शनिवार, 1 दिसंबर 2012

लघुकथा



मित्रो, कभी-कभी सृजन में भी सूखा आ जाता है। कई-कई महीने कुछ भी सृजनात्मक नहीं लिखा जाता न कविता, न कहानी, न लघुकथा और न ही ऐसा ही कुछ और। बड़ी बेचैनी और छटपटाहट होती है। और कभी-कभी अपने आप ही झड़ी-सी लग जाती है। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता रहता है। कविताएं भी इसी तरह आती हैं, कहानियां भी और लघुकथाएं भी। गत अगस्त-सितंबर 12 माह में एक लंबी चुप्पी के बाद, एक के बाद एक आठ नई लघुकथाएं लिखी गईं। अपने कुछ बेहद खास मित्रों को पढ़वाईं। कुछ पास हुईं, कुछ पर और काम करने की सलाह मिली। बारिश उन नई लघुकथाओं में से एक है जिसके पहले ड्राफ़्ट को कुछ मित्रों ने पसंद किया और मुकम्मल लघुकथा माना और कुछ ने अपनी बेबाक राय देते हुए कहा कि नहीं, अभी इस पर काम होना शेष है। कहा कि लघुकथा में बूढ़े के किरदार को इस प्रकार नेगेटिव नहीं दिखाना चाहिए। मुझे भी अपनी रचनाओं को लेकर कोई हड़बड़ी नहीं रहा करती है, अपनी साहित्यिक यात्रा के इस पड़ाव पर तो बिलकुल नहीं। बारिश के तीन ड्राफ़्ट बनें और तीसरा ड्राफ़्ट कहीं जाकर फाइनल हुआ। उसमें भी फालतू पंक्तियों और शब्दों को उड़ाने का सिलसिला कुछ समय तक चलता रहा। यह लघुकथा हंस में भेजते ही स्वीकृत हो गई और जल्द ही प्रकाशित भी हो गई। इसे आप हंस के दिसम्बर 12 अंक में देख-पढ़ सकते हैं।


अपने ब्लॉग सृजन-यात्रा पर अपनी अब तक पुरानी प्रकाशित लघुकथाओं को प्रस्तुत करने का तो सिलसिला चल ही रहा है, सोचा नई प्रकाशित लघुकथाओं को भी बीच-बीच में सृजन-यात्रा में पाठकों के सम्मुख रखता रहूँ। अत: इस बार बारिश आपके समक्ष है।

आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी।

-सुभाष नीरव


बारिश
सुभाष नीरव

आकाश पर पहले एकाएक काले बादल छाये, फिर बूँदे पड़ने लगीं। लड़के ने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। दूर तक कोई घना-छतनार पेड़ नहीं था। नये बने हाई-वे के दोनों ओर सफेदे के ऊँचे दरख़्त थे और उनके पीछे दूर तक फैले खेत। बाईक के पीछे बैठी लड़की ने चेहरे पर पड़ती रिमझिम बौछारों की मार से बचने के लिए सिर और चेहरा अपनी चुन्नी से ढककर लड़के की पीठ से चिपका दिया। एकाएक लड़के ने बाइक धीमी की। बायीं ओर उसे सड़क से सटी एक छोटी-सी झोंपड़ी नज़र आ गई थी। लड़के ने बाइक उसके सामने जा रोकी और गर्दन घुमाकर लड़की की ओर देखा। जैसे पूछ रहा हो - चलें ? लड़की भयभीत-सी नज़र आई। बिना बोले ही जैसे उसने कहा - नहीं, पता नहीं अन्दर कौन हो ?
            एकाएक बारिश तेज़ हो गई। बाइक से उतरकर लड़का लड़की का हाथ पकड़ तेज़ी से झोंपड़ी की ओर दौड़ा। अन्दर नीम अँधेरा था। उन्होंने देखा, एक बूढ़ा झिलंगी-सी चारपाई पर लेटा था। उन्हें देखकर वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ।
            हम कुछ देर… बाहर बारिश है… लड़का बोला।
            ''आओ, यहाँ बैठ जाओ। बारिश बन्द हो जाए तो चले जाना।'' इतना कहकर वह बाहर निकलने लगा।
            ''पर तेज़ बारिश में तुम...?'' लड़के ने पूछा।
            ''बाबू, गरमी कई दिनों से हलकान किए थी। आज मौसम की पहली बारिश का मज़ा लेता हूँ। कई दिनों से नहाया नहीं। तुम बेफिक्र होकर बैठो।'' कहता हुआ वह बाहर खड़ी बाइक के पास पैरों के बल बैठ गया और तेज़ बारिश में भीगने लगा।
            दोनों के लिए झोंपड़ी में झुककर खड़े रहना कठिन हो रहा था। वे चारपाई पर सटकर बैठ गए। दोनों काफ़ी भीग चुके थे। लड़की के बालों से पानी टपक रहा था। रोमांचित हो लड़के ने शरारत की और लड़की को बांहों में जकड़ लिया।
            ''नहीं, कोई बदमाशी नहीं।'' लड़की छिटक कर दूर हटते हुए बोली, ''बूढ़ा बाहर बैठा है।''
            ''वह इधर नहीं, सड़क के पार देख रहा है।'' लड़के ने कहा और लड़की को चूम लिया। लड़की का चेहरा सुर्ख हो उठा।
            एकाएक, वह तेजी से झोंपड़ी से बाहर निकली और बांहें फैलाकर पूरे चेहरे पर बारिश की बूदें लपकने लगी। फिर वह झोंपड़ी में से लड़के को भी खींच कर बाहर ले आई।
            ''वो बूढ़ा देखो कैसे मज़े से बारिश का आनन्द ले रहा है और हम जवान होकर भी बारिश से डर रहे हैं।'' वह धीमे से फुसफुसाई और बारिश की बूँदों का आनंद लेने लगी।
लड़की की मस्ती ने लड़के को भी उकसाया। दोनों बारिश में नाचने-झूमने लगे। बूढ़ा उन्हें यूँ भीगते और मस्ती करते देख चमत्कृत था। एकाएक वह अपने बचपन के बारिश के दिनों में पहुँच गया। और उसे पता ही न चला, कब वह उठा और मस्ती करते लड़का-लड़की के संग बरसती बूँदों को चेहरे पर लपकते हुए थिरकने लग पड़ा।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

यात्रा-डायरी



वाह पहाड़ !

बनीखेत-डलहौजी-खज्जियार-चम्बा 
अद्भुत, अद्वितीय नैसर्गिक सौंदर्य की अविस्मरणीय यात्रा

