्डन से नया गाजियाबाद शिफ्ट हुए तो मैं अक्सर अवकाश वाले दिन उनके घर चला जाता था। इसके दो कारण थे। एक तो उनके यहाँ ढेरों नई-पुरानी हिंदी-पंजाबी की पत्र-पत्रिकाएँ आया करती थीं जिनको देखने-पढ़ने का लालच मुझे खींच ले जाता था और दूसरा यह भी कि मैं उन दिनों मैं गाजियाबाद के बहुत निकट मुरादनगर में रहता था, जिसके कारण आने-जाने में कोई परेशानी नहीं आती थी। रमेश भाई ‘सारिका’ के दफ्तर में जब मिलते तो बहुत कम बोलते थे। उनके मुँह में पान होता और वह अपने काम में व्यस्त-से रहते। बीच-बीच में छोटी-छोटी कोई एक आध बात कर लेते थे। लेकिन घर पर वह खुलकर बात करते, घर-परिवार के बारे में, साहित्य के बारे में, नये लिखे के बारे में। कभी-कभी राजनीति के बारे में भी। वे मुझे अच्छी पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजने के लिए प्रेरित करते रहते।

उन दिनों बहुत से ऐसे कॉमन-से विषय थे जिनपर हर कोई कलम चला रहा था। जैसे सामाजिक- राजनैतिक भ्रष्टाचार, पुलिस और नेताओं के चरित्र, आदि। दनादन लिखी जा रही लघुकथाओं की भीड़ में बहुत-सी अच्छी लघुकथाएँ भी दब कर रह जाती थीं। यहाँ प्रस्तुत मेरी लघुकथा ‘दिहाड़ी’ वर्ष 1984 में लिखी गई और ‘सारिका’ के वर्ष 1985 के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई। कथाकार बलराम ने इसे मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ “हिंदी लघुकथा कोश”(वर्ष 1988) में संकलित किया। यह लघुकथा भी मेरी अन्य लघुकथाओं की भाँति पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर छपी।
-सुभाष नीरव


दिहाड़ी
सुभाष नीरव

महीने के आखिरी दिन चल रहे थे।
इन दिनों घर में राशन-पानी सब खत्म हो चुका होता है। जब वह ड्यूटी पर रहता था तो किसी तरह खींच-खाँचकर ले जाता था-पहली तारीख तक। पुलिस में सिपाही होने का यह फायदा तो था ही उसे। लेकिन पिछले दो महीनों से वह मेडिकल-लीव पर चल रहा था- पीलिया के कारण। उसने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के आगे बहुत मिन्नत-चिरौरी की कि उसे ड्यूटी दे दे, पर वह नहीं माना और एक महीने का रेस्ट और बढ़ा दिया।
सुबह बच्चे बिना खाये-पिये ही स्कूल चले गये थे। पत्नी ने पड़ोसियों से कुछ भी माँगने से साफ इन्कार कर दिया था। वह चुपचाप चारपाई पर लेटा सोचता रहा- सुबह तो बच्चे भूखे-प्यासे चले गये, शाम को भी क्या बिना खाये-पिये सोना पड़ेगा उन्हें ?
वह उठकर बैठ गया। बहुत देर तक सोचता रहा।
एकाएक उसकी नज़र खूँटी पर टँगी वर्दी पर टँगकर रह गयी।
शाम होते ही वह वर्दी पहनकर अपने इलाके में पहुँच गया।
रेहड़ी-पटरी वालों में उसे देखते ही हरकत आ गयी। बहुत दिनों बाद दिखाई दिया था वह। सब सलाम ठोंकने लगे। वह डंडा घुमाता हुआ सबके सामने से गुजरा- बेहद चौकन्नेपन और सावधानी के साथ।
''अरे रतन, तू तो मेडिकल-लीव पर था! ड्यूटी ज्वाइन कर ली क्या ?''
जिस बात का उसे डर था, वही हो गयी। घर वापसी के समय सामने से आते हुए रामसिंह ने रोककर पूछ ही लिया।
''नहीं यार, घर पर सारा दिन यूँ ही पड़े-पड़े बोर हो जाता हूँ। सोचा, थोड़ा टहल ही आऊँ। सो, इधर ही आ गया।'' उसने सफाई दी।
''वर्दी में हो, मैंने सोचा...''
''वो...वो क्या है कि पत्नी ने आज सभी कपड़े धोने के लिए भिगो दिये थे। सो, वर्दी ही पहनकर आ गया इधर।'' उसने मुस्कराते हुए बात को घुमाने की कोशिश की।
''और यह डंडा ?''
रामसिंह का यह प्रश्न डंडे की भाँति ही आया। उसे लगा, इस प्रहार से वह चारों खाने चित्त हो गया है।
''आदत-सी पड़ गयी है न। वर्दी पहनते ही डंडा हाथ में आ जाता है।''
और वे दोनों एक-साथ हँस पड़े।
रामसिंह से विदा ले, जब वह घर की ओर चला तो बहुत उत्साहित था। जेब में आयी दिहाड़ी को उसने टटोलकर देखा- काफी है।
लेकिन तभी एक बात उसके जेहन में तेजी से उभरी और सुन्न-सा करती चली गयी- कल फिर अगर रामसिंह या कोई और टकरा गया तो!
00

