सोमवार, 23 जून 2008

कहानी–7




उसकी भागीदारी
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

मुझे यहाँ आए एक रात और एक दिन हो चुका था। पिताजी के सीरियस होने का तार पाते ही मैं दौड़ा चला आया था। रास्ते भर अजीब-अजीब से ख़याल मुझे आते और डराते रहे थे। मुझे उम्मीद थी कि मेरे पहुँचने तक बड़े भैया किशन और मंझले भैया राज दोनों पहुँच चुके होंगे। पर वे अभी तक नहीं पहुँचे थे जबकि तार अम्मा ने तीनों को एक ही दिन, एक ही समय दिया था। वे दोनों यहाँ से रहते भी नज़दीक ही है। उन्हें तो मुझसे पहले यहाँ पहुँच जाना चाहिए था। रह-रहकर यही सब बातें मेरे जे़हन में उठ रही थीं और मुझे बेचैन कर रही थीं। मैं जब से यहाँ आया था, एक-एक पल उनकी प्रतीक्षा में काट चुका था। बार-बार मेरी आँखें स्वत: ही दरवाजे की ओर उठ जाती थीं। मुझे तो ऐसे मौकों का ज़रा-भी अनुभव नहीं था। कहीं कुछ हो गया तो मैं अकेला क्या करूँगा, यही भय और दुश्चिंता मेरे भीतर रह-रहकर साँप की तरह फन उठा रही थी।
पिताजी की हालत में रत्तीभर भी सुधार नहीं था। कल शाम जब से मैं आया हूँ, उन्हें मैं नीम-बेहोशी में ही देख रहा हूँ। अम्मा ने बताया था कि मेरे आने से चार-पाँच घंटे पहले तक तो उन्होंने दवा वगैरह ली थी। टट्टी-पेशाब भी किया था। शरीर में हरकत थी। किन्तु, उसके बाद से न तो आँखें खोली हैं, न ही हिले-डुले हैं। अम्मा कई बार उनका पायजामा वैगरह भी देख चुकी है। टट्टी-पेशाब तक लगता है, बन्द हो गया है। अम्मा अब बेहद घबराई हुई-सी थीं। उनसे कहीं अधिक मैं घबरा रहा था।
पिताजी को हिला-डुलाकर बात करने की मेरी कोशिशें बेकार रही थीं। सारा दिन मैं उनके पास बैठा रहा था। बैठे-बैठे कभी लगता, अभी पिताजी करवट लेंगे। कभी लगता, अभी उनके होंठ हिलेंगे... कभी लगता, वे गर्दन हिलाने की कोशिश कर रहे हैं... पर, ऐसा मुझे लगता था, होता कुछ नहीं था।
पूरे घर में सन्नाटे की एक चादर तनी थी। एक दुश्चिंता और चुप्पी की गिरफ्त में हम सब बुरी तरह जकड़े हुए थे। हम लोग आपस में बातें भी करते थे, तो लगता था, फुसफुसा रहे हों। गले से आवाज़ खुलकर निकल ही नहीं रही थी। छोटी बहन पिंकी और छोटा भाई विक्की कल से ही मुझसे बहुत कम बोले थे। उनके चेहरे पर चुप्पियाँ चस्पाँ थीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि विक्की जैसा शरारती बालक इतना शान्त और खामोश कैसे रह सकता है ! उसे तो उठते-बैठते, खाते-पीते बस शरारत ही सूझती थी।
हम चुप थे। हमारा एक-एक पल भय और घबराहट में बीत रहा था।
घड़ी ने शाम के छह बजाए तो मैं पिताजी के पास से उठकर दूसरे कमरे में आ गया। विक्की कोई किताब पढ़ रहा था चुपचाप। पिंकी किसी पुराने कपड़े पर कढ़ाई कर रही थी।
बहर, गली में बच्चे खेल रहे थे। हल्का-हल्का शोर खुली खिड़की से कूदकर अन्दर आ रहा था। शायद आइस-पाइस या छुपा-छिपी का खेल था। कभी-कभी कोई बच्चा हमारे घर से लगे जीने के नीचे छुप जाता था। दूसरा बच्चा उसे ढूँढ़ते हुए जब वहाँ पहुँचता तो शोर तेज हो उठता और हमारे घर में सन्नाटे की तनी हुई चादर हिलने लगती।
एक-दो बार अम्मा बाहर निकलकर शोर न करने का इशारा कर आई थीं लेकिन बच्चे तो आखिर बच्चे थे। थोड़ी देर बाद ही उनका शोर फिर सुनाई दे जाता। इस बार अम्मा ने झल्लाकर उन्हें डपट दिया था, “तुमसे कहा न, यहाँ शोर न करो... जाओ, दूर जाकर खेलो। अब इधर आए तो...।” और उन्होंने खुली हुई खिड़की बन्द कर दी थी।
अम्मा की डांट सुनकर बच्चे चुपचाप खिसक गए थे। अब, घर के बाहर और भीतर दोनों तरफ एक चुप्पी ही चुप्पी थी।
मेरी पीठ में अब दर्द होना आरंभ हो गया था और मुझे नींद भी आ रही थी। एक रात और एक दिन बैठे-बैठे गुजारना... और उससे पहले एक दिन का रेल का सफ़र! थकावट होना तो लाजि़मी था। मैं कुर्सी पर अधलेटा-सा होकर पसर गया। मुझे यूँ अधलेटा-सा देखकर अम्मा बोली– “थक गया होगा तू भी। थोड़ी देर लेट जा, कमर सीधी हो जाएगी।”
अम्मा बहुत पास से बोल रही थीं लेकिन उनकी आवाज़ मुझे बहुत दूर से आती लग रही थी। थकी-थकी-सी। मैंने अम्मा की बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस, दोनों हथेलियों से अपना मुँह ढंक कर मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा था।
तभी अम्मा ने पूछा, “चाय पियेगा, बनाऊँ ?”
“नहीं, इच्छा नहीं है।” मैं यह कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाया। होंठ हिले ही नहीं, जड़ से हो गए थे जैसे। बस, क्षणांश मैंने अम्मा की ओर नज़रें उठाकर देखा था। अपनी ओर मेरे देखते जाने को मेरी सहमति समझ कर वह चाय बनाने रसोई में चली गई थीं।
अब, धीरे-धीरे मेरे अन्दर कुछ खोल रहा था। धैर्य चुक रहा था और बेचैनी बढ़ने लगी थी। मुझे गुस्सा भी आ रहा था। अपने पर नहीं, किशन और राज भैया पर। अभी तक ये लोग नहीं आए ?... क्या इन्हें तार नहीं मिला ?... इस छोटे-से कस्बे में कोई अस्पताल तक नहीं है। बस, जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उग हुए नर्सिंग-होम थे। जहाँ डाक्टर स्वयं चाहते हैं कि उनका मरीज जल्द ठीक न हो। उनके लिए डाक्टरी एक पेशा है, धन्धा है। पैसा कमाने का धन्धा! बस, यहाँ से आठ-दस मील दूर एक सरकारी अस्पताल है। दोनों बड़े भाई आ जाते तो पिताजी को वहीं ले जाते। पर, मैं अकेला... उन्हें ऐसी हालत में... सोचते ही मेरे तो पसीने छूटने लगते हैं।
अम्मा चाय ले आई थीं। चाय का प्याला लेते हुए मैं स्वयं पर नियंत्रण न रख सका। मैंने पूछा, “किशन और राज भैया को भी तो तार मिल चुका होगा। आए क्यों नहीं अब तक ?” मेरी आवाज़ में तल्ख़ी थी और उससे खीझ और गुस्से का रंग मिला हुआ था।
“जाने क्या बात है ? कोई बात होगी... तार पाकर रुकने वाले तो नहीं हैं। आते ही होंगे।” अम्मा पास बैठकर आहिस्ता-आहिस्ता बोल रही थीं, “आजकल घर-गृहस्थी छोड़कर एकदम निकलना भी तो नहीं होता।”
अम्मा की इस बात से मैं अन्दर तक कुढ़ गया था। ‘हुंह... निकलना नहीं होता या निकलना नहीं चाहते। क्या घर-गृहस्थी उन्हीं की है, मेरी नहीं ! सोनू के कल से पेपर शुरू हैं। निक्की और सुधा भी पिछले हफ्ते से ठीक नहीं हैं। फिर भी, मैं तार पाते ही दौड़ा चला आया। मेरे भीतर एक उठापटक मची थी लेकिन मैं इस उठापटक को शब्द नहीं दे पा रहा था। अम्मा मेरे सामने बैठी कुछ सोच रही थीं और मैं भीतर ही भीतर भुन रहा था।
दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैं ठीक से होकर बैठ गया। पिंकी ने उठकर दरवाजा खोला। किशन और राज भैया में से कोई नहीं था। पड़ोस वाली रमा आंटी थीं। दिन में भी पड़ोस से इक्का-दुक्का लोग पिताजी का हाल पता करने आ चुके थे और अपनी-अपनी सलाह देकर चले गए थे। रमा आंटी ने कमरे में घुसते ही अम्मा को सम्बोधित करते हुए पूछा, “बहन जी, अब कैसी तबीयत है भाई साहब की ?”
“उसी तरह बेहोश पड़े हैं... आज तो हिल-डुल भी नहीं रहे। बस, रब्ब ही मालिक है।” कहते-कहते अम्मा की हिचकियाँ उभर आईं।
“धीरज रखो बहन, कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जाएगा। ऊपरवाले पर भरोसा रखो।” रमा आंटी अम्मा का कन्धा थपथपाकर उन्हें धीरज बंधाने लगीं, अब ता ब्रज भी आ गया है। किशन और राज भी आते ही हों। अब सम्हाल लेंगे। दिल थोड़ा न करो। हिम्मत रखो।
कुछ देर असम्वाद की स्थिति रही। अम्मा फर्श की ओर टकटकी लगाए देखती रहीं और मैं हथेलियाँ बगल में दबाये अपने को बेहद संजीदा दर्शाने की कोशिश करता रहा। रमा आंटी लगता था, अगली बात के लिए शब्द ढूँढ़ रही थीं। एकाएक, दीवार घड़ी की ओर देखते हुए बोली, “आप लोगों ने खाना-वाना खाया कि नहीं। चलो, मैं बनाती हूँ। कब तक भूखे रहेंगे आप।... भाई साहब बीमार ही तो हैं। ठीक हो जाएंगे। ऐसे कोई खाना-पीना छोड़ देता है ?... आ बेटा ब्रज, मेरे यहाँ कुछ खा ले।”
मेरे जवाब की प्रतीक्षा न करते हुए वह विक्की और पिंकी की ओर मुखातिब होकर बोलीं, “चलो, तुम दोनों भी खा-पी लो।”
विक्की-पिंकी ने एकबारगी रमा आंटी की ओर देखा। फिर मेरी और अम्मा की ओर। हमारी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर वे चुपचाप अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए।
“अच्छा, मैं यहीं भिजवा देती हूँ।” हमारी चुप्पी को देखकर रमा आंटी बोलीं तो अम्मा के मुँह से बोल फूटे, “नहीं बहन, क्यूं तकलीफ करती हो। मेरा तो मन नहीं है। ब्रज और बच्चों के लिए दोपहर का ही पड़ा हुआ है। खा लेंगे ये।”
“अच्छा, मैं चलती हूँ। मेरी ज़रूरत पड़े तो बुला लेना, बहन।” कहती हुई रमा आंटी चली गईं। उनके आने पर हमारे घर की चुप्पियाँ जो थोड़ी देर के लिए कहीं दुबक गई थीं, उनके जाते ही उन्होंने फिर से पूरे घर को अपने शिकंजे में ले लिया था। थोड़ी देर बाद अम्मा पिताजी के कमरे की ओर चली गई थीं। मैंने फिर अपनी टांगें फैला ली थीं और आँखें मूंदकर सिर दीवार से लगा लिया था।

