शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

कहानी-11



इतने बुरे दिन
सुभाष नीरव

इतने बुरे दिन ! गरीबी, बदहाली और फ़ाक़ाकशी के दिन ! औलाद के होते हुए भी बेऔलाद-सा होकर जीने को अभिशप्त ! बुढ़ापे में ऐसी दुर्गत होगी, ऐसे बुरे दिन देखने को मिलेंगे, उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
पिछले दो दिन से घर में खाने को कुछ नहीं था सिवाय ब्रेड के। दो दिन से बूढ़ा-बूढ़ी इसी से गुजारा कर रहे थे। कल रात जब ब्रेड के चार पीस बूढ़े ने बचाकर रखे थे तो उसके सामने यह प्रश्न फन फैलाकर खड़ा हो गया था- “इनके खत्म होते ही क्या होगा?” रातभर वह इसी प्रश्न से जूझता रहा था। लाला ने उधार देने से साफ इन्कार कर दिया था। पिछले कई दिनों से बूढ़ा काम की तलाश में मारा-मारा घूम रहा था, पर चाह कर भी चार पैसे कमाने का हीला नहीं ढूँढ़ पाया था। जब इस देश में नौजवान रोजगार के लिए मारे-मारे घूम रहे हों तो भला बूढ़ों को कौन पूछेगा !
अपनी इसी लाचारी और भुखमरी से तंग और परेशान होकर कल रात बूढ़े ने एक फैसला लिया था- घिनौना और कटु फैसला ! उसकी आत्मा इस फैसले से खुश नहीं थी। लेकिन वह क्या करता ? सब रास्ते बन्द पाकर एक यही रास्ता उसने खोज निकाला था जो उसे मुक्ति का द्वार प्रतीत होता था। अपने इस फैसले को उसने पत्नी से छुपा कर रखा।
सुबह दो पीस पानी में भिगोकर बूढ़े ने अपनी बूढ़ी पत्नी जो हर समय बिस्तर पर पड़ी रहती थी, को स्वयं अपने हाथों से खिलाए थे और शेष बचे दो पीस उसने शाम के लिए संभालकर रख दिए थे, ऐसी जगह जहाँ वे चूहों के आक्रमण से बचे रह सकें।
बूढ़ी की आँखें मुंदी थीं, शायद वह सो रही थी। बूढ़े ने स्वयं को घर से बाहर निकलने के लिए तैयार किया। उसने पानी का जग और गिलास बूढ़ी के सिरहाने रखा, पाँव में हवाई चप्पल पहनी और सोटी उठा, दरवाजे को हल्का-सा भिड़ा कर घर से बाहर हो गया।
बूढ़े ने जो सोच रखा था, उसे वह अपने इलाके में नहीं करना चाहता था। वहाँ अधिकांश लोग उसे जानते थे। परिचित लोगों के बीच वह ऐसा कैसे कर सकता है ?... उससे होगा भी नहीं। अपनी सोच को अंजाम देने के लिए उसने दूसरा इलाका चुना। इसके लिए उसे काफी चलना पड़ा था, जिसके कारण पैरों में दर्द होने लगा था और सांसें फूलने लगी थीं। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और चलता रहा। ‘चलना’ शब्द शायद उपयुक्त नहीं है, वह चल नहीं घिसट रहा था- सोटी के सहारे। बांयें पैर की चप्पल तकलीफ दे रही थी। उसमें पैर ठीक से फंसता नहीं था। ‘लेकिन, बार-बार रबड़ के निकल जाने से तो ठीक है’ बूढ़े ने मन ही मन सोचा। दरअसल, पुरानी और घिसी होने के कारण बांयें पैरे की चप्पल का अगला छेद चौड़ा हो गया था। दो कदम चलने पर ही रबड़ निकल जाती थी। कल ही उसने इसे अपने ढंग से ठीक किया था। उसने कहीं से पतली-लम्बी कील ढूँढ़ निकाली थी। कील को बार-बार निकलने वाले रबड़ के सिरे के आर-पार निकालकर इस प्रकार फिट किया कि रबड़ का निकलना बन्द हो जाए। अपने इस काम में वह सफल भी रहा था। रबड़ अब निकलती न थी किंतु चप्पल में पैर फंसाने में थोड़ा दिक्कत होती थी।