-सुभाष नीरव

26 अक्तूबर 12 - गत रात 10.10 पर दिल्ली रेलवे स्टेशन से चली धौलाधार एक्सप्रेस अगले दिन अपने निर्धारित समय से सात-आठ मिनट पूर्व पठानकोट स्टेशन पर लगी। पहुंचने का सही वक्त प्रात: 8 बजकर पांच मिनट का था। हम अपने अपने सामान, असबाब के साथ जब प्लेटफॉर्म पर उतरे, सुबह की सुनेहरी धूप ने हमारा स्वागत किया और शिवालिक पहाड़ियों से उतर, रावी और चक्की नदियों के पानियों को छूकर आती ठंडी सिहरन भरी चंचल हवा ने हमारी देहों को स्पर्श कर अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया तो हमने अपने-अपने बैगों में से पूरी बाजू के स्वैटर निकालकर पहन लिए। हम यानी मैं(सुभाष नीरव), कथाकार बलराम अग्रवाल, श्रीमती अग्रवाल और उनका छोटा बेटा-आदित्य अग्रवाल जिसको विशेष कहकर बुलाया जाता है। यूँ वह है भी विशेष। स्टेशन से निकल हम पठानकोट बस-स्टैंड पहुँचे जहाँ से हमें बनीखेत के लिए बस पकड़नी थी। यूँ बनीखेत जाने का सबब तो वहाँ 27 अक्तूबर' 12 को आयोजित होने वाला 21वाँ अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन था, पर हिमाचल प्रदेश के उस अनुपम, नैसर्गिक सौंदर्य को देखने का आकर्षण भी हमारे दिलों में ठाठें मार रहा था जिसके लिए डलहौजी, खज्जियार, चम्बा आदि विश्व प्रसिद्ध रहे हैं। पंजाबी लघुकथा के स्तंभ कहे जाने वाले श्याम सुंदर अग्रवाल और डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति की पत्रिका 'मिन्नी' की ओर से हर वर्ष पंजाब में ही नहीं, पंजाब से बाहर कई शहरों -दिल्ली(1995), सिरसा(1998 2009), डलहौजी(2005), इंदौर(2007), पंचकूला(2010) में ऐसे अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन गत 20 वर्षों से निरंतर नियमित रूप से आयोजित होते रहे हैं। इस वर्ष हिमाचल के युवा कवि-लेखक अशोक दर्द ने यह सम्मेलन बनीखेत में करवाने का बीड़ा उठाया था। हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों से लेखकों के सम्मेलन में उपस्थित होने की संभावना थी।
      बस स्टैंड पर चम्बा जाने वाली बस तैयार खड़ी थी जो बनीखेत होकर जाती थी। हमने खाली सीटों का जायजा लिया और टिकट लेकर बस में बैठ गए। नौ बजे बस ने अपनी यात्रा आरंभ की। पठानकोट से निकलते-निकलते बस पूरी तरह भर चुकी थी। बस में स्कूली बच्चे भी थे। मैं और बलराम अग्रवाल बस में जिस सीट पर बैठे थे, उससे अगली सीट पर अपने कानों में मोबाइल के इअर फोन ठूंसे कुछ छात्रायें आपस में हँसी-ठट्ठा कर रही थीं और हमारे पीछे वाली सीट पर उन्हीं के हमउम्र स्कूली छात्र उनकी बातों पर टीका-टिप्पणी करते हुए अपनी ही मस्ती में हो-हल्ला कर रहे थे। यह आयु मौज-मस्ती की ही हुआ करती है। मुझे अपनी स्कूल-कालेज की डेली पैसेंजरी के दिन स्मरण हो आए। एक अलग-सा ही अनोखा नशा होता है इस उभरती जवानी का, दुनिया जहान की चिंताओं से बेफिक्र!
      बस पठानकोट को पीछे छोड़ती अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ रही थी और खिड़की से छोटी-छोटी पहाड़ियों का सिलसिला प्रारंभ हो गया था। बलराम अग्रवाल और मैं छात्र-छात्राओं के शोर-शराबे के बीच साहित्य चर्चा में मशगूल थे। साहित्य की प्रासंगिकता, रचना के लिए घटना की ज़रूरत, साहित्य में बाज़ार, साहित्य में राजनीति आदि विषय हमारी बातचीत का हिस्सा थे।
      घुमावदार, सर्पीला रास्ता आरंभ हो चुका था और हरे-भरे पहाड़ों की ऊँची-नीची चोटियाँ के बीच से बस गुजरने लगी थी। खतरनाक मोड़ों पर दायें-बायें घूमती बस ने हमारे पेट का पानी हिलाकर रख दिया था। ज्यों-ज्यों हम ऊपर बढ़ रहे थे, धूप में चमकती धौलाधार की दूधिया पर्वतमालाएँ अपने नैसर्गिक और अनुपम सौंदर्य से हमारा ध्यान अपनी ओर खींच रही थीं। मैं और बलराम अग्रवाल अपनी बातचीत को बीच ही विराम देकर इस प्राकृतिक छटा को विस्फारित नेत्रों से देखने लग पड़ते। धौलाधार (सफ़ेद पहाड़) एक लम्बी सुन्दर पर्वतशृंखला है जो हिमाचल प्रदेश में चम्बा ज़िले से प्रारंभ होकर पूर्र्व में किन्नोर ज़िले से होते हुए उत्तराखंड और उससे आगे असम तक फैली है। इस पर्वतमाला की धवल चोटियों पर खेलती चमकती धूप का अनुपम सौंदर्य देखते ही बनता है। बनीखेत पहुँचने में तीन घंटे का समय लगा। यानी दोपहर करीब सवा बारह बजे हम बनीखेत बस स्टैंड पर उतरे।

बाँका बनीखेत

हैलीपेड से बनीखेत
बनीखेत बस स्टैंड असल में एक तिराहा है। पठानकोट से आने वाली सड़क यहाँ आकर अंग्रेजी के वाई अक्षर की शक्ल में दोफाड़ हो जाती है। बायीं ओर वाली फाड+ सीधे चम्बा की ओर चली जाती है तो दायीं ओर वाली डलहौजी को। इस छोटे-से तिराहे पर हिमाचल प्रदेश परिवहन निगम का छोटा-सा एक ऑफिस है। फल-सब्जी आदि आम जरूरत की कुछ दुकानों और ढाबों से घिरा यह तिराहा एक छोटा-सा बाज़ार भी है जो उस समय चहल पहल से भरा था। खिली हुई तेज़ धूप थी, पर हल्की हवा चल रही थी जिसमें ठंडक थी। पठानकोट में मैंने अपने पहुँचने की सूचना अशोक दर्द को फोन पर दे दी थी। हिमाचल में विधान सभा चुनाव की तिथि 4 नवम्बर घोषित हो चुकी थी। अशोक दर्द सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं, वह भला इलेक्शन डयूटी से कैसे बच पाते। उन्होंने फोन पर बताया था कि वह इलेक्शन डयूटी की ट्रेनिंग पर हैं और बनीखेत से बाहर रहेंगे, पर बस स्टैंड पर आपको कोई न कोई लेने अवश्य आ जाएगा। मैंने उन्हें बस का नम्बर लिखवा दिया था। बस स्टैंड पर उनकी पत्नी श्रीमती आशा ठाकुर पहले से आई खड़ी थीं, हमें लेने। यूँ तो हमारे ठहरने की व्यवस्था होटल में थी, परंतु श्रीमती आशा ने जब हमें घर चलने के लिए कहा तो हम मना नहीं कर पाए। बस स्टैंड से पैदल पंद्रहेक मिनट की दूरी पर था उनका घर, पुखरी में। घर थोड़ा ऊँचाई पर था। अपना-अपना सामान उठाये हम आगे बढ़े। श्रीमती आशा ने भी हमारे मना करने के बावजूद एक बैग उठा लिया था। सबसे आगे बलराम अग्रवाल थे, उनके पीछे मैं और श्रीमती आशा और हमारे पीछे श्रीमती अग्रवाल और आदित्य। चढ़ाई पर बने पक्के रास्ते पर चलते-चलते एकाएक बलराम अग्रवाल के पैर रुक गए। पीछे से श्रीमती आशा बोली, ''चलिए...चलिए।'' बलराम अग्रवाल हैरानी और परेशानी में बोले, ''कहाँ चलूँ ?''
      श्रीमती आशा मुस्करा दीं।

