गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

कविता




पढ़ना चाहता हूँ एक अच्छी कविता
सुभाष नीरव

मैं पढ़ना चाहता हूँ
एक अच्छी कविता।

कविता
कि जिसे पढ़कर
खुल जाएं
बाहर-भीतर के किवाड़
मन का कोना-कोना
गमकने-महकने लगे
ताज़ी हवा से।

कविता
कि जिसे पढ़कर
मन के अँधेरों में
उतर आए
रोशनी की लकीर।

पढ़ना चाहता हूँ मैं
एक अच्छी कविता।

एक ऐसी कविता
जो उतरे मेरे भीतर
जैसे उतरते हैं
पहाड़ों पर से
घाटियों में
जल-प्रपात
अपने मधुर संगीत के साथ।

कविता
तुम आओ तो इसी तरह आना
मेरे पास !
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

स्मृति-शेष पिता !

पिता अब नहीं रहे। गत 22 अक्तूबर 2009 (बृहस्पतिवार रात्रि 10.30 बजे) उन्होंने मुझसे छोटे दो भाइयों की गोद में अन्तिम सांस ली। जीवन भर दुख-तकलीफ़ों और मुश्किलों से लोहा लेने वाले पिता अपनी भंयकर बीमारी से भी अपनी जीर्ण-शीर्ण काया में बची खुची शक्ति से चुपचाप लड़ते -जूझते रहे। उन्हें दायें फेफड़े में कैंसर था जो अन्तिम स्टेज पर पहुंच चुका था। वह असहनीय और मर्मान्तक पीड़ा को हमसे हर क्षण छुपाने की कोशिश करते रहे, कभी दर्द में चीखे-चिल्लाये नहीं। कभी-कभी मद्धम-सी कराह जबरन उनके मुँह से निकलती तो लगता कि वह उसे भी अपने भीतर रोकने की भरसक कोशिश कर रहे थे। लेकिन उनके चेहरे पर खिंची असहनीय दर्द की लकीरें हमें भीतर तक रुला जाती थीं। अब वह घना छायादार वृक्ष हमारे सिर पर नहीं रहा जिसकी छाया तले हम अपने दुख-दर्द भूल जाते थे, दिन भर की थकान मिटा लेते थे। शेष रह गई हैं बस उसकी स्मृतियाँ ! जिस जीवट और साहस का परिचय पिता अपने जीवन में देते रहे, उसी जीवट और साहस से हमें जीवन की हर मुश्किल से लोहा लेना है। उनके दिखाये गए रास्तों पर चलना है। उनकी स्मृतियों की पूंजी को संजो कर रखना है, उन्हें विस्मृतियों की गर्द से बचा कर रखना है। इन स्मृतियों के सहारे ही अशरीरी पिता हमारे साथ रहेंगे।
शोक के इन क्षणों में पिता जी पर फिलहाल बस इतना ही लेकिन जल्द ही उनके जीवन संघर्षों पर विस्तार से लिखने का प्रयास करूंगा।
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भाई रूप सिंह चन्देल मेरे परिवार के हर दुख-सुख में सदैव आगे बढ़कर सम्मिलित होते रहे हैं। उन्होंने ही मेरे सभी मित्रों को फोन और ई-मेल के द्वारा इस बारे में सूचित करने का दायित्व निभाया। मेरे परिवार की इस दुखद घड़ी में अनेक मित्रों ने उपस्थित होकर, फोन अथवा ई-मेल द्वारा अपनी शोक संवेदनाएं प्रकट करके मुझे और मेरे परिवार को जो सांत्वना और शक्ति प्रदान की, उसके लिए मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूँ।
-सुभाष नीरव

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

कविता









दो कविताएँ/ सुभाष नीरव

ठोकरें

पहली ठोकर
उसके क्रोध का कारण बनी।

दूसरी ने
उसमें खीझ पैदा की।

तीसरी ठोकर ने
किया उसे सचेत।

चौथी ने भरा
आत्म-विश्वास
उसके भीतर।

अब नहीं करता
वह परवाह
ठोकरों की !
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रास्ते

बने बनाये रास्ते
ले गए हमको
अपनी ही तयशुदा
मंज़िल पर।

रास्ते जो
हमने बनाये
उन्हें हम ले गए
अपनी मनचाही
मंज़िल पर।
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

शनिवार, 5 सितंबर 2009

कविता









आग और धुआँ

सुभाष नीरव

धुआँ देख
हरकत में नहीं आते हैं वे।


‘दीखती नहीं हैं लपटें
नहीं, यह नहीं है आग…’

धुएँ का होना
उनके लिए आग नहीं है।

वे बैठे हैं बेहरकत
और धुआँ
इधर से उधर
उधर से इधर
ऊपर से ऊपर
गाढ़ा हो फैलता ही जाता है।


‘वो उठीं लपटें…
हाँ, यह है आग…’
और हरकत में आ जाते हैं वे।

चीखने लगते हैं सायरन
बजने लगती हैं घंटियाँ
दौड़ने लगती हैं दमकलें…


लेकिन
जब तक पहुँचते हैं वे आग तक
घंटियाँ और सायरन बजाती
दमकलों के साथ
कुछ नहीं रहता शेष
शेष रहता है
मातम
धुआँ
राख !
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

शनिवार, 8 अगस्त 2009

कविताएं



कविता
अपने-अपने रास्ते
सुभाष नीरव

छोड़ कर सीधे-सरल रास्ते
वह उतरा घाटियों में
चढ़ा पर्वतों पर।

सीधे-सरल रास्तों ने
बहुत लुभाया उसे
पर उसने चुनीं
चुनौती भरी राहें।

दुर्गम घाटियों में उतर कर
वह सुनता रहा उनका संगीत
और खोजता रहा
गहराइयों का सच।

न जाने किस गहरे दु:ख में
ख़ामोश खड़े थे पहाड़
वह ढूँढ़ता रहा
उनकी ख़ामोशियों के अर्थ।

पत्थरों-चट्टानों
नदी, नालों और निर्झरों
फूलों और कांटों को लांघता
जब वह पहुँचा मंज़िल पर
उसके पास थी
ढेर सारे अनुभवों की पूंजी।

पर लोग तो वहाँ
पहले से ही मौजूद थे
जो सीधे-सरल रास्तों से हो कर आए थे
और किए जा रहे थे पुरस्कृत।

खुश थे अपनी सफलता पर
जिस समय
पुरस्कृत हुए लोग
वह बढ़ रहा था
चुपचाप
नई मंज़िल
नई चुनौतियों की तलाश में।
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

कविताएं



सृजन-यात्रा’ के पिछले अंक में मैंने अपनी कविता ‘काम करता आदमी’ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत की थी। अंक में प्रस्तुत हैं– पेड़ से जुड़ीं मेरी दो छोटी-छोटी कविताएं …


दो कविताएं/ सुभाष नीरव


पेड़-1

आँधी-पानी सहते हैं
धूप में तपते हैं, झुलसते हैं
तूफानों से करते हैं
मल्लयुद्ध
अपनी ज़मीन छोड़ कर
कहीं नहीं जाते ये पेड़।

मुसीबतों से डरना
और डर कर भागना
आता नहीं इन्हें।

कितने साहसी होते हैं ये पेड़
आदमी के आस पास होते हुए भी
आदमी की राजनीति से अछूते।

अपनी ज़मीन के प्रति
कितने वफ़ादार होते हैं ये पेड़ !
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पेड़-2

मौसम ज़ुल्म ढाता है
और
चूसने लगता है जब
हरापन
दरख़्तों के चेहरे
पीले पड़ जाते हैं।

आपस में गुप्त
फ़ैसला होता है तब
और
सब के सब
दरख़्त
एकाएक नंगई पर उतर आते हैं।

हार कर एक दिन
मौसम अपने घुटने टेकता है
और तब फिर से
दरख़्तों पर
हरापन फूटता है।
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

सोमवार, 6 जुलाई 2009

कविताएं


लेखन की शुरूआत कविता से हुई। बाद में, गद्य की ओर मुड़ गया यानी कहानी-लघुकथा की ओर। लेकिन, कविता से रिश्ता निरंतर बना रहा, टूटा नहीं। अच्छी कविताएं और उर्दू-शायरी को खोज-खोज कर पढ़ना आज भी जारी है। अगर मैं यह कहूँ कि जब-जब मैंने जीवन में स्वयं को अकेला महसूस किया है, कविता को ही अपने बहुत करीब पाया है, तो गलत न होगा। कविताओं ने कभी जीवन की चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा दी, तो कभी हताशा-निराशा के अँधेरों में उम्मीद की किरण बन कर चमकीं। कविता ने गद्य की तरह मुझसे अधिक कुछ नहीं मांगा। बस, थोड़ा-सा वक्त, थोड़ा-सा प्रकाश, थोड़ी-सी स्याही, थोड़ा-सा काग़ज़(कभी-कभी तो बस की टिकट के पिछ्ले हिस्से से भी काम चलाया)। लेखन के शुरूआती दिनों में सन् 1979 में मित्र रूपसिंह चन्देल के साथ मिलकर एक छोटा-सा कविता संकलन छ्पा- ‘यत्किंचित’ शीर्षक से। फिर काफी अंतराल के बाद वर्ष 2003 में एकल कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” आया। “सृजन-यात्रा” में अपने कविता संग्रहों और संग्रहों से बाहर की कविताएं मैं समय-समय पर ‘नेट’ की दुनिया के पाठकों के सामने रखता रहूँगा। इस अंक में प्रस्तुत हैं –मेरी एक कविता –‘काम करता आदमी’…



कविता



काम करता आदमी
सुभाष नीरव

कितना अच्छा लगता है
काम करता आदमी।

बहुत अच्छा लगता है
लोहा पीटता लुहार
रंदा लगाता बढ़ई
गोद में बच्चा लिए
पत्थर तोड़ती औरत
और
सड़क बनाता मजदूर।

कितना अच्छा लगता है
मिट्टी के संग मिट्टी हुआ किसान
अटेंशन की मुद्रा में
चौकसी करता जवान।

अच्छा लगता है
फाइलों मे खोया बाबू
पियानों की तरह
टाइपराइटर बजाता टाइपिस्ट।

बहुत अच्छी लगती है
धुआँते चूल्हे में फुंकनी मारती माँ
तवे के आकाश पर
चाँद-सी रोटी सेंकती बहन
धुले-गीले कपड़ों को
अलगनी पर सुखाती पत्नी।

दरअसल
काम करता आदमी
प्रार्थनारत् होता है
और
प्रार्थनारत् आदमी
किसे अच्छा नहीं लगता।
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(कविता संग्रह “रोशनी की लकीर” में संग्रहित)

शनिवार, 30 मई 2009

मैं और मेरा जीवन (आत्मकथ्य)

सृजन-यात्रा” एक वर्ष का सफ़र तय कर चुका है। गत वर्ष मई 2008 में जब मैंने अपनी रचनाओं पर केन्द्रित ब्लॉग “सृजन-यात्रा” आरंभ किया था तो सोचा था कि पहले मैं इस पर अपनी अभी तक प्रकाशित सभी कहानियों को एक-एक करके पोस्ट करूँगा, फिर लघुकथाएं और उसके बाद कविताएं तथा अन्य साहित्य। “सृजन-यात्रा” में अब तक मेरी 17 कहानियाँ ही प्रकाशित हो सकी हैं और अभी लगभग इतनी ही कहानियाँ कतार में हैं। देश-विदेश में बैठे अनेक साहित्य प्रेमियों और मेरे लेखक मित्रों ने न केवल इन प्रकाशित कहानियों पर अपनी मूल्यवान राय दी बल्कि बहुतों की यह राय रही कि मैं कहानियों के साथ-साथ अपनी अन्य रचनाएं यथा- लघुकथा, कविता, बालकहानी आदि भी बीच-बीच में पाठकों के सम्मुख लाता रहूँ ताकि वे मेरे अन्य लेखन से भी साथ-साथ परिचित होते रहें। इस माह से मैं अपने मित्रों की राय पर अमल करने जा रहा हूँ। अब कहानियों के अतिरिक्त अन्य विधाओं में किए गए अपने लेखन को भी बीच-बीच में मैं “सृजन-यात्रा” के माध्यम से पाठकों के सम्मुख रखता रहूँगा और चाहूँगा कि वे मेरी अन्य विधाओं की रचनाओं पर भी अपनी बेबाक टिप्पणियाँ देकर अपनी मूल्यवान राय से मुझे अवगत कराते रहेंगे।

इस अंक में मैं अपना ‘आत्मकथ्य’ प्रकाशित कर रहा हूँ। इसका आंशिक रूप भाई रूपसिंह चन्देल ने अपने साहित्यिक ब्लॉग “वातायन” में “मैं क्यों लिखता हूँ ?” शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किया था और यह आत्मकथ्य सम्पूर्ण रूप में मुम्बई से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका “कथाबिंब” के जनवरी-मार्च 2009 अंक में भी प्रकाशित हुआ है। भाई बलबीर माधोपुरी द्वारा किया गया इसका पंजाबी अनुवाद पंजाबी की चर्चित त्रैमासिक प्रत्रिका “शबद”(संपादक – जिंदर) में शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है।



आत्मकथ्य
लिखना मेरे लिए एक सामाजिक कार्य है
सुभाष नीरव

यूँ तो पाठक किसी लेखक को उसकी रचनाओं से ही जानते-समझते हैं, फिर भी उनके अंदर लेखक के ‘निज’ को भी जानने-समझने की एक ललक हुआ करती है, उसके निजी जीवन में झांकना उन्हें अच्छा लगता है। शायद यही कारण हैं कि लेखकों की आत्मकथाएं पाठकों द्वारा खूब पसंद की जाती हैं। मेरे परम मित्र रूपसिंह चन्देल और “कथाबिंब” के संपादक डा0 माधव सक्सेना ‘अरविंद’ पिछ्ले कुछ समय से मुझे निरंतर प्रेरित और स्पंदित करते रहे हैं कि मैं अपने जीवन और लेखन से जुड़े छुए-अनछुए पहलुओं को एक आत्मकथ्य के जरिये पाठकों के साथ साझा करूँ। पर न जाने क्यों मुझे यह भय निरंतर सताता रहा कि कहीं मेरा ‘आत्मकथ्य’ एक ‘आत्मालाप’ न बन जाए। अपनी दु:ख-तकलीफ़ों, जीवन-संघर्षों को अपनी रचनाओं के माध्यम से तो मैं व्यक्त करता रहा हूँ परन्तु, इन्हें सीधे-सीधे दूसरों को बतलाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। न जाने लोग कैसे अपनी आत्मकथाएं लिख लेते हैं। लिखना अपने आप से लड़ना होता है, और आत्मकथा/आत्मकथ्य लिखना तो अपने आप को अपने ही हाथों से छीलने जैसा तकलीफ़देह काम है।
मेरा जन्म एक बेहद गरीब पंजाबी परिवार में हुआ जो सन् 1947 के भारत-पाक विभाजन में अपना सब कुछ पाकिस्तान में गंवा कर, तन और मन पर गहरे जख़्म लेकर, आश्रय और रोजी रोटी की तलाश में पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक बहुत छोटे से नगर – मुराद नगर- में आ बसा था। इस लुटे-पिटे परिवार में मेरी माँ, मेरे पिता, मेरे दादा, मेरी नानी और मेरे चाचा थे। उन दिनों मुराद नगर स्थित आर्डिनेंस फैक्टरी में लेबर की भर्ती हो रही थी और मेरे पिता को यहाँ एक लेबर के रूप में नौकरी मिल गई थी, साथ में रहने को छोटा-सा मकान भी। डेढ़- दो वर्ष बाद चाचा को भी इसी फैक्टरी में नौकरी मिल गई तो विवाह के बाद वह पिता से अलग रहने लगे। दौड़-धूप करने पर चाचा को हमारे मकान से सटा मकान रहने के लिए मिल गया था।

