शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

अहा ! नववर्ष 2011… तुम्हारा स्वागत है…



प्रिय दोस्तो !
आज 31 दिसंबर है यानि जाते हुए साल का आख़िरी दिन… आज हमें इसे विदा करना है, अलविदा कहना है… और नये साल 2011 को खुशामदीद कहना है… उसका स्वागत करना है… वर्ष 2010 जैसा भी रहा, इसने हमें जो कुछ भी दिया, उसे हमने स्वीकार किया। चाहे वे सुख भरे दिन थे अथवा दुख-तकलीफ़ों से भरे दिन… चाहे सपनों का टूटना था या हमारे भीतर नई आशाओं का बीजारोपण… जो कुछ भी इस जाते वर्ष में हमने पाया या खोया, उसका हमें इस विदायगी के समय कोई शिकवा-गिला नहीं करना है और इसे खुशी-खुशी विदा करना है… इसे अलविदा कहना है। जो कमियाँ- खामियाँ रह गईं, जो कार्य अधूरे रह गए, उन्हें नए साल में पूरा करना है। आओ इस नव वर्ष 2011 का हम इस विश्वास के साथ भरपूर स्वागत करें कि इस नये साल में हमारे अन्दर की सारी कालिमाएं खत्म होंगी… घृणा- द्वेष और नफ़रत की बीज नष्ट होंगे, हमारे दिलों में प्रेम और सोहार्द के सोते फूटेंगे… नकारात्मक्ता को छोड़ सकारात्मकता को अपनाएँगे…अपने चारों ओर खुशहाली का वातावरण सिरजेंगे… अपने लिए ही नहीं ,ओरों के लिए भी जीना सीखेंगे… जो असहाय हैं, निर्बल हैं, गरीब हैं, उनके लिए सम्बल बनेंगे… मानवता के विरोध में जो शक्तियाँ खड़ी हैं, उनका मिलजुल कर मुकाबला करेंगे… विश्व का हर प्राणी अपने अपने मोर्चे पर शांति और बंधुत्व की स्थापना में अपना योगदान देगा… अपने समाज, देश और विश्व को और बेहतर बनाएंगे…
आप सबको नववर्ष 2011 की मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ… यह नया साल आपके लिए सुखमय हो, मंगलमय हो, सुख-समृद्धियों से भरा हो…
सुभाष नीरव

रविवार, 12 दिसंबर 2010

कविता



बधाइयों की भीड़ में चिंतामग्न अकेला व्यक्ति
सुभाष नीरव

'जब न मिलने के आसार बहुत हों
जो मिल जाए, वही अच्छा है'
एक अरसे के बाद
सुनने को मिलीं ये पंक्तियाँ
उनके मुख से
जब मिला उन्हें लखटकिया पुरस्कार
उम्र की ढलती शाम में
उनकी साहित्य-सेवा के लिए ।

मिली बहुत-बहुत चिट्ठियाँ
आए बहुत-बहुत फोन
मिले बहुत-बहुत लोग
बधाई देते हुए।

जो अपने थे
हितैषी थे, हितचिंतक थे
उन्होंने की जाहिर खुशी यह कह कर
'चलो, देर आयद, दुरस्त आयद
इनकी लंबी साधना की
कद्र तो की सरकार ने ...
वरना
हकदार तो थे इसके
कई बरस पहले ... ।'

जो रहे छत्तीस का आंकड़ा
करते रहे ईर्ष्या
उन्होंने भी दी बधाई
मन ही मन भले ही वे बोले
'चलो, निबटा दिया सरकार ने
इस बरस एक बूढ़े को ...'

बधाइयों के इस तांतों के बीच
कितने अकेले और चिंतामग्न रहे वे
बत्तीस को छूती
अविवाहित जवान बेटी के विवाह को लेकर
नौकरी के लिए भटकते
जवान बेटे के भविष्य की सोच कर
बीमार पत्नी के मंहगे इलाज, और
ढहने की कगार पर खड़े छोटे से मकान को लेकर ।

जाने से पहले
इनमें से कोई एक काम तो कर ही जाएँ
वे इस लखटकिया पुरस्कार से
इसी सोच में डूबे
बेहद अकेला पा रहे हैं वे खुद को
बधाइयों की भीड़ में ।
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