मित्रो, मेरे पहले एकल लघुकथा संग्रह ‘सफ़र में आदमी’ में संग्रहित लघुकथाओं को एक-एक
कर जब मैंने अपने इस ब्लॉग ‘सृजनयात्रा’ पर देना प्रारंभ किया था तो सोचा नहीं था कि पाठक मेरी
लघुकथाओं को इतनी तरज़ीह देंगे… पर मुझे खुशी है कि नेट की दुनिया के पाठक निरंतर
मेरे इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो रही लघुकथाओं को पढ़ रहे हैं और अपनी बेबाक
प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं… पाठक लेखक का आईना होते हैं… पाठकों से ही लेखक को
अपने कद का पता चलता है और पता चलता है कि वह सृजनात्मक भूमि पर कहाँ खड़ा है? लेखक
तो रचना लिख कर अलग हो जाता है। वह फिर पाठकों की हो जाती है। पाठक ही बताते हैं
कि वह कितनी स्वागत योग्य है ? उन्हें उस रचना ने कितना छुआ अथवा अप्रभावित किया।
कई बार लेखक को अपनी कमजोरी का पता पाठकों से ही चलता है। इससे लेखक को अपने लेखन
को सुधारने, उसे और अधिक सशक्त और संप्रेषित बनाने में मदद मिलती है… खैर, मैंने
यह पाया है कि लेखक पाठकों की राय को – चाहे वह अच्छी हो या बुरी – दरकिनार नहीं कर सकता। यही उसके लिए और उसके लेखन के लिए
बहुत बड़ी शक्ति होती है।
तो, मित्रो आपकी हर राय का मैं
बेसब्री से इंतज़ार करता हूँ। इस अंक में प्रस्तुत लघुकथा ‘क़त्ल होता सपना’ पर
भी आपकी बेबाक राय की मुझे प्रतीक्षा रहेगी…
-सुभाष नीरव
क़त्ल होता सपना
सुभाष नीरव
लड़की ने एम.ए. करने के बाद जब पी.एचडी करने की अपनी
इच्छा प्रकट की तो माँ को चिंता सताने लगी। अगर लड़की इतना पढ़-लिख जायेगी तो इसकी शादी
में मुश्किल हो सकती है। उसने लड़की के बाप से कहा, ''सुनो जी,
लड़की के लिए कोई लड़का-वड़का
ढूँढ़ो और हाथ पीले करो इसके।... आगे हमें नहीं पढ़ाना है।...हमारी बिरादरी में इतने
पढ़े-लिखे लड़के कहाँ मिलते हैं... शादी में दिक्कत होगी, कहे देती हूँ।''
बाप ने इस बात को गम्भीरता
से लिया और लड़के की खोज आरंभ कर दी। महीनों की दौड़-धूप के बाद भी कोई उपयुक्त लड़का
नहीं मिला। बिरादरी में कोई ऐसा लड़का नहीं था जो इतना पढ़ा-लिखा होता। कोई हाई-स्कूल
था तो कोई ज्यादा-से-ज्यादा इंटर फेल। पर उनके नखरे थे कि आसमान को छूते थे। काम के
नाम पर कोई परचून-किरयाने की दुकान चलाता था तो कोई किसी छोटे-मोटे दफ्तर में चपरासी
लगा था। दान-दहेज की उनकी मांग सुनकर तो पसीने अलग से छूटते थे।
आखिर, एक घर में बात तय हो गयी।
लड़का बाप के साथ आटे की चक्की पर बैठता था। पढ़ाई के नाम पर हाई-स्कूल फेल था। लड़के
के माँ-बाप ने कोई ज्यादा मांग नहीं की थी। और जो की थी, वह उनके बूते के अन्दर
थी।
लड़की को मालूम हुआ तो वह
पहली बार अपने माँ-बाप के सामने मुँह खोल बैठी, ''पिताजी, अच्छे पढे-लिखे लड़के बिरादरी में नहीं मिलते तो इसका
अर्थ यह तो नहीं कि बिरादरी के किसी भी अनपढ़, कम पढ़े-लिखे गंवार लड़के के साथ बांध दी जाऊँ...बिरादरी
के बाहर भी तो सुन्दर, सुशील और पढ़े-लिखे लड़के मिल सकते हैं।''
माँ-बाप दोनों ने दाँतों
तले उँगली दबा ली। बोले, ''चार आखर क्या पढ़ गयी, ज्यादा बोलना आ गया तुझे! बिरादरी के बाहर आज तक हमारे खानदान में न किसी लड़की
की शादी हुई है,
न होगी।... समझी!''
''पर, मैं करुँगी पिताजी... आखिर
मुझे इतना पढ़ाया-लिखाया क्यूँ गया ?...'' लड़की ने अपना फैसला सुना दिया।
माँ-बाप सन्न् रह गये।
बाप ने दो दिन तक खाना नहीं खाया। माँ सारे समय रोती रही और लड़की को कोसती रही।
तीसरे दिन बाप ने धमकी
दी, ''अगर तूने बिरादरी के बाहर
शादी की तो मैं रेल के नीचे अपना सिर दे दूँगा।...''
पिता की धमकी ने लड़की पर
असर किया। वह अपने हाथों अपने सपने का क़त्ल कर बैठी।