भाई मधुदीप जी लघुकथा के क्षेत्र में एक वरिष्ठ और अग्रज लेखक हैं।
उन्होंने अपने मौलिक लेखन के साथ-साथ प्रकाशन (दिशा प्रकाशन) के माध्यम से भी
लघुकथा के विकास और संवर्द्धन में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। हिंदी लघुकथा को लेकर ‘पड़ाव
और पड़ताल’ शीर्षक से वह एक लम्बी बेहद महत्वपूर्ण शृंखला निकाल रहे हैं। बात शायद
गत वर्ष 2013 के नवंबर-दिसंबर माह की है। एक दिन उनका फोन आया। बोले, “नीरव, ‘पड़ाव
और पड़ताल’ के एक खंड का तुम्हें संपादन करना है।” उन दिनों मैं अपनी बड़ी बिटिया की
शादी से संबंधित कामों में बहुत मशरूफ़ था। 19 फरवरी 2014 की विवाह तिथि तय हो चुकी
थी। मैंने क्षमायाचना की कि मैं अपनी व्यस्तताओं के चलते इतना बड़ा उत्तरदायित्व
लेने में असर्मथ हूँ। उनके बार बार अनुरोध करने के बावजूद जब मैंने पूरी तरह से इस
उत्तरदायित्व को उठाने से इन्कार कर दिया, तब वह बोले, “पर भाई एक काम तो मैं तुमसे अवश्य
करवाऊंगा और तुम्हें करना ही होगा।” मैंने पूछा, “कौन सा ?” बोले, “खंड -3 का मैं
संपादन कर रहा हूँ और उसमें रमेश बतरा की लघुकथाएँ जा रही हैं। वह तुम्हारे खास
मित्र रहे हैं। तुम्हें उनकी 11 लघुकथाओं पर इस खंड के लिए आलेख लिखना है। जल्दी
नहीं है, बिटिया की शादी के बाद यानि अप्रैल 14 के अंत तक लिखकर दे देना। इन्कार
नहीं करना।” यह मेरी रूचि का कार्य था और समय भी मिल रहा था। रमेश बतरा पर मैं
वैसे भी कई वर्षों से कुछ लिखना चाहता था। सोचा, भाई मधुदीप जी एक सुअवसर दे रहे
हैं तो मुझे इन्कार नहीं करना चाहिए और मैंने ‘हाँ’ कर दी। तो मित्रो, इस बहाने
मैंने रमेश बतरा की 11 चुनी हुई लघुकथाओं पर एक आलेख लिखा – ‘रमेश बतरा :
तनी हुई रस्सी पर सधे कदम’। ‘पड़ाव और पड़ताल’ का तीसरा खंड प्रकाशित होकर आ गया है
और मेरा यह आलेख इस खंड में शामिल है। इस आलेख को मैं आपसे अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’
के माध्यम से भी साझा कर रहा हूँ।
-सुभाष नीरव
रमेश बतरा : तनी हुई रस्सी पर सधे कदम
सुभाष नीरव
रमेश बतरा सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर
अपनी मृत्य से कुछ वर्ष पूर्व तक हिंदी लघुकथा की ‘दशा और दिशा’ में
महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने वाले कथाकार रहे। वह एक प्रतिभाशाली बहुआयामी लेखक व
संपादक थे। ‘तारिका’
से ‘सारिका’ तक हिंदी लघुकथा के लिए किए गए उनके कार्य
को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने हिंदी में कई नए लघुकथाकार पैदा किए। कहानी, लघुकथा, नाटक, संस्मरण
आदि विधाओं में मौलिक लेखन के साथ-साथ अनुवाद में भी दमखम रखते थे। इसके अलावा वह
सुलझे हुए पत्रकार तो थे ही। अधिक बोलने और अधिक लिखने (धुआँधार लेखन) में जैसे वह
यकीन नहीं करते थे। कम बोलना और कम लिखना उनकी आदत में शुमार था। उन्होंने रचनाओं
की संख्या बढ़ाने में कभी विश्वास नहीं रखा,
अच्छा और दमदार लिखने की कोशिश में कम
लिखते थे। तीन कहानी संग्रह, एक नाटक,
एक अनुवाद की किताब और करीब तीस-पैंतीस
लघुकथाओं के इस लेखक के लेखकीय सरोकार स्पष्ट थे। वह जानते थे कि लेखन में उनकी
क्या प्रतिबद्धता होनी चाहिए। हिंदी साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि न तो उनके
जीवित रहते और न ही उनकी मृत्यु के बाद अब तक उनका कोई लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो
पाया है। उनकी जो भी तीस-पैंतीस लघुकथाएँ हैं,
वे इधर उधर पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, कोशों
में प्रकाशित होकर बिखरी पड़ी हैं। जरूरत, खोया हुआ आदमी, अनुभवी, नागरिक, लड़ाई, कहूँ कहानी, नौकरी, दुआ, बीच
बाज़ार, स्वाद, सूअर, खोज, शीशा, सिर्फ़ हिंदुस्तान में, नई
जानकारी, चलोगे, राम रहमान,
अपना खुदा, वजह, माँएँ
और बच्चे, हालात, सिर्फ़ एक आदि लघुकथाएँ रमेश बतरा की उत्कृष्ट
लघुकथाएँ है जो उनके लेखकीय कौशल के बेहतरीन उदाहरण के रूप में हमारे सम्मुख आती
हैं। परंतु यहाँ इनमें से केवल 11 लघुकथाएँ - सूअर, खोज, खोया
हुआ आदमी, नौकरी, दुआ, नागरिक,
लड़ाई, शीशा, स्वाद, बीच बाज़ार और अनुभवी ही पड़ताल के
केन्द्र में रखने के लिए चुनी गई हैं।
रमेश बतरा की लघुकथाओं में मध्यम और निम्न
मध्यम वर्ग के लोग बहुतायत में मिलते हैं। वह अपनी लघुकथाओं के किरदारों को समाज
के इन्हीं वर्गों में से उठाते हैं। उनकी संवेदना और उनकी लेखकीय पक्षधरता समाज के
इन्हीं लोगों की दुःख-तकलीफ़ों और उनके संघर्षों से अधिक जुड़ी है। ‘सूअर’ का
कारखाने में काम करने वाला मजदूर, ‘नौकरी’ का बाबू रामसहाय, ‘दुआ’ का स्कूटर वाला, ‘नागरिक’ का
निरंजन और उसका दोस्त, ‘स्वाद’ के रिक्शा चालक, ‘बीच बाज़ार’ की
स्त्रियाँ, ‘अनुभवी’
का भीख मांगता व्यक्ति - ये सभी चरित्र
उनकी जनपक्षधरता का सबूत पेश करते हैं।
अच्छी रचना में जीवन का यथार्थ कभी भी हू-ब-हू
नहीं आता। वह जब भी आता है, कलात्मक यथार्थ में ढलकर आता है। यह कलात्मक
यथार्थ रचना को ग्राह्य और पठनीय भी बनाता है। जीवन के यथार्थ को कलात्मक यथार्थ
में कैसे बदला जाता है, रमेश बतरा बखूबी जानते थे। इस कलात्मक यथार्थ
को रमेश बतरा की अनेक लघुकथाओं मे सरलता से देखा जा सकता है। जीवन यथार्थ को रचना
में कलात्मक बनाने के लिए वह प्रायः फैंटेसी का भी सहारा लेते हैं। ‘फैंटेसी’ का
प्रयोग लेखक के रचनात्मक कौशल पर निर्भर करता है। कई बार ‘फैंटेसी’ रचना
को क्लिष्ट और दुरुह भी बना देती है और लेखक के मंतव्य को पाठक तक पहुँचाने में
बाधा उत्पन्न करती है। लेकिन रमेश बतरा की लघुकथाओं में आई ‘फैंटेसी’ रचना
में एक गुण के तौर आती है, जो रचना को न केवल सपाट बयानी से बचाती है
बल्कि उसको और अधिक धारदार भी बनाती है - ‘खोज’, ‘खोया हुआ आदमी’ ‘नागरिक’ इसी श्रेणी की खूबसूरत लघुकथाएँ हैं। ‘खोज’ लघुकथा
में ‘बेटी के दुपट्टे का फटना’, ‘उसे
सिलने की कोशिश में सुई का गिरकर गुम हो जाना’,
‘कोठरी में अँधेरा पसर जाना’ और ‘रोशनी
को ढूँढ़ना’ ये ऐसे बिम्ब और प्रतीक हैं जो अपनी सांकेतिकता
में इस लघुकथा को साधारण से असाधारण बनाते हैं। ‘बेटी के दुपट्टे’ का
फटना उसकी अस्मत का लुटना है, उसे सिलने की कोशिश करना, परिस्थिति
से जूझना-लड़ना है, लेकिन सुई का गिरकर खो जाना, एक
नाकामयाबी की ओर संकेत करता है और कोठरी में फैला अँधेरा घोर निराशा का प्रतीक।
बुढ़िया इसी निराशाभरे अँधेरे से निजात पाने के लिए गली गली, घर
घर एक उम्मीद की रोशनी ढूँढ़ती फिरती है। लघुकथा की अन्तिम चार पंक्तियों को देखें
-
“कमाल है,
जब सुई गिरी कोठरी में है तो कोठरी में
ही मिलेगी और कहाँ जाएगी ?“
“वहाँ अँधेरा भर गया है।“
“तो यहाँ क्या कर रही हो ?“
“रोशनी ढूँढ़ रही हूँ, रोशनी...
