बुधवार, 4 जनवरी 2012

लघुकथा



मित्रो
लघुकथा लिखना मेरे लिए कहानी लिखने से अधिक दुष्कर कार्य रहा है। बहुत सी लघुकथाएं लिखीं और फाड़ दीं। कारण, मैं खुद ही उनसे संतुष्ट नहीं था। कई बार तो मित्रों को अच्छी लगने वाली और प्रकाशित हो चुकी लघुकथाओं को भी मुझे खारिज करना पड़ा। रमेश बत्तरा मेरे अच्छे मित्रों में से रहे। मेरा अक्सर उनसे मिलना होता था। वह कहानी और विशेषकर लघुकथा के बहुत सशक्त लेखक तो थे ही, एक अच्छे पारखी भी थे। मैं अपने आत्मकथ्य में यह स्वीकार कर चुका हूँ कि लघुकथा लेखन में और पंजाबी से हिंदी अनुवाद कर्म में मैं न आया होता, यदि रमेश बत्तरा से मेरी मित्रता न हुई होती। पंजाबी की पहली कहानी का अनुवाद मैंने उनके कहने पर ही ‘सारिका’ के लिए किया था और अपनी पहली लघुकथा भी मैंने उनके कहने पर लिखी थी जो ‘सारिका’ के ‘लघुकथा विशेषांक में ‘कमरा’ शीर्षक से छ्पी थी। वह मुझे निरन्तर लघु पत्रिकाओं में लघुकथाएं भेजने के लिए प्रेरित करते रहते थे। अपने शुरूआती दिनों में (लघुकथा लेखन के सन्दर्भ में) मैंने एक लघुकथा ‘मासूम सवाल’ शीर्षक से लिखी और एक रविवार राज नगर, गाजियाबाद स्थित उनके निवास पर जब उनसे मिलने गया तो बड़ी हिचक के साथ उन्हें यह लघुकथा पढ़कर सुनाई। पढ़कर वह काफी देर तक कुछ नहीं बोले। बोलते तो वैसे ही बहुत कम थे, मुँह में पान होने के कारण। उनकी चुप्पी मुझे परेशान करती रही। मुझे लगा, उन्हें लघुकथा पसन्द नहीं आई है और वह इस पर चुप रहना ही बेहतर समझते हैं। फिर वह उठकर बाहर चले गए। पान थूक कर आए और मेरे पास बैठते हुए बोले- “नीरव, लघुकथा तो तुमने बहुत अच्छी लिखी है, पर मैं बस यही सोच रहा हूँ कि जो शीर्षक तुमने इसे दिया है, क्या वह सही शीर्षक है? और उन्होंने सुझाया कि इसका शीर्षक ‘मासूम सवाल’ नहीं, ‘बीमार’ होना चाहिए… यह हमारी कैसी व्यवस्था है कि हम अपने बच्चों को हिन्दी और अंग्रेजी की जिस वर्णमाला से पढ़ना सिखाते हैं, उसकी वर्णमाला में पहले अक्षर ही फलों से जुड़े होते हैं और विडम्बना यह कि हम वर्णमालाओं से फलों की जानकारी तो अपने बच्चों को देते हैं, पर उन फलों को उन्हें खिला सकने की कूवत हममें नहीं होती।” इस लघुकथा का पंजाबी, बंगला, मलयालम में अनुवाद हुआ और अब तक न जाने कितनी पत्र-पत्रिकाओं में इसका प्रकाशन हो चुका है। यहाँ मैं अपनी लघुकथाओं की श्रृंखला में वही लघुकथा आपके समक्ष रख रहा हूँ।

इसके साथ ही, नव वर्ष में आपसे अपनी एक खुशी भी साझा कर रहा हूँ। वह यह कि मेरा पहला एकल लघुकथा-संग्रह “सफ़र में आदमी” शीर्षक से नीरज बुक सेंटर, पटपड़गंज, दिल्ली से प्रकाशित होकर आ गया है। इस संग्रह की कुछ लघुकथाएं तो मैं “सृजन-यात्रा” में प्रकाशित कर चुका हूँ, शेष भी प्रकाशित करूँगा।

नव वर्ष की शुभकामनाएं…
सुभाष नीरव


बीमार
सुभाष नीरव

''चलो, पढ़ो।''
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, ''अ से अनाल... आ से आम...'' एकाएक उसने पूछा, ''पापा, ये अनाल क्या होता है ?''
''यह एक फल होता है, बेटे।'' मैंने उसे समझाते हुए कहा, ''इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे!''
''पापा, हम भी अनाल खायेंगे...'' बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, ''बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर एप्पिल... एप्पिल माने...।''
सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी- पत्नी को सेब दीजिये, सेब।
लेकिन मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था- पत्नी के लिए।
बच्ची पढ़े जा रही थी, ''ए फॉर एप्पिल... एप्पिल माने सेब.. .''
''पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ? जैसे मम्मी ?...''
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, उसके चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, ''मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?''