टूटी सड़क पर अस्थायी पुल(चित्र-ब.अ.)
दरअसल, रास्ते के जिस छोर पर बलराम अग्रवाल सामान उठाये ठिठक गयs थे, उससे आगे करीब पन्द्रह फीट सड़क टूटी हुई थी और गहरे खड्ड का रूप लिए थी। दायीं तरफ दीवार के साथ दो-ढाई फुट के लकड़ी के फट्टों से पुलनुमा अस्थायी मार्ग बनाया हुआ था। जब श्रीमती आशा उन फट्टों पर से होती हुई आगे बढ़ीं तो हम भी एक-एक करके डरते-सहमते हौले-हौले फट्टों पर पैर रखते आगे बढ़े। बीचोंबीच कुछ फट्टे ऐसे भी थे जिन्हें देखकर लगता था कि पैर रखते ही नीचे धसक जाएंगे। बरसात में पहाड़ों पर ऐसा अक्सर होता है। सड़कें, रास्ते टूटकर बह जाते हैं और आवागमन अवरुद्ध हो जाता है। जब तक सरकारी अमला कुछ करे, लोग अस्थायी प्रबंध कर लेते हैं ताकि जीवन गतिमय बना रहे। कामकाज न रुकने पाए।
      सामान उठाये होने और थोड़ा चढ़ाई चढ़ने के कारण हम हाँफ रहे थे। थोड़ा रुककर आगे बढ़े तो पत्थर की ऊँची सीधी सीढ़ियाँ हमारे हौसले की परीक्षा लेने के लिए जैसे तैयार खड़ी थीं। उन सीढ़ियों के शिखर पर दो-तीन घर छोड़कर अशोक जी का घर था जिसमें जाने के लिए हमें कुछ सीढ़ियाँ नीचे भी उतरना पड़ा। चढ़ना-उतरना पहाड़ की ज़िन्दगी में हर पल बना रहता है। ऊँची-नीची चढ़ाई-उतराई का नाम ही पहाड़ है। घर में प्रवेश करने से पहले मैंने चारों ओर दृष्टि घुमाई, धूप में चमकते हरे भरे जंगलों से ढके ऊँचे पहाड चारों ओर खड़े थे। बायीं ओर के ऊँचे पहाड़ पर मकानों, होटलों की हरी छतें चमक रही थीं और एक टॉवर पहाड़ी की चोटी पर गर्व से गर्दन ताने खड़ा दीख रहा था। श्रीमती आशा ने बताया- वह डलहौजी है। मुझे लगा, नव आगंतुकों को डलहौजी इसी तरह झांककर कौतुहल से देखते हुए खुशामदीद कहा करता होगा क्योंकि छह किलोमीटर नीचे डलहोजी के चरणों में बसे बनीखेत से होकर ही रास्ता ऊपर डलहौजी को जाता है।
बनीखेत हैलीपेड(चित्र- बलराम अग्रवाल)
हमारे पास आधा दिन था। यद्यपि सफ़र की थकान हम पर तारी थी, फिर भी हम बचे हुए आधे दिन का सदुपयोग करना चाहते थे। अगला दिन यानी 26 अक्तूबर का दिन तो पूरा हमने घूमने के लिए ही निश्चित कर रखा था। दोपहर के भोजन के पश्चात श्रीमती आशा ठाकुर हमें बनीखेत के हैलीपेड पर ले गईं, जो उनके घर से ज्यादा दूर नहीं था। पैदल बमुश्किल आधे घंटे का रास्ता रहा होगा। यह हैलीपेड एक छोटी पहाड़ी पर स्थित था। ऊपर की ओर जाती घुमावदार पक्की सड़क सुनसान पड़ी थी और ऊपर हैलीपेड पर भी गहरा सन्नाटा पसरा था। ऐसा लगता था, जैसे हैलीपेड गुनगुनी धूप का आनन्द लेने के लिए पहाड़ की एक समतल चोटी पर आकाश की ओर मुँह किए आराम की मुद्रा में लेटा हुआ हो। रातभर की ठंड और सुस्ती को दूर करने के लिए। इस हैलीपेड को आर्मी द्वारा बनाया गया था, परन्तु वहाँ आर्मी जैसा कुछ नज़र नहीं आया। यहाँ से पूरा बनीखेत दिखाई देता था। बेहद लुभावना दृश्य। हरे भरे पहाड़ों की ढलानों पर घर ही घर। नीचे से ऊपर तक। मानो पहाड़ पर मकानों का कोई कारवाँ झुककर चढ़ रहा हो। 

हैलीपेड से उतरते हुए(चित्र-आदित्य अग्रवाल)
यूँ तो हैलीपेड की ओर आते घुमावदार रास्ते से ही हमारे कैमरे आसपास के दृश्यों को अपने अंदर कैद करने के लिए उतावले हो उठे थे, पर हैलीपेड पर पहुँचकर तो जैसे उनमें परस्पर होड़-सी लग गई। आदित्य अपने मोबाइल कैमरे से तथा मैं और बलराम अग्रवाल अपने कैमरों से एक के बाद एक चित्र लेने लग पड़े। बलराम अग्रवाल अच्छा कथाकार ही नहीं, अच्छा छायाकार भी है। उसके खींचे हुए चित्रों में कुछ अलग और विशेष होता है। वह छोटी छोटी झाड़ियों, फूलों, वनस्पतियों, वृक्षों, पक्षियों में गहरी सूक्ष्म दृष्टि से जिस कलात्मकता और जीवंतता को पकड़ता है, वह दृष्टि बहुत कम लोगों के पास होती है। वह कलात्मकता और जीवंतता कैमरे की आँख से होकर जब हमारे सामने आती है तो हम दंग रह जाते हैं।
26 अक्तूबर 12 की सुबह उठा तो देखा बलराम अग्रवाल तैयार-से थे - सुबह की सैर के लिए। दिल्ली में तो मैं रोज़ घर के पास वाले झील पॉर्क (लक्ष्मीबाई नगर) में सुबह-शाम कम से कम एक-एक घंटा सैर किया ही करता हूँ। डायबिटीज़ का मरीज हूँ। यहाँ पहाड़ पर कैसे न निकलता। मैं तुरत तैयार हो गया। बलराम अग्रवाल ने कुर्ते पर फुलबाजू का स्वैटर पहना हुआ था और सिर पर अंगोछे का मुरेठा-सा बांधकर, हाथ में कैमरा लिए तत्पर खड़ा था। मैंने भी अपने आप को टिपटाप किया और अपना कैमरा उठा बाहर निकल आया। बाहर सुबह की हल्की सुनेहरी धूप थी और शीतल हवा के मंद मंद झौंके। हमने सैर के लिए बस-स्टैंड से चम्बा की ओर जाती सड़क को चुना। दुकानों के शटर गिरे हुए थे। सड़क खाली-खाली-सी थी। कुछ लोग बस-स्टैंड पर चम्बा, डलहौजी और पठानकोट के लिए बस की प्रतीक्षा में खड़े थे। 
बनीखेत-चम्बा रोड का जंगल(चित्र-बलराम अग्रवाल)
बातें करते हुए हम दोनों चम्बा रोड पर बहुत आगे तक चले गए। दोनों ओर चीड़ के घने दरख्तों और अन्य झाड़ियों से घिरे पहाड़ थे, गहरी खाइयाँ थीं और पेड़ों की डालियों में से छन कर आती सूरज की सुनेहरी किरणें। पंछियों का कलरव नहीं था। इक्का-दुक्का कोई पंछी दीख जाता या फिर उसकी आवाज़ सुनाई दे जाती। मुझे हैरानी हुई, दिल्ली में जिस पॉर्क में मैं सुबह-शाम सैर करता हूँ, वहाँ दोनों समय चिड़ियों की चहचाहट पॉर्क को गुंजायमान किए रखती है। पर यहाँ ? यहाँ पहाड़ का जंगल शांत था। बलराम अग्रवाल की खोजी नज़रें आसपास के दरख्तों, झाड़ियों, पहाड़ों की चोटियों में कुछ खोज रही थीं। उसके दायें हाथ की तर्जनी कैमरे के क्लिक बटन को दबाने के लिए बेताब थी। एकाएक, हम चलते चलते ठिठक गए। सामने सड़क के बीचोबीच किसी वाहन से कोई जंगली जिनावर बुरी तरह कुचला गया था। करीब जाने पर पता चला, वह एक नेवला था। सुबह-सुबह यह दृश्य देखकर मन खराब हुआ, पर हम आगे बढ़ गए। एकाएक मैंने बलराम अग्रवाल से पूछा, ''यार, यहाँ पहाड़ पर लंबे-ऊँचे पेड़ तो खूब दिखते हैं, पर मुझे इन पेड़ों के बच्चे नहीं दिखाई दिए।'' दरअसल, कल से मैं उन्हें ही ढूँढ़ रहा था। इतने लंबे-ऊँचे, पहाड़ों की चोटियों से होड़ लेते पेड़ों के बच्चे कैसे होते होंगे, मन में एक जिज्ञासा-सी थी। बलराम मेरी बात पर मुस्करा दिया। जैसे कह रहा हो- तो क्या ये यूँ ही इतने लंबे-ऊँचे हो गए? ये भी तो कभी नन्हें बच्चे रहे होंगे। फिर मेरी जिज्ञासा को शांत करता हुआ बोला, ''हैं, बहुत हैं, पर तुम्हें इन घने बड़े-बड़े वृक्षों में दिखाई नहीं दिए। मैं तुम्हें दिखाता हूँ।'' और फिर उसने मुझे पहाड़ की जड़ पर कई छोटे-छोटे कोमल से चीड़ के वृक्ष दिखाए जो पहाड़ की मिट्टी में अपनी जड़ें जमाने की जद्दोजहद करते दीखे। सचमुच अच्छा लगा उन्हें देखकर। बचपन किसका अच्छा नहीं लगता। चाहे वे पेड़-पौधों का हो, जीव-जंतुओं का या फिर मनुष्य का। इस बीच बलराम अग्रवाल का कैमरा क्लिक-क्लिक करता रहा। एकाएक वह सड़क छोड़कर बायीं ओर चीड़ के ऊँचे घने दरख्तों के बीच से पहाड़ के ऊपर जाती कच्ची पगडंडी पर हो लिया। एक दीवानगी-सी थी उसके चहरे पर, कुछ पा लेने की। प्रकृति से बात करने की। उसे सहेजने की। मुझे कुछ डर-सा लगा। ऊपर जाती पगडंडी सुनसान थी, पर उस पर भेड़-बकरियों की ताज़ा मेंगनियाँ थीं। बलराम बोला, ''डर नहीं, ये मेंगनियाँ बताती हैं कि खतरा नहीं है। यहाँ से अभी-अभी भेड़-बकरियाँ और चरवाहे गुजरे होंगे। आ जा।'' और मैं उसके पीछे-पीछे पगडंडी पर चढ़ाई चढ़ने लगा। तभी मुझे शिमला की पहाड़ियाँ और घने जंगल याद हो आए। धर्मशाला, कुल्लू-मनाली के भी। एकाएक अक्तूबर 2001 के दिन मेरे जेहन में कौंधने लगे। धर्मशाला में 13 अक्तूबर 2001 को दसवां अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन था। मुझे 14 अक्तूबर को वापस दिल्ली के लिए लौट जाना था। पर, इंदौर से आए वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यकांत नागर ने पूछा, ''कुल्लू-मनाली चलोगे? यहाँ तक आए हैं, रोहतांग-पास देख आते हैं?'' उनके साथ हमेशा की तरह कथाकार सुरेश शर्मा भी थे। ये दोनों अपनी बढ़ती आयु को हमेशा ठेंगा दिखाते रहते हैं और दूर-दराज की यात्राएँ दोनों अपनी बढ़ी उम्र में भी यूँ करते हैं कि युवा भी शरमा जाएँ। मैंने अनमने मन से 'हाँ' कह दी थी। और उनके साथ धर्मशाला से कुल्लू-मनाली घूमने जाना और बर्फीली हवा में किराये के लबादे पहनकर रोहतांग-पास पहुँचना, आज भी मेरे अंदर एक रोमांच पैदा कर देता है। इन बुजुर्ग़ साहित्यिकारों ने मुझे पहाड़ों की एक खूबसूरत रोमांचकारी यात्रा का सहयात्री बनाया, जो मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय यात्रा बन गई। आज मैं कथाकार मित्र बलराम अग्रवाल के साथ पहाड़ों पर घूम रहा था। कंपनी भी सभी के साथ नहीं की जा सकती। उसी के संग की जा सकती है, जिससे आपकी मानसिक ट्यूनिंग हो।
पत्थर पर फूल(चित्र-बलराम अग्रवाल)
      सुबह की सैर करके वापसी में पुखरी लौटते हुए बलराम का कैमरा फिर सक्रिय हो उठा। ऊपर जाते रास्ते के दायीं तरफ पत्थर-सीमेंट की दीवार में कोमल-कोमल झाड़ियाँ अपने छोटे-छोटे रंग-बिरंगे फूलों के साथ मुस्करा रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे दीवार पर कोई खूबसूरत पेंटिंग सजी हो। मैं यहाँ से दो-तीन बार तो गुजरा ही होऊँगा और मैंने इन्हें देखा भी था, पर इस दृष्टि से तो कतई नहीं। बलराम बोला, ''देखा, पत्थर की छाती पर फूल। पत्थर की कठोरता को ठेंगा दिखाती ये कोमल झाड़ियाँ।'' अभी कुछ ही आगे बढ़े थे कि एकाएक बलराम अग्रवाल के कदम फिर रुक गए। मैंने पूछा, ''क्या हुआ?'' उसके चेहरे पर एक दर्द था। उसने अपने पायजामे के दायें पायँचें में फंसे एक पहाड़ी लता के काँटे को बड़े आराम से अलग किया। करीब एक मीटर लम्बी लता उसके संग-संग चली आ रही थी और अचानक उसने उसे रोक लिया था। बलराम अग्रवाल ने वहीं खड़े-खड़े बताया, ''नीरव, ऐसा मेरे साथ यह दूसरी बार हुआ है। जैसे मुझे कोई रोक लेना चाहता है। एक बार पहले चमोली में भी ऐसा ही हुआ था। लगभग पन्द्रह-बीस फुट तक मुझे पता ही नहीं चला था कि कोई लता मेरे संग-संग चल रही है। पता तब चला जब पायँचे में फंसे कांटे ने मुझे और आगे न बढ़ने दिया। उस समय भी मेरी आँखों में ऑंसू थे।'' मैंने देखा, बलराम अग्रवाल की आँखों में अब भी जलकण तैर रहे थे। उसने भरे गले से कहा, ''नीरव, इसकी मजबूरी है कि ये बोल नहीं सकती, और मेरी मजबूरी है कि मैं रुक नहीं सकता।''