तुम्हारे पास है क्या !“
ऐसी ही गज़ब की फैंटेंसी ‘खोया
हुआ आदमी’ में देखने को मिलती है। सड़क पर मरे हुए आदमी की
शक्ल में अपनी ही शक्ल का नज़र आना इस बात की ओर इशारा करता है कि ज़िन्दगी की
आपाधापी में अपनी लड़ाई लड़ता आम आदमी खो गया है। सड़क हादसे में अथवा अन्य ढंग से
चाहे कोई भी आम आदमी मरे, वह कहीं न कहीं हर सामान्य और आम आदमी से साम्य
रखता है। उसकी मौत हर आदमी को अपनी मौत नज़र आती है। इस आम आदमी का भ्रष्ट व्यवस्था
के हाथों रोज़ क़त्ल होता है, हम कातिल को जानते हुए भी कुछ नहीं कर सकते।
करने की कोशिश का फल क्या होता है, वह ‘नागरिक’
लघुकथा हमें बताती है। कहना न होगा कि
रमेश बतरा अपनी लघुकथाओं में कलात्मकता और प्रतीकात्मकता की शक्ति को भलीभाँति
पहचानते थे। उनके यहाँ बिम्ब और प्रतीक भाषा की ताकत बन जाते हैं। यही ताकत उनकी
लघुकथाओं को आम लघुकथाओं से अलग करती है और उन्हें विशिष्ट भी बनाती है।
साम्प्रदायिक उन्माद पर रमेश बतरा ने अनेक
लघुकथाएं दीं। वह साम्प्रदायिकता के नंगे नाच के बेहद खिलाफ रहे और समाज और देश
में साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द को बनाये रखने के पक्षधर थे। ‘सूअर’ ‘दुआ’ इस
सन्दर्भ में उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं। मनुष्य की बेबसी और मुफलिसी का चित्रण बेहद
गंभीरता और गहराई के साथ ‘दुआ’ लघुकथा में हुआ है। आदमी परिस्थितियों के हाथों
की कठपुतली है। ये परिस्थितियाँ किस तरह व्यक्ति को उसके चरित्र से गिराने-उठाने
में भी अपनी भूमिका निभाती हैं, इसकी झलक इस लघुकथा में दिखाई देती है। लघुकथा
का केन्द्रीय पात्र जेब में पैसे न होने पर भी अपने इलाके में भड़के दंगे की ख़बर
पाकर स्कूटर रिक्शा करके अपने घर की ओर भागता है। अपने परिवार की चिन्ता उसकी
विवशता बन जाती है। यही विवशता उसे ‘चालाक’ बनाती है, वह
स्कूटर रिक्शा चालक को बग़ैर पैसे दिए भाग खड़ा होता है। दूसरी तरफ स्कूटर रिक्शा
चालक अपने को बेहद निरीह और लुटा-सा पाता है और कुछ नहीं कर पाता। लघुकथा का
अन्तिम पैरा इस लघुकथा को एकाएक ऊँचाई और धार प्रदान करता है और लघुकथा के शीर्षक
को भी सार्थक करता है, जब किराया न पाकर स्टकूर रिक्शा चालक गोली की
तरह दंगाग्रस्त इलाके में अपनी सवारी को घुसता पाकर बेबसी और गुस्से में बड़बड़ाते
हुए कहता है - “स्साला हिन्दू है तो मुसलमान के हाथ लगे और
मुसलमान है तो हिंदुओं में जा फंसे !“ मेहनतकश आम आदमी का दंगों से कोई लेना देना
नहीं होता, उसे तो दो वक्त की रोटी के लिए जी तोड़ मेहनत और
पसीना बहाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। ‘सूअर’ लघुकथा का अन्तिम वाक्य ‘तो
यहाँ क्या कर रहे हो ? जाकर सूअर को मारो...’ ही
लघुकथा को एक ऊँचाई प्रदान कर जाता है और यह लघुकथा पाठक के हृदय में अपना अमिट
प्रभाव छोड़ पाने में सफल हो जाती है।
अपने स्वार्थ के लिए चापलूसी का सहारा लेकर
अक्सर पाला बदलने वालों से समाज भरा पड़ा है। ऐसे चरित्रों को ‘नौकरी’ और ‘बीच
बाज़ार’ जैसी अपनी लघुकथाओं में जिस कुशलता से रमेश बतरा
प्रस्तुत करते हैं, वह रचनात्मक कौशलता ही उन्हें विशिष्ट और
प्रभावशाली बनाती है। ‘नौकरी’ में चापलूस और अवसरवादी कर्मचारी का किरदार हर
सरकारी, गैर-सरकारी कार्यालय में हमें आसानी से मिल
जाएगा, जो बॉस के आगे स्टाफ की चुगलियाँ करता है और स्टॉफ
के सामने आकर गिरगिट की तरह रंग बदलकर अपने बॉस को गाली देता है - ‘हरामी
सठिया गया है, मरेगा !’