अब वह जहाँ खड़ा था, वह एक व्यस्त चौराहा था। सड़क पर वाहन तेज गति से दौड़ रहे थे। सड़क पार करते इधर-से-उधर, उधर-से-इधर भागते लोगों की भीड़ थी। वह चौराहे के एक कोने में सड़क के नज़दीक खड़ा हो गया। उसे यहीं पर अपने लिए गए फैसले को अंजाम देना सुविधाजनक प्रतीत हुआ। उसने अपना ढीला चश्मा जो बार-बार नीचे सरक आता था, ठीक किया और सड़क पर देखा। वाहन मोड़ पर और तेज गति पकड़ लेते थे। उसने खुद का तैयार किया, सोटी को कसकर पकड़ा और आगे बढ़ा कि तभी... उसके हाथ-पैर कांपने लगे। ‘नहीं-नहीं, उससे नहीं होगा यह सब... वह ऐसा नहीं कर सकता...’ उसकी हिम्मत जवाब दे गई। वह पीछे हटकर खड़ा हो गया। उसके हृदय की धड़कनें बढ़ गई थीं। वह हाँफ रहा था।
खड़ा-खड़ा वह स्वयं पर खीझता रहा। वह जो सोचकर घर से निकला था, वह उससे क्यूँ नहीं हो पाया। भूखों मरने से तो अच्छा है, वह अपने सोचे हुए काम को अंजाम दे। वह भी ... लेकिन, सचमुच उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी। ऐसा काम उसने ज़िंदगी में कभी नहीं किया था। करना तो दूर, इस बारे में सोचा तक नहीं था। कभी नौबत ही नहीं आई थी। जीवन के आखिरी पड़ाव पर ऐसा करना शायद किस्मत में लिखा था।
सामान्य होने में बूढ़े को कुछ समय लगा। उसने चेहरे पर कई दिनों से बढ़ी खुरदरी दाढ़ी पर हाथ फेरा, इधर-उधर देखा और बुदबुदाया, ‘नहीं, यह जगह ठीक नहीं है।’
वह फिर घिसटने लगा था। तेज धूप और गरमी में वह पसीना-पसीना हो उठा था, हलक सूख गया था और प्यास तेज हो उठी थी। प्यास ही क्यूँ, भूख भी सिर उठा रही थी। भूख को तो जैसे-तैसे वह मारता आ रहा था लेकिन, प्यास को रोक पाना संभव न होता था। पानी ही तो था जिससे भूख और प्यास दोनों को ही शान्त करने की लड़ाई वह गत दो दिनों से लड़ रहा था।
उसने इधर-उधर नल की तलाश में दृष्टि घुमाई। कहीं आस-पास नल नहीं दिखाई दिया। सड़क के पार पानी की रेहड़ीवाला खड़ा था लेकिन उसे देखकर भी बूढ़े ने अनदेखा कर दिया।
हाँफता-घिसटता हुआ वह अब स्थानीय बस-अड्डे पर आ पहुँचा था, जहाँ बहुत भीड़ थी। जाने कहाँ से लोग आ रहे थे, जाने कहाँ को जा रहे थे। रेलमपेल मचा था। लोग बसों से उतर रहे थे, लोग बसों में चढ़ रहे थे। यहाँ-वहाँ सामान-असबाब के साथ खड़े या बैठे थे।
एकाएक, बूढ़े ने सोचा, वह अपना सोचा हुआ काम चलती बस में भी तो कर सकता है। चलती बस में से...। उसने देखा, बाहर जाने वाले गेट पर कई बसें चलने को तैयार खड़ी थीं, सवारियों से ठसाठस भरीं। कई लोग खिड़की पर भी लटके हुए थे। वह धीमे-धीमे कदमों से उधर बढ़ा और सबसे अगली बस की खिड़की के पास जा खड़ा हुआ। बस चलने ही वाली थी। उसने अपने आप को तैयार किया। एक पल ठिठका, फिर सोटी पकड़े-पकड़े बस का डंडा पकड़ने का यत्न करने लगा। तभी सवारियों ने चिल्लाना शुरू कर दिया-
“अरे ओ बूढ़े ! कहाँ जाना है ?”