डलहौजी : अप्रतिम पर्वतीय नगरी
डलहौजी
मित्र अशोक दर्द ने हमारे लिए टैक्सी का प्रबंध गत रात को ही कर दिया था। आज का दिन हमने डलहौजी, खज्जियार और चम्बा घूमने के लिए सुनिश्चित कर रखा था। नाश्ता करने के बाद अपना सामान संभाल हम बाहर निकल आए। रास्ते में फिर वही टूटी हुई सड़क पर लकड़ी के फट्टों का अस्थायी पुल हमें सामान सहित पार करना था। पर अब हमें उससे भय नहीं लगता था। वहाँ से हम कई बार आ-जा चुके थे। अशोक दर्द और श्रीमती आशा ठाकुर बाहर सड़क तक जहाँ टैक्सी खड़ी थी, हमें छोड़ने आए। रास्ते में पाइन-वुड होटल पड़ता था, जहाँ हमारे कमरे पहले से बुक थे। हमने वहाँ अपने कमरों में सामान रखा और डलहौजी के लिए चल दिए। 

डलहौजी जी साफ़-सुथरी सड़कें
      सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक फैला जंगल शांत खड़ा था। पत्ती तक के हिलने की आवाज़ नहीं थी। चमकती धूप पहाड़ों की चोटियों और पेड़ों की पत्तियों को चमका रही थी। ऐसा लग रहा था, रात भर ठंड और ओस में ठिठुरते ये पहाड़ और पेड़-पौधे जैसे 'सन-बॉथ' ले रहे हों। बनीखेत से डलहौजी का मार्ग भी घुमावदार रास्तों और खतरनाक मोड़ों से भरा था। ऑफ़-सीज़न होने के कारण सड़क पर भीड़भाड़ नहीं थी। डलहौजी बनीखेत से मात्र 6 किलोमीटर की दूरी पर था, अत: वहाँ पहुँचने में हमें अधिक समय नहीं लगा।
      डलहौजी समुद्र तल से 6000-9000 फीट की ऊँचाई पर धौलाधार के पाँच पहाड़ों के बीच स्थित एक खूबसूरत हिल-स्टेशन है जिसे सन् 1854 में भारत में तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड डलहौजी ने अपनी सेना और अफसरों की खातिर गर्मी के दिनों के लिए एक आरामगाह के रूप में बसाया था। डलहौजी, प्राचीन चम्बा हिल स्टेट जिसे अब चम्बा ज़िला कहा जाता है, के गेट-वे के रूप में भी जाना जाता है। इस पर्वतीय क्षेत्र में प्राचीन हिंदु संस्कृति और कला के नमूने तथा प्राचीन मंदिर देखे जा सकते हैं। यहाँ से रावी और चिनाब नदियाँ निकलती हैं जिन पर कई हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट और डैम का निर्माण हो रहा है। मणि महेश मंदिर और झील, तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र हैं।
       डलहौजी के गांधी चौक पर जब टैक्सी रुकी तो हम बाहर निकल आए। दुकानें खुल रही थीं और दुकानदार दिनभर की तैयारी के काम में जुटे हुए थे। हवा न होने के कारण धूप तेज लग रही थी। हमने अपने पूरी बाजू के स्वेटर उतारे और आधीबाजू के पहन लिए। बलराम अग्रवाल ने पंजाबी कथाकार मनमोहन बावा का मेहर होटल मुझे दिखाया। 1 अक्तूबर 2005 को इसी मेहर होटल में 14वाँ अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। बलराम अग्रवाल पहुँचा था, पर मैं किन्हीं घरेलू कारणों से नहीं पहुँच पाया था। यही वजह थी कि जब इस बार डलहौजी से पाँच-छह किलोमीटर नीचे बनीखेत में कार्यक्रम के आयोजित होने की सूचना मिली तो मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। ऐसे कार्यक्रमों को मैं किसी तीर्थ से कम नहीं समझता। दूर दराज के लेखक मित्रों से मेल-मुलाकात, कार्यक्रम के बहाने साहित्य पर विचार-विमर्श और फिर घूमना-घामना। दिल्ली की भागमभाग और तनावभरी ज़िन्दगी को ऐसे सम्मेलनों में आकर एक सुकून-सा मिलता है। मनमोहन बावा से दिल्ली में पंजाबी के साहित्यिक सम्मेलनों/गोष्ठियों में मेरी मुलाकात होती रही है। पंजाबी कथाकार नछत्तर से उनके बारे में अनेक अवसरों पर बात हुई है। इतिहास के पात्रों को लेकर मनमोहन बावा द्वारा लिखी कई कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं जिनमें 'ओदाम्बरा'  'अजात सुंदरी' उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। वह पंजाबी में केवल एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने इतिहास-पुराण को केन्द्र में रखकर ढेर सारी कहानियाँ लिखी हैं, कुछ उपन्यास भी हैं। पहाड़ों पर उनकी अनेक पुस्तकें हैं- 'अणडिट्ठे रस्ते, उच्चे परबत', 'जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत', 'एक पर्वत, दो दरिया' 'आ चलिए, पहाड़ां दे पार'। मेरी इच्छा थी कि उनसे थोड़ी देर के लिए मिलूँ, पर हमारा शिडूल बहुत टाइट था। ड्राइवर ने हमें चलने से पूर्व ही समझा दिया था। हमें खज्जियार, चम्बा घूमकर अँधेरा होने से पहले बनीखेत भी पहुँचना था, इसलिए मैंने अपनी इच्छा को यह सोचकर मन में दबा लिया कि यदि मैं उनसे मिला तो एक-आध घंटा तो रुकना ही पड़ेगा।
            कुछ देर हम सुभाष चौक रुके और वहाँ के चित्र लिए। पर्यटक थे, पर बहुत कम। ड्राइवर ने बताया कि सीज़न के दिनों में यहाँ बहुत भीड़ होती है और उस भीड़ का एक अपना ही आनन्द है। 