यही दोहरी मानसिकता, दोगली
सोच और अवसरवादिता ‘बीच-बाज़ार’
की स्त्रियों में मिलती हैं। इन दोहरे
चरित्रों वाले असवरवादी लोगों पर बहुत-सी लघुकथाएँ हिंदी और अन्य भाषाओं में लिखी
गई हैं, परंतु जो रचनात्मक कसाव और रचना से न्याय हमें
रमेश बतरा की इन लघुकथाओं में मिलता है, वो अन्यत्र कम ही दिखलाई देता है।
रमेश बतरा की लघुकथाओं में आए शिल्प को भी
नज़रअंदाज करना कठिन होगा। एक कौशलपूर्ण शिल्प जिसकी लघुकथाओं को दरकार है, वह
रमेश बतरा की लघुकथाओं में सहजता से मिल जाता है। तनी हुई रस्सी पर सधे कदमों से
चलने जैसा ! ऐसा कमाल विरले लेखकों में ही मिलता है।
रमेश बतरा की बहुत-सी लघुकथाओं में मानवीय संवेदना
का अद्भुत रूप भी हमें देखने को मिलता है। संवेदना के बग़ैर कोरा विचार कभी भी रचना
को बेहतर रचना नहीं बना सकता। ‘स्वाद’ लघुकथा अपनी गहन संवेदना के कारण बेहद
प्रभावशाली लघुकथा है। ‘भूख’ और ‘स्वाद’ के बीच का ऐसा अन्तर अन्यत्र देखने में नहीं
मिलता, कम से कम हिंदी लघुकथा में तो नहीं ही। हीरा और
मोती दो भाई हैं और अपनी गरीबी के चलते शहर में आकर रिक्शा खींचने को विवश हैं।
दोनों प्रतिदिन साथ बैठकर खाना खाते हैं। पर एक दिन हीरा हैरान होता है कि ग्राहक
छोड़कर भी ढाबे पर समय से पहुँच जाने वाला और आठ-दस रोटियाँ झटककर ही दम लेने वाला
उसका भाई मोती जब कुछ भी खाने से इन्कार कर देता है। हीरा को जब सच्चाई का पता
लगता है तो वह और भी अधिक हैरान रह जाता है कि मोती अपना ‘स्वाद’ खराब
नहीं करना चाहता क्योंकि उस दिन उसे किसी सवारी के छूट गए टिफिन का खाना खाने का
(सु)अवसर मिला था। घर के खाने और बाज़ार के खाने में क्या अंतर होता है, यह
कौन नहीं जानता।
‘शीशा’ और ‘लड़ाई’ के
केन्द्र में स्त्रियों की दो अलग अलग मनोदशाओं का चित्रण है। एक तरफ, ‘शीशा’ लघुकथा
उन तमाम स्त्रियों का सच है जो अपने नकली स्टेट्स को कायम रखने के लिए किसी भी हद
तक जाने को तैयार हो जाती हैं। ‘पर्स’ जैसी वस्तुएँ उनका स्टेट्स सिंबल है और वे अपनी
नग्नता से कहीं अधिक अपने स्टेट्स की चिंता में संलग्न रहती हैं। जब कि दूसरी ओर ‘लड़ाई’ उस
स्त्री की मनोदशा का खूबसूरत और सटीक चित्रण करती है जिसका बांका बहादुर पति अपने
देश के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो जाता है। तब ‘बन्दूक’
में ही वह अपने रण-बांकुरे की छवि
देखती है और बिस्तर पर अपनी बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो जाती है।
वक्त के हाथों लाचार होकर सड़क पर आए परिवार के
पेट की भूख किस तरह भीख के रास्ते की ओऱ मनुष्य को धकेलती है, इसका
उदाहरण हमें ‘अनुभवी’
लघुकथा में मिलता है। लघुकथा में सभी
कुछ विस्तार से कहने की गुंजाइश कतई नहीं होती,
कुछ बातें संकेतों के आसरे भी छोड़ दी
जाती हैं। इस लघुकथा की शुरुआती पंक्तियाँ जो हालात के मारे व्यक्ति के मन मे चल
रही उधेड़बुन को व्यक्त करती हैं - “अब यही काम बाकी रह गया था... नसीब जो करवा दे, सो
