मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

लघुकथा



रफ़-कॉपी

सुभाष नीरव

बाबू रामप्रकाश खाना खा चुकने के बाद, रो की तरह आज भी अपने कमरे में बैठकर ऑफिस से लाया काम करने में जुट गये। कुछ ही देर बाद, उनका दस वर्षीय बेटा रमेश कमरे में दाख़िल हुआ और समीप आकर बोला, ''पापा, आप मेरे रफ-काम के लिए कापी नहीं लाए ?''

बाबू रामप्रकाश पलभर अपनी याददाश्त को कोसते रहे। पिछले तीन दिनों से वह भूलते आ रहे थे। आज फिर उन्होंने बेटे को समझाने की कोशिश की, ''ओह बेटा, हम आज फिर भूल गये। देखो न, कितना काम रहता है! याद ही नहीं रहता, सच।''

''हम कुछ नहीं जानते। आप तीन दिन से टाले जा रहे हैं। हमें कापी आज ही चाहिए।'' रमेश ज़िद करने लगा।

''बेटा, रात को इस वक्त दुकानें भी बंद हो गयी होंगी। कल हम ज़रूर ला देंगे।''

पर, बेटा अड़ा रहा। बाबू रामप्रकाश सोच में पड़ गये। एकाएक उनकी नज़र मेज़ पर रखे पतले-से उस नये रजिस्टर पर पड़ी जिसे वह आज ही दफ़्तर से नयी एंट्री करने के लिए लाये थे।

''लो बेटा, तुम इस पर अपना रफ़-काम कर लिया करो।'' उन्होंने रमेश को रजिस्टर थमाते हुए कहा।

रमेश ने रजिस्टर को खोलकर देखा, ''पापा, इसमें तो खाने बने हुए हैं।''

''तुझे रफ़-काम करने से मतलब है या खानों से ?'' बाबू रामप्रकाश एकाएक गुस्सा हो उठे। रमेश रजिस्टर लिये सहमा हुआ-सा कमरे से बाहर निकल गया।

बेटे के चले जाने के बाद बाबू रामप्रकाश ने मन ही मन सोचा - कल फिर स्टेशनरी-क्लर्क को नया रजिस्टर इशू करने के लिए चाय पिला देंगे। चाय कॉपी से सस्ती पड़ती है। फिर प्रसन्न से ऑफिस से लाया दूसरा काम करने में जुट गए।

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