इस अंक में मैं अपना ‘आत्मकथ्य’ प्रकाशित कर रहा हूँ। इसका आंशिक रूप भाई रूपसिंह चन्देल ने अपने साहित्यिक ब्लॉग “वातायन” में “मैं क्यों लिखता हूँ ?” शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किया था और यह आत्मकथ्य सम्पूर्ण रूप में मुम्बई से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका “कथाबिंब” के जनवरी-मार्च 2009 अंक में भी प्रकाशित हुआ है। भाई बलबीर माधोपुरी द्वारा किया गया इसका पंजाबी अनुवाद पंजाबी की चर्चित त्रैमासिक प्रत्रिका “शबद”(संपादक – जिंदर) में शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है।
आत्मकथ्य
लिखना मेरे लिए एक सामाजिक कार्य है
सुभाष नीरव
यूँ तो पाठक किसी लेखक को उसकी रचनाओं से ही जानते-समझते हैं, फिर भी उनके अंदर लेखक के ‘निज’ को भी जानने-समझने की एक ललक हुआ करती है, उसके निजी जीवन में झांकना उन्हें अच्छा लगता है। शायद यही कारण हैं कि लेखकों की आत्मकथाएं पाठकों द्वारा खूब पसंद की जाती हैं। मेरे परम मित्र रूपसिंह चन्देल और “कथाबिंब” के संपादक डा0 माधव सक्सेना ‘अरविंद’ पिछ्ले कुछ समय से मुझे निरंतर प्रेरित और स्पंदित करते रहे हैं कि मैं अपने जीवन और लेखन से जुड़े छुए-अनछुए पहलुओं को एक आत्मकथ्य के जरिये पाठकों के साथ साझा करूँ। पर न जाने क्यों मुझे यह भय निरंतर सताता रहा कि कहीं मेरा ‘आत्मकथ्य’ एक ‘आत्मालाप’ न बन जाए। अपनी दु:ख-तकलीफ़ों, जीवन-संघर्षों को अपनी रचनाओं के माध्यम से तो मैं व्यक्त करता रहा हूँ परन्तु, इन्हें सीधे-सीधे दूसरों को बतलाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। न जाने लोग कैसे अपनी आत्मकथाएं लिख लेते हैं। लिखना अपने आप से लड़ना होता है, और आत्मकथा/आत्मकथ्य लिखना तो अपने आप को अपने ही हाथों से छीलने जैसा तकलीफ़देह काम है।
मेरा जन्म एक बेहद गरीब पंजाबी परिवार में हुआ जो सन् 1947 के भारत-पाक विभाजन में अपना सब कुछ पाकिस्तान में गंवा कर, तन और मन पर गहरे जख़्म लेकर, आश्रय और रोजी रोटी की तलाश में पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से नगर – मुराद नगर- में आ बसा था। इस लुटे-पिटे परिवार में मेरी माँ, मेरे पिता, मेरे दादा, मेरी नानी और मेरे चाचा थे। उन दिनों मुराद नगर स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में लेबर की भर्ती हो रही थी और मेरे पिता को यहाँ एक लेबर के रूप में नौकरी मिल गई थी, साथ में रहने को छोटा-सा मकान भी। डेढ़- दो वर्ष बाद चाचा को भी इसी फैक्टरी में नौकरी मिल गई तो विवाह के बाद वह पिता से अलग रहने लगे। दौड़-धूप करने पर चाचा को हमारे मकान से सटा मकान रहने के लिए मिल गया था।
प्रारंभ में लेखन के लिए बीज हमें हमारे जीवन की घटनाओं से ही मिलते हैं और उन्हें अंकुरित-पल्लवित करने में हमारे आसपास का परिवेश और स्थितियां सहायक बनती हैं, ऐसा मेरा मानना है। इसलिए यहाँ अपने जीवन की उन पारिवारिक स्थितियों-परिस्थितियों का उल्लेख कर लेना मुझे बेहद आवश्यक और प्रासंगिक प्रतीत हो रहा है जिसकी वजह से मेरे अंदर लेखन के बीज पनपे और जिन्होंने मुझे कलम पकड़ने के लिए प्रेरित किया। मुझे अपने लेखन के बिलकुल शुरुआती दिन स्मरण हो आ रहे हैं। जब मैं अपने अतीत को खंगालने की कोशिश करता हूँ तो स्मृतियों-विस्मृतियों के बीच झूलते वे दिन मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं जब मैं इंटर कर चुकने के बाद एक असहय अकेलेपन के साथ-साथ भीषण बेकारी के दंश को झेल रहा था और इस दंश से मुक्ति की राह मैं साहित्य में ढूँढा करता था। साहित्यिक पत्रिकाएं और पुस्तकें मुझे इस दंश से, भले ही कुछ देर के लिए, मुक्ति दिलाती थीं। कहानी, उपन्यासों के पात्र मेरे साथी बन जाते थे और कई बार कोई पात्र तो मुझे बिलकुल अपने सरीखा लगता था।
मुझे लेखन विरासत में नहीं मिला। जिस गरीब मजदूर परिवार में मैं पला-बढ़ा, उसमें दूर-दूर तक न तो कोई साहित्यिक अभिरूचि वाला व्यक्ति था और न ही आसपास ऐसा कोई वातावरण था। पिता फैक्टरी में बारह घंटे लोहे से कुश्ती किया करते थे। फैक्टरी की ओर से रहने के लिए उन्हें जो मकान मिला हुआ था, वहां आसपास पूरे ब्लॉक में विभिन्न जातियों के बेहद गरीब मजदूर अपने परिवार के संग रहा करते थे, जिनमें पंजाबी, मेहतर, मुसलमान, पूरबिये, जुलाहे आदि प्रमुख थे। एक ब्लॉक में आगे-पीछे कुल 18 क्वार्टर होते थे- नौ आगे, नौ पीछे। दोनों तरफ ब्लॉक के बीचोंबीच एक सार्वजनिक नल होता था जहां सुबह-शाम पानी के लिए धमा-चौकड़ी मची रहती थी, झगड़े होते थे, एक दूसरे की बाल्टियाँ टकराती थीं। जहाँ औरतों में सुबह-शाम कभी पानी को लेकर, कभी बच्चों को लेकर झगड़े हुआ करते थे, हाथापाई तक हुआ करती थी। मेरे हाई स्कूल करने तक घरों में बिजली नाम की कोई चीज नहीं थी। बस, स्ट्रीट लाइट हुआ करती थी। ऊँचे-लम्बे लोहे के खम्भों पर लटकते बल्ब शाम होते ही सड़क पर पीली रोशनी फेंकने लगते थे। मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई मिट्टी के तेल के लैम्प की रोशनी में करनी पड़ती थी या फिर घर के पास सड़क के किनारेवाले किसी बिजली के खम्भे के नीचे चारपाई बिछाकर, उसकी पीली मद्धिम रोशनी में अपना होमवर्क पूरा करना पड़ता था।