यहाँ से हम पंजपुला पहुँचे जो डलहौजी जीपीओ से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ शहीद भगत सिंह के चाचा शहीद अजीत सिंह की समाधि है जिनका निधन उस दिन हुआ जिस दिन भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था अर्थात 15 अगस्त 1947 । यहाँ करीब डेढ+ -दो किलोमीटर की ऊँचाई पर एक खूबसूरत जलप्रपात है जिसका पानी बड़े-बड़े पत्थरों के बीच अपनी राह बनाता हुआ नीचे शहीद अजीत सिंह की समाधि तक आता है। बलराम अग्रवाल ने अपना कैमरा संभाला और ट्रैकिंग के लिए तैयार हो गया। उसने मेरी ओर देखा और पूछा, ''चलेगा?'' वह जानता था कि कई वर्ष पहले मेरा बायां पैर एक सड़क दुर्घटना में मल्टी-फ्रेक्चर का शिकार हो गया था, इसलिए मैं पथरीले, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने/चढ़ने से बचता था। मैंने पूछा, ''तुम?'' इसपर वह बोला, ''मैं तो जाऊँगा, आया ही किसलिए हूँ। ट्रैकिंग का अपना अलग ही मजा है।'' श्रीमती अग्रवाल और उसका बेटा आदित्य भी ऊपर जलप्रपात तक जाने को तैयार थे। मैंने भी मन में सोचा, देखा जाएगा और उनके संग हो लिया। बड़े-बड़े पत्थरों की चढ़ाई थी। हम रुक-रुककर, संभलकर ऊपर चढ रहे थे। ऊपर चढ़ने में मुझे और श्रीमती अग्रवाल को परेशानी हो रही थी। कई जगहों पर बलराम अग्रवाल और आदित्य ने हम दोनों की ऊपर चढ़ने में मदद की। तीन महिलाओं और एक पुरुष यानी चार लोगों का एक ग्रुप हमसे पहले ही ऊपर मौजूद था और फोटोग्राफी में मशगूल था। उन्हें पीछे छोड़कर धीरे-धीरे हाँफते हुए-से हम उस जलप्रपात तक पहुँच गए। 
पंजपुला का जलप्रपात(चित्र-ब.अ.)
आदित्य नौजवान लड़का था और हमसे काफी पहले वहाँ जा पहुँचा था। मन को हर लेने वाला दृश्य था। वहाँ से रास्ता और ऊपर सामने ऊँचाई पर दिखाई दे रहे मंदिर तक जाता था, पर मुख्यत: समय की कमी के कारण हमारे लिए और ऊपर जाना सम्भव नहीं था, अत: हम नहीं गए। वहीं जलप्रपात पर बैठकर कई चित्र लिए और कलकल की ध्वनि करते ऊपर से नीचे गिरते और बड़े-बड़े पत्थरों के बीच से रास्ता बनाते नीचे की ओर बहते शीतल पानी का आनन्द लेते रहे। 
पंजपुला का जंगल
यहाँ इस जलप्रपात के आसपास के जंगल का एक अपना ही नाद था जो कर्ण प्रिय लग रहा था। मुझे शिलांग और उससे आगे चेरापूंजी के पहाड़ों के ऊंचे-ऊंचे जलप्रपात स्मरण हो आए। पहाड़ों को देखकर मुझे सदैव लगता रहा है कि ऊपर से खामोश दीखते ये विशाल पहाड़ अपनी छाती में न जाने दु:ख के कितने पहाड़ छिपाये खड़े रहते हैं, एक समाधि की-सी अवस्था में। अपने दुख को किसी से साझा न कर पाने की पीड़ा में ये चुपचाप रोया करते हैं और इनसे फूटती सहस्रों जलधाराएं असल में इन रोते हुए पहाड़ों के अश्रु ही हैं। इन्हीं पर्वतों के भीतर कई कई ज्वालामुखी भी सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जब पहाड़ के भीतर का दर्द असहनीय हो जाता होगा, तब ये अपना रौद्र रूप दिखाते होंगे, सोये हुए ज्वालामुखी फटते होंगे।

खज्जियार की खूबसूरती

खज्जियार
खज्जियार जाने के लिए हमें पुन: डलहौजी आना पड़ा। ऊँचे पर्वतों पर सर्पीली सड़क और सड़क के साथ लगती दिल दहला देने वाली खाइयाँ। कुछ ही देर बाद देवदार का खूबसूरत, मन को मोह लेने वाला हरियाला जंगल शुरू हो गया। कतारों में खड़े आपस में एक दूसरे से सिर जोड़े देवदार के वृक्ष बहुत सुन्दर लग रहे थे और उनके बीच से छन कर आती सूरज की किरणें अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रही थीं। यह मीलों फैला लम्बा देवदार का जंगल था। खज्जियार पहुँचने से पहले हम एक जगह रुके। गाड़ी से उतर का टांगों को सीधा किया। यहाँ से ऊँचे पहाड़ों और देवदार के वृक्षों के बीच घिरा खज्जियार का खूबसूरत पर्यटन स्थल दिखाई देता था, जहाँ हमें पहुँचना था। बलराम अग्रवाल और आदित्य ने यहाँ कई चित्र अपने-अपने कैमरे में कैद किए और फिर हम आगे बढ़ लिए। खज्जियार जब हम पहुँचे दोपहर की तेज़ चमकदार धूप हर तरफ बिखरी हुई थी। यह हरी घास का एक गोल मैदान है जो पर्वतों के बीच देवदार के वृक्षों से घिरा है। इस मैदान के बीचोंबीच एक छोटी-सी गोल झील है जिसे अब झील कहना तो 'झील' शब्द को अपमानित करने जैसा होगा। पानी सड़ा हुआ था और कीचड़ अधिक था। बताते हैं कि पहले इस प्राकृतिक छोटी-सी झील की ऐसी हालत नहीं हुआ करती थी। यह खज्जियार की शोभा थी। हमने सोचा, यदि राज्य सरकार चाहे तो इसका पुनर्रोद्धार करके इसकी सुन्दरता को लौटा सकती है। यहाँ बोटिंग आदि की व्यवस्था भी की जा सकती है। पर सरकारें इतनी जल्दी कहाँ चेता करती हैं। मैदान के चारों तरफ गोलाई में पक्का रास्ता है जिस पर घोडे वाले किराया लेकर घुड़सवारी कराते हैं। घास के मैदान में बहुत से पर्यटक इधर-उधर छितरे हुए धूप और नज़ारों का आनन्द ले रहे थे। पार्क हुई कारों, बसों को देखकर लगा कि फ सीजन में भी यहाँ बहुत लोग आते हैं। पर हमें डलहौजी से खज्जियार आते समय रास्ते में ऐसी भीड़ का अहसास नहीं हुआ था। यहाँ हम आधे घंटे से अधिक नहीं रुक पाये, सबूत के तौर पर कुछ चित्र लिए और चल दिए।