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

लघुकथा



मित्रो,
‘सृजन-यात्रा’ ब्लॉग मई २००८ में जब आरंभ किया था, तो इसके पीछे मकसद यह था कि एक ऐसा भी ब्लॉग हो जहाँ पर केवल मैं होऊँ, मेरी स्वयं की प्रकाशित-अप्रकाशित रचनाएँ हों, मेरे अपने जीवन के सुख-दुख से जुड़े अनुभव हों… ‘सेतु-साहित्य’, ‘वाटिका’, ‘गवाक्ष’, ‘साहित्य-सृजन’ और ‘कथा-पंजाब’ आदि मेरे ब्लॉग्स तो हैं हीं (जिनमें कहानी, कविता, लघुकथा, उपन्यास, संस्मरण जैसी विधाओं में रचा गया उत्तम साहित्य देने का प्रयास होता है), जहाँ मेरा उद्देश्य रहता है कि हिंदी और हिंदीतर भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को अपने ब्लॉग्स के माध्यम से विश्वभर के उन हिंदी पाठकों को उपलब्ध करवाऊँ जिन्हें मंहगी प्रिंटिड पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों और मंहगी डाक प्रणाली के चलते ऐसा साहित्य सुलभ नहीं हो पाता। परन्तु उन दिनों मैं स्वयं और मेरे बहुत से करीबी मित्र भी यह चाहते थे कि मेरा एक ऐसा ब्लॉग भी हो जहाँ केवल मैं शाया होऊँ… मेरे मित्रों का यही कहना था कि मैं अन्य ब्लॉग्स के माध्यम से दूसरों का साहित्य तो साहित्य-प्रेमियों को उपलब्ध कराता ही रहता हूँ, लेकिन मुझे अपना साहित्य भी उन तक इस नई तकनीक के माध्यम से पहुँचाना चाहिए। मुझे भी लगा कि मेरी तमाम रचनाएँ जो इधर-उधर पत्र-पत्रिकाओं में, किताबों में बिखरी पड़ी हैं और अब वे पाठकों को सहज सुलभ भी नहीं हैं, क्यों न उन्हें एक स्थान पर सहेज-संभाल लूँ।
मई २००८ से अब तक ‘सृजन-यात्रा’ में मेरी १७ कहानियाँ, १४ कविताएं, एक आत्मकथ्य का प्रकाशन हो चुका है। अभी प्रकाशित-अप्रकाशित अनेक कहानियाँ, कविताएं शेष रहती हैं और शेष रहती हैं मेरी लघुकथाएं… अत: कहानियों, कविताओं को हाल-फिलहाल यहीं विराम देते हुए जनवरी २०११ से मैं अपने इस ब्लॉग में अपनी लघुकथाओं का प्रकाशन सिलसिलेवार आरंभ करने जा रहा हूँ। इनमें से बहुत सी लघुकथाएं आपने अवश्य ही प्रिंट मीडिया में पढ़ी होंगी, कुछेक ब्लॉग्स और वेब-पत्रिकाओं में भी पढ़ी होंगी। यदि यहाँ वे आपको पुन: पढ़ने को मिल रही हैं तो इसकी वजह यही है कि मेरी तमाम लघुकथाएं यहाँ सिलसिलेवार संकलित-संग्रहित होने जा रही हैं। ये लघुकथाएं मेरे शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे लघुकथा-संग्रह “वाह मिट्टी” में संकलित हैं।
यहाँ प्रस्तुत लघुकथा ‘कमरा’ मेरी पहली लघुकथा है जो वर्ष 1984 में लिखी गई और ‘सारिका’ के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई। कथाकार बलराम ने इसे मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ “हिंदी लघुकथा कोश”(वर्ष 1988) में संकलित किया। यह लघुकथा कथाकार सुकेश साहनी द्वारा वर्ष 2001 में संपादित पुस्तक “समकालीन भारतीय लघुकथाएं” में भी संकलित हुई। इसके अतिरिक्त अनेकों संकलनों में, पत्र-पत्रिकाओं में इसका पुनर्प्रकाशन हुआ और यह सिलसिला अभी तक जारी है। यह अब तक पंजाबी, मराठी, तेलगू, मलयालम और बंगला भाषा में अनूदित हो चुकी है।
मैं चाहूँगा कि मेरी लघुकथाओं पर आपकी बेबाक राय मुझे मिलती रहे…
-सुभाष नीरव