घर में तीन बहनें, तीन भाई, पिता, अम्मा के अलावा नानी भी थी। नानी के चूंकि कोई बेटा नहीं था, भारत-पाक विभाजन के बाद, वह आरंभ में तो बारी-बारी से अपने तीनों दामादों के पास रहा करती थीं, पर बाद में स्थायी तौर पर अपने सबसे छोटे दामाद यानी मेरे पिता के पास ही रहने लगी थीं। वह बाहर वाले छोटे कमरे जो रसोई का भी काम देता था, में रहा करती थीं। दरअसल, यह कमरा नहीं, छोटा-सा बरामदा था जो पाँच फीट ऊँची दीवार से ढ़का हुआ था। इसमें लकड़ी का जंगला था जो आने-जाने के लिए द्वार का काम करता था। ठंड के दिनों में दीवार के ऊपर की खाली जगह और जंगले को टाट-बोरियों से ढ़क दिया जाता था। यह बरामदा-नुमा कमरा बहुद्देशीय था। नानी का बिस्तर-चारपाई, रसोई का सामान, आलतू-फालतू सामान के लिए टांट आदि को अपने में समोये हुए तो था ही, अक्सर घर की स्त्रियाँ इसे गुसलखाने के रूप में भी इस्तेमाल किया करती थीं। नानी, माँ या बहनों को जब नहाना होता तो घर के पुरुष घर से बाहर निकल जाते और टाट और बोरियों के पर्दे गिरा कर वे जल्दी-जल्दी नहा लिया करतीं। जब तक नानी की देह में जान थी, हाथ-पैर चलते थे, वह फैक्टरी के साहबों के घरों में झाड़ू-पौचा, बर्तन मांजना, बच्चों की देखभाल आदि का काम किया करती थी और अपने गुजारे लायक कमा लेती थीं। बाद में, जब शरीर नाकारा होने लगा तो उन्होंने काम करना छोड़ दिया और वह पूरी तरह अपने दामाद और बेटी पर आश्रित हो गईं। दादा भी थे पर वह साथ वाले घर में हमारे चाचा के संग रहते थे। घर में मुझसे बड़ी एक बहन थी और मुझसे छोटी दो बहनें और दो भाई। उन सस्ती के दिनों में भी पिता अपनी सीमित आय में घर का बमुश्किल गुजारा कर पाते थे। उनकी स्थिति उन दिनों और अधिक पतली हो जाती जब फैक्टरी में 'ओवर टाइम' बन्द हो जाता। कई बार तो शाम को चूल्हा भी न जलता था। पिता घर से छह-सात मील दूर कस्बे की जिस लाला की दुकान से हर माह घर का राशन उधार में लेकर डाला करते थे, ऐसे दिनों में वह भी गेंहू-चावल देने से इन्कार कर दिया करता था। पिछले माह का उधार उसे पहले चुकाना पड़ता था, तब वह अगले माह के लिए राशन उधार देता था। ओवर टाइम बन्द हो जाने पर पिता पिछले माह का पूरा उधार चुकता करने की स्थिति में न होते, वे आधा उधार ही चुकता कर पाते थे। घर में कई बार शाम को चावल ही पकता और उसकी मांड़ निकाल कर रख ली जाती और कुछ न होने पर उसी ठंडी मांड़ में गुड़ की डली मिलाकर हम लोग पिया करते और अपनी क्षुधा को जबरन शांत करने का प्रयास किया करते थे। माँ, घर के बाहर बने बाड़े में से चौलाई का साग तोड़ लाती और उसमें दो आलू काटकर सब्जी बनाती। सन् 1962 में भारत -चीन युद्ध के दौरान जब गेंहू-चावल का भंयकर अकाल पड़ा तो हमने जौं- बाजरे की बिना चुपड़ी रोटियाँ भी खाईं जिन्हें गरम-गरम ही खाया जा सकता था, ठंडी हो जाने पर वे पत्थर -सी सख्त हो जातीं और उन्हें चबाते-चबाते हमारे मुँह दुखने लगते।
ऐसे में पिता जो पूरे परिवार की गाड़ी किसी प्रकार खींच रहे थे, की नज़रें मुझ पर टिक गई थीं। वे चाहते थे कि मैं हाई-स्कूल करने के बाद कोई काम-धंधा या नौकरी देखूं ताकि उन्हें कुछ सहारा मिल सके। उधर उन्हें जवान होती बेटियों के विवाह की चिंता भी खाये जा रही थी। वे चाहते थे कि किसी तरह सबसे बड़ी बेटी की शादी कर दें। एक दिन बड़ी बहन को लेकर घर में जबरदस्त हंगामा हुआ। पिता पागलों की भांति चीखने-चिल्लाने लगे। अगले रोज उन्होंने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी। तुरत-फुरत लड़का देखा और कर्ज़ा उठाकर उसका ब्याह कर दिया। बड़ी बेटी का विवाह कर वह कर्जे में इतना दब गए कि उनकी हालत दिन-ब-दिन खराब होती चली गई। अंदर-बाहर से टूटते पिता शरीर से कमज़ोर होते चले गए। पिता की दयनीय हालत पर मुझे बेहद तरस आता और मैं सोचता कि पढ़ाई में क्या रखा है, मैं भी किसी फैक्टरी, कारखाने में लग जाऊँ और कुछ कमा कर पिता के सिर का बोझ हल्का करूँ।