पिताजी के शान्त चेहरे पर हल्की-सी हरकत देखकर अम्मा ने मेरी ओर देखा है। हाँ, सचमुच पिताजी के चेहरे पर हल्की-सी हरकत हुई है। होंठों पर कम्पन साफ दीख रहा है। अम्मा उनके करीब होकर कहती है, “सुनिए, आँखें खोलिए... देखिए, ब्रज आया है। इससे नहीं मिलोगे ?”
मैं भी आगे बढ़कर पिताजी का कमजोर और बेजान-सा हाथ अपनी मुट्ठी में लेते हुए कहता हूँ, “मैं हूँ पिताजी... आपका ब्रज... ठीक है न आप...” पिताजी के काँपते होंठों से लगता है, वे कुछ कहना चाह रहे हैं। मैं आगे झुक कर कहता हूँ, “पिताजी, कुछ कहना चाहते हैं ?... कहिए, मैं हूँ न। आपका बेटा, ब्रज...।”
“कि...श...न... रा...ज...” अस्फुट शब्द हवा में तैरते हैं।
“वे भी आते ही होंगे।... आप...”
वे एकबार अम्मा की ओर देखते हैं, फिर धीमे से गर्दन घुमाकर मेरी ओर। टुकड़ा-टुकड़ा शब्द हवा में तैरते हैं, अपनी अम्मा की, छोटे भाई-बहन की देखभाल करना बेटा... इन्हें तुम्हारे आसरे ही... बमुश्किल से बोले गए शब्द अधबीच में ही अपनी यात्रा खत्म कर देते हैं। और फिर, अम्मा रोने लगती हैं, मुँह में साड़ी का पल्लू दबाकर। मैं भीतर से काँपता हुआ भयभीत-सा ढाढ़स बँधाता हूँ, आप चिन्ता न करें... आपको कुछ नहीं होगा। लेकिन, अगले ही क्षण हो जाता है। पिताजी की गर्दन एक ओर... अम्मा की चीख निकल जाती है। पिंकी-विक्की रोना-चिल्लाना आरंभ कर देते हैं। घर में तनी सन्नाटे की चादर तार-तार हो जाती है। मेरे पांवों के नीचे से ज़मीन खिसकने लगती है। अब क्या होगा ! मैं अकेला...घबराहट से मेरा पूरा शरीर काँपने लगता है। खुद को असहाय पाकर मैं भी फूट-फूटकर रोने लगता हूँ।
तभी, मेरी नींद टूट जाती है। पास ही खड़ी अम्मा मुझे कन्धे से हिला रही थी, “ब्रज... ब्रज बेटा सो गया क्या ?... चल, बिस्तर लगा दिया है, लेट जा। मैं बैठती हूँ उनके पास। सो ले, कल रात से तू सोया नहीं।”
मैं चुपचाप उठा था और कपड़े बदलने लगा था।

सोने से पहले मैं एक बार पिताजी के कमरे में गया। वे उसी तरह बेहरकत लेटे हुए थे। अम्मा ने बताया कि उन्होंने चम्मच से दवा पिलानी चाही थी लेकिन दवा गले से उतरी ही नहीं।
“डॉक्टर को बुला लाऊँ ?” मैंने अम्मा से पूछा था।
“इस समय वह बुलाने से भी नहीं आएगा। सुबह अपने आप आ जाएगा। फिर भी तेरी मर्जी।”
मैंने साइकिल उठाई थी और उन्हीं कपड़ों में डॉक्टर के घर पहुँच गया था। अम्मा की बात सही थी। उसने वही दवा देते रहने को कहकर मुझे लौटा दिया था। मैंने जाकर पिताजी की नब्ज़ एकबार देखी थी। वह चल रही थी, मन्द-मन्द। मैंने पायजामा टटोलकर देखा, गीला था। टाँगों पर से कम्बल हटाया तो बदबू का एक तेज भभका मेरे नथुनों में जबरन घुस गया। मैंने एकबारगी अम्मा को आवाज़ दी थी और फिर खुद ही उनका पायजामा बदलने लग गया था। अम्मा ने गीला पायजामा उठाया और बाथरूम में डाल आईं। आकर बोली, “तू थोड़ा सो ले ब्रज। देख, आँखें कैसी लाल हो रही हैं तेरी।”
अम्मा की बात पर मैं चुपचाप उठकर सोने चला गया था।
लेटते ही मुझे नींद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था और अगले दिन सुबह देर तक मैं सोता रहा था। अम्मा ने जब मुझे जगाया तो घड़ी में दस-पच्चीस हो रहे थे। मैंने उठते ही पिताजी के बारे में पूछा।
रात को उनके द्वारा दो बार कपड़े गन्दे करने की बात अम्मा ने मुझे बताई और बोली, “आठ बजे मैंने दवा दी थी। तू उठकर नहा-धो ले। नाश्ता कर ले और फिर ज़रा डाक्टर को बुला ला। रोज तो नौ बजे तक खुद आ जाता था, आज साढ़े दस होने को आए...।
नहा-धो कर नाश्ता करके डॉक्टर को बुलाने मैं जा ही रहा था कि किशन और राज भैया आ गए। अम्मा उन्हें देखकर रोने लगीं तो दोनों देर से पहुँचने का अपना-अपना स्पष्टीकरण देने लगे। किशन भैया सरकारी काम से बाहर गए थे। लौटे तो तार मिला और तभी चल दिए। राज भैया ने कहा, “तार पर उनका पता गलत था इसलिए तार देर से मिला। मिलते ही गाड़ी पकड़ ली।”
दोनों सीधे पिताजी के कमरे में चले गए थे। अम्मा के पीछे-पीछे मैं भी पिताजी के कमरे में घुसा। पिताजी वैसी ही बेहोशी की-सी हालत में लेटे हुए थे। किशन भैया ने उनका हाथ पकड़कर नब्ज़ देखी थी और फिर उनके ठण्डे हाथ को अपनी हथेलियों से मलकर गरमाने लगे थे। तभी, डॉक्टर आ गया था। किशन भैया ने डॉक्टर से बात की थी, उसे अलग ले जाकर। शहर के बड़े अस्पताल में ले जाने की बाबत भी पूछा था। “आप की मर्जी है, वैसे...” कहकर डॉक्टर ने बात हमारे ऊपर छोड़ दी थी। डॉक्टर ने इस बार दवा चेंज कर दी थी। मैं दवा लेने बाजार जाने लगा तो किशन भैया मुझे सौ का नोट थमाने लगे जिसे मैंने हल्की-सी न-नुकर के बाद ले लिया था और साइकिल दबा दी थी।