प्रारंभ में लेखन के लिए बीज हमें हमारे जीवन की घटनाओं से ही मिलते हैं और उन्हें अंकुरित-पल्लवित करने में हमारे आसपास का परिवेश और स्थितियां सहायक बनती हैं, ऐसा मेरा मानना है। इसलिए यहाँ अपने जीवन की उन पारिवारिक स्थितियों-परिस्थितियों का उल्लेख कर लेना मुझे बेहद आवश्यक और प्रासंगिक प्रतीत हो रहा है जिसकी वजह से मेरे अंदर लेखन के बीज पनपे और जिन्होंने मुझे कलम पकड़ने के लिए प्रेरित किया। मुझे अपने लेखन के बिलकुल शुरुआती दिन स्मरण हो आ रहे हैं। जब मैं अपने अतीत को खंगालने की कोशिश करता हूँ तो स्मृतियों-विस्मृतियों के बीच झूलते वे दिन मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं जब मैं इंटर कर चुकने के बाद एक असहय अकेलेपन के साथ-साथ भीषण बेकारी के दंश को झेल रहा था और इस दंश से मुक्ति की राह मैं साहित्य में ढूँढा करता था। साहित्यिक पत्रिकाएं और पुस्तकें मुझे इस दंश से, भले ही कुछ देर के लिए, मुक्ति दिलाती थीं। कहानी, उपन्यासों के पात्र मेरे साथी बन जाते थे और कई बार कोई पात्र तो मुझे बिलकुल अपने सरीखा लगता था।
मुझे लेखन विरासत में नहीं मिला। जिस गरीब मजदूर परिवार में मैं पला-बढ़ा, उसमें दूर-दूर तक न तो कोई साहित्यिक अभिरूचि वाला व्यक्ति था और न ही आसपास ऐसा कोई वातावरण था। पिता फैक्टरी में बारह घंटे लोहे से कुश्ती किया करते थे। फैक्टरी की ओर से रहने के लिए उन्हें जो मकान मिला हुआ था, वहां आसपास पूरे ब्लॉक में विभिन्न जातियों के बेहद गरीब मजदूर अपने परिवार के संग रहा करते थे, जिनमें पंजाबी, मेहतर, मुसलमान, पूरबिये, जुलाहे आदि प्रमुख थे। एक ब्लॉक में आगे-पीछे कुल 18 क्वार्टर होते थे- नौ आगे, नौ पीछे। दोनों तरफ ब्लॉक के बीचोंबीच एक सार्वजनिक नल होता था जहां सुबह-शाम पानी के लिए धमा-चौकड़ी मची रहती थी, झगड़े होते थे, एक दूसरे की बाल्टियाँ टकराती थीं। जहाँ औरतों में सुबह-शाम कभी पानी को लेकर, कभी बच्चों को लेकर झगड़े हुआ करते थे, हाथापाई तक हुआ करती थी। मेरे हाई स्कूल करने तक घरों में बिजली नाम की कोई चीज नहीं थी। बस, स्ट्रीट लाइट हुआ करती थी। ऊँचे-लम्बे लोहे के खम्भों पर लटकते बल्ब शाम होते ही सड़क पर पीली रोशनी फेंकने लगते थे। मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई मिट्टी के तेल के लैम्प की रोशनी में करनी पड़ती थी या फिर घर के पास सड़क के किनारेवाले किसी बिजली के खम्भे के नीचे चारपाई बिछाकर, उसकी पीली मद्धिम रोशनी में अपना होमवर्क पूरा करना पड़ता था।
घर में तीन बहनें, तीन भाई, पिता, अम्मा के अलावा नानी भी थी। नानी के चूंकि कोई बेटा नहीं था, भारत-पाक विभाजन के बाद, वह आरंभ में तो बारी-बारी से अपने तीनों दामादों के पास रहा करती थीं, पर बाद में स्थायी तौर पर अपने सबसे छोटे दामाद यानी मेरे पिता के पास ही रहने लगी थीं। वह बाहर वाले छोटे कमरे जो रसोई का भी काम देता था, में रहा करती थीं। दरअसल, यह कमरा नहीं, छोटा-सा बरामदा था जो पाँच फीट ऊँची दीवार से ढ़का हुआ था। इसमें लकड़ी का जंगला था जो आने-जाने के लिए द्वार का काम करता था। ठंड के दिनों में दीवार के ऊपर की खाली जगह और जंगले को टाट-बोरियों से ढ़क दिया जाता था। यह बरामदा-नुमा कमरा बहुद्देशीय था। नानी का बिस्तर-चारपाई, रसोई का सामान, आलतू-फालतू सामान के लिए टांट आदि को अपने में समोये हुए तो था ही, अक्सर घर की स्त्रियाँ इसे गुसलखाने के रूप में भी इस्तेमाल किया करती थीं। नानी, माँ या बहनों को जब नहाना होता तो घर के पुरुष घर से बाहर निकल जाते और टाट और बोरियों के पर्दे गिरा कर वे जल्दी-जल्दी नहा लिया करतीं। जब तक नानी की देह में जान थी, हाथ-पैर चलते थे, वह फैक्टरी के साहबों के घरों में झाड़ू-पौचा, बर्तन मांजना, बच्चों की देखभाल आदि का काम किया करती थी और अपने गुजारे लायक कमा लेती थीं। बाद में, जब शरीर नाकारा होने लगा तो उन्होंने काम करना छोड़ दिया और वह पूरी तरह अपने दामाद और बेटी पर आश्रित हो गईं। दादा भी थे पर वह साथ वाले घर में हमारे चाचा के संग रहते थे। घर में मुझसे बड़ी एक बहन थी और मुझसे छोटी दो बहनें और दो भाई। उन सस्ती के दिनों में भी पिता अपनी सीमित आय में घर का बमुश्किल गुजारा कर पाते थे। उनकी स्थिति उन दिनों और अधिक पतली हो जाती जब फैक्टरी में 'ओवर टाइम' बन्द हो जाता। कई बार तो शाम को चूल्हा भी न जलता था। पिता घर से छह-सात मील दूर कस्बे की जिस लाला की दुकान से हर माह घर का राशन उधार में लेकर डाला करते थे, ऐसे दिनों में वह भी गेंहू-चावल देने से इन्कार कर दिया करता था। पिछले माह का उधार उसे पहले चुकाना पड़ता था, तब वह अगले माह के लिए राशन उधार देता था। ओवर टाइम बन्द हो जाने पर पिता पिछले माह का पूरा उधार चुकता करने की स्थिति में न होते, वे आधा उधार ही चुकता कर पाते थे। घर में कई बार शाम को चावल ही पकता और उसकी मांड़ निकाल कर रख ली जाती और कुछ न होने पर उसी ठंडी मांड़ में गुड़ की डली मिलाकर हम लोग पिया करते और अपनी क्षुधा को जबरन शांत करने का प्रयास किया करते थे। माँ, घर के बाहर बने बाड़े में से चौलाई का साग तोड़ लाती और उसमें दो आलू काटकर सब्जी बनाती। सन् 1962 में भारत -चीन युद्ध के दौरान जब गेंहू-चावल का भंयकर अकाल पड़ा तो हमने जौं- बाजरे की बिना चुपड़ी रोटियाँ भी खाईं जिन्हें गरम-गरम ही खाया जा सकता था, ठंडी हो जाने पर वे पत्थर -सी सख्त हो जातीं और उन्हें चबाते-चबाते हमारे मुँह दुखने लगते।
ऐसे में पिता जो पूरे परिवार की गाड़ी किसी प्रकार खींच रहे थे, की नज़रें मुझ पर टिक गई थीं। वे चाहते थे कि मैं हाई-स्कूल करने के बाद कोई काम-धंधा या नौकरी देखूं ताकि उन्हें कुछ सहारा मिल सके। उधर उन्हें जवान होती बेटियों के विवाह की चिंता भी खाये जा रही थी। वे चाहते थे कि किसी तरह सबसे बड़ी बेटी की शादी कर दें। एक दिन बड़ी बहन को लेकर घर में जबरदस्त हंगामा हुआ। पिता पागलों की भांति चीखने-चिल्लाने लगे। अगले रोज उन्होंने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी। तुरत-फुरत लड़का देखा और कर्ज़ा उठाकर उसका ब्याह कर दिया। बड़ी बेटी का विवाह कर वह कर्जे में इतना दब गए कि उनकी हालत दिन-ब-दिन खराब होती चली गई। अंदर-बाहर से टूटते पिता शरीर से कमज़ोर होते चले गए। पिता की दयनीय हालत पर मुझे बेहद तरस आता और मैं सोचता कि पढ़ाई में क्या रखा है, मैं भी किसी फैक्टरी, कारखाने में लग जाऊँ और कुछ कमा कर पिता के सिर का बोझ हल्का करूँ।
लेकिन मुझे किताबों से बहुत प्रेम था। भले ही वे पाठ्यक्रम की पुस्तकें थीं। नई किताबों के वर्कों से उठती महक मुझे दीवाना बना देती थी। हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा देने के बाद मैं एक दिन घर से भाग निकला और अपनी बड़ी बहन जो दिल्ली में ब्याही थी और मोहम्मद पुर गांव में एक किराये के मकान में रहती थी, के पास जा पहुँचा। मेरे जीजा ठेकेदार थे और सरकारी इमारतों की मरम्मत, सफेदी आदि के छोटे-मोटे ठेके लिया करते थे। मुझे अकस्मात् अकेले आया देख वे हतप्रभ थे। पिता चूंकि मुझे आगे पढ़ाना नहीं चाहते थे, इसलिए मैंने जीजा से कहा कि वह मुझे कहीं भी छोटे-मोटे काम पर लगवा दें, भले ही मजदूर के रूप में अपने पास ही रख लें। मुझे पूरी उम्मीद थी कि मैं बोर्ड की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊँगा क्योंकि मेरे पेपर्स अच्छे गए थे। मैं चाहता था कि जब परीक्षा परिणाम निकले तो मेरे पास कम से कम इतने पैसे अवश्य हों कि मैं आगे दाखिला ले सकूं। मेरे जीजा ने मुझे नार्थ ब्लॉक में कह-सुनकर डेलीवेजर के रूप में लगवा दिया- साढ़े तीन रुपये दिहाड़ी पर। सन् 1970 की गर्मियों के दिन थे। मुझे डेजर्ट कूलरों में पानी भरने पर लगा दिया गया था। उन दिनों वहां पाइप से कूलरों में पानी नहीं भरा जाता था। हर डेलीवेजर को दो-दो बाल्टियाँ इशू होती थीं। उन्हें नल से भरकर हमें कूलरों में सुबह-शाम पानी भरना पड़ता था। बीच के वक्त हमसे दूसरा काम लिया जाता जैसे कमरों की साफ-सफाई का, सामान इधर-उधर करने का, चपरासीगिरी का। कभी-कभी किसी साहब के घर का काम करने के लिए भी भेज दिया जाता। साहबों की बीवियाँ हम पर इस तरह रौब झाड़तीं जैसे हम उनके ज़रखरीद गुलाम हों। वे हमसे लैट्रीन-बाथरूम साफ करवातीं, पूरे घर में पौचा लगवातीं और बर्तन मंजवातीं। हम जानते थे कि विरोध करने का अर्थ है- अस्थायी नौकरी से हाथ धोना। इस सबके बावज़ूद छुट्टी के दिन हम लोग ड्यूटी लगवा लेते थे ताकि कुछ पैसे और बन सकें। मैंने वहां दो-ढ़ाई माह काम किया। माह के अंत में जो रुपये मुझे मिलते, मैं उन्हें बहन को दे दिया करता। आने-जाने का किराया वही दिया करती थीं। जीजा प्राय: साइकिल से काम पर जाया करते थे। मैं बस पकड़कर आता-जाता था। उन दिनों दिल्ली में डी टी यू की बसें चला करती थीं और किराया होता था- पाँच, दस, पंद्रह और बीस पैसे। जिस दिन शाम की बस पकड़ने के लिए मेरे पास पैसे न होते, मैं पैदल ही केन्द्रीय सचिवालय से मोहम्मद पुर जाया करता। आरम्भ में मुझे शॉर्टकट रास्ता मालूम न था। मैं पैदल उधर-उधर से घर जाता जिधर-जिधर से बस होकर जाया करती थी। जब मैं घर पहुँचता तो मेरे पांव दर्द से बिलबिलाने लगते। कभी-कभी तो सूज भी जाते। पर मैं बहन और जीजा को कुछ न बतलाता और ऑफिस में काम ज्यादा होने का बहाना बनाकर सो जाता।
जब दसवीं की बोर्ड की परीक्षा का परिणाम अखबार में निकला, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं गुड सेकेंड डिवीजन से पास हो गया था। मैंने आगे काम करने से इंकार कर दिया और बहन से अपने रुपये लेकर सीधा मोदी इंटर कालेज, मोदी नगर में दाखिला लेने चला गया। मेरा दाखिला भी हो गया। घर में सब खुश थे पर पिता खुश नहीं थे। बाद में लोगों के समझाने-बुझाने पर वह मान गए। इंटर करने तक के वे दो साल बड़े कष्टप्रद रहे। मैं रेल का मासिक स्टुडेंट पास बनवाकर अपने कुछ मित्रों के संग कालेज जाया करता था। कई बार ट्रेन छूट जाती, मेरे पास बस से जाने के पैसे न होते और उस दिन मेरी छुट्टी हो जाती। अगले रोज़ कालेज में सजा मिलती। प्रिंसीपल बहुत सख़्त था, कुछ सुनता ही नहीं था। कालेज से नाम काट देने की धमकी देता था। दोपहर में साढ़े बारह बजे कालेज से छुट्टी होती। इसी समय की एक ट्रेन थी जिसे बहुत मुश्किल से हम पकड़ पाते। कालेज रेलवे लाइन की बगल में स्टेशन से दसेक मिनट की दूरी पर था। प्राय: ट्रेन दस-पन्द्रह मिनट लेट हुआ करती थी, इसलिए मिल जाया करती थी। लेकिन जिस दिन सही समय पर आती, हमें अपने कालेज से ही दौड़ लगानी पड़ती। स्टेशन पहुँचते-पहुँचते हमारी साँसें फूल जातीं, शरीर पसीने से लथपथ हो जाता। कभी चलती ट्रेन में चढ़ने में कामयाब हो जाते, कभी वह छूट जाती। इसके बाद चार बजे की ट्रेन थी जो प्राय: लेट होती और उससे घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो जाती। मित्र तो बस पकड़कर चले जाते, पर पैसे न होने के कारण मुझे वहीं स्टेशन पर समय बिताना पड़ता। मैं माल गोदाम में पड़े सामान के गट्ठरों पर बैठ कर अपना होम वर्क करता और पढ़ा करता। कभी-कभी सुबह जल्दी में लंच बॉक्स छूट जाता तो दोपहर में भूख के मारे बुरा हाल हो जाता। मित्र कभी अपना लंच शेयर करवाते, कभी नहीं। ऐसी स्थिति में यदि मेरे पास एक-दो रुपये हुआ करते तो मैं पचास पैसे के मिर्च वाले लाल चने लेकर खाया करता और ढ़ेर सारा पानी पीकर अपनी भूख को शांत करने की झूठी कोशिश किया करता।

