शुक्रवार, 8 मार्च 2013

लघुकथा



मित्रो, इधर नई लिखी लघुकथाओं में से एक लघुकथा बारिश हंस के नवंबर 12 अंक में प्रकाशित हुई थी जिसे मैंने अपने इस ब्लॉग पर दिसंबर 12 के अंक में आपसे साझा किया था। बहुत सारी खट्टी-मीठी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुई थीं। उन्हीं नई लघुकथाओं में से एक लाजवंती शीर्षक की लघुकथा हरियाणा साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका हरिगंधा के जनवरी 13 अंक में समकालीन कहानी के अंतर्गत प्रकाशित हुई है। इसे भी मैं सृजन-यात्रा ब्लॉग के माध्यम से आप सबसे साझा कर रहा हूँ।
-सुभाष नीरव


लाजवंती
सुभाष नीरव

प्रोफेसर साहब छड़ी उठाकर सुबह की सैर को निकले तो वह भी उठकर काम में लग गईं। कमरों में झाड़-पोंछ की और बिखरी पड़ी वस्तुओं को उठाकर करीने से रखा। झाड़ू-पौंचे, बर्तन मांजने और कपड़े धोने के लिए प्रोफेसर साहब ने महरी लगा रखी है। आज उन्होंने उसकी प्रतीक्षा नहीं की और धीरे-धीरे सिंक में पड़े बर्तन मांजे, रसोई साफ की, कमरों में झाड़ू लगाया तो थक-सी गईं। बाकी काम महरी के लिए छोड़ दिया। नहाकर अच्छी-सी साड़ी पहनी। शायद दो-तीन बार ही किसी विवाह समारोह में इसे पहना होगा। फिर आईने के सामने खड़ी हो गईं। आईना बढ़ी उम्र की चुगली कर रहा था। उन्होंने मांग में हल्का-सा सिंदूर लगाया और माथे पर बिंदी। पूजा-अर्चना करके उठीं तो प्रोफेसर साहब लौट आए। पत्नी को आज सुबह-सुबह यूँ सजा-धजा देखकर मुस्कराये और बोले, ''क्यों, कोई खास बात है?''
''नहीं, कोई ख़ास बात तो नहीं। बस, यूँ ही। साड़ियाँ सन्दूक में पड़ी-पड़ी सड़ ही रही हैं। सोचा, एक-एक करके इस्तेमाल करती रहूँ, घर पर ही।'' कहते हुए उन्होंने कुछ क्षण पति की ओर देखा, इस उम्मीद से कि शायद उन्हें कुछ याद आ जाए।
पर वहाँ कुछ नहीं था।
तभी, महरी आ गई। मालकिन को यूँ बने-संवरे देख वह भी विस्मित हुई। पूछा, ''बीबी जी, कहीं जाना है?''
''नहीं, तू अपना काम कर। आज घर में पौचा अच्छी तरह लगाना।''
महरी काम में लग गई और प्रोफेसर साहब नहा-धोकर नाश्ता करके अखबार उठाकर बालकनी में चले गए। दस साल हो गए उन्हें कालेज से रिटायर हुए। तब से यही दिनचर्या है उनकी। सुबह सैर को जाते हैं, दूध-ब्रेड लाना होता है तो मार्किट से लेते आते हैं, नहा-धोकर नाश्ता करते हैं, अखबार पढ़ते हैं, फिर कोई किताब लेकर बैठ जाते हैं।
दोपहर के भोजन के बाद कुछ विद्यार्थी आ जाते हैं। शाम चार बजे तक उन्हें पढ़ाते हैं। फिर शाम को छड़ी उठाकर टहलने निकल जाते हैं।
बेटा राजेश दुबई में है और वहीं सैटिल हो गया है। बेटी शादी के बाद बंगलौर में रहती है।
देखते-देखते रोज की तरह दिन यूँ ही बीत गया।
शाम के समय प्रोफेसर साहब टी.वी. पर समाचार देख रहे थे तो वह पास आकर बैठ गईं। कुछ कहना चाहती थीं, पर कह नहीं पा रही थीं। फिर, एकाएक बोली, ''कई दिन हो गए; न राजेश का फोन आया और न ही रजनी का।'' जबकि वह कहना यह चाहती थीं कि देखो, आज के दिन भी बेटा-बेटी का फोन नहीं आया।
''चलो, तुम ही कर के हाल-चाल पूछ लो।''
उन्हें पति का सुझाव ठीक लगा। पहले बिटिया को फोन किया, फिर बेटे को। कुछ देर बात की। पर कानों ने वह नहीं सुना जो सुनना चाहे रहे थे।
''क्या कह रहे थे? ठीक तो हैं?'' प्रोफेसर साहब ने पूछा।
''हाँ, ठीक हैं। कह रहे थे, पापा का और अपना ध्यान रखा करो।''
रात के भोजन के बाद उनसे रहा नहीं गया। वह रसोई में गईं। हथेली पर गुड़ के दो छोटे-छोटे टुकड़े रखकर प्रोफेसर साहब के पास आकर खड़ी हो गईं। हथेली पर से एक टुकड़ा उठाकर प्रोफेसर साहब के मुँह की ओर बढ़ाते हुए बोलीं, ''मिठाई तो नहीं है, चलो, गुड़ से ही मुँह मीठा कर लो।''
प्रोफेसर साहब ने हैरान-सा होकर पत्नी की ओर देखते हुए पूछा, ''बेटा या बेटी ने कोई खुशखबरी सुनाई है क्या?''
''नहीं। कोई खुशखबरी नहीं सुनाई। पर देखो, आज के दिन भी बच्चों ने विश नहीं किया। बच्चों को छोड़ो, तुमने भी कहाँ किया?''
''विश?'' प्रोफेसर साहब कुछ सोचने लगे।
''आज हमारी शादी को पूरे चालीस साल हो गए।'' और उन्होंने गुड़ का टुकड़ा प्रोफेसर साहब के मुँह में ठूंस दिया।
''अरे! मैं तो भूल ही गया।'' उन्होंने भी पत्नी की हथेली पर से गुड़ का टुकड़ा उठाया और उसके मुँह की ओर बढ़ाते हुए कहा, ''शादी की वर्षगांठ मुबारक हो शालिनी...''
''तुम्हें भी!'' कहते हुए उनकी वृद्ध देह छुईमुई की तरह लज्जा गई।