मित्रो,
जिस समय मैंने लघुकथा लेखन में प्रवेश किया उस समय लघुकथा लेखन में एक आन्दोलन- जैसी स्थिति थी। बड़ी व्यवसायिक पत्रिकाएँ तो लघुकथा के लिए स्थान बना ही चुकी थीं और उन्हें ससम्मान छापने भी लगी थीं। हिंदी की प्रसिद्ध कथा पत्रिका ‘सारिका’ के ‘लघुकथा विशेषांकों ने इसमें गति भी प्रदान की। इसके अतिरिक्त बहुत सी लघु- पत्रिकाएं भी मैदान में थीं जो पूरी तरह समर्पित भाव से लघुकथा के विकास और संवर्द्धन के लिए खुद को कटिबद्ध किये हुए थीं। मुझे याद आती हैं –‘लघु-आघात’ ‘मिनीयुग’ ‘क्षितिज’ ‘सनद’ पत्रिकाएँ जो अच्छी और मानक लघुकथाओं के प्रकाशन के लिए उस दिनों जानी जाती थीं और हर नया पुराना लेखक यदि कोई नई लघुकथा लिखता था तो इन पत्रिकाओं में उसे छपवाने के लिए लालायित रहता था। मेरी शुरूआती दौर की कई लघुकथाओं को ‘लघु-आघात’, ‘क्षितिज’ और ‘सनद’ में प्रकाशित होने का गौरव प्राप्त हुआ है। आरंभ में ये पत्रिकाएँ मुझे भाई रमेश बत्तरा उपलब्ध कराया करते थे, बाद में फिर मैं इनका सदस्य बन गया था और ये मुझे डाक से मिलने लग पड़ी थीं। भाई रमेश बत्तरा जब विवाह के बाद राजौरी गार्डन से नया गाजियाबाद शिफ्ट हुए तो मैं अक्सर अवकाश वाले दिन उनके घर चला जाता था। इसके दो कारण थे। एक तो उनके यहाँ ढेरों नई-पुरानी हिंदी-पंजाबी की पत्र-पत्रिकाएँ आया करती थीं जिनको देखने-पढ़ने का लालच मुझे खींच ले जाता था और दूसरा यह भी कि मैं उन दिनों मैं गाजियाबाद के बहुत निकट मुरादनगर में रहता था, जिसके कारण आने-जाने में कोई परेशानी नहीं आती थी। रमेश भाई ‘सारिका’ के दफ्तर में जब मिलते तो बहुत कम बोलते थे। उनके मुँह में पान होता और वह अपने काम में व्यस्त-से रहते। बीच-बीच में छोटी-छोटी कोई एक आध बात कर लेते थे। लेकिन घर पर वह खुलकर बात करते, घर-परिवार के बारे में, साहित्य के बारे में, नये लिखे के बारे में। कभी-कभी राजनीति के बारे में भी। वे मुझे अच्छी पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजने के लिए प्रेरित करते रहते।
उन दिनों बहुत से ऐसे कॉमन-से विषय थे जिनपर हर कोई कलम चला रहा था। जैसे सामाजिक- राजनैतिक भ्रष्टाचार, पुलिस और नेताओं के चरित्र, आदि। दनादन लिखी जा रही लघुकथाओं की भीड़ में बहुत-सी अच्छी लघुकथाएँ भी दब कर रह जाती थीं। यहाँ प्रस्तुत मेरी लघुकथा ‘दिहाड़ी’ वर्ष 1984 में लिखी गई और ‘सारिका’ के वर्ष 1985 के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई। कथाकार बलराम ने इसे मेरी अन्य लघुकथाओं के साथ “हिंदी लघुकथा कोश”(वर्ष 1988) में संकलित किया। यह लघुकथा भी मेरी अन्य लघुकथाओं की भाँति पंजाबी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर छपी।
-सुभाष नीरव
दिहाड़ी
सुभाष नीरव
महीने के आखिरी दिन चल रहे थे।
इन दिनों घर में राशन-पानी सब खत्म हो चुका होता है। जब वह ड्यूटी पर रहता था तो किसी तरह खींच-खाँचकर ले जाता था-पहली तारीख तक। पुलिस में सिपाही होने का यह फायदा तो था ही उसे। लेकिन पिछले दो महीनों से वह मेडिकल-लीव पर चल रहा था- पीलिया के कारण। उसने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के आगे बहुत मिन्नत-चिरौरी की कि उसे ड्यूटी दे दे, पर वह नहीं माना और एक महीने का रेस्ट और बढ़ा दिया।
सुबह बच्चे बिना खाये-पिये ही स्कूल चले गये थे। पत्नी ने पड़ोसियों से कुछ भी माँगने से साफ इन्कार कर दिया था। वह चुपचाप चारपाई पर लेटा सोचता रहा- सुबह तो बच्चे भूखे-प्यासे चले गये, शाम को भी क्या बिना खाये-पिये सोना पड़ेगा उन्हें ?
वह उठकर बैठ गया। बहुत देर तक सोचता रहा।
एकाएक उसकी नज़र खूँटी पर टँगी वर्दी पर टँगकर रह गयी।
शाम होते ही वह वर्दी पहनकर अपने इलाके में पहुँच गया।
रेहड़ी-पटरी वालों में उसे देखते ही हरकत आ गयी। बहुत दिनों बाद दिखाई दिया था वह। सब सलाम ठोंकने लगे। वह डंडा घुमाता हुआ सबके सामने से गुजरा- बेहद चौकन्नेपन और सावधानी के साथ।
''अरे रतन, तू तो मेडिकल-लीव पर था! ड्यूटी ज्वाइन कर ली क्या ?''
जिस बात का उसे डर था, वही हो गयी। घर वापसी के समय सामने से आते हुए रामसिंह ने रोककर पूछ ही लिया।
''नहीं यार, घर पर सारा दिन यूँ ही पड़े-पड़े बोर हो जाता हूँ। सोचा, थोड़ा टहल ही आऊँ। सो, इधर ही आ गया।'' उसने सफाई दी।
''वर्दी में हो, मैंने सोचा...''
''वो...वो क्या है कि पत्नी ने आज सभी कपड़े धोने के लिए भिगो दिये थे। सो, वर्दी ही पहनकर आ गया इधर।'' उसने मुस्कराते हुए बात को घुमाने की कोशिश की।
''और यह डंडा ?''
रामसिंह का यह प्रश्न डंडे की भाँति ही आया। उसे लगा, इस प्रहार से वह चारों खाने चित्त हो गया है।
''आदत-सी पड़ गयी है न। वर्दी पहनते ही डंडा हाथ में आ जाता है।''
और वे दोनों एक-साथ हँस पड़े।
रामसिंह से विदा ले, जब वह घर की ओर चला तो बहुत उत्साहित था। जेब में आयी दिहाड़ी को उसने टटोलकर देखा- काफी है।
लेकिन तभी एक बात उसके जेहन में तेजी से उभरी और सुन्न-सा करती चली गयी- कल फिर अगर रामसिंह या कोई और टकरा गया तो!
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