गुरुवार, 20 मई 2010

कविता


भाषा की नदी
सुभाष नीरव

हमारे बीच
भाषा की जो नदी
बहा करती थी
जाने क्या हुआ
एकाएक सूख गई

जिन शब्दों से
होता था हमारा सम्वाद
वे इतनी बार
कि किए गए प्रयोग
कि घिस घिस कर लुप्त हो गए

अब हमारे बीच
भाषा की सूखी नदी पसरी है

अब तुम
उस पार हो गुमसुम
और इस पार
मैं खामोश...

चलो,
अच्छा हुआ
सूख गई भाषा की नदी
अधरों का काम खत्म हुआ
कानों को भी मिलेगा आराम
लेकिन-
तुम्हारे नयनों में क्या है
मैं पढ़ सकता हूँ
मेरी आँखों की भाषा को
बांचना कठिन नहीं तुम्हारे लिए।

भाषा की नदियां
जब रिश्तों के बीच सूख जाती हैं
तब आँखें ही तो
हमारे अधर होती हैं
और हमारे कान भी !
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