कमरा
सुभाष नीरव

''पिताजी, क्यों न आपके रहने का इंतज़ाम ऊपर बरसाती में कर दिया जाये ?'' हरिबाबू ने वृद्ध पिता से कहा।
''देखिये न, बच्चों की बोर्ड की परीक्षा सिर पर है। बड़े कमरे में शोर-शराबे के कारण वे पढ़ नहीं पाते। हमने सोचा, कुछ दिनों के लिए यह कमरा उन्हें दे दें।'' बहू ने समझाने का प्रयत्न किया।
''मगर बेटा, मुझसे रोज ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना कहाँ हो पायेगा ?'' पिता ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा।
''आपको चढ़ने-उतरने की क्या ज़रूरत है! ऊपर ही हम आपको खाना-पानी सब पहुँचा दिया करेंगे। और शौच-गुसलखाना भी ऊपर ही है। आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।'' बेटे ने कहा।
''और, सुबह-शाम घूमने के लिए चौड़ी खुली छत है।'' बहू ने अपनी बात जोड़ी।
पिताजी मान गये। उसी दिन उनका बोरिया-बिस्तर ऊपर बरसाती में लगा दिया गया।

अगले ही दिन, हरिबाबू ने पत्नी से कहा, ''मेरे दफ्तर में एक नया क्लर्क आया है। उसे एक कमरा चाहिए किराये पर। तीन हजार तक देने को तैयार है। मालूम करना, मोहल्ले में अगर कोई....।''
''तीन हजार रुपये!'' पत्नी सोचने लगी, ''क्यों न उसे हम अपना छोटा वाला कमरा दे दें?''
''वह जो पिताजी से खाली करवाया है ?'' हरिबाबू सोचते हुए से बोले, ''वह तो बच्चों की पढ़ाई के लिए...।''
''अजी, बच्चों का क्या है!'' पत्नी बोली, ''जैसे अब-तक पढ़ते आ रहे हैं, वैसे अब भी पढ़ लेंगे। उन्हें अलग से कमरा देने की क्या ज़रूरत है ?''
अगले दिन वह कमरा किराये पर चढ़ गया।
00