किशन भैया आते ही पिताजी की तीमारदारी में लग गए थे। कभी उनके कपड़े बदलते, कभी चम्मच से पानी पिलाते। कभी ठण्डे हाथ-पांवों को अपनी हथेलियों से गरमाने की कोशिश करते।
राज भैया जब से आए थे, कुछ सुस्त से लग रहे थे। वह कम बोल रहे थे। चेहरे से वह भी मेरी तरह भीतर से घबराये हुए लग रहे थे। अब मेरी घबराहट वैसे कुछ कम हो गई थी। किसी अनहोनी को अकेले फेस करने का तनाव अब मेरे मस्तिष्क में नहीं था। किशन भैया और राज भैया के आ जाने से मुझे भीतरी बल मिला था और लगा था, अब मुझे चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। दोनों बड़े भैया सब कुछ सम्हाल लेंगे। वैसे भी, वे मुझसे अधिक अनुभवी थे। उनके रहते मैं कुछ हल्का-सा महसूस कर रहा था। विक्की और पिंकी में कोई फर्क नहीं आया था। बल्कि वे अब ज्यादा ही गम्भीर औ चुप दीख रहे थे।
बदली हुई दवा से पिताजी की हालत में हल्का-सा फर्क हुआ तो उसे मैंने ही नहीं, अम्मा ने भी चट से पकड़ लिया। पिताजी ने हिलकर करवट बदलने की कोशिश की थी। उनके होंठों से लग रहा था, वे कुछ कह रहे हैं, पर शब्द बेआवाज़ थे। पिताजी को कुछ नहीं होगा, अब यह धारणा धीरे-धीरे बलवती हो रही थी।
इस परिवर्तन में मेरे भीतर अब तक दबी, छुपी और कुलबुलाती बात को बाहर निकलने की हिम्मत बंधा दी थी। दरअसल, जिस रात से मैं यहाँ आया था, उसके अगले दिन से ही मैं सोच रहा था कि किशन भैया और राज भैया के आते ही मैं लौट जाऊँगा। दोनों बड़े भाई स्वयं सम्हाल लेंगे। मुझे अपनी बीमार पत्नी और बच्ची की चिन्ता सता रही थी। सोनू के होने वाले पेपर्स की फिक्र हो रही थी। आफिस से भी मुझे छुट्टी इसलिए मिली थी कि तार पहुँचा था। वरना... आजकल तो वैसे ही आडिट चल रहा है।
किशन भैया को दौड़-दौड़कर पिताजी की सेवा-सुश्रूशा करते देख मुझे उम्मीद होने लगी थी कि भैया अवश्य काफी दिनों की छुट्टी लेकर आए हैं। अब, जब तक पिताजी कुछ बेहतर स्थिति में नहीं आ जाते, वह नहीं जाएंगे। दोनों बड़े भाइयों का वैसे ही ऐसे समय में यहाँ रहना ज़रूरी है। जाने कब क्या हो जाए।
एकाएक, मुझे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी। क्या उन्हीं का रहना यहाँ ज़रूरी है?... उसका नहीं ?... लेकिन, अगले ही क्षण, लौटने की बात मेरे भीतर उछलकूद करने लगी और मैं अवसर की तलाश करने लग गया। अम्मा अधिक बात नहीं कर रही थी। मैं जब भी उन्हें अकेले पाकर अपने दिल की बात कहने की चेष्टा करता, मेरी जुबान को न जाने क्या हो जाता। जैसे उसे उस क्षण लकवा मार जाता हो! मुँह से कोई शब्द ही न फूटता।
किशन और राज भैया के सामने पड़ते ही मेरी हिम्मत जवाब दे जाती। दोपहर खाने के वक्त सोचा था, अपनी बात कह दूँगा। फिर सोचा, इतनी जल्दी ठीक नहीं रहेगा, शाम को कह दूँगा। रात नौ बजे की ट्रेन है, उसी से लौट जाऊँगा।
शाम के साढ़े चार का वक्त था, जब पिताजी को कुछ-कुछ होश आया था। उन्होंने मिचमिचाती आँखों से हम तीनों को देखा था। हाथों में हल्की-सी जुंबिश-सी हुई थी। शायद, वे हाथ उठाकर हमें प्यार देना चाह रहे थे।
बदली हुई दवा असर कर रही थी।
खतरे का अहसास धीरे-धीरे कम होता लग रहा था। पिंकी चाय बना लाई थी और हम सब दूसरे कमरे में बैठकर चाय पीने लगे थे। चाय पीते हुए मैंने भीतर ही भीतर तैयारी की। भूमिका-स्वरूप अपनी बात भी चलाई। मसलन, अब तो पिताजी की हालत में सुधार हो रहा है...घबराने की बात नहीं दीखती अब...। और जैसे, मुझे तीन दिन हो गए यहाँ आए। घर पर सुधा और बेटी निक्की भी ठीक नहीं। सोनू के कल से पेपर्स हो रहे होंगे... पता नहीं, क्या करके आता होगा... आदि।
मेरी इस बातचीत को कोई गम्भीरता से नहीं ले रहा था। बस, चुपचाप सुन रहे थे।
मैं एक पल सबके चेहरों की ओर देखता, फिर दिल की बात को दिल में ही दबा लेता। कभी-कभी मुझे लगता, बड़े भैया स्वयं ही कहेंगे, “ब्रज, अब मैं आ गया हूँ। सब सम्भाल लूँगा। तुम चाहो तो चले जाओ, सुधा अकेली होगी। ऐसी-वैसी बात होगी तो बुला लेंगे तुम्हें।”
अम्मा ने मुझे पिताजी के कमरे से आवाज़ दी तो मैं उठकर उनके पास चला गया। वह पिताजी के नीचे से चादर बदलना चाह रही थीं, बोलीं, “ज़रा इन्हें थोड़ा-सा ऊपर उठाना। मैं नीचे की चादर बदल दूँ।”
एकबारगी मैंने बड़े भैया को अपनी मदद के लिए बुलाना चाहा, पर अगले ही क्षण मैंने खुद ही पिताजी को अपनी दोनों बाजुओं में लेकर ऊपर उठा लिया था और अम्मा ने झट से उनके नीचे की चादर बदल दी थी।
अम्मा को अकेले पाकर मेरे भीतर कुछ हिलने-डुलने लगा था। अम्मा ने पिताजी पर कम्बल ओढ़ाया और पास बैठकर उनके पैर दबाने लगीं तो मेरे मुँह से निकला, “अम्मा !”
“क्या बेटा ?”
“पिताजी...” बस, मेरे गले में जैसे कुछ फंस-सा गया। बमुश्किल शब्द निकले, “पिताजी, ठीक हो जाएंगे तो मैं कुछ दिनों के लिए आप लोगों को अपने यहाँ ले जाऊँगा। हवा-पानी बदल जाएगा।” मुझे अपने कहे शब्दों पर हैरत हो रही थी। क्या मैं यही कहना चाहता था !
“ये ठीक हो लें पहले...” अम्मा का कहते-कहते गला रुँध आया था, “वैसे भी तुम्हारे सिवा कौन है हमारा... तुम ही लोग तो हो।”
अम्मा के शब्द मेरे मर्म को छू रहे थे, अन्दर तक। मैं जानता था, यह अम्मा नहीं, अम्मा का दर्द बोल रहा था। उनको अपने यहाँ ले जाने की बात, मैंने उनका दिल रखने या उनका हौसला बढ़ाने के लिए कही थी। सच कहूँ तो मैं यह कहना ही नहीं चाह रहा था। मैं तो अपने लौटने की बात कहना चाहता था। यह तो मैं भी अच्छी तरह जानता था और अम्मा भी कि हम तीनों भाई अपनी-अपनी शादी के बाद उन्हें कितनी बार अपने-अपने यहाँ ले जा पाए हैं।
अब मुझे शर्म महसूस हो रही थी। मैं अपनी शर्म को मिटाने के लिए कमरे की दीवारों पर यूँ ही बेमतलब ताकने लगा था।

शाम को बाजार से सब्ज़ी लेकर लौटा तो बड़े भैया अम्मा से कह रहे थे–
“अम्मा, मैं रात की गाड़ी पकड़ लेता हूँ। सुबह आफिस ज्वाइन कर लूँगा। टूर से लौटा था तो सीधे इधर ही आ गया, तार पाकर। आफिस से छुट्टी भी नहीं ली थी। अब तो पिताजी की हालत में सुधार है। चिन्ता की कोई बात नहीं है। ठीक हो जाएगे जल्द।” भैया बोले जा रहे थे और अम्मा चुपचाप सुन रही थी। राज भैया भी समीप ही बैठे थे। खामोश। कमरे में मेरे घुसते ही बड़े भैया बोले, “राज और ब्रज तो हैं ही न। ऐसी-वैसी बात हो तो मुझे खबर कर देना।”
“भैया, जाना तो मुझे भी था...” इस बार राज भैया के होंठ हिले थे, “आप तो जानते ही हैं, मेरी नौकरी टेम्परेरी है। छुट्टी भी बड़ी मुश्किल से मिली है। वे लोग मौका देखते हैं अपना आदमी फिट करने के लिए। आप यहाँ रहते तो...”
किशन भैया कुछ देर सोच में पड़ गए थे। मेरे भीतर भी कुलबुलाहट होने लगी थी। अब तक दबा कर रखी बात बाहर निकलने को उतावली हो रही थी। लेकिन सहसा मेरी नज़रें अम्मा पर स्थिर हो गईं। अम्मा जहाँ बैठी थीं, वहीं स्थिर हो गई थीं, मूर्ति की तरह।
काफी देर बाद तने हुए सन्नाटे को किशन भैया ने तोड़ा, “अच्छा तो तुम भी चलो। पिताजी तो ठीक हैं। इतना घबराने या चिन्तित होने की ज़रूरत नहीं। अब हमें भी नौकरी की वजह से जाना पड़ रहा है, वरना ऐसे स्थिति में हमारा जाने को मन करता है भला ?”
फिर, मेरी ओर देखते हुए बोले, “ब्रज, तुम तो हो ही। पिताजी की दवा वगैरह टाइम से देते रहना... कोई बात हो तो मुझे तार कर देना, मैं आ जाऊँगा।” और फिर जेब से रुपये निकालकर मुझे थमाते हुए बोले, “रख लो, वक्त-बेवक्त काम आ जाते हैं।”
अम्मा अब सुबकने लगी थीं। उनकी आँखों से आँसुओं की धाराएं बहने लगीं। मैं आगे बढ़कर अम्मा की बगल में बैठ गया था और अम्मा को सांत्वना देने लगा था। हाथ में पकड़े रुपयों को देखकर मेरी आँखें भी डबडबा आई थीं। समझ में नहीं आ रहा था, रुपये रख लूँ या भैया को लौटा दूँ।
जब, थोड़ी देर तक कोई किसी से कुछ नहीं बोला, तो किशन भैया चुपचाप उठे और तैयारी करने लगे। अम्मा ने पिंकी को आवाज़ लगाई, “पिंकी बेटा, खाना वगैरह तैयार कर ले। दोनों भाइयों को खिला कर भेजना, रात का सफर है।” और उठकर पिताजी के कमरे में चली गईं। शायद, वे हमारे सामने रोना नहीं चाहती थीं। निश्चित ही, पिताजी के कमरे में जाकर वे खूब रोयी होंगी।