लेकिन मुझे किताबों से बहुत प्रेम था। भले ही वे पाठ्यक्रम की पुस्तकें थीं। नई किताबों के वर्कों से उठती महक मुझे दीवाना बना देती थी। हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा देने के बाद मैं एक दिन घर से भाग निकला और अपनी बड़ी बहन जो दिल्ली में ब्याही थी और मोहम्मद पुर गांव में एक किराये के मकान में रहती थी, के पास जा पहुँचा। मेरे जीजा ठेकेदार थे और सरकारी इमारतों की मरम्मत, सफेदी आदि के छोटे-मोटे ठेके लिया करते थे। मुझे अकस्मात् अकेले आया देख वे हतप्रभ थे। पिता चूंकि मुझे आगे पढ़ाना नहीं चाहते थे, इसलिए मैंने जीजा से कहा कि वह मुझे कहीं भी छोटे-मोटे काम पर लगवा दें, भले ही मजदूर के रूप में अपने पास ही रख लें। मुझे पूरी उम्मीद थी कि मैं बोर्ड की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊँगा क्योंकि मेरे पेपर्स अच्छे गए थे। मैं चाहता था कि जब परीक्षा परिणाम निकले तो मेरे पास कम से कम इतने पैसे अवश्य हों कि मैं आगे दाखिला ले सकूं। मेरे जीजा ने मुझे नार्थ ब्लॉक में कह-सुनकर डेलीवेजर के रूप में लगवा दिया- साढ़े तीन रुपये दिहाड़ी पर। सन् 1970 की गर्मियों के दिन थे। मुझे डेजर्ट कूलरों में पानी भरने पर लगा दिया गया था। उन दिनों वहां पाइप से कूलरों में पानी नहीं भरा जाता था। हर डेलीवेजर को दो-दो बाल्टियाँ इशू होती थीं। उन्हें नल से भरकर हमें कूलरों में सुबह-शाम पानी भरना पड़ता था। बीच के वक्त हमसे दूसरा काम लिया जाता जैसे कमरों की साफ-सफाई का, सामान इधर-उधर करने का, चपरासीगिरी का। कभी-कभी किसी साहब के घर का काम करने के लिए भी भेज दिया जाता। साहबों की बीवियाँ हम पर इस तरह रौब झाड़तीं जैसे हम उनके ज़रखरीद गुलाम हों। वे हमसे लैट्रीन-बाथरूम साफ करवातीं, पूरे घर में पौचा लगवातीं और बर्तन मंजवातीं। हम जानते थे कि विरोध करने का अर्थ है- अस्थायी नौकरी से हाथ धोना। इस सबके बावज़ूद छुट्टी के दिन हम लोग ड्यूटी लगवा लेते थे ताकि कुछ पैसे और बन सकें। मैंने वहां दो-ढ़ाई माह काम किया। माह के अंत में जो रुपये मुझे मिलते, मैं उन्हें बहन को दे दिया करता। आने-जाने का किराया वही दिया करती थीं। जीजा प्राय: साइकिल से काम पर जाया करते थे। मैं बस पकड़कर आता-जाता था। उन दिनों दिल्ली में डी टी यू की बसें चला करती थीं और किराया होता था- पाँच, दस, पंद्रह और बीस पैसे। जिस दिन शाम की बस पकड़ने के लिए मेरे पास पैसे न होते, मैं पैदल ही केन्द्रीय सचिवालय से मोहम्मद पुर जाया करता। आरम्भ में मुझे शॉर्टकट रास्ता मालूम न था। मैं पैदल उधर-उधर से घर जाता जिधर-जिधर से बस होकर जाया करती थी। जब मैं घर पहुँचता तो मेरे पांव दर्द से बिलबिलाने लगते। कभी-कभी तो सूज भी जाते। पर मैं बहन और जीजा को कुछ न बतलाता और ऑफिस में काम ज्यादा होने का बहाना बनाकर सो जाता।
जब दसवीं की बोर्ड की परीक्षा का परिणाम अखबार में निकला, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं गुड सेकेंड डिवीजन से पास हो गया था। मैंने आगे काम करने से इंकार कर दिया और बहन से अपने रुपये लेकर सीधा मोदी इंटर कालेज, मोदी नगर में दाखिला लेने चला गया। मेरा दाखिला भी हो गया। घर में सब खुश थे पर पिता खुश नहीं थे। बाद में लोगों के समझाने-बुझाने पर वह मान गए। इंटर करने तक के वे दो साल बड़े कष्टप्रद रहे। मैं रेल का मासिक स्टुडेंट पास बनवाकर अपने कुछ मित्रों के संग कालेज जाया करता था। कई बार ट्रेन छूट जाती, मेरे पास बस से जाने के पैसे न होते और उस दिन मेरी छुट्टी हो जाती। अगले रोज़ कालेज में सजा मिलती। प्रिंसीपल बहुत सख़्त था, कुछ सुनता ही नहीं था। कालेज से नाम काट देने की धमकी देता था। दोपहर में साढ़े बारह बजे कालेज से छुट्टी होती। इसी समय की एक ट्रेन थी जिसे बहुत मुश्किल से हम पकड़ पाते। कालेज रेलवे लाइन की बगल में स्टेशन से दसेक मिनट की दूरी पर था। प्राय: ट्रेन दस-पन्द्रह मिनट लेट हुआ करती थी, इसलिए मिल जाया करती थी। लेकिन जिस दिन सही समय पर आती, हमें अपने कालेज से ही दौड़ लगानी पड़ती। स्टेशन पहुँचते-पहुँचते हमारी साँसें फूल जातीं, शरीर पसीने से लथपथ हो जाता। कभी चलती ट्रेन में चढ़ने में कामयाब हो जाते, कभी वह छूट जाती। इसके बाद चार बजे की ट्रेन थी जो प्राय: लेट होती और उससे घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो जाती। मित्र तो बस पकड़कर चले जाते, पर पैसे न होने के कारण मुझे वहीं स्टेशन पर समय बिताना पड़ता। मैं माल गोदाम में पड़े सामान के गट्ठरों पर बैठ कर अपना होम वर्क करता और पढ़ा करता। कभी-कभी सुबह जल्दी में लंच बॉक्स छूट जाता तो दोपहर में भूख के मारे बुरा हाल हो जाता। मित्र कभी अपना लंच शेयर करवाते, कभी नहीं। ऐसी स्थिति में यदि मेरे पास एक-दो रुपये हुआ करते तो मैं पचास पैसे के मिर्च वाले लाल चने लेकर खाया करता और ढ़ेर सारा पानी पीकर अपनी भूख को शांत करने की झूठी कोशिश किया करता।
