गुरुवार, 16 अगस्त 2012

लघुकथा




मित्रो,  सृजन-यात्रा कुछ विलम्ब से अपडेट हो रहा है। अप्रैल, 12 के बाद इसपर कुछ भी आपसे साझा नहीं कर पाया। इसके पीछे जो कारण रहे, उन्हें बताना सफ़ाई देना मात्र होगा, इसलिए इस पर चुप्पी। हम सब जीवन में कभी कभी दोहरा जीवन जीते हैं। जो हम दूसरों से अपेक्षा नहीं करते, वही खुद करते हैं। दूसरे उन बातों को करते हैं तो हमें गलत लगता है परन्तु वही जब स्वयं करते हैं तो हमें गलत नहीं लगता। अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, इस बारे में। कुछ इसी मानसिकता को लेकर मेरी लघुकथा है अपना अपना नशा जिसे आपके समक्ष अपनी लघुकथाओं की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है, इस पर भी आपकी प्रतिक्रियाएं मुझे मिलेंगी, जैसा कि पिछली लघुकथाओं पर मिलती रही हैं
-सुभाष नीरव

अपना-अपना नशा
सुभाष नीरव


''जरा ठहरो ...'' कहकर मैं रिक्शे से नीचे उतरा। सामने की दुकान पर जाकर डिप्लोमेट की एक बोतल खरीदी, उसे कोट की भीतरी जेब में ठूँसा और वापस रिक्शे पर बैठा। मेरे बैठते ही रिक्शा फिर धीमे-धीमे आगे बढ़ा। रिक्शा खींचने का उसका अंदाज देख लग रहा था, जैसे वह बीमार हो। अकेली सवारी भी उससे खिंच नहीं पा रही थी। मुझे भी कोई जल्दी नहीं थी। मैंने सोचा, खरामा-खरामा ही सही, जब तक मैं घर पहुँचूँगा, वर्मा और गुप्ता पहुँच चुके होंगे।
            परसों रात कुलकर्णी के घर तो मजा ही नहीं आया। अच्छा हुआ, आज मेहता और नारंग को नहीं बुंलाया। साले पीकर ड्रामा खड़ा कर देते हैं।... मेहता तो दो पैग में ही टुल्ल  हो जाता है और शुरू कर दता है अपनी रामायण। और नारंग ?... उसे तो होश ही नहीं रहता, कहाँ बैठा है, कहाँ नहीं।... अक्सर उसे घर तक भी छोड़कर आना पड़ता है।
            ''अरे-अरे, क्या कर रहा है ?'' एकाएक मैं चिल्लाया, ''रिक्शा चला रहा है या सो रहा है ?... अभी पेल दिया होता ठेले में।...''
            रिक्शावाले ने नीचे उतरकर रिक्शा ठीक किया और फिर चुपचाप खींचने लगा। मैं फिर बैठा-बैठा सोचने लगा- गुप्ता भी अजीब आदमी है। पीछे ही पड़ गया, वर्मा के सामने। पे-डे को सोमेश के घर पर रही। पता भी है उसे, एक कमरे का मकान है मेरा। बीवी-बच्चे हैं, बूढ़े माँ-बाप हैं। छोटी-सी जगह में पीना-पिलाना।... उसे भी 'हाँ' करनी ही पड़ी, वर्मा के आगे। पत्नी को समझा दिया था सुबह ही- वर्मा अपना बॉस है।.. आगे प्रमोशन भी लेना है उससे।... कभी-कभार से क्या जाता है अपना।... पर, माँ-बाऊजी की चारपाइयाँ खुले बरामदे में करनी होंगी। बच्चे भी उन्हीं के पास डालने होंगे। कई बार सोचा, एक तिरपाल ही लाकर डाल दे, बरामदे में। ठंडी हवा से कुछ तो बचाव होगा। पर जुगाड़ ही नहीं बन पाया आज तक।
            सहसा, मुझे याद आया- सुबह बाऊजी ने खाँसी का सीरप लाने को कहा था। रोज रात भर खाँसते रहते हैं। उनकी खाँसी से अपनी नींद भी खराब होती है।... चलो, कह दूँगा-दुकानें बन्द हो गयी थीं।
            एकाएक, रिक्शा किसी से टकराकर उलटा और मैं जमीन पर जा गिरा। कुछेक पल तो मालूम ही नहीं पड़ा कि क्या हुआ !... थोड़ी देर बाद मैं उठा तो घुटना दर्द से चीख उठा। मुझे रिक्शावाले पर बेहद गुस्सा आया। परन्तु, मैंने पाया कि वह खड़ा होने की कोशिश में गिर-गिर पड़ रहा था। मैंने सोचा, शायद उसे अधिक चोट लगी है।... मैं आगे बढ़कर उसे सहारा देने लगा तो शराब की तीखी गन्ध मेरे नथुनों में जबरन घुस गयी। वह नशे में घुत्त था।
मैं उसे मारने-पीटने लगा। इकट्ठे हो आये लोगों के बीच-बचाव करने पर मैं चिल्लाने लगा, ''शराब पी रखी है हरामी ने।.. अभी पहुँचा देता ऊपर।... साला शराबी !... कोई पैसे-वैसे नहीं दूँगा तुझे।... जा, चला जा यहाँ से... नहीं तो सारा नशा हिरन कर दूँगा।...शराबी कहीं का !''
            वह चुपचाप उलटे हुए रिक्शा को देख रहा था जिसका अगला पहिया टक्कर लगने से तिरछा हो गया था। मैंने जलती आँखों से उसकी ओर देखा और फिर पैदल ही घर की ओर चल दिया।
            रास्ते में कोट की भीतरी जेब को टटोला। मैं खुश था- बोतल सही-सलामत थी।