चम्बा की चमक

पहाड़ पर खेत
अब हम चम्बा की ओर जा रहे थे जो यहाँ से 25 किलोमीटर की दूरी पर था। देवदार के वृक्ष धीरे-धीरे पीछे छूटते जा रहे थे और मिट्टी और चट्टानों वाले कच्चे-पक्के पहाड़ नमूदार होने लगे थे। पहाड़ों पर सीढ़ीदार खेत धूप में चमक रहे थे और घरों की छतों पर धूप में सूखने के लिए डाली गई पीली लाल छल्लियाँ। पहाड़ों की ढलानों पर सीढ़ीदार खेतों में यहाँ के लोग खेती कैसे करते होंगे, मैं अभी सोच ही रहा था कि ड्राइवर खुद-ब-खुद बोल उठा, जैसे उसने मेरे मन के प्रश्न को सुन लिया हो, ''आदमी का तेल निकल जाता है, सर।''
      चलती गाड़ी से एकाएक बलराम अग्रवाल ने एक विशाल पहाड़ पर नीचे से ऊपर जाती पेड़ों की कतार की ओर इशारा किया। ऐसा लगा जैसे ये पेड़ काफ़िला बनाकर एक कतार में पहाड़ पर चढ़ रहे हों। एकाएक मैंने पीछे बैठे बलराम अग्रवाल से प्रश्न किया, ''पहाड़ों पर ये पेड़ इतने ऊँचे और लम्बे क्यों होते हैं ?'' ये प्रश्न मेरे मन में पहली बार शिमला प्रवास के दौरान वहाँ के पेड़ों को देखकर उभरा था और मैंने इसे वहाँ एक कवि गोष्ठी के समापन पर हिंदी कथाकार सुदर्शन वशिष्ठ और बद्रीसिंह भाटिया से भी साझा किया था। ये लोग पहाड़ों के लोग हैं। मुझसे अधिक जानते हैं। पर मैं उनके उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ था। उन्होंने इनका लम्बा और ऊँचा होना इनकी प्रजाति का गुण बताया था। पर मैं कुछ और ही सोच रहा था। जो मैंने तब सोचा था, वही बलराम अग्रवाल से साझा किया, ''मुझे लगता है बलराम कि पहाड़ इन्हें हर समय एक चुनौती देता रहता है और ये उसकी चुनौती को कुबूल कर लेते हैं। ये पहाड़ की ऊँचाई से होड़ लेते हैं और इसी होड़ में ऊँचे और लम्बे होते चले जाते हैं। ये जैसे पहाड़ की चोटियों से कह रहे हों कि तुम कितनी भी ऊँची क्यों न हो जाओ, हम तुम्हारी ऊँचाई को छू लेंगे।'' कहीं कहीं तो हमें पर्वत की फुनगी पर गर्व से खड़ा इतराता पेड़ भी नज़र आ जाता है जैसे मुँह चिढ़ाते हुए पर्वत से कह रहा हो, ''अब कहो !''
धूप में चमकता चम्बा
      हमारी कार पहाड़ों के बीच घुमावदार सड़क पर तीखे और अंधे मोड़ काटती तेजी से आगे बढ़ रही थी। कभी लगता हम नीचे उतर रहे हैं और कभी लगता हम ऊपर चढ़ रहे हैं। यह उतरना-चढ़ना चम्बा तक लगातार बना रहा। ऊँची पहाड़ी के एक स्थान से ड्राइवर ने सामने नीचे की ओर देखने का इशारा करते हुए बताया कि वो चम्बा है, जहाँ हमको जाना है। हिमाचल का एक बड़ा पर्वतीय शहर जो दोपहर बाद की सीधी धूप में अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ पहाड़ की तहलटी में चमक रहा था। 
रावी नदी
शहर में प्रवेश करने से कुछ पहले से ही रावी नदी हमारे साथ हो लेती है और शहर तक हमारे साथ एक पथ-प्रदर्शक की भाँति चलती है, मानो कह रही हो, ''आओ, तुम्हें शहर तक छोड़ दूँ।'' जिस वक्त हम चम्बा शहर पहुँचे शाम के पौने चार बज रहे थे और हमारे पेट तेज भूख से कुलबुला रहे थे। शहर में घुसते ही बाज़ार कीं भीड़ देख हमें हैरत हुई। कार पार्किंग की समस्या भी आई। आखिर ड्राइवर हमें भूरि सिंह म्युजियम के बाहर उतार कर कार पार्किंग के लिए उचित स्थान तलाशने आगे बढ़ गया।
      चम्बा शहर पश्चिमी हिमालय की पहाड़ियों के बीच रावी नदी के तट पर स्थित है। समुद्र तल से 996 मीटर की ऊँचाई पर बसा हिमाचल का एक खूबसूरत शहर। अपनी प्राचीन समृद्ध संस्कृति और सभ्यता को समेटे! यहाँ के मणि महेश का मेला, सुई माता और मिनजर का उत्सव बहुत प्रसिद्ध हैं। यह शहर अद्वितीय रुमाल एम्ब्रयडरी के लिए भी जाना जाता है। यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं- भूरि सिंह संग्रहालय, महाराजा पैलेस, चमेरा लेक, लक्ष्मीनारायण मंदिर, रंग महल, पंगी वैली, अखंड पैलेस, चामुंडा देवी मंदिर और सुई माता मंदिर। समय की कमी के कारण हम ये सब स्थल नहीं देख सकते थे। ड्राइवर ने कह दिया था कि यदि लौटते समय बनीखेत का नौका विहार और हाइडल प्रोजेक्ट व डैम उजाला रहते देखना चाहते हैं तो यहाँ अधिक समय न लगाएँ। तय हुआ कि हम भूरि सिंह संग्रहालय और लक्ष्मीनारायण मंदिर ही देखेंगे। संग्रहालय के बाहर तो हम खड़े ही थे। टिकट लेकर हमने दो मंजिला संग्रहालय देखा। 
भूरि सिंह संग्रहालय
1904 से 1919 तक चम्बा के शासक रहे राजा भूरि सिंह के नाम पर इस संग्रहालय की स्थापना 1908 में की गई थी। राजा भूरि सिंह ने अपनी पारिवारिक पेंटिंग्स व अन्य वस्तुएँ इस संग्रहालय को दान की थीं। यहाँ बहुत से शिलालेख, हस्तलिखित लिपियाँ रखी गई हैं। भागवत पुराण और रामायण की पेंटिंग्स विशिष्ट शैली में देखने को मिलती हैं। शाही सिक्कों, पहाड़ी आभूषणों, पोशाकों, शस्त्रों, बख्तरों, वाद्य यंत्रों को भी इस संग्रहालय में रखा गया है।
      संग्रहालय देखने के बाद हमें लक्ष्मीनारायण मंदिर की ओर पैदल कूच करना था, पर भूख हमारे कदम रोके थी। मालूम हुआ कि चार बजे सभी होटलों, ढाबों में सुबह तैयार की गई भोजन सामग्री शाम चार बजे तक समाप्त हो जाती है और दुकानदार शाम के लिए नए सिरे से तैयारी में जुट जाते हैं। जगह-जगह खड़ी रेहड़ियों पर आलू टिक्कियाँ या चाट पकौड़ी खाना हमें मंजूर नहीं था। तय हुआ कि पहले लक्ष्मीनारायण मंदिर हो आया जाए, फिर ब्रेड और ताजे समोसे पैक करवाकर लौटते हुए गाड़ी में बैठकर खाए जाएँ। 
चम्बा में लक्ष्मी नारायण मंदिर
मंदिर का रास्ता भीड़ भरे बाज़ार में से होता हुआ काफी ऊपर की ओर जाता है। बाज़ार में चहल-पहल और भीड़ देखकर मुझे दिल्ली के सरोजिनी नगर, पहाड़गंज, करोलबाग, चांदनी चौक के बाज़ारों की याद हो आई। आज छुट्टी का दिन भी नहीं था, फिर भी इतनी भीड़ ! हैरत वाली बात थी। लक्ष्मीनारायण मंदिर चम्बा का एक मुख्य मंदिर है जिसे 10वीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मन ने बनवाया था। मंदिर का निर्माण वहाँ की शिखारा शैली में किया गया है। यह एक मंडप जैसी संरचना में बना है। इस मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मंदिर है जैसे राधा कृष्ण मंदिर, शिव मंदिर, गौरी शंकर मंदिर और हनुमान मंदिर आदि। इस मंदिर परिसर में चम्बा ज़िले की संस्कृति, कला और सभ्यता को दर्शाने वाला एक छोटा-सा संग्रहालय भी है, जिसे बलराम अग्रवाल ने ख़ासतौर पर बड़े गौर से देखा और वहाँ बैठे व्यक्ति से चम्बा के इतिहास, यहाँ की संस्कृति और कला पर काफी देर बात की। 
      मंदिर में हमें कुछ अधिक समय लग गया। मंदिर दर्शन करके जब हम नीचे उतरे तो शाम उतर रही थी लेकिन उजाला काफी था। और इधर भूख अपने शिखर पर थी। शुक्र था कि बनीखेत में सुबह के नाश्ते में श्रीमती आशा और अशोक दर्द ने जबरन दही के संग आलू के परांठे इतने खिला दिए थे कि दोपहर तक हमें बिलकुल भी भूख नहीं लगी थी। हमने फटाफट ताज़े समोसे पैक करवाये, कागज की प्लेटें लीं और एक पूरी ब्रेड लेकर गाड़ी में आ बैठे। चलती गाड़ी में ही हमने अपनी भूख को शांत किया। चम्बा से निकलते हुए ड्राइवर ने बता दिया था कि हम रावी पर बना बोटिंग प्वाइंट और डैम उजाले में नहीं देख पाएँगे। क्या कर सकते थे। लौटना तो उधर से ही था। धीरे-धीरे धूप पहाड़ों के पीछे मुँह छिपाकर हमें अलविदा कहने की तैयारी कर रही थी और अँधेरा हमसे हाथ मिलाने को उतावला नज़र आता था। अब ड्राइवर ने गाड़ी की गति तेज़ कर दी थी। बीच बीच में वह गाड़ी चलाते हुए मोबाइल पर लम्बी-लम्बी जब बात करता तो हमारी जान सूख जाती। तीखे मोड़ और गहरी खड्ड-खाइयाँ देख हमारे दिल दहल रहे थे। पर ड्राइवर ने बताया कि वह पिछले बारह वर्षों से यहाँ गाड़ी चला रहा है। कुछ साल उसने दिल्ली में ट्रक भी चलाया था। उसका कहना था कि रात में पहाड़ों पर गाड़ी चलाना दिन की बनस्बित कठिन नहीं होता। दिन में हर मोड़ पर हॉर्न देना होता है और ब्रेक लगानी पड़ती है। लेकिन रात में ऐसा नहीं करना पड़ता। बोटिंग प्वाइंट पर पहुँचे तो अँधेरा पूरी तरह उतर चुका था। स्याह अँधेरे में रावी शांत झील की तरह पसरी हुई सुस्ताती नज़र आ रही थी। बोटिंग प्वाइंट पर गहरा सन्नाटा था। अब हमें ठंड लगने लगी थी। हमने अपने पूरी बाजू के स्वैटर चढ़ा लिए थे। फिर, बोटिंग प्वाइंट पर गरमागरम चाय का लुफ्त उठाकर हम आगे बढ़ लिए। रास्ते में अँधेरे में ही डैम दिखाई दिया। हम डैम की बगल से दो बार निकले। रात में सीधा रास्ता बन्द कर दिया जाता है। दायीं ओर के रास्ते से लगभग पाँच छह किलोमीटर घूमकर हम फिर डैम के दूसरे किनारे पर थे। डैम पर जलती बत्तियों की रौशनी में रावी का पानी अपने होने का आभास दे रहा था।
      अँधरा गाढ़ा हो चला था और गाड़ी से बाहर पेड़-पहाड़ सायों-सा आभास दे रहे थे। रास्ता सुनसान था जिस पर हमारी कार तेज़ी से आगे बढ़ रही थी, दायें-बायें होती हुई। इक्का-दुक्का वाहन या तो सामने से आता दिखाई देता या हमारी गाड़ी को ओवर टेक कर जाता। ऐसे भीषण जंगल-पहाड़ के सुनसान रास्ते अँधेरी रात में यात्रा करना दिल में लुट जाने का एक खौफ़ भी पैदा करता है। मैदानी इलाकों में रात के समय होने वाली लूटपाट की वारदातों की याद इस डर को और बढ़ा देती हैं। मैंने ड्राइवर से पूछा, ''यहाँ रात में लूटपाट की वारदातें भी होती होंगी ?''
      ''नहीं सर, पहाड़ अभी इनसे बचे हुए हैं। रात में कोई खतरा नहीं होता।''
      ड्राइवर की बात पर हमें यकीन नहीं हो रहा था। हमारी चुप्पी को तोड़ते हुए ड्राइवर फिर बोला, ''रात में राह चलते कोई दुर्घटना हो जाए, तो आसपास के गाँव वाले बहुत मदद करते हैं। उनमें लूट की भावना नहीं होती। पहाड़ को जानना है तो साहब, यहाँ के गाँव में रहिए। एक दिन, दो दिन। आपको मालूम होगा, पहाड़ और पहाड़ का जीवन क्या होता है।''
      मुझे याद आया, शिमला में कथाकार एस.आर. हरनोट और बद्रीसिंह भाटिया ने भी यही बात कही थी और अपने गाँव का न्यौता भी दिया था।
      हमारी गाड़ी बनीखेत के बहुत करीब थी। अब हमें सीधे अपने होटल पाइन-वुड पहुँचना था। वहाँ पहुँचे तो कथाकार सतीश राठी जिन्हें 27 अक्तूबर 12 को 21वें अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन में 'माता शरबती देवी स्मृति सम्मान, 2012' से सम्मानित किया जाना था, इंदौर से सपत्नीक पहुँचे हुए थे। श्याम सुंदर अग्रवाल, उनकी पत्नी और अन्य लोग भी होटल में पहुँचे चुके थे। रात के भोजन के बाद थकान की वजह से हमें बिस्तर पर लेटते ही नींद ने अपने आगोश में ले लिया था।