सन् 1972 में इंटर की परीक्षा पास की तो पिता ने हाथ खड़े कर दिए। वह आगे पढ़ाने के लिए अब कतई तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि अब मैं कोई न कोई कामधंधा या नौकरी देखूं। इंटर में मेरे पास फिजिक्स, केमेस्ट्री और बॉयलोजी सबजेक्ट्स थे। मेरे कुछ मित्रों ने पी एम टी के फार्म भरे तो मैंने भी भर दिया, यह सोचकर कि पास तो होना नहीं है। अगर हो गया तो भी डॉक्टरी न कर पाऊँगा क्योंकि मेरे पिता के पास इतने पैसे ही नहीं हैं। वे तो पहले ही कर्ज से दबे पड़े हैं और छोटी दो जवान होती बेटियों के विवाह की चिंता उन्हें रात-रात भर सोने नहीं देती। लेकिन मैं मेरठ पी एम टी में पास हो गया, मेरे मित्र भी पास हो गए थे। उन्होंने कालेज ज्वाइन भी कर लिया था। मगर मेरे परिवार की गरीबी और अभावों भरी मारक स्थितियों ने मेरे डॉक्टर बनने के स्वप्न का क़त्ल कर दिया। कई दिनों तक मैं इस पीड़ा से उबर नहीं पाया और फिर इसे नियति का फैसला मानकर सब्र कर लिया। पिता और मेरा परिवार भी क्या करता। अगर उनके पास पूंजी होती तो क्या वे भी अपने बेटे को डॉक्टर बनता देख खुश न होते ? पर वे लाचार और विवश थे। कोई उनकी मदद करने वाला नहीं था। रिश्तेदारी में क्या और बाहर क्या ! वे दिन बड़े भयावह और संत्रास भरे थे। मेरे पास नौकरी के लिए आवेदन करने लायक पैसे नहीं होते थे। पिता की स्थिति बड़ी दयनीय थी। तनख्वाह का सारा पैसा उधारी चुकाने में चला जाता था। घर में कभी-कभी फाके जैसी हालत होती। मैंने आसपास की फैक्टरियों में काम तलाशने की बहुत कोशिश की, पर कामयाब नहीं हो पाया। बगैर सिफारिश के कोई रखता नहीं था। उन दिनों मैं बेकारी के भीषण दंश को झेल रहा था। मैं सारा-सारा दिन घर में पड़ा रहता। खाने-पीने को मन न करता। स्वयं को बेहद अकेला, असहाय और उदास महसूस करता। कई बार घर से भाग जाने की इच्छा होती। रात-रात भर नींद नहीं आती थी। किसी से बात करने को मन नहीं करता था। मेरा स्वभाव रूखा और चिड़चिड़ा हो गया था।
पिता घर को चलाने में आर्थिक मोर्चे पर लगातार परास्त होते जा रहे थे। उन्हें अब समझ में आने लगा था कि उनकी इस बदहाली का एक प्रमुख कारण उनका बड़ा परिवार है। छह बच्चों की जगह दो या तीन हुए होते तो ऐसी तंगी और बदहाली शायद न होती। वे कभी-कभी जब माँ से लड़ते-झगड़ते तो अपने आप को कोसने लगते कि उन्होंने इस ओर क्यों ध्यान नहीं दिया। इन दिनों उन्होंने अपनी तंगी को पाटने के लिए एक रास्ता खोज निकाला। अब वे फैक्टरी में लंच के समय बीड़ी, सिगरेट, माचिस, तम्बाकू, नमकीन और मूंगफली के पैकेट बेचने लगे थे। शुरू में उन्हें कुछ दिक्कत हुई, बाद में लोग खुद आ आकर उनसे सामान खरीदने लगे। मोहल्ले में जब आस पड़ोस वालों को मालूम हुआ तो लोग घर पर भी आने लगे। कभी माचिस, कभी बीड़ी का बंडल, कभी नमकीन आदि खरीदने। घर पर पिता न होते तो माँ या बहनें ये सामान दिया करतीं। मुझे, फैक्टरी में पिता द्वारा ये सब बेचने में कोई बुराई नज़र नहीं आती थी, पर इसका घर में भी शुरू हो जाना, मुझे बिलकुल पसंद न था। कोई भी अड़ोसी-पड़ोसी जिसमें मर्द और मोहल्ले के छोकरे अधिक हुआ करते, जब मन होता, मुँह उठाये सीधे हमारे घर में घुसे चले आते। मैं घर पर होता तो मुझे बेहद कोफ्त होती। मैं उठकर कभी सामान न देता और “नहीं है” कह कर अक्सर उन्हें भगा दिया करता।
इंटर करते समय कालेज की लायब्रेरी में मुझे हिंदी पत्रिकायें जैसे- धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, सारिका, सरिता, मुक्ता आदि पढ़ने को मिल जाती थीं। लेकिन मुराद नगर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। खरीद कर मैं पढ़ नहीं सकता था। अखबार पढ़ने के लिए घर से डेढ़-दो मील किसी चायवाले या पानवाले की दुकान पर जाना पड़ता। तभी मेरे एक मित्र ने मुझे आर्डिनेंस फैक्टरी की एक छोटी-सी लायब्रेरी जो नई-नई खुली थी, का सदस्य बनवा दिया। वहाँ से साहित्यिक पुस्तकें इशू करवा कर मैं पढ़ने लगा था। हिंदी के नये पुराने कई लेखकों के उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह जो भी उस पुस्तकालय में उपलब्ध होते, मैंने पढ़ने आरंभ कर दिए थे। ये किताबें मुझे सुकून देती थीं। मैं इनमें खो जाता था। अपना अकेलापन, अपना दुख, अपनी पीड़ा, बेकारी का दंश भूल जाता था। यहीं मैंने प्रेमचंद को पूरा पढ़ा।
इन्हीं दिनों मैंने अनुभव किया कि मैं कवि होता जा रहा हूँ। मैं अपने अकेलेपन के संत्रास को तुकबंदियों में उतारने लगा। ऐसा करने पर मुझे लगता कि मेरा दुख कुछ कम हो गया हो जैसे। उन अधपक्की, अधकचरी कविताओं का रचयिता और पाठक मैं स्वयं ही था। मेरा बहुत मन होता कि कोई मेरी कविता सुने या पढ़े। इधर फैक्टरी में ओवर टाइम लगना आरंभ हो गया था और पिता ने मुझे जेब खर्च के लिए कुछ पैसे देने प्रारंभ कर दिए थे। उन पैसों से मैं नौकरी के लिए आवेदन पोस्ट करने लग पड़ा था। ढेरों इंटरव्यू और लिखित परीक्षाएं दीं, पर सफल नहीं हुआ। एक दिन मेरी किस्मत का बंद दरवाजा खुला। मेरा मेरठ कचेहरी में क्लर्क के पद के लिए चयन हो गया, पर मुझे पैनल में डाल दिया गया था। लगभग आठ-नौ महीने के बाद मेरी नियुक्ति गाजियाबाद सिविल कोर्ट में हुई। मेरे ही नहीं, घर के सभी सदस्यों के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। पिता की आंखों में चमक आ गई थी। माँ ने घर में कीर्तन रखवा लिया था।