सन् 1972 में इंटर की परीक्षा पास की तो पिता ने हाथ खड़े कर दिए। वह आगे पढ़ाने के लिए अब कतई तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि अब मैं कोई न कोई कामधंधा या नौकरी देखूं। इंटर में मेरे पास फिजिक्स, केमेस्ट्री और बॉयलोजी सबजेक्ट्स थे। मेरे कुछ मित्रों ने पी एम टी के फार्म भरे तो मैंने भी भर दिया, यह सोचकर कि पास तो होना नहीं है। अगर हो गया तो भी डॉक्टरी न कर पाऊँगा क्योंकि मेरे पिता के पास इतने पैसे ही नहीं हैं। वे तो पहले ही कर्ज से दबे पड़े हैं और छोटी दो जवान होती बेटियों के विवाह की चिंता उन्हें रात-रात भर सोने नहीं देती। लेकिन मैं मेरठ पी एम टी में पास हो गया, मेरे मित्र भी पास हो गए थे। उन्होंने कालेज ज्वाइन भी कर लिया था। मगर मेरे परिवार की गरीबी और अभावों भरी मारक स्थितियों ने मेरे डॉक्टर बनने के स्वप्न का क़त्ल कर दिया। कई दिनों तक मैं इस पीड़ा से उबर नहीं पाया और फिर इसे नियति का फैसला मानकर सब्र कर लिया। पिता और मेरा परिवार भी क्या करता। अगर उनके पास पूंजी होती तो क्या वे भी अपने बेटे को डॉक्टर बनता देख खुश न होते ? पर वे लाचार और विवश थे। कोई उनकी मदद करने वाला नहीं था। रिश्तेदारी में क्या और बाहर क्या ! वे दिन बड़े भयावह और संत्रास भरे थे। मेरे पास नौकरी के लिए आवेदन करने लायक पैसे नहीं होते थे। पिता की स्थिति बड़ी दयनीय थी। तनख्वाह का सारा पैसा उधारी चुकाने में चला जाता था। घर में कभी-कभी फाके जैसी हालत होती। मैंने आसपास की फैक्टरियों में काम तलाशने की बहुत कोशिश की, पर कामयाब नहीं हो पाया। बगैर सिफारिश के कोई रखता नहीं था। उन दिनों मैं बेकारी के भीषण दंश को झेल रहा था। मैं सारा-सारा दिन घर में पड़ा रहता। खाने-पीने को मन न करता। स्वयं को बेहद अकेला, असहाय और उदास महसूस करता। कई बार घर से भाग जाने की इच्छा होती। रात-रात भर नींद नहीं आती थी। किसी से बात करने को मन नहीं करता था। मेरा स्वभाव रूखा और चिड़चिड़ा हो गया था।
पिता घर को चलाने में आर्थिक मोर्चे पर लगातार परास्त होते जा रहे थे। उन्हें अब समझ में आने लगा था कि उनकी इस बदहाली का एक प्रमुख कारण उनका बड़ा परिवार है। छह बच्चों की जगह दो या तीन हुए होते तो ऐसी तंगी और बदहाली शायद न होती। वे कभी-कभी जब माँ से लड़ते-झगड़ते तो अपने आप को कोसने लगते कि उन्होंने इस ओर क्यों ध्यान नहीं दिया। इन दिनों उन्होंने अपनी तंगी को पाटने के लिए एक रास्ता खोज निकाला। अब वे फैक्टरी में लंच के समय बीड़ी, सिगरेट, माचिस, तम्बाकू, नमकीन और मूंगफली के पैकेट बेचने लगे थे। शुरू में उन्हें कुछ दिक्कत हुई, बाद में लोग खुद आ आकर उनसे सामान खरीदने लगे। मोहल्ले में जब आस पड़ोस वालों को मालूम हुआ तो लोग घर पर भी आने लगे। कभी माचिस, कभी बीड़ी का बंडल, कभी नमकीन आदि खरीदने। घर पर पिता न होते तो माँ या बहनें ये सामान दिया करतीं। मुझे, फैक्टरी में पिता द्वारा ये सब बेचने में कोई बुराई नज़र नहीं आती थी, पर इसका घर में भी शुरू हो जाना, मुझे बिलकुल पसंद न था। कोई भी अड़ोसी-पड़ोसी जिसमें मर्द और मोहल्ले के छोकरे अधिक हुआ करते, जब मन होता, मुँह उठाये सीधे हमारे घर में घुसे चले आते। मैं घर पर होता तो मुझे बेहद कोफ्त होती। मैं उठकर कभी सामान न देता और “नहीं है” कह कर अक्सर उन्हें भगा दिया करता।
इंटर करते समय कालेज की लायब्रेरी में मुझे हिंदी पत्रिकायें जैसे- धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, सारिका, सरिता, मुक्ता आदि पढ़ने को मिल जाती थीं। लेकिन मुराद नगर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। खरीद कर मैं पढ़ नहीं सकता था। अखबार पढ़ने के लिए घर से डेढ़-दो मील किसी चायवाले या पानवाले की दुकान पर जाना पड़ता। तभी मेरे एक मित्र ने मुझे आर्डिनेंस फैक्टरी की एक छोटी-सी लायब्रेरी जो नई-नई खुली थी, का सदस्य बनवा दिया। वहाँ से साहित्यिक पुस्तकें इशू करवा कर मैं पढ़ने लगा था। हिंदी के नये पुराने कई लेखकों के उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह जो भी उस पुस्तकालय में उपलब्ध होते, मैंने पढ़ने आरंभ कर दिए थे। ये किताबें मुझे सुकून देती थीं। मैं इनमें खो जाता था। अपना अकेलापन, अपना दुख, अपनी पीड़ा, बेकारी का दंश भूल जाता था। यहीं मैंने प्रेमचंद को पूरा पढ़ा।
इन्हीं दिनों मैंने अनुभव किया कि मैं कवि होता जा रहा हूँ। मैं अपने अकेलेपन के संत्रास को तुकबंदियों में उतारने लगा। ऐसा करने पर मुझे लगता कि मेरा दुख कुछ कम हो गया हो जैसे। उन अधपक्की, अधकचरी कविताओं का रचयिता और पाठक मैं स्वयं ही था। मेरा बहुत मन होता कि कोई मेरी कविता सुने या पढ़े। इधर फैक्टरी में ओवर टाइम लगना आरंभ हो गया था और पिता ने मुझे जेब खर्च के लिए कुछ पैसे देने प्रारंभ कर दिए थे। उन पैसों से मैं नौकरी के लिए आवेदन पोस्ट करने लग पड़ा था। ढेरों इंटरव्यू और लिखित परीक्षाएं दीं, पर सफल नहीं हुआ। एक दिन मेरी किस्मत का बंद दरवाजा खुला। मेरा मेरठ कचेहरी में क्लर्क के पद के लिए चयन हो गया, पर मुझे पैनल में डाल दिया गया था। लगभग आठ-नौ महीने के बाद मेरी नियुक्ति गाजियाबाद सिविल कोर्ट में हुई। मेरे ही नहीं, घर के सभी सदस्यों के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। पिता की आंखों में चमक आ गई थी। माँ ने घर में कीर्तन रखवा लिया था।
गाजियाबाद मैं रेल से आता-जाता था। शाम को लौटते वक्त गाजियाबाद स्टेशन पर बुक स्टालों पर मैं पत्रिकाओं के पन्ने पलटने लगा था। मैं अब पत्रिकाओं के पते नोट करता और अपनी कच्ची-पक्की कविताओं को संपादकों को भेजा करता। फिर कई-कई दिन संपादकों के उत्तर की बेसब्री से प्रतीक्षा किया करता। पर मेरी हर रचना सखेद लौट आती थी। मन बेहद दुखी होता। लेकिन रचनाएं भेजना मैंने बन्द नहीं किया। एक दिन दिल्ली प्रेस की पत्रिका ''मुक्ता'' से मुझे जब स्वीकृति पत्र मिला तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं चाहता था कि मैं अपनी इस खुशी को किसी के संग शेयर करुँ। एक दो मित्रों से बात की पर उन्होंने कोई खुशी जाहिर नहीं की। धीरे-धीरे मेरी कविताएं ‘सरिता’ ‘मुक्ता’ में नियमित रूप से छपने लगीं। ये बड़ी रोमानी किस्म की कविताएं होती थीं। कलर पृष्ठों पर छपती थीं। मैं अपनी छपी हुई कविताओं को और उन कविताओं के साथ छपे युवतियों के रंगीन चित्र को देखकर मुग्ध होता रहता। मुझे लगता जैसे मैं देश का एक बड़ा कवि हो गया होऊँ। ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ में छपने वाली रचनाओं का पारिश्रमिक भी मुझे मिलता था। उस पारिश्रमिक से मैं पत्र-पत्रिकाएं खरीदा करता। मुराद नगर के स्थानीय कवि जो मंचों पर कविताएं पढ़ा करते थे, अब मुझे जानने लगे थे। इनमें वेद प्रकाश ‘सुमन’ और जगदीश चंद्र शर्मा ‘मंयक’ प्रमुख थे। वे अक्सर मुझसे मिलते। अब मैं उनकी काव्य गोष्ठियों में जाने लगा था और अपनी कविताएं सुनाने लगा था। वे मेरी कविताओं की तारीफ़ किया करते। मुराद नगर में हर साल फैक्टरी की ओर से एक विशाल कवि सम्मेलन भी हुआ करता था और उसमें देश के नामी-गिरामी कवि और स्थानीय कवि मंच पर कविता पढ़ा करते थे। कवियों को बुलाने और मंच संचालन का जिम्मा सुमन जी के हाथों में होता। मैं मंच व्यवस्था करने में उनकी मदद किया करता, कुर्सियाँ लगवाता, दरियाँ बिछवाता। वे मुझे कहते कि मैं अपनी एक अच्छी-सी कविता तैयार रखूँ मंच पर पढ़ने के लिए। मैं खोज-खोज कर अपनी कविताएं हाथ से लिखता, उन्हें कंठस्थ करता। आरंभ में वे एक-एक करके स्थानीय कवियों को पढ़वाते, जब कोई कवि कविता पढ़कर हटता मुझे लगता सुमन जी अब मेरे नाम की घोषणा करेंगे। मैं साँस रोक कर बेसब्री से प्रतीक्षा करता रहता, पर मेरा नाम न पुकारा जाता। मुझे बड़ी कोफ्त और पीड़ा होती। गुस्सा भी आता। फिर मैंने उनकी काव्य गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में जाना ही छोड़ दिया।
उन्हीं दिनों हम कुछ युवाओं ने मिलकर मुराद नगर में अपनी एक अलग संस्था बनाई- “विविधा” नाम से। इसमें मेरे अलावा सुधीर गौतम, रूपसिंह चन्देल, सुधीर अज्ञात, संत राज सिंह और प्रेमचंद गर्ग प्रमुख थे। हम ‘विविधा’ की मासिक गोष्ठियाँ करते जिसमें हम अपनी नई लिखी रचनाओं को सुनाते। ‘विविधा’ के अंतर्गत हमने ‘सारिका’ के कई महत्वपूर्ण अंकों पर भी गोष्ठियाँ कीं। एक बड़े पैमाने पर कविता गोष्ठी का आयोजन भी किया जिसमें नागार्जुन भी आए थे। उन्हें दिल्ली से मुराद नगर लाने का दायित्व मुझ पर था। मैं बहुत उत्साहित था। इतने बड़े कवि का सानिध्य मिल रहा था। जिस रविवार यह कार्यक्रम था, उसी रविवार को नवभारत टाइम्स के रविवासरीय अंक में युवा जगत के अंतर्गत मेरे द्वारा आयोजित आधे पृष्ठ की एक परिचर्चा प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था –“युवा पीढ़ी और आत्म घुटन”। मित्रों-दोस्तों में इसे लेकर चर्चा थी और वे मेरी प्रशंसा कर रहे थे। प्रशंसा सुन मैं जैसे हवा में उड़ने लगा था। मेरी इस हवा को शाम के वक्त निकाला- नागार्जुन जी ने। बड़े रूखे और कड़वे शब्दों में बोले- “ये क्या है? इन सब ढ़कोसलों से तुम लेखक/कवि न बन पाओगे। कुछ मौलिक और अच्छा लिखने का प्रयास करो। अच्छा साहित्य पढ़ो।” मैं जैसे आकाश से धरती पर आ गिरा था- परकटे पक्षी की तरह। यह बात नागार्जुन जी ने मुझे अकेले में कही होती तो कोई बात नहीं थी। तीस-चालीस स्थानीय लोगों की भीड़ में उन्होंने कहा था। मैने अपने आप को बहुत अपमानित महसूस किया। उस रात और उससे अगले कई रोज़ मैं ठीक से सो नहीं पाया। लेकिन जल्द ही मुझे उनकी सलाह बहुत कीमती जान पड़ी। ये सन 76 या 77 के दिन रहे होंगे।
उन्हीं दिनों मैंने केन्द्र सरकार में लिपिकों की भर्ती से संबंधित अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली परीक्षा दी थी जिसमें मैं उत्तीर्ण हो गया था और मेरी नियुक्ति भारत सरकार के दिल्ली स्थित नौवहन व परिवहन मंत्रालय में हो गई थी। मैंने कोर्ट की नौकरी से त्यागपत्र दिया और दिल्ली आने-जाने लगा। दिल्ली मैं रेल से ही आया-जाया करता था। यहाँ आकर मैं दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी का सदस्य बन गया। अब पढ़ने को मेरे पास एक से एक किताब होती। नये पुराने हिंदी-पंजाबी के लेखकों-कवियों की पुस्तकों को मैं अपने रेल के दो घंटे के सफ़र में पढ़ने लगा था। अच्छे और श्रेष्ठ साहित्य ने मेरे अंदर नई समझ और नई दृष्टि प्रदान की। यहाँ मैं अपने मित्र रूपसिंह चन्देल के साथ कई बड़े लेखकों से मिला। यही वो दिन थे जब मुझे अपने अब तक के लिखे से ही वितृष्णा होने लगी। धीरे-धीरे मुझे समझ में आने लगा था कि यह सब नकली लेखन है। मेरी आँखों के सामने लाचार, विवश मेरी बूढ़ी नानी आने लगी थी, थके-हारे पराजित से पिता की कातर नज़रें मेरा पीछा करने लगी थीं, माँ का बुझा-बुझा-सा रहने वाला चेहरा और छोटी बहनों की आँखों में बनते-टूटते सपने मुझे तंग-परेशान करने लगे थे। मैं अपने आप से प्रश्न करता कि जो कुछ मैं अब तक लिखता रहा हूँ, उसमें ये लोग कहाँ हैं ? कहाँ हैं इनकी दुख-तकलीफों का चित्रण, जीवन का सच क्या है ? मैं अपने आसपास के यथार्थ से मुँह क्यों मोड़ता रहा हूँ ? मेरे अंदर ऐसे विचारों का प्रस्फुटन ठीक तब से होने लगा जब से मैं गंभीर साहित्य पढ़ने लगा था। सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान की कहानियां मुझे जब से उद्वेलित करने लगी थीं। इन कहानियों के पात्र मुझे भीतर तक कुरेदने लगे थे और मुझे अपने लेखन को जीवन की तल्ख़ सच्चाइयों, कड़वे यथार्थ की ओर उन्मुख करने को प्रेरित करने लगे थे।
अच्छा साहित्य न केवल मनुष्य को एक बेहतर मनुष्य बनाता है बल्कि एक लेखक को बेहतर लेखक भी बनाता है। मैंने अपने दादा-नानी के दु:ख-दर्दों को बहुत करीब से देखा था। पिता को परिवार के लिए हाड़-मांस गलाते देखा था। माँ को परिवार की रोटी-पानी की चिंता में हर समय घुलते देखा था। अपने परिवार के साथ-साथ अपने पड़ोस में रहते बूढ़ों की दुगर्ति मैंने देखी थी। बुढापे में लाठी का सहारा कहे जाने वाले बेटों की घोर उपेक्षा में बूढ़ों को तिल-तिल मरते देखा था। यह एक सामाजिक यथार्थ था मेरी आँखों के सामने, इस यथार्थ की छवियाँ, इनका चित्रण कथा-कहानियों में देखता तो मैं भी अपने आप से प्रश्न करता- मैं भी ऐसा क्यों नहीं लिखता जिसमें इन लोगों की बात हो। ये जीवित पात्र मुझे अब बार-बार उकसाने लगे थे। बदलते समय ने मेरे सरोकार और मेरे लेखक होने के कारण को बदलने में मदद की। मैंने पहली कहानी लिखी- ''अब और नहीं।'' यह एक रिटायर्ड वृद्ध की व्यथा-कथा थी जिसे मैंने अपने ढंग से लिखने की कोशिश की। बूढ़े-बुजुर्ग लोग मेरी संवेदना को झकझोरते रहे हैं और मैं समय-समय पर इनको केन्द्र में रखकर कहानियाँ लिखता रहा हूँ। ''बूढ़ी आँखों का आकाश'', ''लुटे हुए लोग'', '' इतने बुरे दिन'', ''तिड़के घड़े'', ''उसकी भागीदारी'', ''आख़िरी पड़ाव का दु:ख'', ''जीवन का ताप'', ''कमरा'' मेरी ऐसी ही कहानियाँ/लघुकथाएं हैं।
बेकारी के दंश को अभिव्यक्त करती मेरी कहानी ''दैत्य'' हो अथवा ''अंतत:'' दोनों के पीछे मेरे अपने बेकारी के दिन भले ही रहे हों, पर ये कहानियां व्यापक रूप में भारत के हजारों-लाखों बेकार युवकों के संताप को ही व्यक्त करती हैं।
मेरे लेखन के पीछे जो मुख्य कारण व कारक सक्रिय रहा, वह था मेरा अपना परिवार। अभावों, दु:खों-तकलीफों में जीता परिवार। पिता के और मेरे अपने संघर्ष। धीरे-धीरे उसमें आस पास का समाज भी जुड़ता चला गया। ज़रूरी नहीं कि एक समय में लिखने का जो कारण रहा हो, दूसरे समय में भी वही रहे। समय के साथ-साथ ये कारण बदलते रहते हैं। जैसे-जैसे लेखक अपने समय और समाज से गहरे जुड़ता जाता है, उसके सरोकार और लिखने के कारण भी उसी प्रकार बनते-परिवर्तित होते रहते हैं। अगर मैं यहाँ यह कहूँ कि ‘प्रेम’ भी मेरे लिखने का एक कारण रहा है तो गलत न होगा। प्रेम भी हमारी सृजनात्मकता को उर्वर बनाता है और उसमें गति लाता है। जब आप प्रेम में होते हैं, तो सृजन के बहुत करीब होते हैं, ऐसा मेरा अनुभव और मानना है। एक समय, मोहल्ले की एक लड़की जो हमारे घर के सामने रहा करती थी, से हुए मेरे इकतरफा प्रेम ने भी मुझसे बहुत कुछ लिखवाया। ढेरों प्रेम कविताएं, कई प्रेम कहानियाँ। इनमें से कुछ ही सुरक्षित रह सकीं, बहुतों को मुझे नष्ट करना पड़ा। इस सन्दर्भ में मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है। जिस लड़की से मुझे इकतरफा प्रेम था, मैं उसे अपने लेखकीय गुण से इंप्रैस करना चाहता था। मैं अपने को लेखक होने के नाते एक विशिष्ट व्यक्ति मानता था और चाहता था कि मेरे इस गुण के वशीभूत वह मुझसे प्रेम करने लगे। मैंने मालूम किया कि उस लड़की के घर कौन-सा हिंदी का अखबार आता है। फिर मैंने एक कहानी लिखी और उसी अखबार में छपने के लिए भेज दी। उस अखबार में कहानी के साथ लेखक की फोटो भी छपा करती थी। एक रविवार कहानी छप गई। मेरी फोटो सहित। लेकिन विडम्बना देखें कि उस दिन उसके घर में वह अखबार नहीं आया, हॉकर उसके बदले में दूसरा अखबार डाल गया। मेरी हसरत पर मानो तुषारापात हो गया।
इस घटना के बाद यह अलग बात है कि उस लड़की से मेरा प्रेम चला। पर इसके पीछे मेरा लेखन कोई कारण नहीं बना। उस लड़की ने मुझे मेरे लेखक होने के नाते प्रेम नहीं किया। धीरे-धीरे हमारा यह प्रेम ऊँची पींगें लेने लगा। हम अकेले में मिलते, सिनेमा देखने जाते, पार्कों में मिलते और बीच-बीच में पत्रों का आदान-प्रदान भी होता। पुराना किला, चिड़ियाघर, मदरसा, कुतुब, इंडिया गेट, प्रगति मैदान, कनॉट प्लेस ऐसी कोई जगह नहीं थी दिल्ली की जहाँ हम न मिला करते। लेकिन फिर वही हुआ जैसा कि एक भारतीय समाज में होता है। उसके माँ-बाप ने अपनी बिरादरी में उसका विवाह तय कर दिया। उस समय मेरे दिल के कितने टुकड़े हुए, मैं ही जानता हूँ। चोट खाया मैं मजनूं-सा प्रेम कविताएं लिखता रहा और लिख-लिख कर फाड़ता रहा। फिर उसका विवाह हो गया। मुझे लगा, अब हम कभी नहीं मिल पाएंगे। मेरे माँ-बाप ने मेरा भी विवाह कर दिया।
कई बरसों बाद सन् 1992 में इसी प्रेम के अहसास ने मुझसे ''चोट'' जैसी प्रेम कहानी लिखवाई जिसे पढ़कर मेरी पत्नी ने नाक-भौं सिकौड़ी थी और कहा था- “यह क्या कहानी है ?” उन दिनों मेरा भीषण एक्सीडेंट हुआ था और बायें पैर की पाँच हड्डियाँ टूट गई थीं। मैं लगभग तीन महीने बिस्तर पर पड़ा रहा था। घर पर मेरे लेखक मित्र मुझे मिलने आया करते थे। रूप सिंह चन्देल तो प्राय: मेरा हाल-चाल जानने आया करते। चन्देल ने वह कहानी पढ़कर तारीफ़ की और कहा कि इसे तुरत बलराम को दे दो। बलराम उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' का रविवासरीय देखा करते थे। बलराम ने कहानी छापी, संग में फोटो और उसके साथ मेरे दुर्घटनाग्रस्त हो जाने की सूचना भी। वर्ष 2006 में लिखी ''लौटना'' कहानी में भी असफल प्रेम के उसी अहसास को एक दूसरे कोण से अभिव्यक्त करने की कोशिश की गई है।
लेखक अपने समय और समाज से कट कर कदापि नहीं रह सकता। ''वेलफेयर बाबू'' ''औरत होने का गुनाह'' ''गोष्ठी'' कहानियाँ मेरे अपने समय और समाज की कहानियाँ हैं और मैंने इन्हें लिख कर अपने सामाजिक सरोकार और लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करने की कोशिश की है।
दिल्ली में मेरा परिचय रमेश बत्तरा से किसी पंजाबी कहानी के हिंदी अनुवाद को लेकर हुआ था। बेशक मैं पंजाबी परिवार में पैदा हुआ, पर हमारे घर पर पंजाबी नहीं बोली जाती। उत्तर प्रदेश के स्कूलों में जब संस्कृत के स्थान पर उर्दू, बांग्ला और पंजाबी में से कोई एक भाषा पढ़ाने का फार्मूला लागू हुआ, तब मैंने पंजाबी भाषा सीखना इसलिए स्वीकार किया ताकि मैं अपनी माँ-बोली से जुड़ा रह सकूँ। तीन वर्ष की उस स्कूली पढ़ाई ने मुझे बाद में बहुत लाभ पहुँचाया। मुराद नगर में तो न पंजाबी के अख़बार मिलते थे, न ही किताबें। मेरी यह हसरत दिल्ली में आकर पूरी हुई। हिंदी साहित्य की पुस्तकों के साथ-साथ मैंने पंजाबी साहित्य की पुस्तकें भी पढ़नी प्रारंभ कर दी थीं। मैंने पंजाबी की एक कहानी का हिंदी में अनुवाद किया था और इसी सिलसिले में मेरी मुलाकात दरियागंज स्थित “सारिका” के कार्यालय में रमेश बत्तरा से हुई थी। वह जितना गंभीर और अच्छा लेखक था उतना ही प्यारा दोस्त भी था। हम एक दूसरे के घर भी आते-जाते थे। साहित्य को लेकर बातें हुआ करती थीं। मुझे यहाँ यह स्वीकार कर लेने में कोई हिचक नहीं है कि अगर रमेश बत्तरा से मेरी दोस्ती न हुई होती तो मैं लघुकथा लेखन और अनुवाद के क्षेत्र में कतई न आया होता। पंजाबी से हिंदी में अनुवाद और लघुकथा लिखने की शुरूआत रमेश बत्तरा ने ही करवाई। वह स्वयं हिंदी का एक प्रतिभा संपन्न कथाकार, लघुकथाकार और अनुवादक था। उसने मुझसे ‘सारिका’ के लिए पंजाबी कहानियों का अनुवाद करवाया। पंजाबी का अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए किताबें उपलब्ध करवाईं। मैं कोई नई कहानी लिखता तो उसे लेकर शनिवार के दिन “सारिका” के ऑफिस पहुँच जाता। घंटों रमेश के पास बैठा रहता, पर कहानी देने की मैं हिम्मत न जुटा पाता। चलने लगता तो वह मेरे संग ऑफिस से बाहर तक आता। उसे पान खाने की आदत थी। बाहर आकर पहले वह चाय पिलवाता और फिर अपने लिए पान बनवाता। विदा होते समय मैं बड़े संकोच से उसे अपनी कहानी थमाता तो वह मुसकारते हुए कहता- “अरे वाह ! बधाई! पर तू इतनी देर से मेरे संग है, पहले क्यों नहीं दी?”
कहानी पढ़कर वह अपनी निष्पक्ष राय देता। उसकी कमियों की ओर ध्यान खींचता और निराश न होने को कहता। एक दिन बोला- “सुभाष, तुम लघुकथाएं पढ़ते हो ? कैसी लगती हैं तुम्हें ?”
मैंने कहा- “पढ़ता हूँ । अच्छी लगती हैं। पर अधिकांश मुझे निराश करती हैं।”
“कहानियाँ भी तो सभी अच्छी नहीं होतीं। सौ में से नब्बे निराश करती हैं।”
“कोई लघुकथा लिखी है ?”
“अभी तक तो नहीं लिखी।”
“तो कोशिश कर। दो-एक लिख पाओ तो मुझे देना।”
मैंने उसके कहने पर दो लघु कथाएं लिखीं और बड़े संकोच से उसे दीं। उसके मुँह में उस समय पान था। उसने थूका और फिर मुसकरा कर कहा- “यह हुई न बात ! यार तू तो बढ़िया लघुकथा लिख लेता है।” उन दिनों “सारिका” का लघुकथा विशेषांक निकलने वाला था। मेरी पहली लघुकथा “कमरा” उसने विशेषांक में प्रकाशित की। अब तक न जाने कितनी बार इस लघुकथा का पुनर्प्रकाशन हो चुका है और कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। उन दिनों हिंदी का हर लेखक “धर्मयुग” में छपने की लालसा रखता था। कहा जाता था कि अगर किसी नये लेखक की उसमें कहानी छप जाती थी तो वह रातोंरात कथाकार बन जाता था। “सारिका” में मेरी लघुकथाएं छपने के बाद जब एक दिन मुझे ‘धर्मयुग’ से पत्र मिला जिसमें मुझसे लघुकथाएं प्रकाशनार्थ मांगी गई थीं, तो मैं खुशी में जैसे झूम-सा उठा। मैंने लघुकथाएं भेजीं और वे ‘धर्मयुग’ में छपीं। रमेश बत्तरा ने मुझे बधाई दी और कहा – “सुभाष, अब तुम पक्के लघुकथा लेखक बन गए।” मेरी कई लघुकथाएं रमेश ने समय-समय पर प्रकाशित कीं। “सारिका” में दिहाड़ी” “रफ कॉपी”, नवभारत टाइम्स में “धूप” “रंग- परिवर्तन” “कबाड़”, संडे मेल में “जीना-मरना” “सफ़र में” आदि। उन दिनों लघुकथा की पत्रिकाएं जैसे “लघु आघात” “क्षितिज” ‘सनद” आदि को वही मुझे दिया करता था और उनमें लघुकथाएं भेजने को कहा करता। “बीमार” लघुकथा का शीर्षक रमेश ने ही सुझाया था। मैंने यह लघुकथा “मासूम सवाल” शीर्षक से उसके गाजियाबाद निवास पर उसकी पत्नी जया रमेश के सम्मुख सुनाई तो उसने कहा- “इतनी अच्छी लघुकथा को गलत शीर्षक देकर क्यों उसका सत्यानाश कर रहा है ? इस लघुकथा में पत्नी बीमार है, बच्ची एक फल खाने की हसरत में बीमार होना चाहती है, यह लघुकथा यहीं तक नहीं है। यह उस बीमार व्यवस्था की ओर भी संकेत करती है जिसके चलते हम अपने बच्चों को फल तक खिला पाने की हैसियत नहीं रखते।”
रमेश बत्तरा लेखन में मेरे लिए पथ-प्रदर्शक की तरह रहा। अच्छी रचनाओं पर वह पीठ भी ठोंकता था और अपने मित्रों-यारों में उसका जिक्र भी करता था। लेकिन खराब रचना को खराब कहने में उसने दो सेकेंड नहीं लगाए। ऐसे मित्र का अभाव आज भी खलता है। दिल्ली में आज मेरे कई साहित्यिक मित्र हैं जिनसे साहित्य को लेकर तथा अन्य सामाजिक मुद्दों को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। हम प्राय: अपनी रचनायें एक-दूसरे को सुनाते हैं। उन पर चर्चा करते हैं। इनमें रूपसिंह चन्देल, सुरेश यादव, राजेन्द्र गौतम, बलबीर माधोपुरी(पंजाबी कवि), बलविंदर सिंह बराड़(पंजाबी कथाकार), बलराम अग्रवाल, अलका सिन्हा और रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’ आदि प्रमुख हैं।
मेरे तीन कहानी संग्रह –“दैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)” “औरत होने का गुनाह(2003)” तथा “आख़िरी पड़ाव का दु:ख(2007)”, दो कविता संग्रह “यत्किंचित (1979)”, “रोशनी की लकीर(2003)”, एक बाल कहानी संग्रह-“मेहनत की रोटी”, एक लघुकथा संकलन –“कथाबिंदु” (सहयोगी कथाकार हीरा लाल नागर व रूपसिंह चन्देल) प्रकाशित हो चुके हैं। एक एकल लघुकथा संग्रह –“वाह मिट्टी” प्रकाशनाधीन है। इसके अतिरिक्त पंज़ाबी की लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित हुआ है जिनमें “काला दौर”, “कथा पंजाब-2”, “कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ”, “तुम नहीं समझ सकते(जिंदर का कहानी संग्रह) और बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा –“छांग्या-रुक्ख” प्रमुख हैं। नेट पर “सेतु साहित्य”, “वाटिका”, “साहित्य सृजन”, “गवाक्ष” और “सृजन यात्रा” मेरी ब्लॉग पत्रिकाएं हैं।

