मित्रो
कभी-कभी हमें अपनी नई लिखी कोई रचना अधिक संतोषजनक नहीं लगती। ऐसा नहीं है कि वह रचना नहीं होती, पर हम उसमें कुछ और अच्छा और श्रेष्ठ लाने की कोशिश करते रहते हैं। एक ज़माना था कि ‘धर्मयुग’ साप्ताहिक में छपना बहुत बड़ी बात समझी जाती थी। हर नया-पुराना लेखक उसमें छपने को लालायित रहा करता था। धर्मवीर भारती जी सम्पादक हुआ करते थे। कहा यह भी जाता था कि ‘धर्मयुग’ में यदि किसी की कहानी छप जाती थी तो उसे कथाकार मान लिया जाता था। उस समय के लेखक ‘धर्मयुग’ में किसी न किसी रूप में प्रवेश पाना चाहते थे। कहानी, कविता, बाल कविता अथवा बाल कहानी के रूप में। जब मेरी लघुकथाएं उन दिनों ‘सारिका’ के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुईं और साथ ही साथ लघुकथा को पूर्णत: समर्पित लघु-पत्रिकाओं में भी छपने लगीं, तो एक दिन मुझे ‘धर्मयुग’ से मनमोहन सरल जी का पत्र आया। उन्होंने यह बताते हुए कि ‘धर्मयुग’ में अच्छी लघुकथाएं प्रकाशित करने का सिलसिला प्रारंभ किया जा रहा है(तब ‘धर्मयुग’ में लघुकथाएं नहीं छपा करती थीं), मुझसे उन्होंने दो अप्रकाशित लघुकथाएं भेजने को लिखा था। उस पत्र को पाकर मेरे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। एक नशा-सा तारी हो गया था। पर सवाल था कि कौन-सी लघुकथाएँ भेजूं। लिखी हुईं लघुकथाओं में दो-तीन को छोड़कर सभी प्रकाशित हो चुकी थीं। अब संकट यह था कि जो दो-तीन लघुकथाएं अभी तक अप्रकाशित थीं, उनसे मैं स्वयं संतुष्ट नहीं था। और जिस तारीख़ तक लघुकथाएं मांगी गई थीं, वह निकट थी। दो-चार दिन नई लघुकथा लिखने में जाया किए, पर कामयाबी नहीं मिली। तब, अप्रकाशित लघुकथाओं पर फिर से काम किया और जब उनमें से दो लघुकथाएँ कुछ ठीकठाक –सी लगीं, तो मैंने ‘धर्मयुग’ को पोस्ट कर दीं। मन में धुकधुक-सी लगी रही कि पता नहीं वे लघुकथाएँ ‘धर्मयुग’ को पसन्द आती भी हैं कि नहीं। पर दोस्तों, जल्द ही एक लघुकथा ‘धर्मयुग’ में छप गई। अब तो मैं हवा में उड़ने लगा। जहाँ मैं रहता था यानी आर्डनेंस फ़ैक्टरी मुरादनगर के एस्टेट में, वहाँ कवि तो ज्यादा थे, परन्तु कथा-कहानी से जुड़े मित्र दो-चार ही थे। उन्हें खुद जाकर ‘धर्मयुग’ का वह अंक दिखाया और उन्होंने लघुकथा पढ़कर मुझे बधाई दी। वह लघुकथा ‘बड़े बाबू’ शीर्षक से ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी। बहुत बाद में जब अपनी लघुकथाओं पर पुन: काम कर रहा था, तो लघुकथा के क्षेत्र में जमे हुए और सशक्त लेखकों से इस रचना पर भी बात हुई। उन्होंने इसके शीर्षक को बदलने की बात की। कथाकार बलराम अग्रवाल का कहना था कि इस लघुकथा में सरकारी दफ़्तर की जिस बीमारी की ओर संकेत किया गया है, वह बीमारी तो हर दफ़्तर में व्याप्त है। इसलिए इस लघुकथा का शीर्षक ‘बड़े बाबू’ से ‘बीमारी’ कर दिया गया और आज यह लघुकथा इसी शीर्षक से मेरे पहले एकल लघुकथा संग्रह ‘सफ़र में आदमी’ में शामिल है। इसे मैं यहाँ अपने ब्लॉग पर अपनी लघुकथाओं की श्रृंखला की अगली कड़ी के तौर पर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। आपकी राय की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
-सुभाष नीरव
बीमारी
सुभाष नीरव
बच्चे को अस्पताल से दवा दिलाकर जब रामदीन दफ्तर पहुँचा तो बारह से ऊपर का समय हो रहा था। बड़े बाबू उसे देखते ही गुर्राये।
''यह दफ्तर आने का समय है ?''
''साहब, बच्चा कल से बीमार है। अस्पताल ले गया था। वहीं से आ रहा हूँ।'' रामदीन ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ''सुबह दफ्तर आया था। उस वक्त तक आप नहीं आये थे। इसलिए छोटे बाबू से कहकर गया था।''
''कहकर गया था। हुंह...'' बड़े बाबू का गुस्सा सातवें आसमान पर था। बोले, ''यहाँ इतना काम पड़ा है। यह कौन करेगा?... क्या मैं ?... बिना बताये काम से गैर-हाज़िर रहता है। रिपोर्ट करनी पड़ेगी। आये दिन बहाना। कभी बीवी बीमार है तो कभी बच्चा।''
रामदीन बड़े बाबू की डांट सहता हुआ चुपचाप अपने काम में लग गया।
''रामदीन...'' लंच के बाद, बड़े बाबू ने रामदीन को अपने पास बुलाया। आवाज में मिसरी घुली थी।
''जी, साहब।''
''ज़रा हमारा एक काम तो करना। सुपर-बाजार में कंट्रोल पर कॉपियाँ मिल रही हैं। बच्चों के लिए मंगवानी थी।'' जेब से पैसे निकालते हुए उन्होंने कहा।
''पर साहब, वहाँ तो देर लग जायेगी। बहुत लम्बी लाइन लगती है। और इधर काम भी...''
''अरे, छोड़ काम...। काम तो होता ही रहता है। मैं सम्हाल लूँगा।'' उन्होंने उसको पैसे थमाते हुए कहा, ''और सुन, कॉपियाँ लेकर इधर मत आना। मेरे घर देते हुए अपने घर चले जाना, समझे।... तुम्हारा बच्चा बीमार है न। यहाँ की फिक्र मत कर। मैं सब सम्हाल लूँगा।''