गाजियाबाद मैं रेल से आता-जाता था। शाम को लौटते वक्त गाजियाबाद स्टेशन पर बुक स्टालों पर मैं पत्रिकाओं के पन्ने पलटने लगा था। मैं अब पत्रिकाओं के पते नोट करता और अपनी कच्ची-पक्की कविताओं को संपादकों को भेजा करता। फिर कई-कई दिन संपादकों के उत्तर की बेसब्री से प्रतीक्षा किया करता। पर मेरी हर रचना सखेद लौट आती थी। मन बेहद दुखी होता। लेकिन रचनाएं भेजना मैंने बन्द नहीं किया। एक दिन दिल्ली प्रेस की पत्रिका ''मुक्ता'' से मुझे जब स्वीकृति पत्र मिला तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं चाहता था कि मैं अपनी इस खुशी को किसी के संग शेयर करुँ। एक दो मित्रों से बात की पर उन्होंने कोई खुशी जाहिर नहीं की। धीरे-धीरे मेरी कविताएं ‘सरिता’ ‘मुक्ता’ में नियमित रूप से छपने लगीं। ये बड़ी रोमानी किस्म की कविताएं होती थीं। कलर पृष्ठों पर छपती थीं। मैं अपनी छपी हुई कविताओं को और उन कविताओं के साथ छपे युवतियों के रंगीन चित्र को देखकर मुग्ध होता रहता। मुझे लगता जैसे मैं देश का एक बड़ा कवि हो गया होऊँ। ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ में छपने वाली रचनाओं का पारिश्रमिक भी मुझे मिलता था। उस पारिश्रमिक से मैं पत्र-पत्रिकाएं खरीदा करता। मुराद नगर के स्थानीय कवि जो मंचों पर कविताएं पढ़ा करते थे, अब मुझे जानने लगे थे। इनमें वेद प्रकाश ‘सुमन’ और जगदीश चंद्र शर्मा ‘मंयक’ प्रमुख थे। वे अक्सर मुझसे मिलते। अब मैं उनकी काव्य गोष्ठियों में जाने लगा था और अपनी कविताएं सुनाने लगा था। वे मेरी कविताओं की तारीफ़ किया करते। मुराद नगर में हर साल फैक्टरी की ओर से एक विशाल कवि सम्मेलन भी हुआ करता था और उसमें देश के नामी-गिरामी कवि और स्थानीय कवि मंच पर कविता पढ़ा करते थे। कवियों को बुलाने और मंच संचालन का जिम्मा सुमन जी के हाथों में होता। मैं मंच व्यवस्था करने में उनकी मदद किया करता, कुर्सियाँ लगवाता, दरियाँ बिछवाता। वे मुझे कहते कि मैं अपनी एक अच्छी-सी कविता तैयार रखूँ मंच पर पढ़ने के लिए। मैं खोज-खोज कर अपनी कविताएं हाथ से लिखता, उन्हें कंठस्थ करता। आरंभ में वे एक-एक करके स्थानीय कवियों को पढ़वाते, जब कोई कवि कविता पढ़कर हटता मुझे लगता सुमन जी अब मेरे नाम की घोषणा करेंगे। मैं साँस रोक कर बेसब्री से प्रतीक्षा करता रहता, पर मेरा नाम न पुकारा जाता। मुझे बड़ी कोफ्त और पीड़ा होती। गुस्सा भी आता। फिर मैंने उनकी काव्य गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में जाना ही छोड़ दिया।
उन्हीं दिनों हम कुछ युवाओं ने मिलकर मुराद नगर में अपनी एक अलग संस्था बनाई- “विविधा” नाम से। इसमें मेरे अलावा सुधीर गौतम, रूपसिंह चन्देल, सुधीर अज्ञात, संत राज सिंह और प्रेमचंद गर्ग प्रमुख थे। हम ‘विविधा’ की मासिक गोष्ठियाँ करते जिसमें हम अपनी नई लिखी रचनाओं को सुनाते। ‘विविधा’ के अंतर्गत हमने ‘सारिका’ के कई महत्वपूर्ण अंकों पर भी गोष्ठियाँ कीं। एक बड़े पैमाने पर कविता गोष्ठी का आयोजन भी किया जिसमें नागार्जुन भी आए थे। उन्हें दिल्ली से मुराद नगर लाने का दायित्व मुझ पर था। मैं बहुत उत्साहित था। इतने बड़े कवि का सानिध्य मिल रहा था। जिस रविवार यह कार्यक्रम था, उसी रविवार को नवभारत टाइम्स के रविवासरीय अंक में युवा जगत के अंतर्गत मेरे द्वारा आयोजित आधे पृष्ठ की एक परिचर्चा प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था –“युवा पीढ़ी और आत्म घुटन”। मित्रों-दोस्तों में इसे लेकर चर्चा थी और वे मेरी प्रशंसा कर रहे थे। प्रशंसा सुन मैं जैसे हवा में उड़ने लगा था। मेरी इस हवा को शाम के वक्त निकाला- नागार्जुन जी ने। बड़े रूखे और कड़वे शब्दों में बोले- “ये क्या है? इन सब ढ़कोसलों से तुम लेखक/कवि न बन पाओगे। कुछ मौलिक और अच्छा लिखने का प्रयास करो। अच्छा साहित्य पढ़ो।” मैं जैसे आकाश से धरती पर आ गिरा था- परकटे पक्षी की तरह। यह बात नागार्जुन जी ने मुझे अकेले में कही होती तो कोई बात नहीं थी। तीस-चालीस स्थानीय लोगों की भीड़ में उन्होंने कहा था। मैने अपने आप को बहुत अपमानित महसूस किया। उस रात और उससे अगले कई रोज़ मैं ठीक से सो नहीं पाया। लेकिन जल्द ही मुझे उनकी सलाह बहुत कीमती जान पड़ी। ये सन 76 या 77 के दिन रहे होंगे।