मुझे हमेशा लगता रहा कि लेखन ही एक ऐसा माध्यम है जो मेरी निजता को सामाजिकता में बदल सकता है। जिनके लिए मैं कुछ नहीं कर पाया, मैं उनकी दुख-तकलीफों को अपने लेखन में रेखांकित कर सकता हूँ और उनके लिए 'कुछ न कर पाने' की अपनी पीड़ा को मैं लिखकर कम कर सकता हूँ।
इसमें दो राय नहीं कि मेरे अब तक के लेखन के पीछे मेरे माता-पिता के संघर्ष और अभावों भरे दिन रहे हैं, मेरे अपने संघर्ष रहे हैं। लेकिन साथ ही साथ समय ने मुझे अपने समाज और परिवेश के प्रति भी जागरूक बनाया है। उस समाज में रह रहे हर गरीब, दुखी, असहाय, पीड़ित, दलित, शोषित व्यक्ति के प्रति संवेदनात्मक रिश्ता कायम किया है। अपनी कहानियों, लघुकथाओं में मैंने सदैव कोशिश की कि इन लोगों के यथार्थ को ईमानदारी से स्पर्श कर सकूं और तहों के नीचे छिपे 'सत्य' को उदघाटित कर सकूं। मुझे नहीं मालूम कि मैं इसमें कहाँ तक सफल हुआ हूँ, पर मुझे अपने लिखे पर संतोष है। मुझे यह मुगालता कभी नहीं रहा कि मेरे लेखन से समाज में कोई परिवर्तन हो सकता है। कहानी, लघुकथा और कविता लिखते समय मैं अपने समय और समाज के प्रति जागरुक और ईमानदार रहूँ, ऐसी मेरी कोशिश और मंशा रहती है। आलोचक समीक्षक मेरी रचनाओं को लेकर क्या कहते हैं या क्या कहेंगे, इसकी तरफ़ मैं अधिक ध्यान नहीं देता। लिखना मेरा एक सामाजिक कार्य है और मैं इसे अपनी तरफ से आज 55 वर्ष की आयु में भी पूरी ईमानदारी से करते रहना चाहता हूँ। यदि मेरी कोई रचना किसी की संवेदना को जगा पाती है अथवा उसे हल्का-सा भी स्पर्श करती है तो यह भी कोई कम उपलब्धि नहीं है मेरे लिए।
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शुक्रवार, 15 मई 2009

कहानी-17



चोट
सुभाष नीरव

सफदरजंग एअरपोर्ट के बस-स्टॉप से कुछ हटकर मोटरसाइकिल के समीप खड़े लड़के ने लड़की को अपने निकट आते देख कहा, “आज कितनी देर कर दी तुमने।”
“हाँ, थोड़ी देर हो गई। सॉरी। बस ही देर से मिली।”
“थोड़ी देर ?... पूरे एक घंटे से खड़ा हूँ।” लड़का गुस्से में था, “घर से ही देर से निकली होगी। किदवई नगर से एअरपोर्ट के लिए हर एक सेकेंड पर बस है।” हेल्मिट पहन मोटरसाइकिल स्टार्ट कर लड़का बोला।
लड़की ने एक बार इधर-उधर देखा और फिर उचक कर लड़के के पीछे बैठ गई।
“कहाँ चलना है ?” मोटरसाइकिल के आगे सरकते ही लड़के ने पूछा।
“कहीं भी, पर यहाँ से निकलो।” लड़की ने दायाँ हाथ लड़के के कंधे पर रख आगे सरकते हुए कहा।
“प्रगति मैदान या पुराना किला चलें ?”
“कहीं भी, जहाँ तुम चाहो।”
हवा से बचने के लिए लड़की ने हाथ लड़के के विनचेस्टर की जेबों में ठूँस लिए थे और अपनी छाती को लड़के की पीठ से चिपका लिया था। लड़की का ऐसा करना लड़के को अच्छा लगा। उसका गुस्सा जाता रहा।
“सुनो...” लड़की ने लड़के के दायें कान की ओर मुँह करके कहा, “हम लोग एअरपोर्ट वाले बस-स्टॉप पर नहीं मिला करेंगे।”
“क्यों ?”
“इस बस-स्टॉप से ऑफिस के कई लोग बस चेंज करते हैं।”
सामने रेड-लाइट आ गई थी। रुकना पड़ा। लड़के ने मुँह घुमाकर लड़की की ओर देखा। उसकी आँखों में चमक और होंठों पर मुस्कराहट थी। उसने पूछा, “फिर कहाँ मिला करूँ ?”
“ऊँ...” लड़की ने होंठों को गोल करते हुए कुछ देर सोचा और बोली, “मदरसे के बस-स्टॉप... पर तुम स्टॉप से कुछ दूर हटकर खड़े हुआ करो।”
हरी बत्ती होते ही लड़के ने बाइक गियर में लेकर एक्सीलेटर दबाया और वाहनों के बीच से लहराते हुए बाइक को निकालने लगा।
“क्या करते हो ?... ठीक से चलाओ।”
लड़का मस्ती में था। उसने बाइक और तेज कर दी। इस पर लड़की ने उसकी पीठ में चुकोटी काटी और बोली, “बहुत मस्ती आ रही है ?... हैं !”