ही कम हैं... मरजी परमेश्वर की, जाने अभी क्या क्या करना लिखा है नसीब में !‘ और
यह पंक्ति “उसकी नज़र सामने वाले मैदान की ओर उठ गयी, जहाँ
उसकी बीमार पत्नी और बेटा धूप में लेटे रातभर रग रग में जमती रही सर्दी को पिघला
रहे थे...“ वक्त की मार के शिकार एक परिवार की उस बेबसी और
लाचारगी को बखूबी बयान कर जाती हैं जिसके चलते परिवार का मुख्यिा भीख मांगने के
लिए विवश हो जाता है। परन्तु ‘सांड-सी देह है, मेहनत करके क्यों नहीं कमाता भड़वे ?’ जैसा
नुकीले तीर-सा चुभता वाक्य पुनः भीख मांगने की उसकी हिम्मत को नपुंसक बना देता है।
सड़क पर किसी बच्चे को भीख मांगते और भीख पाते देख उसे अपना बच्चा याद आता है जिसे
वह अपने संग इसलिए नहीं लाया था कि वह बुरी आदत सीख सकता था। वह उसको मिठाई का
लालच देकर भीख मांगने के लिए उकसाने को मजबूर होता है। अनुभवहीन बच्चा किसी अनुभवी
भिखारी की तरह जब पूछे जाने पर यह कहता है कि “बाप ?...
बाप मर गया है बाबू साब !“ तो
आसपास ही खड़ा उसका पिता भौंचक्क रह जाता है। परिस्थितियाँ क्या कुछ नहीं सिखा
देतीं, इस मंतव्य को बड़ी खूबी से यह लघुकथा अन्त में
प्रकट करती है। लघुकथा को कहाँ, किस चरम बिन्दु पर समाप्त करना है, यह
कौशल रमेश बतरा की अनेक लघुकथाओं में विद्यमान है। ‘सूअर’, ‘खोज’, ‘खोया हुआ आदमी’, ‘नौकरी’ लघुकथाओं
के अन्त उनके इसी कौशल का परिचय देते हैं।
रमेश बतरा लघुकथा को लेकर जो कहते थे, उसे
खुद पर भी लागू करते थे। यह बात वह ज़ोर देकर कहते थे कि लघुकथा को ‘आत्मलोचना’ की
ज़रूरत है। वह यह भी कहते थे कि जब एक बहुत बड़े पाठक वर्ग ने लघुकथा को अपना समर्थन
दे दिया है तो लघुकथा लेखकों पर यह जिम्मेदारी और भी ज्यादा आयद हो जाती है कि वे
लघुकथा को और भी बारीकी से जानें, सलीके से बुनें और करीने से सजायें। उनकी खुद
की लघुकथाओं में यह बारीकी, यह सलीका और करीना हमें स्पष्ट दिखाई देता है।
रमेश बतरा की लघुकथाएँ अगर आज भी हमें स्पर्श करती हैं और अविस्मरणीय लगती हैं तो
इसके पीछे लघुकथा को लेकर उनकी स्पष्ट सोच है। वह लघुकथा को बेहद बारीकी से समझने, सलीके
से बुनने और करीने से कागज पर सजाने की कला में माहिर थे। उनकी लघुकथाओं के चरित्र
बेहद जीवन्त चरित्र हैं और हमारी ही दुनिया और समाज से उठाये गए हैं।
रमेश बतरा निःसंदेह बेजोड़ प्रतिभा, दृष्टि
और कल्पनाशीलता के लेखक थे। इस बात की गवाही उनकी प्रायः हर लघुकथा देती है। वह ‘लघुकथा’ लिखने
के लिए ‘लघुकथा’
नहीं लिखते थे। उसके पीछे एक सार्थक ‘कारण’ होता
था। वह उस ‘कारण’ को अपनी सधी हुई भाषा और अद्भुत शिल्प में
नपे-तुले शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करते थे। उनकी लघुकथाओं में ‘निरर्थक’ शब्दों
के लिए दूर दूर तक कोई स्थान नहीं है। जो शब्द हैं, वे नगीने की भाँति जड़े हुए अपनी
उपयोगिता व सार्थकता सिद्ध करते हैं।
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