उन्हीं दिनों मैंने केन्द्र सरकार में लिपिकों की भर्ती से संबंधित अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली परीक्षा दी थी जिसमें मैं उत्तीर्ण हो गया था और मेरी नियुक्ति भारत सरकार के दिल्ली स्थित नौवहन व परिवहन मंत्रालय में हो गई थी। मैंने कोर्ट की नौकरी से त्यागपत्र दिया और दिल्ली आने-जाने लगा। दिल्ली मैं रेल से ही आया-जाया करता था। यहाँ आकर मैं दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी का सदस्य बन गया। अब पढ़ने को मेरे पास एक से एक किताब होती। नये पुराने हिंदी-पंजाबी के लेखकों-कवियों की पुस्तकों को मैं अपने रेल के दो घंटे के सफ़र में पढ़ने लगा था। अच्छे और श्रेष्ठ साहित्य ने मेरे अंदर नई समझ और नई दृष्टि प्रदान की। यहाँ मैं अपने मित्र रूपसिंह चन्देल के साथ कई बड़े लेखकों से मिला। यही वो दिन थे जब मुझे अपने अब तक के लिखे से ही वितृष्णा होने लगी। धीरे-धीरे मुझे समझ में आने लगा था कि यह सब नकली लेखन है। मेरी आँखों के सामने लाचार, विवश मेरी बूढ़ी नानी आने लगी थी, थके-हारे पराजित से पिता की कातर नज़रें मेरा पीछा करने लगी थीं, माँ का बुझा-बुझा-सा रहने वाला चेहरा और छोटी बहनों की आँखों में बनते-टूटते सपने मुझे तंग-परेशान करने लगे थे। मैं अपने आप से प्रश्न करता कि जो कुछ मैं अब तक लिखता रहा हूँ, उसमें ये लोग कहाँ हैं ? कहाँ हैं इनकी दुख-तकलीफों का चित्रण, जीवन का सच क्या है ? मैं अपने आसपास के यथार्थ से मुँह क्यों मोड़ता रहा हूँ ? मेरे अंदर ऐसे विचारों का प्रस्फुटन ठीक तब से होने लगा जब से मैं गंभीर साहित्य पढ़ने लगा था। सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान की कहानियां मुझे जब से उद्वेलित करने लगी थीं। इन कहानियों के पात्र मुझे भीतर तक कुरेदने लगे थे और मुझे अपने लेखन को जीवन की तल्ख़ सच्चाइयों, कड़वे यथार्थ की ओर उन्मुख करने को प्रेरित करने लगे थे।
अच्छा साहित्य न केवल मनुष्य को एक बेहतर मनुष्य बनाता है बल्कि एक लेखक को बेहतर लेखक भी बनाता है। मैंने अपने दादा-नानी के दु:ख-दर्दों को बहुत करीब से देखा था। पिता को परिवार के लिए हाड़-मांस गलाते देखा था। माँ को परिवार की रोटी-पानी की चिंता में हर समय घुलते देखा था। अपने परिवार के साथ-साथ अपने पड़ोस में रहते बूढ़ों की दुगर्ति मैंने देखी थी। बुढापे में लाठी का सहारा कहे जाने वाले बेटों की घोर उपेक्षा में बूढ़ों को तिल-तिल मरते देखा था। यह एक सामाजिक यथार्थ था मेरी आँखों के सामने, इस यथार्थ की छवियाँ, इनका चित्रण कथा-कहानियों में देखता तो मैं भी अपने आप से प्रश्न करता- मैं भी ऐसा क्यों नहीं लिखता जिसमें इन लोगों की बात हो। ये जीवित पात्र मुझे अब बार-बार उकसाने लगे थे। बदलते समय ने मेरे सरोकार और मेरे लेखक होने के कारण को बदलने में मदद की। मैंने पहली कहानी लिखी- ''अब और नहीं।'' यह एक रिटायर्ड वृद्ध की व्यथा-कथा थी जिसे मैंने अपने ढंग से लिखने की कोशिश की। बूढ़े-बुजुर्ग लोग मेरी संवेदना को झकझोरते रहे हैं और मैं समय-समय पर इनको केन्द्र में रखकर कहानियाँ लिखता रहा हूँ। ''बूढ़ी आँखों का आकाश'', ''लुटे हुए लोग'', '' इतने बुरे दिन'', ''तिड़के घड़े'', ''उसकी भागीदारी'', ''आख़िरी पड़ाव का दु:ख'', ''जीवन का ताप'', ''कमरा'' मेरी ऐसी ही कहानियाँ/लघुकथाएं हैं।
बेकारी के दंश को अभिव्यक्त करती मेरी कहानी ''दैत्य'' हो अथवा ''अंतत:'' दोनों के पीछे मेरे अपने बेकारी के दिन भले ही रहे हों, पर ये कहानियां व्यापक रूप में भारत के हजारों-लाखों बेकार युवकों के संताप को ही व्यक्त करती हैं।
मेरे लेखन के पीछे जो मुख्य कारण व कारक सक्रिय रहा, वह था मेरा अपना परिवार। अभावों, दु:खों-तकलीफों में जीता परिवार। पिता के और मेरे अपने संघर्ष। धीरे-धीरे उसमें आस पास का समाज भी जुड़ता चला गया। ज़रूरी नहीं कि एक समय में लिखने का जो कारण रहा हो, दूसरे समय में भी वही रहे। समय के साथ-साथ ये कारण बदलते रहते हैं। जैसे-जैसे लेखक अपने समय और समाज से गहरे जुड़ता जाता है, उसके सरोकार और लिखने के कारण भी उसी प्रकार बनते-परिवर्तित होते रहते हैं। अगर मैं यहाँ यह कहूँ कि ‘प्रेम’ भी मेरे लिखने का एक कारण रहा है तो गलत न होगा। प्रेम भी हमारी सृजनात्मकता को उर्वर बनाता है और उसमें गति लाता है। जब आप प्रेम में होते हैं, तो सृजन के बहुत करीब होते हैं, ऐसा मेरा अनुभव और मानना है। एक समय, मोहल्ले की एक लड़की जो हमारे घर के सामने रहा करती थी, से हुए मेरे इकतरफा प्रेम ने भी मुझसे बहुत कुछ लिखवाया। ढेरों प्रेम कविताएं, कई प्रेम कहानियाँ। इनमें से कुछ ही सुरक्षित रह सकीं, बहुतों को मुझे नष्ट करना पड़ा। इस सन्दर्भ में मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है। जिस लड़की से मुझे इकतरफा प्रेम था, मैं उसे अपने लेखकीय गुण से इंप्रैस करना चाहता था। मैं अपने को लेखक होने के नाते एक विशिष्ट व्यक्ति मानता था और चाहता था कि मेरे इस गुण के वशीभूत वह मुझसे प्रेम करने लगे। मैंने मालूम किया कि उस लड़की के घर कौन-सा हिंदी का अखबार आता है। फिर मैंने एक कहानी लिखी और उसी अखबार में छपने के लिए भेज दी। उस अखबार में कहानी के साथ लेखक की फोटो भी छपा करती थी। एक रविवार कहानी छप गई। मेरी फोटो सहित। लेकिन विडम्बना देखें कि उस दिन उसके घर में वह अखबार नहीं आया, हॉकर उसके बदले में दूसरा अखबार डाल गया। मेरी हसरत पर मानो तुषारापात हो गया।