पुराने किले के बाहर पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वे दोनों झील के साथ वाले पॉर्क की ओर बढ़ गए।
झील का पानी सर्दियों की सुनहरी खिली धूप में चमक रहा था और उसमें बोटिंग करते लोगों से झील जैसे जीवंत हो उठी थी। वे झील के किनारे ढलान पर एक झाड़ी की ओट में बैठ गए। उनके बैठते ही बत्तखों का एक झुण्ड जाने किधर से आया और उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगा। लड़की लड़के को भूलकर बत्तखों से खेलने लगी। अब लड़की अपने आसपास की घास तोड़कर बत्तखों पर फेंक रही थी और हाथ बढ़ाकर उन्हें अपने पास बुला रही थी। जब कोई बत्तख उसके बहुत निकट आ जाती, वह डर कर उठ खड़ी होती। लड़की का जब यह खेल लम्बा खिंचने लगा तो लड़का उखड़ गया।
“छोड़ो भी अब...।”
लड़की लड़के की रुखाई देख हँस दी और तोड़ी हुई घास की बरखा लड़के पर करने लगी। लड़का फिर झुंझलाया, “क्या करती हो ?” और अपने कपड़े झाड़ने लगा। लड़की उसके समीप बैठते हुए बोली, “गुस्से में तुम अधिक सुंदर लगते हो।”
लड़के ने लड़की की बाईं हथेली पर अपनी दाईं हथेली रख दी। लड़की ने इधर-उधर देखा और लड़के की फैली हुई टांगों को सिरहाना बनाकर अधलेटी हो गई। अब लड़का रोमांचित हो रहा था। उसने घास के तिनके तोड़े और उन्हें लड़की के कान, नाक, गाल और गले पर फिराने लगा। लड़की को गुदगुदी होती तो वह हँसती हुई दोहरी हो जाती।
ढलान के ऊपर पटरी पर लोग आ-जा रहे थे। आरंभ में आते-जाते लोगों से लड़का-लड़की घबरा उठते थे और प्यार-भरी हरकतें करना बन्द कर देते थे। अब ऐसा नहीं करते। बस, लड़की चौकन्ना रहती है। कहीं आते-जाते लोगों में कोई परिचित चेहरा न निकल आए।
“चलो, किले के अंदर चलते हैं। बहुत दिन हो गए उधर गए।” लड़के ने एकाएक कहा। लड़की समझ गई, लड़के का आशय। एकांत वह भी चाहती थी। वह तुरन्त खड़ी हो गई।
किले के अंदर अपनी पुरानी जगह पर वे बैठ गए- एक टूटी दीवार से पीठ टिका कर। उनकी आँखों के ठीक सामने एक लम्बा लॉन था जिसकी मखमल-सी घास धूप में चमक रही थी। एक मालगाड़ी धीमी गति से निजामुद्दीन की ओर से आ रही थी, तिलक ब्रिज की ओर। लड़की ने कुछ देर गाड़ी के डिब्बे गिनने की कोशिश की, किन्तु ना-कामयाब रही।
“तुमने बताया नहीं, आज तुम देर से क्यों आई ?” लड़के ने लड़की की गोद में सिर छिपाते हुए पूछा। लड़की ने झुक कर लड़के का माथा चूमा और बोली, “बस, यूँ ही देर हो गई। दरअसल...।”
“दरअसल क्या ?”
“डिस्पेंसरी गई थी।”
“डिस्पेंसरी ?...” लड़का चौंका, “क्यों ? कौन बीमार है ? घर पर सब ठीक तो है ?” लड़के ने एक साथ कई सवाल कर डाले।
“सब ठीक है।”
“फिर, डिस्पेंसरी क्यों गई थीं ?”
“अपनी दवा लेने।”
“क्यों, क्या हुआ तुम्हें ?”
“कुछ नहीं।”
“यह ‘कुछ नहीं’ कौन-सा रोग है ?” लड़के ने लड़की का दायां हाथ अपने सीने पर रख लिया।
“है...तुम्हें नहीं मालूम ?” लड़की ने शरारत में उसकी नाक को पकड़ कर खींचा।
“ठीक-ठीक बताओ। मुझे तो चिंता हो रही है।”
“अच्छा !” लड़की आश्चर्य में मुस्कराई।
“बताओ न, क्या हुआ है तुम्हें ?”
“कहा न, कुछ नहीं। वो मेरा बॉस है न, कह रहा था कि तुम आए दिन गोल हो जाती हो। कल ऑफिस जाऊँगी तो पूछेगा- क्यों, क्या हुआ मैडम ?... उसे डिस्पेंसरी की स्लिप दिखाऊँगी और कहूँगी- तबीयत खराब थी इसलिए नहीं आई। और एप्लीकेशन दे दूँगी।” पर्स खोल कर उसने पर्ची दिखाई और दवा भी, “डिस्पेंसरी में क्या है, कुछ भी जाकर कह दो, चक्कर आ रहे हैं... पेट में दर्द है या फिर रात में बुखार हो गया था, बस।”
लड़का लड़की की चालाकी पर मुस्कराया और उठ कर बैठ गया। “तो तुम बीमार हो...” कहते हुए उसने लड़की के होंठ चूम लिए। लड़की का चेहरा रक्तिम हो उठा।
सहसा, कहकहों और हँसी के फव्वारों ने उन दोनों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचा। कुछ युवा जोड़े बाई ओर की इमारत की दीवारों पर अपना नाम गोद रहे थे। ‘आई लव यू’, ‘माई स्वीट हार्ट’, ‘लव इज़ गॉड’ जाने कितनी ही ऐसी उक्तियों से यहाँ की हर दीवार भरी पड़ी थी। लड़का-लड़की अपने अतीत में खो गए। उन्हें अपने वे प्रारंभिक दिन याद हो आए जब वे भी ऐसे ही, इमारतों की दीवारों पर, दरख़्तों के तनों पर अपने नाम गोदा करते थे।
लड़की को याद आया, लोदी गार्डन में यूकलिप्टस के तने पर लड़के ने उसके लिए एक कविता ही गोद डाली थी, उसका हेयर-पिन लेकर। वह कविता उसने लड़के की डायरी में भी देखी। डायरी का वह पन्ना ही उसने ले लिया था और कई दिनों तक उन पंक्तियों को एकांत में पढ़-पढ़कर अभिभूत होती रही थी।
लड़की ने कविता की पंक्तियाँ याद करने की कोशिश की। फिर सोचा, लड़के को अभी भी याद होंगी। उसका मन हुआ, वह लड़के को आज फिर से वे पंक्तियाँ दोहराने को कहे। उसने लड़के को प्यार भरी नज़रों से देखा। लड़का न जाने किन हसीन ख़यालों में खोया था, आँखें मूंदे, उसकी उँगलियों से खेलता हुआ। एकाएक लड़की को एक पंक्ति याद हो आई और धीरे-धीरे अन्य पंक्तियाँ भी। वह अंदर-ही-अंदर बुदबुदाने लगी- “कैसे बताऊँ, क्या है, मेरे लिए तुम्हारा नाम... मायूसियों के गहन अँधेरों में जैसे उम्मीद की कोई किरण... हाँ, वैसे तुम्हारा नाम।” आगे की पंक्तियाँ ज़ेहन में गड्ड-मड्ड होने लगीं। थोड़ा जोर देने पर बीच की कुछ पंक्तियाँ पकड़ में आईं - “मेरा दिल, समुद्र-तट की रेत तो नहीं, कि जिस पर गोदा गया नाम, पानी की लहरें आएँ और मिटा कर चली जाएँ...।” इससे आगे की पंक्तियाँ स्मृति की पकड़ से बाहर थीं।
अब लड़का अधमुंदी आँखों से उसे निहार रहा था। चेहरे पर पड़ती सीधी धूप से लड़के का चेहरा लाल हो उठा था। लड़की का मन किया कि वह इस चेहरे पर प्यार की बरसात कर दे। तभी, कुछ सैलानी जिनमें कुछ विदेशी भी थे, गले में कैमरे लटकाए उधर से गुजरे तो लड़की ने अपने विचार को स्थगित कर दिया। उनके आगे बढ़ जाने पर लड़की ने अपना हेयर-क्लिप खोला और लड़के पर झुक गई। लड़की के रेशमी घने बालों में लड़के का चेहरा छिप गया था। तत्काल लड़की ने अपने स्थगित विचार को अंजाम दिया। लड़के को शायद इसकी उम्मीद नहीं थी। वह जैसे सुख के सरोवर में नहा रहा था।
पॉपकोर्न वाले की आवाज़ से लड़का-लड़की उठ बैठे। सामने एक बूढ़ा पॉपकोर्न के पैकेट्स हाथ में लिए उन्हीं की ओर हसरतभरी नज़रों से देख रहा था। लड़के ने इशारे से उसे पास बुलाया और दो पैकेट्स लिए। बूढ़ा खुश हो गया।
पॉपकोर्न खाते हुए वे वहाँ से उठे। दाईं ओर कुछ दूरी पर दीवार के पीछे चिडि़याघर था। वे उस ओर चल दिए। एकाएक, लड़के को जाने क्या सूझी, वह तेजी से दौड़ा और एक छोटी-सी दीवार पर चढ़ गया। लड़की ने भी उसी तरह चढ़ने की कोशिश की किन्तु सफल न हो सकी। लड़के ने लड़की का हाथ पकड़कर उसे ऊपर खींचा। हल्की-सी कोशिश में लड़की दीवार पर चढ़ने में सफल हो गई। इससे आगे एक बड़ी और ऊँची दीवार थी जिसके पीछे चिडि़याघर था। यहाँ कोई नहीं था। जहाँ वे खड़े थे, वहाँ बिलकुल एकांत था। लड़के को शरारत सूझी और लड़की को अपनी बांहों के घेरे में लेने को लपका। लड़की ऐसी जगहों पर सतर्क रहती है। वह बड़ी होशियारी से छिटक कर आगे बढ़ गई। लड़के ने गुस्से में मुँह बनाया और वहीं खड़ा रहा।
दीवार की खिड़की से लड़की ने चिडि़याघर की ओर झाँका।
एकाएक लड़की बच्चों की तरह चिहुँक उठी और खुशी में उछलती हुई-सी बोली, “इधर आओ... इधर आओ... वो देखो !”
लड़की के चेहरे पर अपार खुशी और उसके चहकने के ढंग को देखकर लड़का दंग था। लड़की बार-बार उचक-उचक कर खिड़की के बाहर देखती और हाथ से ठीक खिड़की के नीचे की ओर संकेत करती।
लड़के ने आगे बढ़कर नीचे झाँका। वहाँ कोई नव-विवाहित जोड़ा चिडि़याघर के लॉन में दीवार के पास टहल रहा था, हाथों में हाथ थामे। लड़की लाल गोटेवाली साड़ी पहने थी। उसकी गोरी-गोरी कलाइयों में गुलाबी और सफेद रंग का चूड़ा चमक रहा था। हथेलियों पर खूबसूरत मेंहदी रचाये लड़की बहुत सुंदर लग रही थी।
“देखो, इन्होंने शादी कर ली।” लड़की ने चहकते हुए कहा, “आखिर उसने प्रेमिका को पत्नी बना ही लिया।”
इस जोड़े को लड़का-लड़की पिछले दो सालों से देखते आ रहे थे- कभी कुतुब पर, कभी इंडिया गेट पर, कभी लोदी गार्डन, कभी मदरसा, कभी प्रगति मैदान, कभी तालकटोरा तो कभी यहीं पुराने किले में।
“शादी के बाद ये लोग कितने अच्छे लग रहे हैं...” लड़की ने बेहद उमंग में भरकर कहा। क्षणांश, वह भी खूबसूरत सपनों में खो गई। उसे लगा, विवाह के बाद वह भी घूम रही है, लाल जोड़ा पहने, कलाइयों में चूड़ा पहने, हाथों में मेंहदी रचाये... एकाएक, लड़की ने अपनी कलाइयों को हवा में लहराया, ऐसे जैसे वह पहने हुए चूड़े की खनक सुनना चाहती हो।
“बस, अब कुछ ही दिनों में इनका प्यार चुक जाएगा। शादी के बाद प्यार अधिक दिन नहीं रहता। देख लेना, छह-सात महीने या अधिक से अधिक सालभर बाद ये लोग इन जगहों पर यूँ हाथ में हाथ लिए घूमते हुए नहीं मिलेंगे।” लड़का बोल रहा था, लड़की की ओर देखे बिना।
“क्या कहते हो ?...” लड़की लड़के से सटकर खड़ी हो गई और उसके कंधे पर अपना सिर रखकर बोली, “प्रेमिका को उसने वाइफ बनाया है, अपनी जीवन-संगनि... अब तो और भी करीब हो जाएंगे। सुख-दुःख इकट्ठा फेस करेंगे। वाइफ बनकर यह लड़की प्रेम को लड़के की लाइफ में और प्रगाढ़, और सच्चा, और ऊष्मावान बना देगी।” लड़की की उमंग और उत्साह, दोनों देखने योग्य थे। उसकी आँखों में एक सपना झिलमिला रहा था। एक हसीन और खूबसूरत सपना...
“नहीं, तुम्हारा ऐसा सोचना गलत है। प्रेमिका जब पत्नी बनती है तो प्यार के सारे समीकरण ही बदल जाते हैं। शादी शब्द एक चाकू की तरह है जो गहराते प्यार को, उसके अहसास को छीलने लगता है और धीमे-धीमे यह प्यार, यह निकटता, यह सुखानुभूति लहूलुहान होकर दम तोड़ देती है। प्रेमी-प्रेमिका का विवाह उनके बीच प्रेम की बहती नदी को सूखने के लिए मज़बूर कर डालता है, ऐसा मेरा मानना है।”
लड़का न जाने कैसी भाषा बोल रहा था। लड़की हतप्रभ थी। लड़के के कंधे पर से उसका सिर खुद-ब-खुद हट गया था। लड़की को लगा जैसे अकस्मात् उसके भीतर कुछ दरक गया है- बेआवाज़ ! उमंगित, उत्साहित, चहकता-खिलखिलाता उसका चेहरा एकाएक निस्तेज हो उठा। लड़की को वहाँ अधिक देर खड़ा होना तकलीफ़देह महसूस होने लगा। वह पीछे मुड़कर लौटने लगी। दीवार से कूदने की कोशिश में वह गिर पड़ी और बायां घुटना पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ गई। दर्द से उसकी आँखें छलछला आई थीं और निचले होंठ को उसने दांतों तले दबा रखा था।
लड़का फुर्ती से आगे बढ़कर उसके पास बैठ गया और उसका घुटना सहलाने लगा। फिर उसने अपने कंधों का सहारा देकर लड़की को ऊपर उठाया और चलने के लिए कहा। लड़की कुछ देर उसका सहारा लेकर लंगड़ाती हुई-सी चली, फिर सहारा छोड़ अपने आप चलने लगी, गुमसुम-सी।
लड़की को लगा, जैसे अंदर बेहद कुछ टूट गया है। वह सोचने लगी- क्या वह बहुत ऊँचा उड़ रही थी कि उसे ज़मीन दिखाना ज़रूरी था ? लड़की सोच रही थी- लड़के ने उसके घुटने की चोट तो देखी, पर क्या वह उस चोट को भी देख पाया है जो अभी-अभी उसके भीतर लगी है ?
दोपहर अपनी ढलान पर थी और पेड़ों, दीवारों के साये लम्बे होते जा रहे थे। पुराने किले से बाहर निकलते समय लड़की बेहद चुप थी। लड़के ने एक-दो बार रास्ते में उसे छेड़ने की कोशिश की लेकिन लड़की ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। वह जल्द-से-जल्द अब घर लौट जाना चाहती थी।
मोटरसाइकिल पर बैठते हुए लड़के ने कहा, “तुम्हें चोट लगी है, चलो तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ।”
“नहीं, मदरसा छोड़ दो। वहाँ से बस में ही जाऊँगी।” लड़की का स्वर कुछ इस प्रकार का था कि लड़का आगे कुछ न बोल सका और लड़की के बैठते ही मोटरसाइकिल उसने आगे बढ़ा दी।
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित। यह कहानी प्रथम बार नवभारत टाइम्स के “रविवार्ता” में वर्ष 1992 प्रकाशित हुई थी और इसके बाद अन्य कई पत्रिकाओं में इसका पुनर्प्रकाशन हुआ और अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई। इस वर्ष फरवरी माह में यह कहानी वेब पत्रिका “अभिव्यक्ति” पर भी प्रकाशित हुई है।)