किशन और राज भैया को ट्रेन में बिठा कर लौटा तो अम्मा ने पूछा, “ब्रज, तू तो छुट्टी लेकर आया होगा ?”
अचानक किए गए अम्मा के इस प्रश्न पर मैं अचकचा गया था। अम्मा के इस प्रश्न के पीछे का दर्द मैं अच्छी तरह महसूस कर रहा था। अम्मा से आँखें मिलाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। पिंकी-विक्की के पास बैठते हुए मैंने कहा, “सोचता हूँ, कल सुबह पोस्ट-आफिस जाकर सुधा को चिट्ठी डाल दूँ कि चिन्ता न करे... कुछ दिन लग जाएंगे और साथ ही, आफिस में भी छुट्टी बढ़ाने की अर्जी पोस्ट कर दूँ।”
अम्मा ने आगे न कुछ पूछा, न कहा। फिर वही चुप्पियाँ हमारे बीच तन गईं। एकाएक, इन चुप्पियों से मुझे ऊब होने लगी। पिताजी की बीमारी से हमारे भीतर भय, घबराहट, दुश्चिन्ता का होना स्वाभाविक था लेकिन लगातार चुप्पियों को अपने ऊपर ढोये रखना... मुझे ये चुप्पियाँ अनावश्यक लगने लगीं। इनकी गिरफ्त से बाहर होने की इच्छा हुई। मैं चाहता था कि बर्फ़-सी जमी चुप्पियाँ गलकर बह जाएं।... पूरे घर में सन्नाटे की तनी चादर तार-तार हो जाए।... घर में फैली मनहूसियत से निजात मिले। इन्हीं सब विचारों में डूबते-उतराते हुए मैंने सहसा विक्की से प्रश्न किया, “तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है ?” फिर उसका उत्तर जानने से पहले ही अपने बेटे सोनू के बारे में बताने लगा। उसके ‘हाफ-ईअरली एक्जाम’ में आए कम नम्बरों के बारे में... उसके सारा दिन खेलते रहने के बारे में... पढ़ाई की ओर ध्यान न देने के बारे में... इसके बाद मैंने अपनी छोटी बेटी निक्की की शैतानियों का जिक्र छेड़ दिया। पिंकी-विक्की सुनकर हँसने लगे। मुझे उनका हँसना अच्छा लग रहा था। एकाएक, विक्की ने पूछा, “भैया, निक्की को पोयम आती है ?”
“हाँ, बहुत। अरे, वह तो डांस भी करती है।”
“अच्छा !” पिंकी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
“टी वी में चित्रहार देखती है तो खूब नाचती है, मटक-मटककर।”
“भैया, आज भी तो चित्रहार है। टी.वी. चला दूँ ?” विक्की ने सहमते हुए मेरी ओर देखकर पूछा।
“चुप्प !” पिंकी ने आँखें तरेर कर विक्की को तुरन्त डपट दिया, “तुझे टी.वी. की पड़ी है। लोग क्या कहेंगे... घर में...।”
“घर में क्या ?...” पिंकी की बात पर एकाएक मैं चीख-सा उठा, “क्या है घर में ?... कोई मातम है क्या ?... पिताजी बीमार हैं... दवा-दारू चल रही है। ठीक हो जाएंगे।”
मेरी अनायास तेज हो उठी आवाज़ से कमरे का सन्नाटा काँपने लगा था। मैंने जल्द ही खुद को संयत किया और प्यार से धीमे स्वर में बोला, “तुम लोग खेलो, कूदो, पढ़ो। तुम्हें किसने रोका है ?...टी.वी. भी देखो, पर ध्यान रहे, पिताजी डिस्टर्ब न हो... उनके आराम में खलल न पड़े, बस।”
मेरी बात पर अम्मा ने भी पिंकी-विक्की की ओर देखते हुए कहा, “कुछ नहीं हुआ उन्हें। बीमार ही तो हैं, ठीक हो जाएंगे।”
तभी, मैंने उठकर टी.वी. आन कर दिया। वोल्यूम कम ही रखा। अम्मा उठकर पिताजी के कमरे में चली गईं। कुछ ही पल में स्क्रीन पर फोटो उभर आई। चित्रहार आरंभ हो चुका था। पहला ही गाना था।
अम्मा भी पिताजी के कमरे का दरवाजा हल्का-सा भीड़कर हमारे बीच आ बैठीं।

[आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ” में इसी शीर्षक से तथा भावना प्रकाशन, पटपड़गंज, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” में “चुप्पियों के बीच तैरता संवाद” शीर्षक से संग्रहित]

रविवार, 15 जून 2008

कहानी–6



थके पैरों का सफ़र
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र


शिवप्रसाद एकाएक बम की तरह फूट पड़े। क्रोध से उनका दुबला-पतला शरीर काँपने लगा। सामने, नीचे फर्श पर दीवार से पीठ टिकाये उनकी बेटी सुषमा जिसे वह प्यार से बिट्टी कहकर बुलाते थे, बैठी थी और उनके आगे किताबें-कापियाँ बिखरी पड़ी थीं। पापा का तमतमाया चेहरा और गुस्सा देख वह काँप गयी। दफ्तर से लौटे अभी उन्हें कुछ ही देर हुई थी। एकाएक उन्हें क्या हो गया, बिट्टी समझ नहीं पायी। पर, अधिक देर भी न लगी उसे, पापा के गुस्से का कारण जानने में। अब, वह अपना सिर घुटनों में छिपाकर रो रही थी।
पति के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ जब पत्नी के कानों में पड़ी तब वह रसोई में थी और उनके लिए चाय का पानी चढ़ा रही थी। दौड़ कर बैठक में आयी तो देखा, पति बेटी पर बुरी तरह गरज-बरस रहे थे।
“तो ये गुल खिलाये जा रहे हैं... पढ़ाई-लिखाई के बहाने इश्कबाजी हो रही है... प्रेम पत्र लिखे जा रहे हैं... क्यों, बोलती क्यों नहीं ?...” उनका जी हो रहा था, बढ़कर लगाएं दो-चार हाथ... लगा दें अक्ल ठिकाने... पर हाँफते हुए वह दूर खड़े-खड़े ही चिल्लाते रहे, “यही सब रह गया था देखने को !... बुढ़ापे में बाप की इज्ज़त को बट्टा लगाने जा रही है साहिबजादी...”
अब उन्होंने अपनी नज़रें बेटी पर से हटाकर पत्नी पर गड़ा दीं, “तुम्हें भी कुछ खबर है ?... क्या हो रहा है इस घर में !... क्या करती रहती हो सारा दिन ?”
पत्नी हक्का-बक्का थी। इससे पहले कभी उसने पति को इस प्रकार गुस्से में नहीं देखा था।
“बाहर के लोग जब थू-थू करने लगेंगे, तभी तुम्हें पता चलेगा। देखो... देखो, तुम्हारी लाडली बिटिया क्या गुल खिला रही है।” और उन्होंने कागज का एक पुर्जा पत्नी की ओर बढ़ा दिया।
स्कूल की कॉपी के लाइनदार पन्ने पर लिखा यह एक प्रेम-पत्र था जो शिवप्रसाद को उस वक्त हाथ लगा, जब वे बिटिया की एक किताब उठाकर, उसे यूँ ही उलटने-पलटने लगे थे। पत्र पढ़कर भीतर एक भभूका-सा उठा था आग का। गुस्सा काबू से बाहर हो गया था और वह बिट्टी पर बरस पड़े थे।
पत्र पढ़कर पत्नी भी आगबबूला हो गई। हे भगवान ! इज्ज़त मिट्टी में मिलने को तैयार है और वे बेख़बर है !... वह लड़की की ओर शेरनी की तरह झपटी। उसका दायां हाथ लड़की के खुले हुए बालों की ओर तेजी से बढ़ा। बालों के खिंचते ही लड़की की जारों से चीख निकल गई।
“सुबह-शाम श्रृंगार-पट्टी करने का राज अब समझ में आया। तभी कहूं, हर समय आईने के आगे से महारानी का मुँह हटता क्यों नहीं था।”
हाथ में लड़की के बालों का गुच्छा अभी भी था और लड़की अपने बालों को माँ के मजबूत हाथ से छुड़ाने का भरसक प्रयत्न कर ही थी।
“कमबख्त को ज्यादा ही जवानी चढ़ी है। इश्क का फितूर जागा है... जाने कब से चल रहा है यह नाटक !...” काफी देर तक पति-पत्नी दोनों बारी-बारी से लड़की पर बरसते रहे। शिवप्रसाद बन्द होते तो पत्नी शुरू हो जाती। कभी दोनों अपनी किस्मत को कोसने लगते। बड़ी लड़की की परेशानी अभी खत्म नहीं हुई, दूसरी एक और आफत खड़ी कर रही है– माँ बाप के सिर पर !

रात को काफी देर तक शिवप्रसाद सो नहीं पाए। बस, करवटें बदलते रहे। दिमाग में ढेरों बातों का जमघट मचा था। एक बात आती थी, एक जाती थी। कितना प्यार करते रहे हैं वह अपने बच्चों से ! बिट्टी से तो कुछ अधिक ही लगाव रहा है उनका! पर, उनके अधिक लाड़-प्यार का ही नतीजा है यह।
पास ही की चारपाई पर पत्नी भी रह-रहकर करवटें बदल रही थी। शायद, उसे भी नींद नहीं आ रही थी।
शिवप्रसाद पत्नी की ओर करवट बदलकर धीरे से बोले, “जाग रही हो क्या ?”
“हूँ...।” पत्नी ने हुंकारा भरा।
“कौन है यह लड़का ?” शिवप्रसाद बेकल-से थे जानने को।
“अरे वही, दो नम्बर गली की लक्ष्मी का बेटा, जिसका पति पिछले साल एक्सीडेंट में मरा था।”
पत्नी का उत्तर सुनते ही शिवप्रसाद लेटे-लेटे जैसे एकदम से उछल पड़े– ‘ठाकुर की लड़की का नीच जात के लड़के से प्रेम !... हे भगवान... यही सब दिखाना था !’
फिर काफी देर तक न पत्नी बोली, न वे। एक सन्नाटा-सा तना रहा, दोनों के बीच। सन्नाटें की इस दीवार को तोड़ा पत्नी ने, बहुत देर बाद।
“मैं तो कहूं, जल्दी से कोई लड़का-वड़का ढूंढो इसके लिए। छुड़ाओ पढ़ाई-लिखाई और करो इसका भी ब्याह। कुछ न होने का इस बी.ए. फी.ए. से... लड़की हाथ से निकलती दीखती है।”
शिवप्रसाद कुछ नहीं बोले। सिर्फ़ सुनते रहे। उन्हें लगा, पत्नी ठीक कह रही है। लड़की का ब्याह कर देना ही उचित है। ज्यादा ढील बरती तो इज्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी। कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे। आजकल लड़कियाँ क्या कुछ न करा दें...