इस घटना के बाद यह अलग बात है कि उस लड़की से मेरा प्रेम चला। पर इसके पीछे मेरा लेखन कोई कारण नहीं बना। उस लड़की ने मुझे मेरे लेखक होने के नाते प्रेम नहीं किया। धीरे-धीरे हमारा यह प्रेम ऊँची पींगें लेने लगा। हम अकेले में मिलते, सिनेमा देखने जाते, पार्कों में मिलते और बीच-बीच में पत्रों का आदान-प्रदान भी होता। पुराना किला, चिड़ियाघर, मदरसा, कुतुब, इंडिया गेट, प्रगति मैदान, कनॉट प्लेस ऐसी कोई जगह नहीं थी दिल्ली की जहाँ हम न मिला करते। लेकिन फिर वही हुआ जैसा कि एक भारतीय समाज में होता है। उसके माँ-बाप ने अपनी बिरादरी में उसका विवाह तय कर दिया। उस समय मेरे दिल के कितने टुकड़े हुए, मैं ही जानता हूँ। चोट खाया मैं मजनूं-सा प्रेम कविताएं लिखता रहा और लिख-लिख कर फाड़ता रहा। फिर उसका विवाह हो गया। मुझे लगा, अब हम कभी नहीं मिल पाएंगे। मेरे माँ-बाप ने मेरा भी विवाह कर दिया।
कई बरसों बाद सन् 1992 में इसी प्रेम के अहसास ने मुझसे ''चोट'' जैसी प्रेम कहानी लिखवाई जिसे पढ़कर मेरी पत्नी ने नाक-भौं सिकौड़ी थी और कहा था- “यह क्या कहानी है ?” उन दिनों मेरा भीषण एक्सीडेंट हुआ था और बायें पैर की पाँच हड्डियाँ टूट गई थीं। मैं लगभग तीन महीने बिस्तर पर पड़ा रहा था। घर पर मेरे लेखक मित्र मुझे मिलने आया करते थे। रूप सिंह चन्देल तो प्राय: मेरा हाल-चाल जानने आया करते। चन्देल ने वह कहानी पढ़कर तारीफ़ की और कहा कि इसे तुरत बलराम को दे दो। बलराम उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' का रविवासरीय देखा करते थे। बलराम ने कहानी छापी, संग में फोटो और उसके साथ मेरे दुर्घटनाग्रस्त हो जाने की सूचना भी। वर्ष 2006 में लिखी ''लौटना'' कहानी में भी असफल प्रेम के उसी अहसास को एक दूसरे कोण से अभिव्यक्त करने की कोशिश की गई है।
लेखक अपने समय और समाज से कट कर कदापि नहीं रह सकता। ''वेलफेयर बाबू'' ''औरत होने का गुनाह'' ''गोष्ठी'' कहानियाँ मेरे अपने समय और समाज की कहानियाँ हैं और मैंने इन्हें लिख कर अपने सामाजिक सरोकार और लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करने की कोशिश की है।
दिल्ली में मेरा परिचय रमेश बत्तरा से किसी पंजाबी कहानी के हिंदी अनुवाद को लेकर हुआ था। बेशक मैं पंजाबी परिवार में पैदा हुआ, पर हमारे घर पर पंजाबी नहीं बोली जाती। उत्तर प्रदेश के स्कूलों में जब संस्कृत के स्थान पर उर्दू, बांग्ला और पंजाबी में से कोई एक भाषा पढ़ाने का फार्मूला लागू हुआ, तब मैंने पंजाबी भाषा सीखना इसलिए स्वीकार किया ताकि मैं अपनी माँ-बोली से जुड़ा रह सकूँ। तीन वर्ष की उस स्कूली पढ़ाई ने मुझे बाद में बहुत लाभ पहुँचाया। मुराद नगर में तो न पंजाबी के अख़बार मिलते थे, न ही किताबें। मेरी यह हसरत दिल्ली में आकर पूरी हुई। हिंदी साहित्य की पुस्तकों के साथ-साथ मैंने पंजाबी साहित्य की पुस्तकें भी पढ़नी प्रारंभ कर दी थीं। मैंने पंजाबी की एक कहानी का हिंदी में अनुवाद किया था और इसी सिलसिले में मेरी मुलाकात दरियागंज स्थित “सारिका” के कार्यालय में रमेश बत्तरा से हुई थी। वह जितना गंभीर और अच्छा लेखक था उतना ही प्यारा दोस्त भी था। हम एक दूसरे के घर भी आते-जाते थे। साहित्य को लेकर बातें हुआ करती थीं। मुझे यहाँ यह स्वीकार कर लेने में कोई हिचक नहीं है कि अगर रमेश बत्तरा से मेरी दोस्ती न हुई होती तो मैं लघुकथा लेखन और अनुवाद के क्षेत्र में कतई न आया होता। पंजाबी से हिंदी में अनुवाद और लघुकथा लिखने की शुरूआत रमेश बत्तरा ने ही करवाई। वह स्वयं हिंदी का एक प्रतिभा संपन्न कथाकार, लघुकथाकार और अनुवादक था। उसने मुझसे ‘सारिका’ के लिए पंजाबी कहानियों का अनुवाद करवाया। पंजाबी का अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए किताबें उपलब्ध करवाईं। मैं कोई नई कहानी लिखता तो उसे लेकर शनिवार के दिन “सारिका” के ऑफिस पहुँच जाता। घंटों रमेश के पास बैठा रहता, पर कहानी देने की मैं हिम्मत न जुटा पाता। चलने लगता तो वह मेरे संग ऑफिस से बाहर तक आता। उसे पान खाने की आदत थी। बाहर आकर पहले वह चाय पिलवाता और फिर अपने लिए पान बनवाता। विदा होते समय मैं बड़े संकोच से उसे अपनी कहानी थमाता तो वह मुसकारते हुए कहता- “अरे वाह ! बधाई! पर तू इतनी देर से मेरे संग है, पहले क्यों नहीं दी?”
कहानी पढ़कर वह अपनी निष्पक्ष राय देता। उसकी कमियों की ओर ध्यान खींचता और निराश न होने को कहता। एक दिन बोला- “सुभाष, तुम लघुकथाएं पढ़ते हो ? कैसी लगती हैं तुम्हें ?”
मैंने कहा- “पढ़ता हूँ । अच्छी लगती हैं। पर अधिकांश मुझे निराश करती हैं।”
“कहानियाँ भी तो सभी अच्छी नहीं होतीं। सौ में से नब्बे निराश करती हैं।”
“कोई लघुकथा लिखी है ?”