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

कहानी-16


सूराख़


सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

''तुम भी मिस्टर जोशी...''
मि. जोशी की सलाह सुन कर मंत्री महोदय ने बुरा-सा मुँह बनाया। मुखमुद्रा से लगा कि उन्हें मि. जोशी की सलाह बेहद कड़वी लगी है।
मि. जोशी आगे कुछ न बोल सके और शांत-से खड़े रहे, जस का तस।
मंत्री महोदय भीतर तक अस्थिर हो गए थे और अपनी इस अस्थिरता को कम करने के लिए वह कमरे में इधर-उधर टहलने लग पड़े। टहलते हुए वह सोच रहे थे कि अब उनके हितैषी भी वही भाषा बोलने लगे हैं जो आजकल उनके विरोधी बोल रहे हैं। मि. जोशी को अपना सच्चा हितैषी मानते थे वह। एक बेहद अंतरंग मित्र, एक अच्छा सलाहकार... सदैव उनके हित की सोचने वाला। और वह भी...।
मि. जोशी एक सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी थे और सेवामुक्त होने के बाद से वही उनका अधिकांश काम देख रहे थे- बिना किसी पद पर रहकर। सरकारी, गैर-सरकारी, देशी-विदेशी मामलों में वह मि. जोशी की महत्त्वपूर्ण सलाह लेते रहे हैं। इसके अतिरिक्त भी मि. जोशी बहुत से काम करते रहे हैं उनके- घरेलू काम से लेकर बहुत ही सीक्रेट किस्म के काम। मि. जोशी पर मंत्री महोदय के कई अहसान थे। असम से केन्द्र में वही लाए थे उन्हें। मि. जोशी का बेटा और बेटी अमेरिका में उन्हीं की बदौलत आज उच्च पदों पर कार्यरत है। मिसेज जोशी एक अंतर्राष्ट्रीय महिला संगठन की दिल्ली शाखा का कार्य देख रही हैं।
मि. जोशी ने उन्हें कुछ स्थिर और शांत पाकर कहा, ''सर, आप यह सोचना छोड़ें और थोड़ा आराम कर लें। इतना तनाव सेहत के लिए ठीक नहीं है। इस विषय पर फिर विचार किया जा सकता है।''
उन्हें मि. जोशी की यह सलाह अच्छी लगी। निश्चय ही उन्हें कुछ देर यह सोचना-विचारना छोड़ कर आराम करना चाहिए। उन्होंने जोशी को जाने के लिए कहा और स्वयं सोफे पर अधलेटे होकर आँखें मूँद सोने का उपक्रम करने लगे। पर ऐसे में क्या उन्हें नींद आ सकती है ? जब पाँव तले आग के अँगारे बिछे हों तो कोई आराम से कैसे सो सकता है ?
पिछले बीसेक बरस के उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे संकट कई बार आए थे। वे कई बार विचलित हुए हैं। किंतु कभी ऐसे संकटों में उन्होंने धैर्य और साहस नहीं छोड़ा।
यह उनका पाँचवा मंत्री पद था। इस बार उन पर भ्रष्टाचार के आरोप तब से लगने प्रारंभ हो गए थे जब मंत्री बने उन्हें चार-पाँच माह ही हुए थे। गत दो वर्षों में ये आरोप और तीखे हो गए थे और उनकी रातों की नींद उड़ाने लगे थे। उनके घोटालों को जग-जाहिर करने में प्रेस ने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन, सिवाय तिलमिलाने और भीतर-ही-भीतर संपादकों-पत्रकारों को कोसने के वह कुछ नहीं कर पाए थे। ऐसा भी नहीं कि वे हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। अपने तईं तो उन्होंने इनका मुँह बन्द करने और सबक सिखाने के बेहद प्रयत्न किए किंतु अपने इरादों में वह सफल न हो सके।
गत वर्ष के मानसून सत्र में जब सदन में विरोधी दलों ने उनको लेकर खूब हो-हल्ला मचाया और सदन की कार्रवाई कई दिनों तक नहीं चलने दी, तब विवश होकर उन्होंने घोषणा की कि यदि वे भ्रष्ट हैं तो सरकार एक जाँच कमेटी नियुक्त करके इसकी जाँच करवा सकती है।
बस, यहीं वह गलती कर बैठे।
विरोधी दलों के हमले से बचने के लिए सरकार ने एक जाँच कमेटी बिठा दी थी। उन्होंने सोचा था, जब तक जाँच कमेटी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी, तब तक अगले चुनाव आ जाएँगे। और, इन जाँच कमेटियों को भी वे भली-भाँति जानते थे। कहीं भीतर से आश्वस्त भी थे कि कमेटी की रिपोर्ट अपने विरुद्ध नहीं जाने देंगे। ऐसा प्रभाव व दबाव वे परोक्ष रूप से कमेटी पर डाल भी चुके थे। किंतु कमेटी ने निर्धारित समय में ही अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। वह दंग रहे गए थे यह जान कर कि उनके प्रभाव व दबाव का कोई असर नहीं पड़ा था। उनके विरुद्ध लगाए गए भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों को रिपोर्ट में सही बताया गया था।
रिपोर्ट के पेश होते ही जैसे भूचाल आ गया। विरोधी दलों ने ही नहीं, उनकी अपनी पार्टी के उन सभी सदस्यों ने भी खूब हो-हल्ला मचाया जो अभी मंत्री पद पर सुशोभित नहीं हो पाए थे। मंत्री पद से उन्हें तुरंत बर्खास्त करने की आवाज़ें हर ओर से गूँजने लगी थीं। अब प्रेस और अधिक आक्रामक नज़र आ रहा था उनके मामले में।
उन्हें इस बात से भी हैरानी हुई थी कि उन्हीं के साथी मंत्री ने जिसका नाम भी रिपोर्ट में यत्र-तत्र आया था, रिपोर्ट के पेश होने के कुछ दिन बाद ही इस्तीफा दे दिया था। इससे उन पर मंत्री पद छोड़ने का दबाव और बढ़ गया।
लेकिन वह इतनी जल्दी हार मान लेने वालों में से नहीं थे। अपने इस पद को इस हो-हल्ले के कारण वे छोड़ दें, यह उनके अहं को स्वीकार नहीं था। उन्होंने चुप रहकर कुछ दिनों तक स्थिति का जायज़ा लिया और फिर जहाँ से, जिस तरह से हो सकता था, अपने ऊपर लगे आरोपों का दृढ़ता से खंडन किया। साथ ही साथ, वह प्रधानमंत्री के संकेत की प्रतीक्षा करते रहे। जब कई दिनों तक प्रधानमंत्री की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला तो वह निश्चिंत हो गए। वह सोचने लगे- ऐसे हो-हल्ले तो मचते ही रहते हैं... सत्ता में रहकर ऐसे संकटों से क्या घबराना ? घबराए तो गए।
इन्हीं दिनों एक गैर-सरकारी टी.वी. समाचार एजेंसी ने अपने 'दृष्टिकोण' कार्यक्रम के लिए उनका इंटरव्यू लेना चाहा। उन्हें लगा, यह एक स्वर्णिम अवसर है उनके लिए, अपनी बात को टी.वी. जैसे माध्यम द्वारा लोगों के समक्ष रखने का। उन्हें विश्वास था, वह स्वयं को ईमानदार और पाक-साफ सिद्ध कर ही देंगे अपने शब्दजाल से। इस कला में अगर एक राजनीतिज्ञ माहिर न हो तो वह कैसा नेता ? उन्हें स्वयं पर अटूट भरोसा था। उन्होंने इंटरव्यू की अनुमति दे दी।
इंटरव्यू से पूर्व उन्होंने अपने मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को आदेश दिया कि वे इस संबंध में उन्हें ब्रीफ करें। अधिकारियों ने कल शाम ही उन्हें ब्रीफ कर दिया था। ब्रीफिंग के दौरान सभी संभावित प्रश्नों के उत्तर उन्हें बताए गए थे। मंत्रालय में उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों और उपलब्धियों की जानकारी भी दी गई।
इस ब्रीफिंग के बाद रात देर तक वह मि. जोशी से भी इस विषय में सलाह लेते रहे। मि. जोशी ने कई नए संभावित प्रश्नों की ओर संकेत किया था जो घोटालों और भ्रष्टाचार को लेकर, जाँच कमेटी की रिपोर्ट को लेकर और उनके द्वारा अब तक इस्तीफा न दिए जाने को लेकर हो सकते थे। मि. जोशी ने यह भी सलाह दी थी कि उन्हें इंटरव्यू के दौरान बेहद शालीनता, संयम और धैर्य के साथ प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। किसी भी तीखे और कड़वे प्रश्न पर वह उत्तेजित न हों बल्कि संयम का परिचय देते हुए उसके उत्तर को घुमा दें।
पर क्या वह मि. जोशी की सलाह पर कायम रह सके ? क्या ऐसा उनके लिए संभव था ? प्रश्नकर्ता तीर सरीखे प्रश्नों की बौछार किए जा रहा था और उनकी अब तक की राजनैतिक छवि को छिन्न-भिन्न करते हुए उन्हें एक भ्रष्ट नेता सिद्ध करने पर तुला हुआ था। उनकी दलीलें, उनका शब्दजाल सब धूल-धूसरित हो रहे थे। ऐसे में, वह उत्तेजित कैसे न होते ? क्यों न उसे अहसास दिलाते कि जितनी उसकी उम्र है, उससे कहीं अधिक का उनका पोलीटिकल कैरियर रहा है। क्यों न वह कहते अगर लोग मुझे भ्रष्ट सिद्ध करने पर तुले हुए हैं तो वे भी कहाँ पाक-साफ हैं। वे अपने अपने गिरेबाँ में पहले क्यों नहीं झाँकते ? क्यों न वह यह कह सकने को विवश होते कि अगर मैं भ्रष्ट हूँ तो माननीय पी.एम. ने मुझे अब तक बर्खास्त क्यों नहीं किया?
उस समय वह अंदर ही अंदर बुदबुदाये थे- कल का छोकरा, मुझे मेरी नैतिक जिम्मेदारी समझाने चला है। और यहीं गड़बड़ हो गई थी। वह अपने गुस्से पर नियंत्रण न रख सके। बौखलाहट में प्रश्नकर्ता को उसकी औकात समझाने लगे। वह भूल गए कि वह एक इंटरव्यू दे रहे हैं। वह भी एक गैर-सरकारी एजेंसी को। उनके उत्तरों में खीझ और बौखलाहट थी। उनकी भाषा तीखी और नुकीली ही नहीं, बीच बीच में आपत्तिजनक भी हो गई थी।
इंटरव्यू के बाद भी वह काफी समय तक अशांत रहे। मि. जोशी ने उनसे कहा, ''सर, जिस बात का मुझे भय था, वही हो गई। आपका यह इंटरव्यू जब टेलीकास्ट होगा तो और अधिक हड़कंप मचेगा। और यदि यह इंटरव्यू पी.एम. साहब ने...।''
वह एकाएक चेते। यह क्या कर डाला उन्होंने ? इस ओर तो उन्होंने सोचा ही नहीं।
''तो फिर...'' उन्होंने मि. जोशी की ओर इस प्रकार देखा जैसे वे ही इस समस्या से उन्हें उबार सकते हैं।
''सर... आप घबराएं नहीं। सर ! मैं देखता हूँ, क्या हो सकता है...'' मि. जोशी ने अपने स्वर को धीमा रखते हुए कहा, ''मैं अभी एजेंसी को फोन करता हूँ।''
वह चुपचाप मि. जोशी की ओर देखते रहे। मि. जोशी ने पास रखे टेलीफोन पर एजेंसी का नंबर घुमाया और मि. शेखर से बात कराने को कहा। कुछ ही क्षणों में मि. शेखर लाइन पर थे।
''मंत्री जी ने अभी एक घंटा पूर्व आपके 'दृष्टिकोण' कार्यक्रम के लिए अपना इंटरव्यू दिया है। मंत्री जी कैसेट को अभी देखना चाहते हैं।''
''कैसेट अभी तक हमारे कार्यालय में नहीं पहुँची है। पहुँचते ही आपके पास भिजवाता हूँ।'' उधर से मि. शेखर का उत्तर था।
एक घंटा बीत जाने पर भी जब कैसेट नहीं पहुँची तो उन्होंने मि. जोशी की ओर प्रश्नसूचक नज़रों से देखा। मि. जोशी ने पुन: फोन लगाया। मि. शेखर का स्वर अब बदला हुआ था, ''सॉरी सर, इंटरव्यू लेने के बाद हम कैसेट तब तक किसी को नहीं देते, जब तक वह हमारे कार्यक्रम में टेलीकास्ट न हो जाए।''
मि. जोशी उसे डपटना चाहते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह प्रेस से उलझने का अर्थ समझते थे। उन्होंने अपने स्वर को संयत करते हुए कहा, ''ऐसा करें, इंटरव्यू में से आपत्तिजनक हिस्सों को हटा दें। मंत्री जी नहीं चाहते कि...।''
''देखें सर, इंटरव्यू में से क्या एडिट करना है, क्या नहीं, यह हमारा काम है। हमारे कार्यक्रम एक्जीक्यूटिव इस इंटरव्यू में से कुछ भी हटाना उचित नहीं समझते।''
मि. शेखर का दो-टूक उत्तर सुनकर मि. जोशी अवाक् रह गए।
मि. जोशी ने जब मंत्री महोदय को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो वह एक भद्दी गाली के साथ लगभग चीख ही उठे। मि. जोशी को स्वयं एजेंसी जाकर बात करने को कहा। मि. जोशी ऐसे कामों में पारंगत थे। वे जानते थे कि ऐसे मामलों में थोड़ा-सा लालच दिखलाकर अथवा सौदेबाजी करके सफलता प्राप्त की जा सकती है। अगर इससे भी काम न चले तो डरा-धमका कर काम बन जाता है। लेकिन, मि. जोशी का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ। वह वहाँ से निराश लौट आए।
''किसी भी तरह इस कैसेट को प्राप्त नहीं किया जा सकता क्या ?'' जब चिंतित स्वर ने उन्होंने मि. जोशी से पूछा तो मि. जोशी बोले, ''सर, अब तक तो कई प्रिंट भी लिए जा चुके होंगे।''
''ऐसा करो, सूचना और प्रसारण मंत्री को फोन लगाओ। मैं बात करता हूँ।''
''जी...'' मि. जोशी ने तुरंत फोन लगाया और उन्हें थमा दिया।
लगभग दसेक मिनट फोन पर बात हुई। फोन रखने के बाद उनका चेहरा और अधिक मुरझा गया। चिंता और घबराहट के चिह्न उनके चेहरे पर अंकित थे। मि. जोशी ने पूछा, ''क्या हुआ, सर ?''
एक क्षण उन्होंने मि. जोशी की ओर अपलक देखा और सोफे पर पसरते हुए बोले, ''कह रहे थे- दृष्टिकोण एक गैर-सरकारी चैनल का कार्यक्रम है इसलिए रोक पाना मुश्किल है।''
कुछ देर की चुप्पी के बाद वे बोले, ''जोशी, इंटरव्यू किसी भी तरह टेलीकास्ट होने से रोकना है।''
''पर कैसे सर ?''
''के.के. की सेवाएँ कब काम आएँगी। उसे बुलाओ।''
मि. जोशी के.के. का नाम सुनते ही चौंक उठे। तो क्या मंत्री जी अब के.के. का सहारा लेंगे ? के.के. के लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं है। राजनीति में यह सब चलता है। जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।
''सर, मेरी मानें तो ऐसा कुछ न करें। इससे और बदनामी होगी। कहीं आप और संकट में न फँस जाएँ। आप ठंडे दिमाग से सोचें... बेहतर यही होगा कि आप पी.एम. से मिल लें और अपना इस्तीफा दे दें, कार्यक्रम टेलीकास्ट होने से पहले। तब यह इंटरव्यू खुद-ब-खुद अप्रासंगिक हो जाएगा।''
मि. जोशी की इसी सलाह पर वह उखड़ गए थे। उन्होंने जोशी से ऐसी उम्मीद नहीं की थी।

देर रात तक उन्हें नींद नहीं आई। विवश होकर नींद की गोलियाँ खानी पड़ीं।
सुबह उठे तो मन शांत था। वह कोठी के पीछे वाले लॉन में चले गए। कुछ देर हरी घास पर टहलते रहे। फिर लॉन में पड़ी कुर्सियों में से एक पर बैठ गए और सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनंद लेने लगे। सामने टेबल पर आज के अख़बार पड़े थे। मन किया कि अख़बार उठाकर ख़बरों पर एक नज़र घुमा लें लेकिन, तभी उन्होंने अपने इस विचार को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया। दरअसल, वह सुबह-सुबह अपने मुँह का स्वाद कसैला नहीं करना चाहते थे।
तभी, बद्री ने आकर बताया कि जोशी और अयंगर साब आए हैं। अयंगर उनका निजी सचिव था। वह उठकर कोठी के दाईं ओर बने अपने छोटे-से ऑफिस में चले गए। जोशी और अयंगर उन्हें देखते ही उठ खड़े हुए तो उन्होंने उन दोनों को बैठने का संकेत किया और स्वयं रिवाल्विंग चेयर में धँस गए।
सहसा, सामने दीवार के साथ रखे खूबसूरत एक्वेरियम पर उनकी दृष्टि पड़ी। यह एक्वेरियम एक विदेशी कंपनी ने उन्हें भेंट किया था। इसके जल में रंग-बिरंगी छोटी-छोटी मछलियाँ तैर रही थीं। एक छोटी-सी बोट भी बैटरी की मदद से इसमें गोल-गोल घूमा करती थी। आज वह पानी में डूबी पड़ी थी। डूबी हुई नाव को देखकर वह चौंक उठे और घंटी बजाकर बद्री को बुलाया।
बद्री ने एक्वेरियम का ऊपरी ढक्कन खोला और नाव को बाहर निकालकर उसे उलट-पुलट कर देखने लगा। मि. जोशी, अयंगर और उनकी स्वयं की निगाहें उधर ही लगी हुई थीं। एकाएक बद्री बोल उठा, ''यह देखिए साहब, इसकी तली में सूराख़ हो गया है। तभी डूब गई...।''
सहसा, वह कहीं खो-से गए। अब न उन्हें बद्री दिख रहा था, न एक्वेरियम। न मि. जोशी, न अयंगर। दिख रही थी तो बस एक नाव, एक नहीं अनेक सूराख़ों वाली नाव... नाव कि जिसके ऊपर वह सवार थे... और जिसे बहाव के विरुद्ध खेते जाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे।
वह जैसे अर्धनिद्रा से जगे। उन्होंने देखा, बद्री नाव लेकर जा चुका था और जोशी व अयंगर उन्हीं की ओर एकटक देख रहे थे। अकस्मात्, वह मुस्करा उठे। अयंगर से बोले, ''अयंगर, पी.एम. ऑफिस फोन करके टाइम लो। हम आज ही पी.एम. साहब से मिलेंगे।''
''जी, सर।''
''और जोशी, तुम मेरा इस्तीफा तैयार करो, अभी।'' इस पर जब मि. जोशी ने उनकी ओर फटी आँखों से देखा तो वह बोले, ''हमारी नाव में भी सूराख़ हो गए हैं, जोशी। इससे पहले कि नाव डूबे, हमें किनारे लग जाना चाहिए।''
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

कहानी-15



औरत होने का गुनाह
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

होश में आने पर मैंने स्वयं को अस्पताल के एक छोटे-से कमरे में पाया। गर्दन के नीचे के मेरे शरीर को एक जाली से ढ़का हुआ था। इधर मेरी चेतना लौटी, उधर मेरे शरीर में दर्द के असंख्य कीड़ों ने कुलबुलाना शुरू कर दिया। जलन की तीव्र और असहनीय पीड़ा के मैं कराह उठी। ऐसा लग रहा था मानो बिस्तर के नीचे भट्ठी दहक रही हो।
कमरे का दरवाजा खोल कर कोई अंदर आया है। मैंने धीमे से गर्दन घुमा कर देखा- नर्स थी। उसने बैड के सिरहाने टंगे कागजों को पहले उलटा-पुलटा है, फिर उन पर कुछ लिखा है।
अपनी पूरी ताकत बटोर कर मैं सिर्फ़ फुसफुसा भर सकी हूँ।
''सि...स्...ट...र ।''
नर्स ने शायद मेरी फुसफुसाहट को सुन लिया है। करीब आकर प्यार से बोली, ''बहोत दर्द होता ?... अंय...? होगा, सिक्सटी परसेंट से ज्यादा जल गया तुम। गॉड को याद करो, प्रार्थना करो, वही मदद करेगा।'' फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखकर उसने कहा है, ''तुम्हारी दवा का टाइम होता... अब्भी तुमको दवा देगा।'' यह कहकर वह कमरे से बाहर चली गई है।
कुछ ही देर बाद वह लौट आई है। दवा देकर लौटने लगी तो मैं पुन: फुसफुसाई हूँ- ''सिस्टर, मुझे यहाँ कौन लाया ?''
''पुलीस लाई तुमको यहाँ।''
''कोई आया था क्या मुझसे मिलने ?''
''इंस्पेक्टर आया, साथ में एक अखबारवाला... तुम्हारा बियान लेना माँगता.. पर तुम होश में नहीं था, बोला- फिर आएगा।''
''और कोई ?''
''देखा नहीं किसी को। बाहर शहर में कर्फ्यू लगा है, कौन आएगा भला ?... आया भी तो कमरे में नहीं आ सकता। उधर, शीशे से देख सकता, बस।'' उसने ठीक मेरे मुख के सामने वाली काँच की खिड़की की ओर संकेत किया।
खिड़की के उस पार कोई नहीं था।
मैं अपने आप से प्रश्न करती हूँ। किसकी उम्मीद किए बैठी हूँ ?...कौन आएगा ?... पिता ?... छोटे भाई ?... भाभियाँ ?... मालूम होने पर भी क्या वे आएंगे ?... नहीं। पर जावेद तो आ सकता है। वह मुझे खोजता हुआ ज़रूर आया होगा। शायद, उसे कमरे में नहीं आने दिया गया होगा। वह बाहर खिड़की से ही देखकर लौट गया होगा।
दवा के असर से दर्द के कीड़े धीरे-धीरे शान्त हो रहे हैं। मैं इधर-उधर देखती हूँ। कमरा है, दीवारें हैं, छत है, खिड़की है, सन्नाटा है, बिस्तर पर आधी से ज्यादा जली मेरी देह है। और... और मेरे जेहन में मेरे कड़वे अतीत की पुस्तक के फड़फड़ाते पृष्ठ हैं। चलचित्र की भाँति मेरे अतीत का एक-एक दृश्य मेरी आँखों के सामने आ रहा है...