अगले दिन ही, साल में कभी-कभार दो-चार रोज की छुट्टी लेने वाले शिवप्रसाद ने अपने दफ्तर में इकट्ठी पन्द्रह दिन की छुट्टी ले ली। लड़की के लिए लड़का ढूंढ़ना है तो घर से बाहर निकलना ही होगा। जात-बिरादरी में लड़का तलाशना कोई आसान काम है आजकल! बड़ी लड़की के लिए कहाँ-कहाँ मारे-मारे नहीं भटके थे। कभी उत्तर तो कभी दक्खिन... कभी पूरब तो कभी पश्चिम... जहाँ कहीं से कोई खबर मिलती, दौड़कर पहुँच जाते थे वहाँ। किन-किन रिश्तेदारों-संबंधियों के पास नहीं गए थे वह। अब फिर वैसी ही दौड़-धूप करनी ही होगी न !

और, पूरे पन्द्रह दिन उन्होंने दौड़-धूप की। यहाँ गए, वहाँ गए। इधर गए, उधर गए। सब तरफ दौड़े-भागे, जहाँ-जहाँ जा सकते थे, गए। लेकिन, इतनी दौड़-धूप के बाद भी तो कहीं बात बनती नज़र नहीं आ रही थी। कितने ही लड़के देखे। कभी घरबार ठीक नहीं, तो कभी लड़का नहीं जमा। जल्दबाजी में लड़की कुएं में तो नहीं धकेलनी है !
बड़ी लड़की की बारी कितना ठोक-बजाकर नाते-रिश्तेदारों से पूछताछ कर रिश्ता तय किया था। उस वक्त, वे लोग वैसे नहीं लगे थे। पचास हजार से बात चलकर पैंतीस हजार पर तय हो गई थी। पत्नी के पास जो थोड़े-बहुत गहने थे, सब तुड़वाकर बेटी के लिए नये बनवा दिए थे। उन्होंने अपने फंड से ‘फाइनल विदड्रॉ’ के रूप में पच्चीस हजार रुपया निकाला था। बाकी का चार रुपया सैकड़ा पर पकड़ा था जो अभी तक उतर नहीं पाया है।
शादी के दो-तीन माह बाद ही से लड़केवाले अपनी औकात पर आ गए थे। हर फेरे में लड़की से उम्मीद की जाती कि लौटते वक्त वह मायके से कुछ न कुछ साथ लाएगी। और फिर शुरू हो गया, कुछ न लाने की एवज में यातनाओं-प्रताड़नाओं का दौर... पिछले दो सालों में किस-किस तरह नहीं नोंचा गया उनकी बेटी को। पिछले कुछ महीनों से बेटी के लगातार दर्द-भरे पत्र आ रहे हैं उनके पास। आँसू भीगे बेटी के पत्र पढ़कर वे तिलमिला जाते हैं। भीतर-ही-भीतर जैसे कुछ टूटता चला जाता है, बेआवाज़। गुस्से में गालियाँ बकने लगते हैं वे– साले भेडि़ये ! पर वह खुद को बहुत असहाय पाते हैं। क्या कर सकते हैं ? कई बार जाकर खुद बात की। हाथ-पैर जोड़े... पर वे तो चिकने घड़े हैं, असर ही नहीं होता। उल्टा उनकी बेटी को और यातनाएं देनी प्रारंभ कर देते हैं। कमीने ! भुक्खड़ ! ये चाहिए, वो चाहिए... रुपयों का पेड़ लगा है हमारे घर में जैसे ! जब चाहा, चादर भर ली। हो जाती एकाध उनके भी बेटी तो पता चलता, पराई लड़की को नोंचने का...
कभी-कभी तो बहुत घबरा उठते हैं वे। कुछ पता नहीं, कल क्या हो जाए। अखबार पढ़ते हैं तो दहेज के लालच में बहू को जिन्दा जला दिए जाने की खबर उन्हें बुरी तरह कंपा जाती है। कहीं उनकी बेटी भी....
शादी-ब्याह के नाम पर खुलेआम व्यापार हो रहा है। लडकों के मनचाहे दाम लगा रहे हैं... पचास हजार... साठ हजार...सार हजार... सुनते ही शिवप्रसाद को पसीने छूटने लगते हैं। कहाँ से करेंगे वह इंतजाम इतने रुपयों का। रिटायर होने में पाँच-छह वर्ष हैं। कुछ सालों में तीसरी लड़की भी विवाह योग्य हो जाएगी। कौन देना इतना कर्ज। हे ईश्वर... गरीब को इस जमाने में लड़की न दे।

इस बीच, बिट्टी माँ को चकमा देकर दो बार अपने प्रेमी से मिल चुकी है। इस पर कमरा बन्द करके उसकी हड्डियाँ सेंकी हैं– डंडे से। लेकिन, लड़की अब ढीठ होती जा रही है। मार का उस पर जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा है। कालेज जाना बन्द कर दिया गया है उसका। शिवप्रसाद के कहने पर पत्नी सारा दिन लड़की पर नज़र रखती है। वह क्या कर रही है, कहाँ देख रही है, क्या पढ़ रही है, पत्नी यह सब बड़े चौकस होकर देखती है। लड़की को भी माँ को तंग करने में मजा आ रहा था। अब वह जानबूझकर कभी इस कमरे में जाती तो कभी उस कमरे में। बाथरूम में घुसती तो घंटा-घंटा लगाकर बाहर निकलती। कभी घर से बाहर निकलकर खड़ी हो जाती और बेवजह ही मुस्कराने लगती। माँ भीतर ही भीतर तिलमिलाती रहती। बेटी की हरकतों से परेशान होती रहती और कलपती रहती। शिवप्रसाद दफ्तर जाने से पहले पत्नी को हिदायत देकर जाते और लौटकर दिनभर के किस्से पत्नी के मुँह से सुनकर परेशान और दुखी होते। इन दिनों उनका रक्तचाप भी बढ़ने लगा है। कल रात सोये-सोय उनकी आँखें खुलीं तो उन्होंने देखा, लड़की अपने बिस्तर पर नहीं है। वह उठे और पत्नी को जगाया। दोनों कमरे देखे, बाथरूम वैगरह देखा। लड़की कहीं नहीं थी। दोनों घबरा गए बुरी तरह। उन्हें अपनी इज्ज़त तार-तार होती नज़र आई। थोड़ी ही देर में लड़की पिछवाड़े से घर के अन्दर घुसी और चुपचाप अपने बिस्तर पर जाकर लेट गई। पति-पत्नी दोनों गुस्से में दांत पीसते रहे। लड़की को कुछ नहीं कहा उन्होंने। रात के समय शोर-शराबा करना उचित नहीं था। इसके बाद दोनों रात भर सो नहीं पाए। पूरी रात जागकर पहरा देते रहे।
शिवप्रसाद की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। हर समय वह खोये-खोये और परेशान से रहने लगे। दफ्तर में काम में मन न लगता। नतीजतन गलतियाँ होतीं और साहब से डांट-फटकार सुनते। घर लौटकर बात-बात पर पत्नी पर झुंझला पड़ते। कुछ भी खाने-पीने को जी न करता। भूख जाने कहाँ गायब होती जा रही थी उनकी। अव्वल तो उन्हें नींद ही नहीं आती, अगर आती भी तो बुरे-बुरे सपने आने लगते। सपने में कभी उन्हें दिखाई देता, उनकी बड़ी लड़की आग की लपटों से घिरी है और ‘बचाओ... बचाओ...’ चिल्ला रही है। वह सामने खड़े हैं और बेटी को बचा नहीं पा रहे हैं। कभी उन्हें दिखाई देता, वह जबरन बिट्टी की शादी कहीं और कर रहे हैं, बारात आने को है। सभी तैयारियाँ पूरी हो चुकी हैं... कि अचानक हाहाकार मच जाता है। उनकी बेटी पंखे से लटककर आत्महत्या कर लेती है। इस प्रकार के सपने देख वह घबराकर उठ जाते। उनका पूरा शरीर पसीने-पसीने हो जाता। फिर पूरी रात उन्हें नींद न आती। सांस तेज-तेज चलती रहती और वह उठ-उठकर पानी पीते रहते।