“इसमें बहुत भीड़ है, तू न चढ़ पाएगा... मरेगा गिरकर।”
“दूसरी बस में आ जा...।”
उसी समय कंडक्टर ने व्हिसिल दे दी और बस एक झटके से चल पड़ी। वह गिरते-गिरते बचा।
प्यास फिर सिर उठाने लगी थी। उसने नल की तलाश में इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। जल्दी ही उसे म्युनिसिपैल्टि का नल नज़र आ गया। शुअक्र था, उसमें पानी आ रहा था। बेशक धीमे-धीमे। वह देर तक नल से चिपका रहा।
पानी पी कर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा जो उसे ये दिन दिखा रही थी। बैठे-बैठे उसे अपने बेटों की याद हो आई जो अपने बीवी-बच्चों के संग दूसरे शहर में रहते थे, जिन्हें बूढ़े माँ-बाप की तनिक भी चिन्ता न थी। पिछले सात-आठ महीनों में एक बार भी झांक कर नहीं देखा था कि बूढ़ा-बूढ़ी जिंदा भी हैं या नहीं। पिछले माह पत्नी के अधिक बीमार हो जाने व दवा-दारू के लिए पैसे न होने पर, वह गया था बेटों के पास। किंतु, अपमानित होकर लौटना पड़ा था और लौटकर उसने कसम खाई थी कि जब तक सांस हैं, वह बेटों के आगे गिड़गिड़ाएगा नहीं। बेटों की याद आते ही उसके होंठ वितृष्णा में फैल जाया करते हैं। सहसा, बूढ़े का ध्यान बगल वाले पेड़ की ओर गया, जहाँ एक बूढ़ा और एक बूढ़ी बैठे थे। दोनों भीख मांग रहे थे। जब भी कोई उनके सामने से गुजरता, वे अपना-अपना कासा खनखनाने लगते। बूढ़े ने गौर किया, पूरे बस-अड्डे पर अनेक भिखारी थे। जवान, बूढ़े और बच्चे ! उनमें कई लंगड़े, लूले और अंधे थे या फिर वे लंगड़ा, लूला और अंधा होने का अभिनय कर रहे थे।
थके-टूटे पैरों को घसीटते हुए बूढ़े ने बस-अड्डे का एक चक्कर लगाया। फिर वह गेट के पास खड़ा हो गया।
दोपहर हो चुकी थी और वह अभी तक अपने लिए गए फैसले के अनुसार कुछ भी न कर पाया था। तभी, उसने अंतड़ियों में ऐंठन महसूस की। वह बुदबुदाया, ‘ऐसे कब तक चलेगा। कुछ हिम्मत तो करनी ही होगी।’ और अपने फैसले को अमली जामा पहनाने की कोशिश में वह अड्डे के अंदर तेजी से प्रवेश करती एक बस की ओर बढ़ा। बस उसके बिल्कुल करीब आकर रुकी। उतरने और चढ़ने को उतावली हुई सवारियों की धक्का-मुक्की में वह ओंधे मुँह गिर पड़ा। सोटी हाथ से छूट गई और चश्मा एक ओर जा गिरा। किसी ने उसे उठाकर खड़ा किया और साथ ही, चश्मा और सोटी भी उठाकर दी।
चश्मा टूटने से बच गया था। वह उसे आँखों पर बिठाते हुए सोटी थामे एक ओर जा खड़ा हुआ। गिरने से उसकी कुहनियाँ छिल गई थीं और दर्द कर रही थीं।
कुछ ही दूरी पर रेलवे स्टेशन था। भूख-प्यास से व्याकुल और थके-टूटे शरीर को घसीटता हुआ वह रेलवे स्टेशन तक ले आया था। कोई गाड़ी आकर लगी थी। रिक्शावाले सवारियों की ओर लपक रहे थे। प्लेटफार्म पर जाने वाले पुल पर भीड़ थी। वहाँ कई भिखारी कतार में बैठे भीख माँग रहे थे और ‘हे बाबू... रे बेटा... हे माई... तेरे बच्चे जिएं... भगवान तेरा भला करे...’ की गुहार लगा रहे थे।
पुल पर चढ़ना बूढ़े के वश की बात नहीं थी। वह नीचे ही खड़ा-खड़ा आते-जाते लोगों की भीड़ को देखता रहा। जहाँ वह खड़ा था, वहाँ से एक रास्ता पटरियों की ओर जाता था। कई लोग वहीं से होकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ रहे थे। वह भी उसी रास्ते से होता हुआ पटरियों को पार करके प्लेटफार्म पर चढ़ गया। ट्रेन अभी भी खड़ी थी। वह इंजन के पास जाकर खड़ा हो गया और जहाँ तक उसकी दृष्टि जाती थी, उसने रेल के डिब्बों पर नज़र दौड़ाई, खिड़कियों से झांकती सवारियों और प्लेटफार्म पर खड़े लोगों को देखा।