वे घोर अवसाद से भरे दिन थे मेरे और मैं गहरी मानसिक पीड़ा से गुजर रही थी। तीन बरस के वैवाहिक जीवन का नरक भोग कर एक दिन मैं अपने मायके लौट आई थी। बेरहमी से क़त्ल हुए अपने सपनों की लाश उठाये, भीतर तक टूटी, क्षत-विक्षत ! पर मायके में आकर क्या मैं अपनी मानसिक पीड़ा से मुक्त हो सकी ? नहीं। ससुराल से कहीं अधिक मानसिक पीड़ा तो मुझे अपने मायके में झेलनी पड़ी। पिता, भाई, भाभियाँ कोई भी मेरी गुहार सुनने को तैयार नहीं था। मेरे द्वारा लिए गए निर्णय का तीखा विरोध हुआ था। पति से न बनने का सारा दोष मेरे माथे पर मढ़ा जा रहा था। भाभियों ने उठते-बैठते मुझे कौंचने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
''हुंह ! चली आई मुँह उठाए... कहती है, छोड़ आई हूँ उस घर को हमेशा के लिए। कहीं ऐसा भी होता है ? ब्याही लड़की अपने पति के घर ही अच्छी लगती है, माँ-बाप के घर में नहीं।''
ये सब लोग मुझे फिर उसी यातनागृह में लौट जाने की सीख दे रहे थे।
''आदमी लाख बुरा हो, पर अपना आदमी अपना होता है। उस घर से कदम बाहर निकालकर तुमने बहुत बड़ी भूल की है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम्हें लौट जाना चाहिए।''
उन दिनों पिता का घर साधु-संतों और स्थानीय नेताओं का डेरा बना हुआ था। पिता और दोनों भाई उनकी आवभगत में और उनके निर्देशों के अनुपालन में दिनभर व्यस्त रहते थे। मेरा दु:ख उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था।
एक दिन पिता ने आदेशात्मक स्वर में मुझसे कहा, ''मैंने प्रकाश से बात कर ली है। कुछेक दिन में वह आ रहा है तुम्हें लेने। चुपचाप उसके संग चली जाना। बखेड़ा खड़ा करने की ज़रूरत नहीं, समझीं!''
ये वे दिन थे जब अपने काले अतीत को कंधों पर उठाए मैं पीड़ादायक वर्तमान से जूझ रही थी और भविष्य मुझे पूरी तरह अंधकारमय दीखता था। कहीं रोशनी की कोई किरण नज़र नहीं आती थी। न खाने को मन करता था, न पीने को। न सोने को, न जागने को। न मुझसे कोई प्यार से बोलकर राजी था, न मैं किसी से बात करके अपने दु:ख को बढ़ाना चाहती थी। जीवन नीरस और अर्थहीन लगने लगा था। और जब प्रकाश के आने से पहले मुझे नौकरी का नियुक्ति पत्र मिला, मैंने मायका छोड़ दिया और किराये पर एक छोटा-सा मकान लेकर अलग रहने लग पड़ी।
ऐसे में अगर कोई था जो मेरी पीड़ा को समझ रहा था, मेरे हर छोटे-बड़े काम में मददगार साबित हो रहा था तो वह था- जावेद। जावेद से मेरा परिचय एक नौकरी के इंटरव्यू के समय हुआ था। वह स्वयं भी इंटरव्यू देने आया था। छोटी-सी हमारी बातचीत धीरे-धीरे प्रगाढ़ मित्रता में बदल गई थी। जावेद का पलभर का साथ मेरी तकलीफों पर मरहम के फाहे लगा देता। कुछ पल को ही सही, मैं अपना दु:ख भूल जाती।
जावेद की मदद से ही मैंने तलाक की अर्जी लगा दी थी। तीन साल के बाद कहीं जाकर तलाक मंजूर हुआ। इस बीच, जावेद की भी नौकरी लग गई थी। अब जावेद मेरे घर पर भी आने-जाने लगा था। इस पर अड़ोस-पड़ोस में खुसुर-फुसुर भी शुरू हो गई थी। लोग अजीब सी नज़रों से देखते थे। मुँह भी बनाते थे। पीठ पीछे बातें भी करते होंगे शायद। लेकिन हम दोनों बेफिक्र थे, अपने में खोये। अपनी ही दुनिया में गुम। जावेद का अधिक से अधिक साथ मुझे अच्छा लगता था। प्यार क्या होता है, मैं नहीं जानती थी। प्रकाश, मेरे पति ने कभी मुझे प्यार किया ही नहीं था। सिर्फ भोगा था मुझे। जावेद के प्यार ने मुझमें जीने की उमंग जगा दी थी। मैं उसके प्यार में सराबोर हो उठती थी, भीग-भीग जाती थी। एक-दो रोज वह न मिलता तो अजीब-सी बेचैनी मुझे घेरने लगती। कुछ भी अच्छा नहीं लगता मुझे।
और एक दिन हम दोनों ने शादी करने का निर्णय लिया। जावेद के घरवाले इस फैसले से खुश नहीं थे, यह जावेद ने मुझे बता दिया था। मुझे अपने परिवारवालों की चिन्ता नहीं थी। उनके लिए तो मैं मर चुकी थी। जब से मैं उनसे अलग हुई थी, उनमें से कोई मेरी खैर-खबर लेने नहीं आया था।
हमने कोर्ट में शादी करने का निर्णय लिया। जिस दिन हमने कोर्ट में शादी के लिए अर्जी लगाई, उस दिन हम खूब घूमे। एक अच्छी-सी फिल्म देखी, रेस्तरां में उम्दा खाना खाया, बाज़ार में खूब शॉपिंग की और शाम को टहलते हुए हम घर लौटे। जावेद और मेरे हाथों में शॉपिंग का सामान था। हमारे चेहरों पर रौनक थी। हम बेहद खुश थे।

जावेद को गए अभी पाँच मिनट भी नहीं हुए थे कि बेल बजी। मैंने दरवाजा खोला। सामने खड़े थे मेरे बूढ़े पिता पंडित के.पी. शास्त्री, मुझसे छोटे दो भाई- रमेश और सुरेश शास्त्री और दोनों भाभियाँ। उन्हें अचानक अपने सामने पाकर मुझे कोई खुशी नहीं हुई थी। अचरज ही हुआ था। भीतर कहीं घृणा का भाव भी था। ये लोग मुझे समझाने-बुझाने आए थे। एक बार फिर मेरे फैसले पर अपना विरोध दर्ज क़रने।
''तुम्हारे इस फैसले से जानती हो, बिरादरी में कितनी थू-थू होगी।'' शुरूआत छोटे भाई सुरेश की बीवी ने की थी।
''प्रकाश से तुम्हारी निभी नहीं। तुम उससे अलग रहने लगी। जावेद के साथ तुमने संबंध बनाए, सब बर्दाश्त किया। पर अब तुम जावेद के संग शादी करने जा रही हो, गैर जात, गैर धर्म में !'' लगता था, तैयार होकर बड़ी वाली भी आई थी।
''अरी, अपनी जात, अपने धर्म में तुझे कोई भी न मिला ?... मिला भी तो एक कटल्ला ! पूरे खानदान की नाक कटा कर रख दी इस कुलक्षणी ने !'' पिता का स्वर बेहद रूखा था- क्रोध और घृणा से भरा हुआ। थोड़ा-सा बोलते ही वह हाँफने लगे थे। उन्हें अपनी इज्ज़त तार-तार होती और रसातल में जाती प्रतीत हो रही थी।
दोनों भाई आँखें तरेरे बैठे थे। छोटी ने फिर कमान संभाली, ''जानती हो, वे कैसे लोग हैं ?... बहुत खतरनाक हैं वे ! जावेद के घरवाले इस शादी से नाखुश हैं, इसलिए कुछ भी कर सकते हैं।''
मैं हत्प्रभ थी। इन्हें न केवल मेरी एक-एक गतिविधि की खबर थी, बल्कि ये लोग जावेद के घरवालों की भी खबर रखते थे जिन्हें मैंने आज तक नहीं देखा था।
मैं शांतचित्त सुन रही थी उनकी तीखी बातें, झेल रही थी उनका तीखा विरोध। जब विरोध असहनीय हो उठा तो मैं चुप न रह सकी, बोल ही उठी, ''आप लोग मेरी चिंता छोड़ दें। मैंने और जावेद ने खूब सोच-समझकर ही फैसला लिया है। आप लोग तो पिछले चार सालों से मुझसे सारे संबंध खत्म किए हुए हैं। मैं तो आपके लिए कब की मर चुकी हूँ। पिता ने बेटी को, भाइयों ने बहन को मरा समझ कर इन चार वर्षों में एक बार भी सुध नहीं ली। फिर आज ये मृत संबंध एकाएक कैसे जीवित हो उठे ?... जावेद और मैं शादी करके रहेंगे। ऐसा करने से हमें कोई नहीं रोक सकता।''
''पगला गई है ये ! मति भ्रष्ट हो गई है इसकी !... बूढ़े बाप की इज्जत की परवाह नहीं है इसे ! शहर में आँख उठाकर चलना दूभर हो गया है।'' पिता फिर चीखने लगे थे, ''पैदा होते ही मर जाती करमजली तो ये दिन देखना नसीब न होता।''
मैं मन ही मन हँस दी थी पिता की बात पर। इच्छा हुई थी कि कहूँ - पिता जी, मार तो आप मुझे माँ की कोख में ही देना चाहते थे। बेटियाँ आपको प्यारी ही कब थीं। लेकिन मैं शान्त रही।
''देखो दीदी, पहले ही बहुत मिट्टी पलीद हो चुकी है हमारी। तुम अपना फैसला बदल लो वरना...।'' यह चेतावनी भरा स्वर था छोटे भाई सुरेश का।
''वरना ?...'' मैंने प्रश्नसूचक दृष्टि सुरेश के चेहरे पर गड़ा दी।
''यह नहीं मानेगी। उस जावेद के बच्चे का ही कुछ करना होगा।'' रमेश ने सुरेश की धमकी को स्पष्ट कर दिया।
मुझे लगा कि अब बर्दाश्त की सारी सीमाएँ खत्म हो चुकी हैं। मैं लगभग चीख ही उठी थी, ''आप लोगों को जो करना हो, कर लीजिए और यहाँ से चले जाइए।''
वे गुस्से में बड़बड़ाते चले गए थे और मैं न जाने कितनी देर तक संज्ञाविहीन-सी बैठी रही थी। दिनभर एक बेचैनी-सी छाई रही थी। किसी भी काम में मन नहीं लगा था। एक उथल-पुथल सी मची थी मेरे भीतर। सोच रही थी कि जब स्त्री का एक स्वतंत्र फैसला तक बर्दाश्त नहीं होता तो किस स्त्री-स्वतंत्रता का ढोल पीटा जाता है ? स्त्री के जन्म का विरोध, उसकी इच्छा का विरोध ! उसके स्वतंत्र फैसले का विरोध ! औरत तो जीती ही विरोधों के बीच है- जन्म से लेकर मृत्यु तक। उसके स्वतंत्र अस्तित्व को कहाँ स्वीकार किया जाता है ? माँ बताया करती थी हमें अपने पास लिटा कर, अकेले में - हम अनचाही बेटियों के जन्म को लेकर अनेक बातें। तब मैं बहुत छोटी थी, माँ की बातें मेरी समझ में न आती थीं। बड़ी होने पर मौसी से जाना था उन बातों को और जाना था माँ के दर्द को, उसकी पीड़ा को।
दो लड़कियों के बाद माँ जब फिर से उम्मीद से हुई तो दादी से लेकर पिता तक का स्वर था- ''इस बार हमें लड़की नहीं, लड़का चाहिए। समझीं !'' यह एक हुक्म था एक औरत के लिए। मानो यह सब औरत के वश में हो। आदमी चाहे तो उसकी इच्छापूर्ति के लिए वह अपने गर्भ में लड़के के बीज ही ग्रहण करे। जैसे यह औरत के हाथ में हो कि वह गर्भ में आकार लेती लड़की को हटाकर वहाँ लड़के को प्रत्यारोपित कर दे।
मेरे जन्म पर घर में शोक जैसी स्थिति थी। चूँकि मैंने जन्म लेकर उनकी इच्छाओं पर कुठाराघात किया था, अत: कोई मेरी सूरत देखने को तैयार न था। गोद में उठाकर प्यार करना तो दूर की बात थी। माँ ही थी जिसने मुझे अपनी छाती से लगाए रखा, अपना दूध पिलाती रही, चूमती और प्यार करती रही।
मैं अभी साल भर की भी नहीं हुई थी कि माँ को फिर उसी यंत्रणा से गुजरना पड़ा। माँ जैसे एक मशीन थी- जब तक इन लोगों की इच्छापूर्ति न हो जाती, जब तक उन्हें कुल का दीपक न मिल जाता, उसे वे इस यंत्रणा से कैसे मुक्त कर सकते थे। माँ ने इस बार भी लड़की को जन्म दिया था किंतु मरी हुई लड़की को। पिता और दादी ने राहत की साँस ली थी।
फिर, माँ ने एक के बाद एक दो बेटे जने। दूसरे बेटे के जन्म के बाद माँ को न जाने क्या हुआ कि वह सूखकर पिंजर हो गई और एक दिन उसने सदैव के लिए आँखें मूंद लीं।
माँ की मौत पर घर में किसी को कोई विशेष दु:ख नहीं हुआ था सिवाय हम बहनों के। माँ ने हमें कभी दूसरी नज़र से नहीं देखा था। मगर माँ के निधन के बाद हमने महसूस किया कि भाइयों के आगमन के बाद हमारी घोर उपेक्षा होनी शुरू हो गई थी।
''लड़कियों को पढ़ा-लिखा कर क्या करना है ? इनसे क्या हमें नौकरी करवानी है ?'' वाली मानसिकता के तहत हमें स्कूल भी नहीं भेजा गया था। हम तो घर के कामकाज के लिए ही जन्मी थीं। इसी में हमें निपुण होना था ताकि शादी के बाद ससुराल में चौका-बर्तन, झाड़ू-बुहार से लेकर सुई-धागे तक के घर के सारे काम हम बखूबी निभा सकें। हमें इस घेरे में से बाहर नहीं निकलना था चूँकि हम लड़कियाँ थीं। औरत होना एक गुनाह ही तो है जिसकी सजा हमें बचपन से ही मिलनी प्रारंभ हो जाती है ताकि हम उसकी अभ्यस्त हो सकें।
बड़ी बहन शांता सात बरस की हुई कि उसे मियादी बुखार ने घेर लिया। दवा-दारू ठीक से न हो सकने के कारण वह चल बसी। अब इतने बरसों बाद लगता है, शायद जानबूझ कर ही उसकी सही दवा-दारू नहीं की गई थी। तीन अनचाही लड़कियाँ उस घर में साँस ले रही थीं। एक मर भी गई तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। मुझसे बड़ी रूपा छह बरस की थी- दुबली, पतली। शांता के न रहने पर घर का सारा कामकाज हम दोनों बहनों पर आ पड़ा। दूध तो हमें कभी नसीब ही नहीं हुआ था। दूध दोनों भाई पीते थे या पिता। दादी का विचार था कि मर्दों को दूध-घी ठीक से मिलना चाहिए क्योंकि सारे घर का बोझ उन्हीं के कंधों पर रहता है।
एक दिन मौसा हमारे घर आए। उनकी शादी हुए कई बरस बीत गए थे लेकिन अभी तक संतान न हुई थी। मौसा ने जब मुझे गोद लेने का प्रस्ताव रखा तो किसी को ऐतराज न हुआ। मैं मौसा के घर आ गई। मौसा के घर रहकर ही मैंने हाई स्कूल किया, फिर इंटर। बीच-बीच में मैं राखी, दशहरा और दीपावली पर कुछेक दिनों के लिए पिता के घर भी जाती रही।
इसी बीच, रूपा की शादी कर दी गई एक गाँव में। शादी के एक वर्ष के बाद जब रूपा मुझे मिली तो फूट-फूट कर रो पड़ी, ''तू अच्छी रही सुनीता। मैं तो जैसी यहाँ थी, वैसी ही वहाँ हूँ।'' वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, अपने दु:ख बताना चाहती थी लेकिन सिसकियों और आँखों से बहते अविरल आँसुओं ने उसे कुछ न कहने दिया, सब कुछ स्वयं ही कह दिया।
विपदाएँ कभी बताकर नहीं आतीं। मैं बी.ए. में दाखिला लेने ही जा रही थी कि मुझ पर वज्रपात हुआ। एक सड़क दुर्घटना में मौसा-मौसी दोनों की मृत्यु हो गई। विवश होकर मुझे फिर पिता के घर लौटना पड़ा। उस समय दोनों छोटे भाई- रमेश और सुरेश क्रमश: दसवीं और नौवीं कक्षा में थे। लेकिन मुझे आगे पढ़ने से रोक दिया गया। रूपा के जाने के बाद घर का चौका-बर्तन दादी के कंधों पर आन पड़ा था। मेरे लौट आने पर सबसे अधिक खुशी दादी को हुई। पहले दिन से ही घर का सारा कामकाज उसने मुझे सौंप दिया।
और फिर हुआ मेरा विवाह !
मुझे ससुराल भेजकर पिता तो गंगा नहा लिए लेकिन मेरी यातनाओं का दौर शुरू हो गया। पति ने पहले दिन से ही मुझे अपने पाँव की जूती समझा। मैं किसी के संग बात नहीं कर सकती थी, अपनी इच्छा से कहीं उठ-बैठ नहीं सकती थी। जो पति कहता, मुझे करना पड़ता। अपनी इच्छा-अनिच्छा को भूलकर उसकी हर इच्छा की पूर्ति मुझे तत्काल करनी पड़ती। ज़रा-सी कोताही होते ही न सिर्फ़ गंदी गालियों की बौछार आरंभ हो जाती, उसके हाथ-पैर भी चलने लगते। उसे खाने को उम्दा भोजन चाहिए था, पीने को शराब और भोगने को औरत का जिस्म ! विरोध करने का हक कहाँ था ? विवाह का लाइसेंस लेकर वह दिन-रात पत्नी से बलात्कार करने को स्वतंत्र था।
ससुराल में घर के अन्य सदस्यों को मुझसे कोई सहानुभूति नहीं थी। सास और ननदें थीं जो औरत होकर औरत पर होते अत्याचार से दु:खी प्रतीत न होती थीं। उल्टा मुझे ही सीख दी जाती-
''अब भई, तेरा खसम है। कमाता है, घर चलाता है, पूरे घर का स्वामी है जैसा कहेगा, करना तो पड़ेगा। जिस हाल में रखेगा, रहना पड़ेगा। औरत की खुशी आदमी की खुशी में ही होती है।''
दिनभर के कामकाज से थकी मेरी देह रात को घड़ीभर आराम चाहती मगर आराम कहाँ था। रात होते ही पति हिंस्र पशु का रूप धार लेता। रातभर मेरी देह नोंचता-रौंदता रहता। मेरी पीड़ा, मेरी तकलीफ़ का उसे तनिक भी ख़याल न था। बल्कि मुझे उत्पीड़ित करके देह-सुख भोगने में उसे कुछ अधिक ही मजा आता। एक दिन किया था विरोध तो देह पर गहरे नील उभार दिए थे उसने !
यह था मेरा काला अतीत - कड़वा, घिनौना और दु:खभरा। इस अतीत को याद करके मैं उस रात सो न सकी। अपने इस कड़वे अतीत से मैं कट जाना चाहती थी, जीना चाहती थी अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से, अपनी इच्छानुसार। लेकिन स्त्री-विरोधी इस समाज में क्या ऐसा संभव था ?