अलविदा बनीखेत, बॉय-बॉय धौलाधार !+

सीनियर सेकेंडरी स्कूल,बनीखेत का सभागार
दो सत्रों में चला 21वाँ अंतर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन गरिमामयी ढंग से 27 अक्तूबर 2012 को सम्पन्न हो गया था। करीब सात राज्यों - उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड से लेखक पधारे थे। सभागार खचाखच भरा था। सम्मेलन में हमेशा की तरह कुछ किताबों और पत्रिकाओं का विमोचन हुआ। फरवरी 12 में प्रकाशित हुए मेरे पहले लघुकथा संग्रह सफ़र में आदमी का विमोचन वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यकांत नागर और कथाकार शैली बलजीत के हाथों संपन्न हुआ। पंजाबी के गत दशक की लघुकथाओं पर परचा पढ़ा गया। उस पर चर्चा हुई। 
कथाकार सतीशराठी सम्मानित होते हुए
लघुकथा के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय कार्य पर दिया जाने वाला 'माता शरबती देवी स्मृति सम्मान, 12' इस बार इन्दौर के साहित्यकार सतीश राठी को प्रदान किया गया। इसी अवसर पर कई अन्य सम्मानों से कई लेखक सम्मानित हुए जिनमें हिंदी से बलराम अग्रवाल भी थे। दूसरा सत्र जो लघुकथा पाठ और आलोचना का सत्र था, रात्रि साढ़े बारह समाप्त हुआ। अगले दिन 28 अक्तूबर 12 को चक्की बैंक से दोपहर 1 बजे की हमारी ट्रेन थी। इसके लिए हमें सुबह जल्दी उठना भी था। इसलिए रात में ही सारी पैकिंग वगैरह करके हम दो बजे के बाद सो पाए।

