ब्लॉग की दुनिया के दोस्तो, मेरे नये-पुराने साहित्यिक मित्रो !
इस बार
‘सृजन-यात्रा’ में अपनी कोई रचना प्रकाशित करने का मन नहीं कर रहा, बस आपसे दो-एक बातें साझी करने की इच्छा जागी है। वैसे भी काफी दिनों से मैं अपने इस ब्लॉग पर कोई पोस्ट नहीं डाल पाया हूँ। 3 नवंबर 2009 की पोस्ट ‘स्मृति-शेष’ पिता में मैंने अपने दिवंगत पिता को याद किया था और उसके बाद 10 दिसंबर 2009 में अपनी एक कविता पोस्ट की थी – “पढ़ना चाहता हूँ एक अच्छी कविता…”। फ़िर काम के गहरे बोझ की गठरी के नीचे दबता-दबता और कुछेक व्यक्तिगत परेशानियों से जूझता मैं गहरे तनाव और अवसाद का शिकार हो गया और नतीजा यह निकला कि स्वास्थ बुरी तरह गड़बड़ा गया। डॉक्टर की सलाह पर पत्नी और बच्चों ने कंप्यूटर के सामने बैठने की सख़्त मनाही कर दी। फरवरी 2010 तो पूरा यूँ ही निकल गया। मार्च 2010 में ऑफिस जाने योग्य हुआ तो ऑफिस से लौट कर घर में मेल चेक करने के बहाने चोरी-छिपे अपने उन ब्लॉग्स पर काम किया जिन पर अधिक लम्बे मैटर की दरकार नहीं होती। अब चूंकि स्थिति पहले से बेहतर है तो धीरे-धीरे घरवालों का विरोध कम होने लगा है।
मैंने ब्लॉग की दुनिया में जब प्रवेश किया था(14 अगस्त 2007) तो मेरे मन में ‘साहित्य’ और ‘अनुवाद’ को लेकर ब्लॉग की दुनिया में कुछ सार्थक काम करने की तीव्र इच्छा थी। मैंने अपना पहला ब्लॉग ही ‘अनूदित साहित्य’ पर केन्द्रित किया-
“सेतु साहित्य” नाम से। लेकिन चूंकि यह मेरी परिकल्पनाओं की पूरी तरह पूर्ति नहीं कर रहा था इसलिए धीरे-धीरे मैंने कविताओं से जुड़ा
“वाटिका” ब्लॉग, फिर प्रवासी भारतीय लेखकों की अभिव्यक्ति से सम्बद्ध
“गवाक्ष”, साहित्य की सभी छोटी- बड़ी विधाओं से जुड़ा ब्लॉग –
‘साहित्य सृजन’ और पंजाबी के श्रेष्ठ कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व करने वाला ब्लॉग
“कथा पंजाब” प्रारंभ किया। निसंदेह, मेरे इन ब्लॉगों में मेरे द्वारा किए गए अनुवाद को छोड़कर मेरी मौलिक रचनाएं नहीं जाती हैं। मेरे बहुत से साहित्यिक और ब्लॉग के माध्यम से बने नये मित्र बंधु गाहे-बगाहे मुझसे कहते रहे कि भाई नीरव, ब्लॉग की दुनिया के अधिकांश लोग अपने ब्लॉग्स पर अपना-अपना ही परसोते रहते हैं और तुम हो कि दूसरों के अच्छे लेखन को, उनके श्रेष्ठ साहित्य को ही अपने ब्लॉग्स में प्रमोट करते रहते हो, तुम स्वयं एक लेखक-कवि हो और तुम्हारी अपनी बहुत लम्बी लेखन-यात्रा रही है, मौलिक लेखन और अनुवाद की अनेक किताबें छपी हैं, हिंदुस्तान की कोई पत्रिका नहीं है जहाँ तुम न छ्पे हो, कहानियाँ, लघुकथाएँ, कविताएँ, समीक्षाएँ प्रिंट-मीडिया में छपती रही हैं और अब तक छ्प रही हैं, तो तुम क्यों नहीं ब्लॉग के माध्यम से स्वयं को प्रमोट करते ? अपनी रचनाएं इस नये माध्यम द्वारा विश्व के विशाल पाठक के सम्मुख रखते? तो बन्धुओ ! मेरे इस
‘सृजन-यात्रा’ ब्लॉग के निर्माण के पीछे सीधे-सीधे तो आपको यह लग सकता है कि मैंने मित्रों का आग्रह मानकर इस ब्लॉग की शुरूआत की होगी। परन्तु, मेरे भीतर जो इसका मकसद था, वो किंचित दूसरा भी था। मेरी प्रारंभिक पुस्तकें अब उपलब्ध नहीं है, एक-दो प्रति यदि उपलब्ध भी है तो वह बहुत जीर्ण-शीर्ण और जर्जर अवस्था में है। प्रकाशक उन्हें री-प्रिंट नहीं करेंगे, जानता हूँ। घर में फाइलों में, पत्रिकाओं, अख़बारों के सहेज कर रखे अंकों के पीले और नष्ट-से हो चुके पृष्टों पर मेरी रचनाएं इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। दीपावली के कुछ दिन पूर्व जब घर में साफ-सफाई होती है अथवा जब-जब मकान बदलना होता है तो मैं अपनी पत्नी और बच्चों की मदद से इनकी धूल साफ कर लेता हूँ। तो मित्रो, अपना निजी ब्लॉग अर्थात अपनी ही रचनाओं को प्रस्तुत करने वाला ब्लॉग