आज भी उनकी नींद आँखों से कोसों दूर है। उनकी सोच का पहिया तेज गति से घूम रहा है। क्या करें, क्या न करें की उधेड़बुन चल रही है उनके भीतर। वह देख रहे हैं कि लड़की बेशर्म होती जा रही है, दिन-ब-दिन। मोहल्ले में कानाफूसी शुरू हो गई है, उनकी बेटी को लेकर। जात-बिरादरी में लड़की की शादी करने की उनकी तमाम कोशिशें रेत की दीवारें साबित हो रही हैं। उनके बूते से बाहर है बिरादरी में शादी करना। अगर कर्जा पकड़कर कर भी दी तो क्या गारण्टी है कि बेटी सुखी रहेगी। तो क्या जात-बिरादरी से बाहर लड़की की शादी कर दें ?... उस नीच, गैर जात के लड़के से । लोग क्या कहेंगे ? नाक कट जाएगी बिरादरी में...सब थू–थू करेंगे। पर जात-बिरादरी में करने से भी तो क्या फायदा ?... बिरादरी में ही तो की थी बड़ी लड़की की शादी। इतना खर्च करके भी क्या मिला ?... सिवाय दुख और परेशानी के !
कहाँ चले जाते हैं सभी रिश्ते-नातेदार, जब लड़की को दहेज के लालच में तरह-तरह से परेशान किया जाता है, उसकी हत्या कर दी जाती है। या फिर आत्महत्या करने को विवश कर दिया जाता है। तब कहाँ होते हैं बिरादरी के लोग ? कौन साथ देता है तब आगे बढ़कर ? कौन लड़की के माँ-बाप के दुख को अपना दुख समझकर आवाज़ उठाता है ऐसे जुल्म के खिलाफ ? कोई नहीं समझाता भूखे भेडि़यों का जाकर... कोई नहीं करता उन्हें जात-बिरादरी से बाहर... कोई नहीं करता उन पर थू-थू... जाने कितनी ही देर तक उनके जेहन में सवालों के बवंडर उठते रहे।
उन्होंने उठकर समय देखा, रात्रि के बारह पच्चीस हो रहे थे। यानी दूसरा दिन शुरू हो गया था। उन्होंने उठकर पानी पिया और फिर बिस्तर पर आ गए। पत्नी भी जाग रही थी।
सहसा, शिवप्रसाद ने पूछा, “तुमने देखा है लक्ष्मी का लड़का ?...कैसा दीखता है वह ?”
पत्नी इस प्रश्न पर उनके चेहरे की ओर देखने लगी। वह हतप्रभ थी उनके प्रश्न पर।
“दिखने में अच्छा है,” पत्नी ने धीमी अवाज़ में कहा, “पर...”
“पर क्या ?”
“गैर जात...।”
“गैर जात का है तो क्या... लड़का अच्छा हो तो...” शिवप्रसाद को लगा, एकाएक उनका स्वर ऊँचा हो गया है, अनायास ही।
“गली-मोहल्ले वाले क्या कहेंगे ? नाक न कटेगी ?”
“और अगर लड़की लड़के के साथ भाग गई तो क्या बची रहेगी नाक ?”
“देख लो, बिरादरी में बड़ी थू-थू होगी।”
“होने दो। बिरादरीवाले थू-थू करते हैं तो करने दो। अब कौन-सा साथ दे रहे हैं। दहेज न जुटा पाऊँगा तो क्या बेटी कुंवारी बैठी रहेगी ? जात-बिरादरी में बड़ी लड़की की शादी करके नहीं देखा तुमने ?...” शिवप्रसाद बोले जा रहे थे।
पत्नी चुप रही। कुछ न बोली। पति कुछ गलत तो नहीं कह रहा। उसकी आँखों के आगे बड़ी लड़की का पीला-ज़र्द चेहरा घूम गया। भेडि़यों के हाथ ब्याह दी लड़की... अब कोई नाते-रिश्तेदार सामने नहीं आता। कोई नहीं समझाता उन्हें... जात-बिरादरी के लोगों को सांप सूंघ गया है जैसे... हे भगवान, मेरी लड़की की रक्षा करना। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी।
शिवप्रसाद पत्नी की चुप्पी को मौन-स्वीकृति समझ बोल उठे, “तो ठीक... कल चलेंगे दोनों, लक्ष्मी के घर... अब सो जा।” और उन्होंने उठकर बत्ती बुझाई और बिस्तर पर लेट सोने का उपक्रम करने लगे।
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( आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)” में संग्रहित )

रविवार, 8 जून 2008

कहानी-5

बूढ़ी आँखों का आकाश
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र


शरीर पर धूप पड़ने लगी तो वह उठ बैठे। दस नहीं बजते कि धूप आनी शुरू हो जाती है इधर। तब से लेकर शाम चार बजे तक इधर धूप का जोर रहता है। इस ओर कोई पेड़-पौधा भी नहीं था जिसकी छाया तले वह अपनी चारपाई खिसका लेते। कुछेक पल यूँ ही बैठे रहे वह। धूप जब तेज महसूस होने लगी तो वह उठ खड़े हुए। दरवाजा भीतर से बन्द था। खटखटाने को आगे बढ़े लेकिन तभी उनके कानों में एक आवाज़ गूंजने लगी, “आफ्फ ओ ! क्या मुसीबत है। कभी चैन से न बैठेगा, न बैठने देगा।”
“नहीं... नहीं... वह इस आवाज़ को सुबह-सुबह अपने कानों से दूर ही रखना चाहते हैं। तीखी और कड़वाहट भरी आवाज़, सारे शरीर को तेजाब-सा चीरती चली जाती है। वह जानते हैं, यहीं पर इतिश्री नहीं हो जाएगी। जाने कितनी ही देर तक उन्हें अपने गुस्से का केन्द्र बनाया जाता रहेगा और वह सिवाय चुपचाप सुनने के कुछ नहीं कर पाएंगे। आज तो छुट्टी का दिन है। बेटा भी घर पर ही है। आगे-पीछे बहू कुछ भी बड़बड़ाती रहे, उन्हें इतनी तकलीफ़ महसूस नहीं होती जितनी बेटे के सामने ज़लील होने में। बेटे का खामोश-सा देखते-सुनते रहना उन्हें भीतर तक आहत करता चला जाता है।
कुछेक पल सोचने के पश्चात् उन्होंने जैसे कुछ तय किया। अपनी झोल खाई चारपाई को जैसे-तैसे उठाया और दो-तीन क्वार्टरों को लांघकर वह ब्लॉक के पिछवाड़े आ गए। पिछवाड़े में पेड़-पौधे हैं। रसोई और शौचालय के पानी की निकासी चूंकि इस ओर ही है, अत: झाड़-झंखाड़ भी बहुत है।
अमरूद के पेड़ों के नीचे उन्होंने अपनी चारपाई डाली ही थी कि पट-पट से तीन-चार बच्चे पेड़ों पर से नीचे कूदे और भाग खड़े हुए। एक तो वह हाँफ रहे थे, दूजे यह सब इतनी तेजी से हुआ था कि एक क्षण को वह समझ ही नहीं पाए कि हुआ क्या है। चारपाई पर बैठ उन्होंने दूर नज़रें दौड़ाईं तो देखा, बच्चे गए नहीं थे। काफी दूरी बनाए खड़े थे। और उन्हीं की ओर आँखें गड़ाये थे। शायद, इस ताक में थे कि बुढ़ऊ सोये तो हम अपना काम फिर से करें।
उन्होंने वहीं बैठे-बैठे उन्हें घूरा और झिड़का। इस पर बच्चे खिल-खिलाकर हँस पड़े और मुँह बिराने लगे। साथ ही साथ, हाथों से अश्लील हरकतें भी करने लगे। उन्हें गुस्सा हो आया। मन हुआ कि उठें और दौड़ कर पकड़ लें ससुरों को। लगायें दो-चार झापड़... यही सब सिखलाया है माँ-बाप ने इन्हें !
लेकिन वह कुछ नहीं कर पाएंगे। जानते हैं, दौड़ना उनके वश में नहीं। लिहाजा, उधर से आँखें हटाकर वह बच्चों के माँ-बाप को कोसने लगे- “जाने कैसे माँ-बाप हैं !... भरी दोपहरी में खुद तो खिड़की-दरवाजे बन्द करके सो रहते हैं और बच्चों को छोड़ देते हैं बाहर। इधर-उधर हुड़दंग मचाने के लिए।”

हवा बन्द थी। पत्ता तक नहीं हिल रहा था। गरमी के कारण शरीर पसीने से नहा गया था। उन्होंने कमीज उतारी। उसे तहाकर सिरहाने रखा और बनियान में ही लेट गए। दिमाग में विचारों का जमघट लगा था जिसमें खीझ थी, गुस्सा था। यह भी कोई ज़िन्दगी है !... खाना-पीना तो अलग, अन्दर-बाहर बैठना-उठना भी बहू-बेटों पर निर्भर ! छह बाई छह के आड़-कबाड़ भरत छोटे-से कमरे में लेटो तो हर समय छत को घूरते रहो या दीवारों को। बाहर खुले में लेटना-बैठना हो तो चुपचाप सड़क पर आते-जाते इक्का-दुक्का लोगों को देखते रहो या फिर निगाहें ऊपर उठाकर जितना आकाश बूढ़ी पथराई आँखों में समा सके, निहारते रहो टकटकी लगाए! सुबह या संध्या समय घूमने-टहलने का मन हो तो बिजली के चार खम्भों से आगे बढ़ते ही टांगें जवाब दे जाएं। साँसें धौंकनी की तरह चलने लगें। और तो और, कहीं किसी से बैठकर पल दो-पल बतियाने का दिल करे तो लोग दूर से देखते ही कन्नी काट लें।

