शनिवार, 1 जून 2013

लघुकथा



मित्रो, इधर हिंदी की नई कथा-पत्रिका ‘कथा समय’ के ताज़ा अंक में मेरी नई लघुकथा ‘जानवर’ प्रकाशित हुई है। यह पत्रिका ‘हरियाणा ग्रंथ अकादमी’ द्वारा नियमित प्रकाशित हो रही है और इस पत्रिका से उपाध्यक्ष के रूप में हिंदी के जाने-माने लेखक, लघुकथाकार भाई कमलेश भारतीय जी जुड़े हुए हैं। इस पत्रिका को सजाने-संवारने, और बेहतर बनाने के साथ-साथ हर नये-पुराने पाठकों तक पहुँचाने का बीड़ा उठाये हुए हैं। ‘जानवर’ लघुकथा जब मैंने कमलेश भारतीय जी को भेजी तो
भीतर से डरा हुआ था, वह स्वयं एक सुलझे हुए कथाकार हैं। इस डर का कारण था कि इस लघुकथा को ‘हंस’ और ‘कथादेश’ जैसी पत्रिकाओं ने अस्वीकृत कर दिया था। भाई बलराम अग्रवाल इसे एक उत्कृष्ट लघुकथा के रूप में ले रहे थे और मुझे निराश न होने के लिए लगातार प्रेरित कर रहे थे। जब फोन पर भाई कमलेश भारतीय ने बताया कि मेरी यह लघुकथा ‘कथा समय’ में प्रकाशित हो गई है, तो मैं भीतर से आश्वस्त हुआ। इस लघुकथा को मैं आप सबसे अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’ पर भी साझा कर रहा हूँ ताकि जिन मित्रों के पास ‘कथा समय’ नहीं आती, अथवा उन्हें उपलब्ध नहीं होती, वे भी मेरी इस लघुकथा का रसास्वादन कर सकें।
-सुभाष नीरव


जानवर
सुभाष नीरव

बीच पर भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। सूरज समुद्र में बस डुबकी लगाने ही वाला था। वे दोनों हाथ में हाथ थामे समुद्र किनारे रेत पर टहलने लगे। पानी की लहरें तेजी से आतीं और लड़की के पैरों को चूम लौट जातीं। लड़की को अच्छा लगता। वह लड़के का हाथ खींच पानी की ओर दौड़ती, दायें हाथ से लड़के पर पानी फेंकती
और खिलखिलाकर हँसती। लड़का भी प्रत्युत्तर में ऐसा ही करता। उसे लड़की का इस तरह उन्मुक्त होकर हँसना, खिलखिलाना अच्छा लग रहा था। अवसर पाकर वह लड़की को अपनी बांहों में कस लेता और तेजी से उनकी ओर बढ़ती ऊँची लहरों का इंतजार करता। लहरें दोनों को घुटनों तक भिगो कर वापस लौट जातीं। लहरों और उनके बीच एक खेल चल रहा था - छुअन छुआई का।

     लड़का खुश था लेकिन भीतर कहीं बेचैन भी था। वह बार-बार अस्त होते सूरज की ओर देखता था। अंधेरा धीरे-धीरे उजाले को लील रहा था।  फिर, दूर क्षितिज में थका-हारा सूर्य समुद्र में डूब गया।
     लड़के की बेचैनी कम हो गई। उसे जैसे इसी अंधेरे का इंतज़ार था। लड़का लड़की का हाथ थामे भीड़ को पीछे छोड़ समुद्र के किनारे-किनारे चलकर बहुत दूर निकल आया। यहां एकान्त था, सन्नाटा था, किनारे पर काली चट्टानें थीं, जिन पर टकराती लहरों का शोर बीच बीच में उभरता था। वह लड़की को लेकर एक चट्टान पर बैठ गया। सामने विशाल अंधेरे में डूबा काला जल... दूर कहीं- कहीं किसी जहाज की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं।
     ''ये कहाँ ले आए तुम मुझे ?'' लड़की ने एकाएक प्रश्न किया।
     ''भीड़ में तो हम अक्सर मिलते रहते हैं...कभी...''
     ''पर मुझे डर लगता है। देखो यहाँ कितना अंधेरा है...'' लड़की के चेहरे पर सचमुच एक भय तैर रहा था।
     ''किससे ? अंधेरे से ?''
     ''अंधेरे से नहीं, जानवर से...''
     ''जानवर से ? यहाँ कोई जानवर नहीं है।'' लड़का लड़की से सटकर बैठता हुआ बोला।
     ''है...अंधेरे और एकांत का फायदा उठाकर अभी तुम्हारे भीतर से बाहर निकल आएगा।''
     लड़का ज़ोर से हँस पड़ा।
     ''यह जानवर ही तो आदमी को मर्द बनाता है।'' कहकर लड़का लड़की की देह से खेलने लगा।
     ''मैं चलती हूँ...।'' लड़की उठ खड़ी हुई।
     लड़के ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
     ''देखो, तुम्हारे अंदर का जानवर बाहर निकल रहा है... मुझे जाने दो।''
     सचमुच लड़के के भीतर का जानवर बाहर निकला और लड़की की पूरी देह को झिंझोड़ने- नोचने लगा। लड़की ने अपने अंदर एक ताकत बटोरी और ज़ोर लगाकर उस जानवर को पीछे धकेला। जानवर लड़खड़ा गया। वह तेज़ी से बीच की ओर भागी, जहाँ ट्यूब लाइटों का उजाला छितरा हुआ था।
     लड़का दौड़कर लड़की के पास आया, ''सॉरी, प्यार में ये तो होता ही है...।''
     ''देखो, मैं तुमसे प्यार करती हूँ, तुम्हारे अंदर के जानवर से नहीं।'' और वह चुपचाप सड़क की ओर बढ़ गई। बीच पीछे छूट गया, लड़का भी।