लंच का समय था। चपरासी ने आकर बताया, ''आपसे मिलने कोई लड़की आई है। रिसेप्शन पर बैठी है।'' लड़की ?... कौन हो सकती है ? इसी उधेड़बुन में मैं जब रिसेप्शन पर पहुँची तो वहाँ छरहरे बदन की एक खूबसूरत-सी अनजानी लड़की को बैठा पाया। मुझे देखते ही वह उठ खड़ी हुई।
''आप सुनीता ?''
''हाँ, पर...''
''मैं शहनाज... जावेद की बहन।''
मैं शहनाज से पहली बार मिल रही थी। मैं उसे लेकर कैंटीन में आ गई। एक कोने में खाली पड़ी कुर्सियों पर हम बैठ गए। मैंने चाय का ऑर्डर दिया। शहनाज के चेहरे पर अपनी दृष्टि स्थिर करते हुए मैंने पूछा, ''कहो शहनाज, कैसे आना हुआ ?''
''मैं आपको भाभीजान कह सकती हूँ ?''
मैं मुस्करा दी, ''तुम्हारी मर्जी। पर पहले यह बताओ, तुम्हें मेरा पता किसने दिया ?''
''जावेद भाई आपसे शादी करने की जिद्द ठाने बैठे हैं। घर में अक्सर आपको लेकर बातें होती हैं। आप कहाँ रहती हैं, कहाँ काम करती हैं, आपके माँ-बाप कौन हैं, कहाँ रहते हैं, आपकी अपने पति से क्यूँ नहीं बनीं... सब बताया है जावेद भाई ने। वह तो अम्मी-अब्बू को आपसे मिलाना भी चाहते थे कि एकाएक यह हादसा हो गया।''
''हादसा ?''
''आपको मालूम है जावेद भाई पर किसी ने क़ातिलाना हमला करने की कोशिश की ?''
''जावेद पर हमला ?'' मैं घबरा उठी, ''कब ? कहाँ ? कैसा है जावेद ?'' मैं एक साँस में पूछ गई।
''पिछले शनिवार रात नौ बजे जब वह ख़लासी मुहल्ले के पास से गुजर रहे थे, कुछ लोगों ने उन्हें घेर कर मारने की कोशिश की। मगर जावेद भाई किसी तरह वहाँ से भागने में कामयाब हो गए। पीछे से फेंका गया चाकू उनकी दाईं बाजू को छीलता हुआ निकल गया। घबराने की बात नहीं है। हल्का-सा जख्म है। घर पर आराम फरमा रहे हैं।''
पिछले तीन-चार दिन से जावेद का मुझसे न मिलने का कारण मेरी समझ में अब आया।
''तुम मुझे जावेद से मिला सकती हो ?''
''अभी नहीं। आपको थोड़ा इंतज़ार करना होगा। घर में कोहराम मचा है। भाईजान को बाहर निकलने की सख्त मनाही है।''
कुछ देर रुक कर शहनाज ने फिर कहना प्रारंभ किया, ''घरवालों को राजी न होता देख जावेद भाई ने घर में ऐलान कर दिया था कि वह आपसे कोर्ट में शादी करने जा रहे हैं। अम्मी-अब्बू तो हल्के से विरोध के बाद शायद मान भी जाते मगर...''
''मगर क्या ?''
''दादूजान और चचाजान बहुत गुस्से में हैं। बेहद बौखलाये हुए हैं। जब से जावेद पर हमला हुआ है, मामूजान भी उनके साथ हो गए हैं। वे इस शादी के सख्त खिलाफ हैं। इसे वे अपनी तौहीन समझ रहे हैं। उनका मानना है कि जो उनकी मस्जिद नेस्तोनाबूद कर दें, जो उनके दुश्मन हों, उन काफ़िरों की बेटी को वे अपनी बहू बनाएँ, ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। दादूजान ने तो साफ कहा कि अगर...।''
''अगर क्या ?''
इस बीच चाय आ गई थी। चाय पीते हुए शहनाज धीमे स्वर में बोली, ''भाभीजान, आप कुछ रोज के लिए यह शहर छोड़ दें। भाईजान से न मिलें, इसी में भलाई है।'' उसकी आवाज़ बेहद घबराई हुई थी। मैंने देखा, उसकी आँखें गीली हो उठी थीं।
''शहनाज, यह मशविरा तुम दे रही हो या किसी ने... ?''
''यह मशविरा मेरा और अम्मीजान का है।''
कुछ देर बाद शहनाज चली गई। इसके बाद ऑफिस के काम में मेरा मन नहीं लगा। एक अजब-सी बेचैनी हो रही थी। शाम को घर लौटकर भी चैन नहीं पड़ा। कुछ पकाने, खाने को भी दिल नहीं किया। जावेद को लेकर परेशान रही। शहनाज का चेहरा, उसकी डबडबाई आँखें, उसका मशविरा याद आता रहा।
मुझे अधिक इंतज़ार नहीं करना पड़ा था। दो दिन बाद ही जावेद मुझसे मिला, मेरे ऑफिस के बाहर, शाम पाँच बजे। एक रेस्तराँ में बैठकर हमने बातें कीं। जावेद बोला, ''बाहर चला गया था इसलिए मिलना नहीं हुआ।''
''तुम्हारी बाजू का घाव कैसा है ?'' मैंने उसके झूठ को नज़रअंदाज करते हुए पूछा।
''कैसा घाव ?'' उसने अचकचा कर पूछा।
''जावेद, कौन थे वे लोग ?'' जावेद और बनने की कोशिश करता कि मैंने कहा, ''जावेद, शहनाज ने मुझे सब बता दिया है।''
''कब मिली थी वह तुमसे ?''
''तीनेक दिन हुए, ऑफिस में आई थी।''
जावेद चुप हो गया।
''तुमने बताया नहीं, कौन लोग थे वे ?''
''जानता नहीं। होंगे कोई गुंडे-बदमाश। अकेला पाकर लूटना चाहते होंगे।''
''तुम कुछ छिपा रहे हो।'' मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
''नहीं, नहीं। छिपाना क्या।'' फिर बात का रुख बदलते हुए बोला, ''चाय-कॉफी में ही टरकाना चाहती हो या कुछ खिलाओगी भी। बहुत भूख लगी है, कुछ खाना चाहता हूँ।''
मैंने जावेद को अधिक कुरेदना ठीक नहीं समझा। टेबल थपथपाते हुए उसके हाथों को अपने हाथों से ढकते हुए मैंने स्वर में मिठास लाकर पूछा, ''अच्छा बताओ, क्या खाओगे ?''
''तुम्हें !'' उसने अपना मुँह मेरी ओर बढ़ाया।
''धत्...।'' मैंने झटके से अपना चेहरा पीछे करते हुए उसके सिर पर हल्की-सी चपत लगाई और बोली, ''रेस्तराँ में बैठकर खाओगे ?...भूखे कहीं के।''
रेस्तराँ से निकले तो अंधेरा गाढ़ा हो चुका था। जावेद मुझे गली के मोड़ तक छोड़कर चला गया।

दिसम्बर माह की ठंड थी। सुबह जल्दी उठने को मन नहीं करता था। उस दिन वैसे भी छुट्टी थी। मैं देर से उठी, पानी गरम करके नहाई और गीले बालों को तौलिए से लपेटकर अपने लिए नाश्ता बनाने की सोच ही रही थी कि जावेद आ गया। वह बेहद घबराया हुआ-सा लग रहा था। मैं कुर्सी खींचकर उसके सामने बैठ गई।
''क्या बात है जावेद, बहुत घबराए हुए से हो ?''
''न जाने क्या होने वाला है, सुनीता। शहर के हालात ठीक नहीं लगते।''
जब से एक सम्प्रदाय के कछ जुनूनी लोगों द्वारा अयोध्या में एक प्राचीन इमारत ढहा दी गई थी, तब से ही पूरा शहर एक अजीब-से तनाव की गिरफ्त में साँस ले रहा था। हिंदू-मुसलमान की लगभग बराबर-सी आबादी वाले इस छोटे-से शहर में एकाएक हर तरफ हरे और केसरिया झंडों की बाढ-सी आ गई थी। एक हिस्सा खुश था, आह्लादित था, नाच रहा था तो दूसरा हिस्सा खामोश था, भीतर ही भीतर तड़प रहा था, उबल रहा था।
मैंने जावेद के सिर में प्यार से उँगलियाँ फिराते हुए कहा, ''कुछ नहीं होगा। कुछेक दिन का ज्वार है, खुद-ब-खुद शांत हो जाएगा।''
''मुझे डर है, कुछ दिन का यह ज्वार अपने पीछे तबाही के मंजर न छोड़ जाए।''
मैं उठकर नाश्ता बना लाई। चाय पीते हुए जावेद ने कहा, ''सुनीता, मेरी एक बात मानोगी ?''
''क्या ?'' मुँह में ब्रेड ठूँसते हुए मैंने पूछा।
''सबसे पहले तुम दरवाजे पर टँगी अपनी नेम-प्लेट हटाओ।''
मैं हँस पड़ी, ''जावेद, इससे क्या होगा ? चलो, सुनीता शास्त्री के स्थान पर सुनीता खान कर देती हूँ।''
''खतरा फिर भी रहेगा।'' इस बार जावेद ने अपनी आँखें मेरी आँखों में लगभग गाड़ ही दी थीं, ''तुम समझती नहीं हो। खतरा दोनों ओर से है। सिरफिरे असामाजिक लोग दोनों ओर हैं और कुछ भी...।''
मैं जावेद की घबराहट को समझ रही थी। कुछ रोज पहले जावेद पर हुआ हमला और मुझे मिलने वाली धमकियाँ इस घबराहट की पुष्टि के लिए पर्याप्त थीं।
''सुनीता, चलो कुछ दिनों के लिए हम यह शहर छोड़कर कहीं और चले चलते हैं। हालात ठीक होने पर लौट आएंगे।''
''पर क्या गारंटी है, जहाँ जाएँगे वहाँ भी यह सब नहीं होगा।'' जावेद के हाथों को अपने हाथों में लेकर मैंने कहा, ''विकट परिस्थितियों से घबराकर भागना कोई हल नहीं है। जावेद, हम यहीं रहेंगे और स्थितियों का सामना करेंगे।''
जावेद चुप हो गया। कुछ न बोला।
मैंने आगे बढ़कर उसकी आँखों में झाँका और शरारत भरी मुद्रा में बोली, ''घबराहट में भी तुम इतने सुंदर लगोगे, मैं नहीं जानती थी।'' और एकाएक मैंने उसके चेहरे पर चुम्बनों की बौछार कर दी थी, फिर कसकर अपनी छाती से लगा लिया था- उसका सुर्ख हो उठा चेहरा।

एकाएक शहर में वारदातें होने लगी थीं। बाजार बंद होने लगे थे। स्कूल-कॉलेजों में सन्नाटा था, सड़कें सुनसान दीखती थीं। हरे और केसरिया झंडे सक्रिय हो उठे थे। जाने क्या होने वाला था। कौन-सी कयामत आने वाली थी। पिछले दो दिन से जावेद भी मुझसे नहीं मिला था।
रात के आठ बजे थे। मैं बिस्तर में लेटी कोई किताब पढ़ रही थी लेकिन मेरा ध्यान बार-बार शहर में हो रही वारदातों की ओर चला जाता था और जावेद को लेकर मैं परेशान हो उठती थी। एकाएक, बाहर गली में हल्का-सा शोर हुआ। उठकर खिड़की से झाँका, कुछ लोगों का हुजूम दिखाई दिया। कौन लोग थे वे, अँधेरा होने के कारण पहचान पाना कठिन था। तभी, एक पत्थर खिड़की का काँच तोड़ता हुआ ठीक मेरे पास गिरा। मैं घबराकर पीछे हट गई। तुरंत खिड़की दरवाजे ठीक से बंद किए और बिस्तर में आ बैठी।
कुछ देर बाद शोर थम गया-सा लगा। मैंने राहत की साँस ली। लेकिन, अधिक देर नहीं हुई जब मैंने कुछ पदचापों को अपनी ओर बढ़ता महसूस किया। धीरे-धीरे शोर मुखर हो उठा। अब वे मेरे घर का दरवाजा पीट रहे थे। मैं भयभीत हो उठी। साँसें तेज-तेज चलने लगी थीं।
बगल की खिड़की से मुहल्ले पर नज़र दौड़ाई। वहाँ अँधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग घरों में होकर भी घरों में नहीं थे जैसे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था- क्या करूँ ? क्या न करूँ ? ये लोग क्या करना चाहते हैं ? क्या इरादा है इनका ? खिड़की से कूद कर भाग जाऊँ या सामना करूँ ? इसी ऊहापोह में थी कि वे लोग दरवाजा तोड़ने में कामयाब हो गए। एक दीर्घ चीख मेरे मुख से निकली। वे मेरी ओर इस प्रकार झपटे जैसे छिपे हुए शिकार पर भूखे शिकारी झपटते हैं। उनके हाथ मेरे जिस्म की ओर बढ़ रहे थे। देखते ही देखते, उन्होंने मेरे वस्त्र तार-तार कर दिए। घर का सारा सामान उलट-पलट दिया। मेरी चीखें तेज हो उठी थीं पर मेरी चीख-पुकार का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था। मैं रो रही थी, चीख रही थी, खुद को बेहद निरीह और असहाय पा रही थी।
अचानक मेरा बदन चिपचिपे तरल पदार्थ से भीग उठा। मिट्टी के तेल की दुर्गन्ध जब मेरे नथुनों में घुसी, मैं पूरी ताकत से चीख उठी। यह चीख मेरी अब तक की चीखों से तेज और लंबी थी। मौत मेरे सामने खड़ी थी- जलती हुई तीली के रूप में। वे हँस रहे थे, उन्मादित हो रहे थे अपनी बर्बरता पर। तभी, जलती हुई तीली मेरी ओर उछली और मेरा जिस्म धू-धू कर जलने लगा। आग की लपटों के बीच न जाने कब तक मैं तड़पती रही, छटपटाती रही।

दवा का असर कम होते ही दर्द के कीड़े फिर से कुलबुलाने लगे हैं। मैं सामने काँच की खिड़की के पार देखती हूँ। शायद कोई अंदर झांक रहा है। कौन हो सकता है ?... जावेद ?... तभी धीमे से दरवाजा खुलता है। मेरी गर्दन हौले से दरवाजे की ओर घूम जाती है। एक वर्दीधारी व्यक्ति नमूदार होता है। उसके पीछे-पीछे एक और व्यक्ति गले में कैमरा लटकाए प्रवेश करता है। दोनों मेरी ओर बढ़ते हैं कैमरेवाला व्यक्ति कई कोणों से मेरा चित्र खींचता है। वर्दीधारी व्यक्ति मुझसे प्रश्न करता है। मैं जवाब देना चाहती हूँ, पर आवाज़ मेरा साथ नहीं देती। मुझे ख़ामोश देखकर वह खीझ उठता है। फिर एक फोटो मेरी आँखों के ऐन सामने लाकर पूछता है, ''इसे पहचानती हो ?''
यह तो जावेद का फोटो है। भीतर की सारी ताकत बटोर कर मैं फुसफुसाती हूँ, ''क्या हुआ इसे ?''
''कल रात यह तुम्हारे घर की ओर जा रहा था, तभी कुछ पागल लोगों की भीड़ के हमले का शिकार हो गया। जान से मार डाला इसे।”
मुझे लगा, धरती डोल रही है। वर्दीधारी व्यक्ति न जाने क्या-क्या पूछे जा रहा है। वह क्या पूछ रहा है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। मुझे सिर्फ़ उसके होंठ हिलते दिखाई देते हैं। धीरे-धीरे वे दोनों धुँधली आकृतियों में बदलते जा रहे हैं। धुँधली आकृतियाँ भी गायब होती जा रही हैं। मेरी आँखों के आगे गाढ़ा काला अँधेरा छाता जा रहा है। मेरी साँसों की नैया डूब रही है। दर्द के महासागर में चंद साँसों की छोटी-सी किश्ती अपने आपको डूबने से आखिर बचा भी कब तक सकती है !
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( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह ''औरत होने का गुनाह'' में संग्रहित )