क्या चीज़ है बुढ़ापा भी! वह सोचते हैं। बेकार और फालतू चीज़ों-सा! निरर्थक। एक मुर्दा ज़िन्दगी ! घिसटते रहो चुपचाप। लाशनुमा देह को लिए हुए। इससे तो मौत अच्छी। कई बार मन में आया कि क्यों न अपना टेंटुआ ही दबा लें। बहुत कुछ देख-सह लिया। एक अन्तहीन व्यथा-वेदना का अन्त दिखाई भी देता है कहीं दूर तक... सिवाय मौत के। एकाएक, उनके हाथ हरकत में आ जाते हैं। कुछ ही पलों का खेल। इसके बाद सब शान्त। मुक्ति ! पर कमजोर हाथ तुरन्त ही लटक जाते हैं नीचे। बेजान से। वह शक्तिहीन हाथों को क्षणभर कोसते हैं। पर जल्द ही सोचते हैं– इसमें कमजोर हाथों का क्या दोष !... जितनी तीव्र इच्छा मरने की हमारे भीतर होती है, शायद उससे कहीं अधिक जीने की भी दबी-छिपी रहती है अन्दर। इतना सहज नहीं है यह, जितना वह समझे बैठे हैं।
एकाएक, परसों रात की घटना स्मरण हो आती है उन्हें। छुटके यानी राकेश के कुछेक दोस्त आये हुए हैं शाम के खाने पर। आधी रात होने को है और अभी तक पीना-पिलाना चल रहा है। वह बाहर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं कि ये लोग उठें तो वह भी खायें-पियें और सोयें। सहसा, उन्हें राकेश की आवाज़ सुनाई देती है। भीतर बुला रहा है वह। शायद, उनसे खाना खा लेने को कहेगा, वह सोचते हैं। वह उठकर भीतर चले जाते हैं। नशे की झोंक में सारे आत्मीय संबोधनों को ताक पर रखकर राकेश उन्हें भीतर आया देख बोल रहा है, “बाबू दीनदयाल ! कहाँ हो तुम !... अन्दर आकर काम में हाथ क्यों नहीं बंटाते, रमा का। बाहर बैठकर क्या उसी बुढि़या से आश्की चल रही है ?” वह अवाक् रह जाते हैं यह सुनकर। कोई बेहद नुकीली चीज जैसे तेजी से उनकी छाती में घुसती चली जाती है। यह उन्हीं का बेटा, उन्हीं का खून बोल रहा है! क्षंणाश तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि यह उनका बेटा बोल रहा है। और, एकाएक उन्हें लगा, वह समझ नहीं पा रहे हैं, क्या करें, क्या न करें। शराब की गन्ध भीगा ठहाका सारे कमरे में फैल जाता है तभी।
प्याज और टमाटर की सलाद बनाते हुए उनके कानों में ये वाक्य जबरन ही घुसते चले जाते हैं– “अजी साब, अच्छे नौकर कहाँ मिलते हैं आज के जमाने में ! सब साले हरामखोर... मुफ़्त की उड़ाने को तैयार...।”
मन होता है कि पूरी ताकत से चीख पड़ें। बता दें कि मैं तेरा नौकर नहीं, बाप हूँ। जिसने तुझे कभी इन बाजुओं में उठाकर खिलाया था। तेरा हगा-मूता इन्हीं हाथों से साफ किया था। जब बीमार होता था, रात-रातभर जागकर तेरे पास बैठा रहता था। अपना पेट काटकर तुझे पढ़ाता रहा। क्या इसीलिए कि तू अपने दोस्तों-यारों के सामने अपने ही बाप को बेइज्ज़त करे, नंगा करे !
पर वह भीतर तक उबल कर रह जाते हैं। कुछ नहीं कह पाते। जुबान ऐंठ गई लगती है। हाथ-पैर सुन्न हो गए हो जैसे ! और इन्हीं द्वंदमयी क्षणों में काँपते हाथों से चीनी-मिट्टी की प्लेट फर्श पर गिरकर चकनाचूर हो जाती है।
“कर दिया न सत्यानाश ! ज़रा-सा काम कहा था। वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो बैठो बाहर...।” बहू के तीर सरीखे शब्द जिस्म को बेंधते हुए आर-पार निकल जाते हैं। वह उठकर चुपचाप बाहर आ जाते हैं। पीड़ा के अतिरेक से आँखें पनीली हो जाती हैं और होंठ काँपने–से लगते हैं। मन में आता है, छोड़ दें यह माया-मोह। चले जाएं कहीं। क्या यही सब देखने-सुनने के लिए ही अपना सबकुछ लुटाया इनको ! गाँव छोड़ा, खेत-मकान बेच बेटों को शहरों में जमाया और...
रातभर उनकी छाती पर जैसे रह-रहकर मुक्के मारता रहा और वह दर्द से कराहते रहे– बेआवाज़ !

हरदेई ! इस नाम के जे़हन में आते ही धंसी आँखें और पिचके गालों वाला झुर्रियों से भरा एक चेहरा आँखों के आगे आ खड़ा होता है। उफ्फ ! कितने गन्दे और ओछे विचार लिए बैठे हैं सब। उनको और हरदेई को लेकर। सोचते ही, मन कड़वाहट से भर जाता है।
पास ही एक मुहल्ले में रहती है बेचारी। उन्हीं की तरह बहू-बेटों से तंग-परेशान। पूरा-पूरा दिन दड़बेनुमा कोठरी में पड़ी खुले आकाश को तरसती– हरदेई। मुक्ति की चाह लिए मौत के दिन गिनती– हरदेई। शाम होते ही वह अपनी कोठरी से निकल पार्क में आ बैठती है एक कोने में। जहाँ निस्तब्ध एकान्त होता है और सिर पर खुला आसमान। जहाँ बैठकर उसे नहीं लगता कि दीवारें उसका दम घोंट देंगी या छत किसी भी समय भरभराकर उसकी छाती पर आ गिरेगी। कोठरी, जहाँ अखबार और किताबों की रद्दी का ढेर है। खाली टिन और डिब्बे हैं। बेकार हुई साइकिल के हिस्से हैं। और इन्हीं के बीच उसकी छोटी-सी चारपाई है जिस पर टांगें भी सीधी नहीं हो पातीं। और जहाँ से एक टुकड़ा आकाश भी नहीं दीखता। जहाँ चूहों की खटर-पटर नींद उचाट देती है और मरे हुए चूहे जैसी बास चौबीस घंटे हवा में तैरती रहती है।
कहने को हरदेई के चार बेटे हैं। सभी अपने-अपने काम-धंधों में लगे हुए। किसी बात की कमी नहीं है उन्हें। रब की दया से सब कुछ है उनके पास। पर माँ को रखने के लिए कोई मन से राजी नहीं। सभी उसकी मौत का इंतज़ार कर रहे हैं बस।
यही हरदेई रोज शाम उनका इंतज़ार करने लगी। रोज शाम पॉर्क की खुली हवा में बैठकर दोनों अपने-अपने जीवन के बीते हुए क्षणों को घड़ी, दो घड़ी के लिए ताजा कर लेते। इनमें कभी सुखद दिनों की यादें होतीं तो कभी दुख और दर्द भरे लम्हों का जिक्र होता। प्राय: ये बैठकें इतनी लम्बी खिंच जातीं कि उन्हें समय का ध्यान ही नहीं रहता। बच्चे खेलकर जा चुके होते और सर्वत्र अन्धेरा और सन्नाटा छा चुका होता।
बहुत जल्द ही उनकी ये बैठकें गली-मुहल्ले में चर्चा का विषय बन गईं। बहू-बेटे को जैसे ही यह बात मालूम हुई, दोनों ने मिलकर उन्हें आड़े हाथों लिया।
“इस उम्र में यह क्या रोग लग गया आपको ?”
“रात देर-देर तक अंधेरे में बैठकर बतियाना तुम लोगों को शोभा देता है ?”
“बुढ़ापे में जवानी चढ़ी है। मुहल्ले भर में किस्से उड़ रहे हैं। अपनी उम्र और सफेद बालों का तो ख़याल करो।”
“उम्र माला जपने की है और चले हैं ये...।”
और न जाने क्या-क्या सुनते-झेलते रहे वह चुपचाप। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि दो वृद्ध व्यक्ति बैठकर आपस में अपना दुख-दर्द कह-सुन लेते हैं तो इसमें कौन-सी बुराई है। क्यों लोग हर बात को गलत और गन्दे ढंग से लेते हैं ?
और उस दिन के बाद से उन्होंने पॉर्क में जाना ही बन्द कर दिया।

एकाएक, उन्हें लगा कि उनका गला सूख गया है। प्यास लगी है। मन हुआ, उठकर पानी पी लें। पर, नहीं उठे। काफी देर तक इधर-उधर की सोचते हए प्यास को नकारते-झुठलाते रहे। और जब नहीं रहा गया तो सोचा, उठ ही लिया जाए। और उठ खड़े हुए। दरवाजे तक पहुँचे, खटखटाने को हाथ बढ़ाया, पर एकाएक रुक गए। पलभर यूँ ही खड़े रहे। सोचते रहे। और फिर चारपाई पर आकर लेट गए। लेकिन अधिक देर नहीं लेटा गया। एक निर्णय-सा लेते हुए फिर उठ बैठे। दरवाजा खटखटाया और प्रतीक्षा करने लगे। प्रतीक्षा लम्बी होने लगी तो फिर धीमे से खटखटाया। कोई असर नहीं हो रहा था। असमंजस की स्थिति में थे कि क्या करें। तभी एक झटके से दरवाजा खुला।
“क्या है ?” ऐसे लगा जैसे गोली दगी हो।
उन्हें कुछ नहीं सूझा। चुप रहें या कुछ कहें। कुछेक क्षण चुपचाप खड़े रहे दोनों। आमने-सामने। उनकी आँखें खुद-ब-खुद झुक-सी गईं। लगा जैसे कोई जु़र्म हो गया हो।
बेटा सामने से हटकर भीतर चला गया– भन्नाता हुआ। वह चुपचाप रसोई में गए और पानी लेकर पीने लगे।
दो बेटे हैं उनके। बड़का मोहन पढ़-लिखकर व्यापार में लग गया। अब बम्बई में है। बहू-बच्चों के संग। छुटका राकेश सरकारी नौकरी में है– हैड क्लर्क। बेटों की खातिर उन्होंने क्या कुछ नहीं किया। खेत बेच दिए। खुद तंगी में रहकर हर प्रकार की सुख-सुविधा बेटों को प्रदान की। उन्हें शहर भेजा, पढ़ने के लिए। फिर शादी की। और एक दिन इन्हीं बेटों के कहने पर बाकी की ज़मीन भी बेच दी। बाद में मकान भी। बड़के को व्यापार में पैर जमाने के लिए पैसों की ज़रूरत थी और छुटके को डवलपमेंट अथॉरिटी से मिले मकान का पैसा जमा करना था। बड़के ने कहा, “बापू, कहाँ गांव में अकेले रहोगे ? शहर आकर हमारे पास आराम से रहो और खाओ-पिओ।” छुटके ने कहा, “हमारे रहते अब तुम्हें खेती-वेती करने की क्या ज़रूरत है बापू... बहुत कर ली मेहनत। अब छोड़ो और चलकर मेरे साथ रहो शहर में...।”
उस क्षण उनकी आँखें खुशी से छलछला आयी थीं। छाती फूल गई थी गर्व से। कितना चाहते हैं उनके बच्चे ! भगवान ऐसे बेटे सभी को दे !
लेकिन, कुछ ही दिनों बाद हकीकत सामने थी। वह बाजी हार चुके थे। जब तक हाथ-गोड़ चलते थे, एक नौकर की कमी पूरी होती थी। अब उनसे होता नहीं तो खीझे रहते हैं बहू-बेटा।