“सृजन-यात्रा” जब बनाने की बात आई तो उसके पीछे मंशा यह भी थी कि वे इस बहाने एक जगह उपलब्ध और सुरक्षित हो सकें। दूर-दराज बैठे बहुत से पाठक जब मुझसे मेरी कोई पुरानी किताब, किसी कहानी अथवा कविता की मांग करते हैं तो मैं बेबस और उदास हो जाया करता हूँ। पुरानी किताबों की इतनी प्रतियां हैं नहीं कि उठाऊँ और पोस्ट कर दूँ। इंटरनेट पर मिली इस सुविधा के चलते यह काम मुझे बहुत सहज और सरल लगा, प्रारंभ में अवश्य श्रम-साध्य है परन्तु बाद में जब सभी रचनाएँ एक जगह समाहित हो जाएँगी तो उन्हें भेजने में अथवा पाठकों को उपलब्ध करवाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी, यही सोचकर मैंने अपना निजी/मौलिक रचना-संसार
‘सृजन-यात्रा’ में क्रमवार प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया। अब जब भी समय मिलता है, मैं इस पर अपनी कोई रचना पोस्ट कर देता हूँ। नेट की दुनिया के पाठक पढ़ते हैं, अपनी टिप्पणी/राय देते हैं तो अच्छा लगता है।
साहित्य की दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा अंतर्जाल पर इस ब्लॉगिंग को लेकर अभी भी नाक-
भौं सिकोड़ता है और उसकी धारणा है कि जो लोग कहीं नहीं छपते, वे अपनी छपास की भूख मिटाने के लिए अपना ब्लॉग खोल कर बैठ जाते हैं, जहाँ वे खुद ही लेखक–कवि होते हैं और खुद ही संपादक और इसी के चलते अपनी कच्ची, अधकचरी, बेसिर-पैर की रचनाएं देश-विदेश के पाठकों पर थोपते रहते हैं और अपनी रचनाओं जैसी ही कच्ची, अधकचरी टिप्पणियाँ अपने फेवर में पाकर अपने आप को एक महान लेखक-कवि के संभ्रम में जीते रहते हैं। मित्रो, हिंदी में ब्लॉगों की बेइंतहा भीड़ पर अगर नज़र डालें तो यह बात कुछ हद तक सही भी प्रतीत होती है परन्तु मेरा मानना है कि इतने भर से इस माध्यम के चलते हो रही अभिव्यक्ति पर पूरी तरह लकीर मार देना भी उचित नहीं है। क्या प्रिंट मीडिया में अब तक अच्छा, श्रेष्ठ और उत्कृष्ट ही छपता आया है। जब अंतर्जाल पर यह साधन(ब्लॉगिंग को मैं एक साधन के रूप में ही लेता हूँ) नहीं था, तब भी और आज भी मैं देखता हूँ कि बहुत से लोग अपनी-अपनी पत्रिकाएं लिए नज़र आते हैं। कुछेक को छोड़ दें तो बहुत सी अपने पहले अंक के बाद ही दम तोड़ देती हैं। इनके पीछे कोई महती और सार्थक उद्देश्य भी नहीं होता, बस पत्रिका निकालने का ख़ब्त होता है और खुद ही संपादक बनने का। अपनी और अपने खास मित्रो की रचनाएँ छापने के लिए ये स्वतंत्र होते हैं। साहित्य के नाम पर कचरा आपको वहाँ भी बहुत मिलता है और इस कचरे के ढेर तले कुछेक अच्छी पत्रिकाएं जो एक खास उद्देश्य को लेकर चलती हैं, दबकर रह जाती हैं। तो दोस्तो, ब्लॉग की दुनिया में भी ठीक वैसी ही स्थिति है। पत्रकारिता, साहित्य, अनुवाद से जुड़े बहुत से ब्लॉग हैं जो अपनी साकारात्मकता और रचनात्मकता को लेकर रेखांकित किए जा सकते हैं। उनके महत्व को किसी भी तरह से कम करके नहीं आंका जा सकता। यहाँ नाम गिनाने की मेरी कोई मंशा नहीं है। जो लोग इस दुनिया में हैं या इससे परिचित हैं वे भलीभांति जानते ही हैं। हमें ऐसे ब्लॉग अथवा वेब पत्रिकाओं द्वारा किये जा रहे प्रयासों का खुलकर स्वागत करना होगा और साथ ही साथ उनके हौसलों को मज़बूत भी करना होगा।
-सुभाष नीरव