धूप में चमकती धौलादार पर्वतमाला
हमारा होटल बस-स्टैंड से अधिक दूर नहीं था। सुबह सात बजे की बस पकड़ने के लिए हम साढ़े छह बजे होटल से निकले। बस-स्टैंड पर कुछ सवारियाँ बसों की प्रतीक्षा में खड़ी थीं। दुकानें बन्द थीं, पर एक चायवाला मुस्तैदी से अपने काम में लगा हुआ था। हवा नहीं थी, पर ठंड अपना अहसास करा रही थी। हमनें वहीं खड़े-खड़े चाय पी। कुछ ही देर में बस आ गई। बस चली तो मेरे मुख से अनायास ही निकल पड़ा - ''अलविदा बाँके बनीखेत ! जीवन में फिर अवसर मिला तो आऊँगा।'' फिर वही ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते का सफ़र शुरू हो गया था। सुदूर पर्वतों की धवल चोटियों पर सुबह की सुनेहरी धूप अंगड़ाई ले रही थी। सड़क के दोनों तरफ़ खड़े पहाड़ और पेड़ ऐसे लग रहे थे, जैसे रात की नींद से अभी-अभी सोकर उठे हों और आँखें मलते हुए पूछ रहे हों - ''चल दिए ?'' और फिर वे हमारे संग-संग चक्की बैंक से कुछ पूर्व तक चलते रहे, हमें विदा करने के लिए।
      बनीखेत से संग-संग आ रही ठंड ने चक्की बैंक आते-आते हमसे अपना हाथ छुड़ा लिया था। बस ने जहाँ हमें उतारा, वहाँ से चक्की बैंक रेलवे स्टेशन के लिए ऑटो मिलते थे। करीब पन्द्रह मिनट का रास्ता होगा। सुबह के ग्यारह बज रहे थे और खिली हुई चटक धूप हर हरफ़ फैली थी। चक्की बैंक पठानकोट से सटा हुआ है। दोनों के बीच लगभग पाँच-छह किलोमीटर की दूरी होगी। यहाँ जम्मू-तवी जाने वाली लगभग हर ट्रेन होकर गुज़रती है। हम रेलवे स्टेशन पहुँचे। वहाँ कथाकार-कवि रामेश्वर काम्बोज हिमांशु पहले ही पहुँचे हुए थे। वह भी उसी ट्रेन से लौट रहे थे, जिससे हम लोगों को लौटना था। ट्रेन का समय दोपहर 1 बजकर 5 मिनट का था। हमारे पास करीब डेढ़ घंटे का समय था। हमने दोपहर का भोजन वहीं रेलवे स्टेशन पर किया। फिर हम सम्मलेन की, सम्मलेन में आए मित्रों की और साहित्य की बातें करते रहे।
      हमारे कोच अलग अलग थे। मेरा डिब्बा ट्रेन के पिछले हिस्से में था। प्लेटफॉर्म पर यात्रियों की भीड़ एकाएक बढ़ गई थी। स्कूली बच्चों का हुजूम था, जो स्कूली ड्रैस की वजह से अलग ही पहचाना जा रहा था। हम ट्रेन के आने से 10 मिनट पहले ही अपनी अपनी पोजीशन लेने के लिए एक-दूसरे से अलग हो गए। ट्रेन ने ठीक एक बजे प्लेटफॉर्म पर प्रवेश किया।
      जिस ठिठुरन भरी चंचल हवा ने हमारे आगमन पर हमें गुदगुदाकर अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया था, वह हवा अब नदारद थी। बीच-बीच में बहुत हल्का-सा एक झौंका आता था जिसमें ठंडक कतई नहीं थी। मुझे लगा, दूर पहाड़ की ओट में छिपी हवा कभी-कभी झाँककर हमें जाते हुए देख रही है, पर सामने नहीं आना चाहती। शायद उसे हमारा जाना अच्छा नहीं लग रहा था।
      ट्रेन जब स्टेशन से सरकने लगी तो मेरे मुँह से निकल पड़ा - ''बॉय बॉय धौलाधार!''

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

लघुकथा




मित्रो,  सृजन-यात्रा कुछ विलम्ब से अपडेट हो रहा है। अप्रैल, 12 के बाद इसपर कुछ भी आपसे साझा नहीं कर पाया। इसके पीछे जो कारण रहे, उन्हें बताना सफ़ाई देना मात्र होगा, इसलिए इस पर चुप्पी। हम सब जीवन में कभी कभी दोहरा जीवन जीते हैं। जो हम दूसरों से अपेक्षा नहीं करते, वही खुद करते हैं। दूसरे उन बातों को करते हैं तो हमें गलत लगता है परन्तु वही जब स्वयं करते हैं तो हमें गलत नहीं लगता। अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, इस बारे में। कुछ इसी मानसिकता को लेकर मेरी लघुकथा है अपना अपना नशा जिसे आपके समक्ष अपनी लघुकथाओं की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है, इस पर भी आपकी प्रतिक्रियाएं मुझे मिलेंगी, जैसा कि पिछली लघुकथाओं पर मिलती रही हैं
-सुभाष नीरव

अपना-अपना नशा
सुभाष नीरव


''जरा ठहरो ...'' कहकर मैं रिक्शे से नीचे उतरा। सामने की दुकान पर जाकर डिप्लोमेट की एक बोतल खरीदी, उसे कोट की भीतरी जेब में ठूँसा और वापस रिक्शे पर बैठा। मेरे बैठते ही रिक्शा फिर धीमे-धीमे आगे बढ़ा। रिक्शा खींचने का उसका अंदाज देख लग रहा था, जैसे वह बीमार हो। अकेली सवारी भी उससे खिंच नहीं पा रही थी। मुझे भी कोई जल्दी नहीं थी। मैंने सोचा, खरामा-खरामा ही सही, जब तक मैं घर पहुँचूँगा, वर्मा और गुप्ता पहुँच चुके होंगे।
            परसों रात कुलकर्णी के घर तो मजा ही नहीं आया। अच्छा हुआ, आज मेहता और नारंग को नहीं बुंलाया। साले पीकर ड्रामा खड़ा कर देते हैं।... मेहता तो दो पैग में ही टुल्ल  हो जाता है और शुरू कर दता है अपनी रामायण। और नारंग ?... उसे तो होश ही नहीं रहता, कहाँ बैठा है, कहाँ नहीं।... अक्सर उसे घर तक भी छोड़कर आना पड़ता है।
            ''अरे-अरे, क्या कर रहा है ?'' एकाएक मैं चिल्लाया, ''रिक्शा चला रहा है या सो रहा है ?... अभी पेल दिया होता ठेले में।...''
            रिक्शावाले ने नीचे उतरकर रिक्शा ठीक किया और फिर चुपचाप खींचने लगा। मैं फिर बैठा-बैठा सोचने लगा- गुप्ता भी अजीब आदमी है। पीछे ही पड़ गया, वर्मा के सामने। पे-डे को सोमेश के घर पर रही। पता भी है उसे, एक कमरे का मकान है मेरा। बीवी-बच्चे हैं, बूढ़े माँ-बाप हैं। छोटी-सी जगह में पीना-पिलाना।... उसे भी 'हाँ' करनी ही पड़ी, वर्मा के आगे। पत्नी को समझा दिया था सुबह ही- वर्मा अपना बॉस है।.. आगे प्रमोशन भी लेना है उससे।... कभी-कभार से क्या जाता है अपना।... पर, माँ-बाऊजी की चारपाइयाँ खुले बरामदे में करनी होंगी। बच्चे भी उन्हीं के पास डालने होंगे। कई बार सोचा, एक तिरपाल ही लाकर डाल दे, बरामदे में। ठंडी हवा से कुछ तो बचाव होगा। पर जुगाड़ ही नहीं बन पाया आज तक।
            सहसा, मुझे याद आया- सुबह बाऊजी ने खाँसी का सीरप लाने को कहा था। रोज रात भर खाँसते रहते हैं। उनकी खाँसी से अपनी नींद भी खराब होती है।... चलो, कह दूँगा-दुकानें बन्द हो गयी थीं।
            एकाएक, रिक्शा किसी से टकराकर उलटा और मैं जमीन पर जा गिरा। कुछेक पल तो मालूम ही नहीं पड़ा कि क्या हुआ !... थोड़ी देर बाद मैं उठा तो घुटना दर्द से चीख उठा। मुझे रिक्शावाले पर बेहद गुस्सा आया। परन्तु, मैंने पाया कि वह खड़ा होने की कोशिश में गिर-गिर पड़ रहा था। मैंने सोचा, शायद उसे अधिक चोट लगी है।... मैं आगे बढ़कर उसे सहारा देने लगा तो शराब की तीखी गन्ध मेरे नथुनों में जबरन घुस गयी। वह नशे में घुत्त था।
मैं उसे मारने-पीटने लगा। इकट्ठे हो आये लोगों के बीच-बचाव करने पर मैं चिल्लाने लगा, ''शराब पी रखी है हरामी ने।.. अभी पहुँचा देता ऊपर।... साला शराबी !... कोई पैसे-वैसे नहीं दूँगा तुझे।... जा, चला जा यहाँ से... नहीं तो सारा नशा हिरन कर दूँगा।...शराबी कहीं का !''
            वह चुपचाप उलटे हुए रिक्शा को देख रहा था जिसका अगला पहिया टक्कर लगने से तिरछा हो गया था। मैंने जलती आँखों से उसकी ओर देखा और फिर पैदल ही घर की ओर चल दिया।
            रास्ते में कोट की भीतरी जेब को टटोला। मैं खुश था- बोतल सही-सलामत थी।