“अभी तक तो नहीं लिखी।”
“तो कोशिश कर। दो-एक लिख पाओ तो मुझे देना।”
मैंने उसके कहने पर दो लघु कथाएं लिखीं और बड़े संकोच से उसे दीं। उसके मुँह में उस समय पान था। उसने थूका और फिर मुसकरा कर कहा- “यह हुई न बात ! यार तू तो बढ़िया लघुकथा लिख लेता है।” उन दिनों “सारिका” का लघुकथा विशेषांक निकलने वाला था। मेरी पहली लघुकथा “कमरा” उसने विशेषांक में प्रकाशित की। अब तक न जाने कितनी बार इस लघुकथा का पुनर्प्रकाशन हो चुका है और कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। उन दिनों हिंदी का हर लेखक “धर्मयुग” में छपने की लालसा रखता था। कहा जाता था कि अगर किसी नये लेखक की उसमें कहानी छप जाती थी तो वह रातोंरात कथाकार बन जाता था। “सारिका” में मेरी लघुकथाएं छपने के बाद जब एक दिन मुझे ‘धर्मयुग’ से पत्र मिला जिसमें मुझसे लघुकथाएं प्रकाशनार्थ मांगी गई थीं, तो मैं खुशी में जैसे झूम-सा उठा। मैंने लघुकथाएं भेजीं और वे ‘धर्मयुग’ में छपीं। रमेश बत्तरा ने मुझे बधाई दी और कहा – “सुभाष, अब तुम पक्के लघुकथा लेखक बन गए।” मेरी कई लघुकथाएं रमेश ने समय-समय पर प्रकाशित कीं। “सारिका” में दिहाड़ी” “रफ कॉपी”, नवभारत टाइम्स में “धूप” “रंग- परिवर्तन” “कबाड़”, संडे मेल में “जीना-मरना” “सफ़र में” आदि। उन दिनों लघुकथा की पत्रिकाएं जैसे “लघु आघात” “क्षितिज” ‘सनद” आदि को वही मुझे दिया करता था और उनमें लघुकथाएं भेजने को कहा करता। “बीमार” लघुकथा का शीर्षक रमेश ने ही सुझाया था। मैंने यह लघुकथा “मासूम सवाल” शीर्षक से उसके गाजियाबाद निवास पर उसकी पत्नी जया रमेश के सम्मुख सुनाई तो उसने कहा- “इतनी अच्छी लघुकथा को गलत शीर्षक देकर क्यों उसका सत्यानाश कर रहा है ? इस लघुकथा में पत्नी बीमार है, बच्ची एक फल खाने की हसरत में बीमार होना चाहती है, यह लघुकथा यहीं तक नहीं है। यह उस बीमार व्यवस्था की ओर भी संकेत करती है जिसके चलते हम अपने बच्चों को फल तक खिला पाने की हैसियत नहीं रखते।”
रमेश बत्तरा लेखन में मेरे लिए पथ-प्रदर्शक की तरह रहा। अच्छी रचनाओं पर वह पीठ भी ठोंकता था और अपने मित्रों-यारों में उसका जिक्र भी करता था। लेकिन खराब रचना को खराब कहने में उसने दो सेकेंड नहीं लगाए। ऐसे मित्र का अभाव आज भी खलता है। दिल्ली में आज मेरे कई साहित्यिक मित्र हैं जिनसे साहित्य को लेकर तथा अन्य सामाजिक मुद्दों को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। हम प्राय: अपनी रचनायें एक-दूसरे को सुनाते हैं। उन पर चर्चा करते हैं। इनमें रूपसिंह चन्देल, सुरेश यादव, राजेन्द्र गौतम, बलबीर माधोपुरी(पंजाबी कवि), बलविंदर सिंह बराड़(पंजाबी कथाकार), बलराम अग्रवाल, अलका सिन्हा और रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’ आदि प्रमुख हैं।
मेरे तीन कहानी संग्रह –“दैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)” “औरत होने का गुनाह(2003)” तथा “आख़िरी पड़ाव का दु:ख(2007)”, दो कविता संग्रह “यत्किंचित (1979)”, “रोशनी की लकीर(2003)”, एक बाल कहानी संग्रह-“मेहनत की रोटी”, एक लघुकथा संकलन –“कथाबिंदु” (सहयोगी कथाकार हीरा लाल नागर व रूपसिंह चन्देल) प्रकाशित हो चुके हैं। एक एकल लघुकथा संग्रह –“वाह मिट्टी” प्रकाशनाधीन है। इसके अतिरिक्त पंज़ाबी की लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित हुआ है जिनमें “काला दौर”, “कथा पंजाब-2”, “कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ”, “तुम नहीं समझ सकते(जिंदर का कहानी संग्रह) और बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा –“छांग्या-रुक्ख” प्रमुख हैं। नेट पर “सेतु साहित्य”, “वाटिका”, “साहित्य सृजन”, “गवाक्ष” और “सृजन यात्रा” मेरी ब्लॉग पत्रिकाएं हैं।
मुझे हमेशा लगता रहा कि लेखन ही एक ऐसा माध्यम है जो मेरी निजता को सामाजिकता में बदल सकता है। जिनके लिए मैं कुछ नहीं कर पाया, मैं उनकी दुख-तकलीफों को अपने लेखन में रेखांकित कर सकता हूँ और उनके लिए 'कुछ न कर पाने' की अपनी पीड़ा को मैं लिखकर कम कर सकता हूँ।
इसमें दो राय नहीं कि मेरे अब तक के लेखन के पीछे मेरे माता-पिता के संघर्ष और अभावों भरे दिन रहे हैं, मेरे अपने संघर्ष रहे हैं। लेकिन साथ ही साथ समय ने मुझे अपने समाज और परिवेश के प्रति भी जागरूक बनाया है। उस समाज में रह रहे हर गरीब, दुखी, असहाय, पीड़ित, दलित, शोषित व्यक्ति के प्रति संवेदनात्मक रिश्ता कायम किया है। अपनी कहानियों, लघुकथाओं में मैंने सदैव कोशिश की कि इन लोगों के यथार्थ को ईमानदारी से स्पर्श कर सकूं और तहों के नीचे छिपे 'सत्य' को उदघाटित कर सकूं। मुझे नहीं मालूम कि मैं इसमें कहाँ तक सफल हुआ हूँ, पर मुझे अपने लिखे पर संतोष है। मुझे यह मुगालता कभी नहीं रहा कि मेरे लेखन से समाज में कोई परिवर्तन हो सकता है। कहानी, लघुकथा और कविता लिखते समय मैं अपने समय और समाज के प्रति जागरुक और ईमानदार रहूँ, ऐसी मेरी कोशिश और मंशा रहती है। आलोचक समीक्षक मेरी रचनाओं को लेकर क्या कहते हैं या क्या कहेंगे, इसकी तरफ़ मैं अधिक ध्यान नहीं देता। लिखना मेरा एक सामाजिक कार्य है और मैं इसे अपनी तरफ से आज 55 वर्ष की आयु में भी पूरी ईमानदारी से करते रहना चाहता हूँ। यदि मेरी कोई रचना किसी की संवेदना को जगा पाती है अथवा उसे हल्का-सा भी स्पर्श करती है तो यह भी कोई कम उपलब्धि नहीं है मेरे लिए।
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