उन्हें याद आते हैं वे दिन जब उनकी पत्नी मौत से जूझ रही थी। कितनी बीमार हो गई थी। हड्डियों का ढाँचा नज़र आती थी। दवा-दारू का कुछ भी असर नहीं हो रहा था उस पर। जी रही थी तो बस, इस आस पर कि उसका बड़ा बेटा बम्बई जैसे शहर में रहता है। जहाँ एक से बढ़कर एक बढ़िया अस्पताल है। माँ की बीमारी की चिट्ठी पाते ही दौड़ा चला आएगा वह। चिट्ठी पर चिट्ठी लिखवाती रही। पर उसे न आना था, न आया। और छुटका भी उसे लेकर नहीं गया। बस, कस्बे के डाक्टर से दवा आती रही।
एक रात अचानक हालत बिगड़ गई थी उसकी। वह सारी रात पत्नी के सिरहाने ही बैठे रहे। टट्टी-पेशाब भी वही कराते रहे। रात का तीसरा पहर रहा होगा जब पत्नी ने उनसे कहा, “सुनो, मेरे एक-दो जेवर पड़े हैं। उन्हें बेच दो और मुझे शहर के किसी अच्छे डाक्टर को दिखलाओ... शायद दो-चार दिन और सांस ले सकूँ...”
“जब तुम्हें लगता है कि तुम अब बचोगी नहीं तो... तो फिर कुछ दिन और किल्लतभरी ज़िन्दगी जीने का यह मोह क्यों, पारवती ?” वह रुआंसे से हो आए थे।
“मुझे जीने का मोह नहीं है जी... बस, एकबार बड़का...” आगे के शब्द गले में ही कहीं अटककर रह गए थे। बोलते-बोलते रुलाई फूट पड़ी थी। तकिये में मुँह छिपा लिया था उसने। कैसो-कैसा हो गया था उनका मन, पत्नी की यह हालत देखकर। उस समय उन्हें लगा था, औलाद चाहे कैसी भी हो, माँ अपनी ममता को मार नहीं सकती। पारवती के भीतर भी जैसे इन अन्तिम क्षणों में अपने पेट जाये बेटे को एक नज़र देख लेने की इच्छा ठांठें मार रही थीं। शायद आ ही जाए, किसी न किसी बहाने। अपनी माँ से मिलने। पर वह नहीं आया और पारवती अधिक दिन उसका इंतज़ार नहीं कर सकी।
यह सब सोचते हुए उनकी आँखें डबडबा आईं। उन्होंने अपनी आँखें पोंछी और अपना ध्यान इन सब बातों से जबरन हटाने की कोशिश करने लगे। पर ऐसा नहीं कर पाए वह।

शाम के छह बजे का वक्त हो रहा होगा शायद।
हवा न चलने के कारण बेहद घुटन-सी महसूस हो रही थी। एकाएक, उन्हें याद आया कि बहुत दिनों से पॉर्क नहीं गए वे। सोचा, घर में ताला लगाकर टहल आएं पॉर्क तक। हरदेई से भी शायद भेंट हो जाए। बहुत दिनों से उसे देखा नहीं। अच्छा अवसर है। बहू-बेटा कस्बे वाले शर्मा जी के घर गए हैं। टी.वी. पर फिल्म देखकर ही लौटेंगे अब। उनके लौटने से पहले ही लौट आएंगे। हर वक्त चारपाई पर पड़े रहना भी ठीक नहीं। यही सब सोच वह उठे और घर में ताला लगा, पॉर्क की ओर चल दिए।

हरदेई अपनी निश्चित जगह पर बैठी थी। गुमसुम सी। वह चुपचाप उसकी बगल में बैठ गए। उनके आने और बैठने का अहसास हरदेई को नहीं हुआ। जाने कहाँ खाई हुई थी वह। लगता था जैसे पत्थर की मूर्ति हो...।
“हरदेई...” बहुत धीमे स्वर में उन्होंने पुकारा।
पर हरदेई तो जैसे वहाँ थी ही नहीं। कोई हरकत न होने पर वह उसके और करीब खिसक आए और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, “हरदेई, कहाँ गुम हो ?”
“हूँ...” हरदेई जैसे सोते से जागी हो।
“इतने दिन कहाँ रहे ?” स्वर में उलाहना था।
“कहीं नहीं, घर पर ही रहा। टांगों में अब जोर नहीं रहा है न। चला नहीं जाता। सांसें फूलने लगती हैं, दो कदम चलते ही।” उन्होंने सफाई दी।
हरदेई फिर चुप हो गई। आगे कुछ नहीं बोली।
“हरदेई, तुम आज चुप क्यों हो ?... कुछ बोलोगी नहीं ?... आज अपना दुख-दर्द नहीं सुनाओगी ?” उनका स्वर काफी मुलायम था।
लेकिन हरदेई चुप थी। काफी देर तक चुप्पी तनी रही। मजबूरन वह भी चुप्पी लगा गए।
“सुनो...” हरदेई ने चुप्पी तोड़ी।
हरदेई के इस एक शब्द से उनके कानों में जैसे सितार बज उठे हों। कितना अपना-सा, आत्मीय-सा सम्बोधन ! बरसों हो गए सुने। पत्नी भी ऐसे ही बुलाती थी। मरते दम तक कभी नाम नहीं लिया था उसने। बहुत दिनों बाद हरदेई का सामीप्य उन्हें अच्छा लग रहा था। वह हरदेई के और करीब होते हुए बोले, “कहो।”
“सोचती हूँ, हरिद्वार चली जाऊँ। वहीं कहीं ज़िन्दगी के शेष दिन काट दूँ। गंगा के किनारे... यहाँ की हर समय की घुटन से तो मुक्ति मिलेगी। गंगा मैया का किनारा होगा और सिर पर एक खुला आकाश !”
“पर जाओगी कैसे ?” कुछेक क्षणों की चुप्पी के अन्तराल के बाद उन्होंने प्रश्न किया। पूछते वक्त उन्हें लगा, जैसे आवाज़ उनका साथ नहीं दे रही है।
“कल पंजाबी मोहल्ले के मंदिर से सत्संग वालों की एक बस हरिद्वार जा रही है। सोचती हूँ, उन्हीं के साथ चली जाऊँ।”
उन्होंने हरदेई की ओर देखा। कुछेक पल वह हरदेई के चेहरे को अपनी बूढ़ी आँखों से पढ़ने की कोशिश करते रहे। मुक्ति की चाह के अतिरिक्त वहाँ उन्हें कुछ नज़र नहीं आया।
“सुनो, तुम भी चलो न।”
सोचते रहे, इस आग्रह का क्या जवाब दें।
“लौटोगी नहीं फिर ?”
“नहीं...”
फिर दोनों की बीच चुप्पी आकर खड़ी हो गई। कोई नहीं बोला एक पल को। बस, दोनों सामने धीमे-धीमे गहराते जाते अंधेरे की ओर ताकते रहे।
“चलोगे ?”
“...”
“तुम साथ होगे तो...” आवाज़ गले में फंस कर रह गई। आँखों से पानी बहने लगा। उनका भी जी भारी हो आया। हिम्मत नहीं हुई कि हाथ बढ़ाकर हरदेई की आँखों के आँसू पोंछ दें।
अंधेरा गहराने लगा था। बच्चे भी पॉर्क से खेल-कूदकर अपने-अपने घरों को लौट चुके थे। सहसा, उन्हें घर का ख़याल हो आया और वह व्याकुल हो उठे। कहीं बहू-बेटा लौट न आए हों और घर पर ताला लगा हुआ पाकर उन्हें खोजते हुए इधर ही न आ जाएं। वह उठकर चलने लगे कि तभी हरदेई की आवाज़ ने उनके कदम रोक दिए।
“तुम... तुम नहीं चलोगे। सोच रहे होगे कि लोग...”
समझ नहीं पाए, क्या बोलें। क्या उत्तर दें हरदेई को। चुपचाप हरदेई के सम्मुख खड़े रहे कुछ पल। पर अधिक देर नहीं खड़ा रह पाए वह। बिना कुछ बोले-कहे, घर की ओर चल दिए। कुछ कदम चलकर उन्होंने मुड़कर देखा, हरदेई अभी भी वहीं बैठी थी। स्थिर... अडोल !

रातभर उन्हें नींद नहीं आई। करवटें बदलते रहे। गरमी और उमस से हाल बेहाल तो रोज ही रहा करता है। लेकिन आज... आज तो भीतर, कहीं भीतर एक युद्ध-सा चल रहा था उनके। बेचैनी उमड़-उमड़ पड़ रही थी। हरदेई के शब्द रह-रहकर उनके कानों में गूंज उठते थे। क्या हरदेई की ही तरह वह भी नहीं चाहते रहे हैं, इस कैद से मुक्ति ! उपेक्षा और तिरस्कार भरी ज़िन्दगी से छुटकारा ! बाहर-भीतर की घुटन से बचना ! एक खुले आकाश की चाह अपनी बूढ़ी आँखों में छुपाये हुए !
जाने कितनी रात गए तक वह लड़ते-जूझते रहे, भीतर ही भीतर।

समय हो गया था।
मंदिर पर भीड़ इकट्ठा होनी शुरू हो गई थी। बस अभी नहीं आई थी। सब बस का इंतज़ार कर रहे थे। और वह भीड़ से थोड़ा हटकर हरदेई की राह देख रहे थे। ‘हरदेई अभी तक क्यों नहीं आई ? उसे तो उनसे पहले पहुँच जाना चाहिए था यहाँ...’ वह सोच रहे थे कि एकाएक उनके बूढ़े कानों ने सुना– “रामधन की माँ नहीं रही।”
“कौन ? दो ब्लॉक वाली हरदेई ?”
“हाँ वही।” किसी ने बताया, आज सुबह चार बजे बेचारी चल बसी।
हरदेई को लेकर भीड़ में आवाज़ें बढ़ने लगी थीं कि तभी बस आ गई। लोगों में बस में चढ़ने की उतावली थी। देखते ही देखते बस भर गई। चढ़े हुए लोगों ने “गंगा मैया की जय” बोली और बस धूल उड़ाती हुई आगे बढ़ गई।
उन्होंने वहीं खड़े-खड़े एक नज़र जाती हुई बस की ओर देखा और फिर ऊपर आकाश की ओर। आकाश जो उनसे बहुत दूर था!

( आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रहदैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)में संग्रहित)