बूढ़े को यह जगह उपयुक्त लग रही थी। धीरे-धीरे वह अपने अंदर हिम्मत बटोरने लगा। इस बार उसके हाथ-पैर नहीं कांपे। उसे लगा, वह अपने भीतर पर्याप्त ताकत बटोर चुका है। अब उसे आगे बढ़कर... तभी, एक तेज सीटी की आवाज के साथ इंजन ने खिसकना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे रेल गति पकड़ती गई और एक के बाद एक डिब्बा उसके आगे से गुजरता चला गया। वह कुछ न कर पाया। जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रह गया मानो उसके पैर धरती से चिपक गए हों। प्लेटफार्म पर अब इक्का-दुक्का लोग रह गए थे। वह फिर असफल रहा था। घोर निराशा और हताशा के चिह्न उसके चेहरे पर स्पष्ट देखे जा सकते थे।
शाम होने को थी। उसे बूढ़ी बीमार पत्नी का ख्याल हो आया। मायूस-सा वह घर की ओर लौट पड़ा। दिनभर चलने और खड़ा रहने के कारण उसके पैर सूज गए थे और टांगें दुखने लगी थीं।
जैसे ही वह घर में घुसा, एक चूहा तेजी से बाहर की ओर भागा। उसे यूँ बाहर भागते देख बूढ़ा बुदबुदाया, ‘तुम भी घर छोड़कर भाग रहे हो ?... जाओ, यहाँ है ही क्या जो तुम रहना पसंद करोगे।’ सहसा, उसे छिपाकर रखी ब्रेड का ख्याल हो आया- ‘कहीं इसने...’। बूढ़े ने लपक कर वहाँ हाथ मारा, जहाँ उसने ब्रेड के दो सूखे पीस छुपा कर रखे थे। पीस अपनी जगह सही-सलामत थे। बूढ़े ने राहत की सांस ली।
तभी, बूढ़ी ने उसकी ओर देखा। वह फुसफुसाई, “कहाँ चले गए थे?... मेरा दम निकलने को है, कुछ खाने को दो...।”
बूढ़ा बचे हुए ब्रेड के पीस भिगोकर बूढ़ी के मुँह में डालने लगा, “ले, बस यही हैं, इन्हें खा ले।”
“तुमने कुछ खाया ?”
“....” बूढ़ा कुछ नहीं बोला, उसकी आँखों में आँसू थे।
“मैंने पूछा, तुमने कुछ खाया ?”
बूढ़ा अब सिसकने लगा था। बूढ़ी के शरीर में हरकत हुई। वह अधलेटी-सी होकर बिस्तर पर बैठ गई।
“नहीं, तुम भी खाओ।” अपने मुख की ओर बढ़ा हुआ बूढ़े का हाथ उसने अपने हाथ से पीछे की ओर धकेल दिया। बूढ़े ने भीगी ब्रेड की बुरकी भरी और शेष बची ब्रेड बूढ़ी के मुख की ओर बढ़ा दी। तभी, उसकी रुलाई फूट गई, “मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था... इतनी मेहनत किसी ओर काम के लिए की होती तो शायद मैं कामयाब हो गया होता... मैंने एक गलत फैसला लेकर सारा दिन बर्बाद कर दिया।”
“फैसला ?... कैसा फैसला ?” बूढ़ी ने घबराकर पूछा।
“मैं सारा दिन भूखा-प्यासा शहर में घूमता रहा, पर जो सोचकर निकला था, वह नहीं कर पाया... हिम्मत ही नहीं पड़ी... मैं ... मैं... लोगों के आगे हाथ नहीं फैला पाया... मैं भीख नहीं मांग पाया...” कहते-कहते बूढ़े ने अपना चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में छिपा लिया।
( मेधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2003 में प्रकाशित कहानी संग्रह “औरत होने का गुनाह” तथा भावना प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित कहानी संग्रह “आख़िरी पड़ाव का दुख” में संग्रहित )