शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

आलेख


भाई मधुदीप जी लघुकथा के क्षेत्र में एक वरिष्ठ और अग्रज लेखक हैं। उन्होंने अपने मौलिक लेखन के साथ-साथ प्रकाशन (दिशा प्रकाशन) के माध्यम से भी लघुकथा के विकास और संवर्द्धन में उल्लेखनीय कार्य किए हैं। हिंदी लघुकथा को लेकर ‘पड़ाव और पड़ताल’ शीर्षक से वह एक लम्बी बेहद महत्वपूर्ण शृंखला निकाल रहे हैं। बात शायद गत वर्ष 2013 के नवंबर-दिसंबर माह की है। एक दिन उनका फोन आया। बोले, “नीरव, ‘पड़ाव और पड़ताल’ के एक खंड का तुम्हें संपादन करना है।” उन दिनों मैं अपनी बड़ी बिटिया की शादी से संबंधित कामों में बहुत मशरूफ़ था। 19 फरवरी 2014 की विवाह तिथि तय हो चुकी थी। मैंने क्षमायाचना की कि मैं अपनी व्यस्तताओं के चलते इतना बड़ा उत्तरदायित्व लेने में असर्मथ हूँ। उनके बार बार अनुरोध करने के बावजूद जब मैंने पूरी तरह से इस उत्तरदायित्व को उठाने से इन्कार कर दिया,  तब वह बोले, “पर भाई एक काम तो मैं तुमसे अवश्य करवाऊंगा और तुम्हें करना ही होगा।” मैंने पूछा, “कौन सा ?” बोले, “खंड -3 का मैं संपादन कर रहा हूँ और उसमें रमेश बतरा की लघुकथाएँ जा रही हैं। वह तुम्हारे खास मित्र रहे हैं। तुम्हें उनकी 11 लघुकथाओं पर इस खंड के लिए आलेख लिखना है। जल्दी नहीं है, बिटिया की शादी के बाद यानि अप्रैल 14 के अंत तक लिखकर दे देना। इन्कार नहीं करना।” यह मेरी रूचि का कार्य था और समय भी मिल रहा था। रमेश बतरा पर मैं वैसे भी कई वर्षों से कुछ लिखना चाहता था। सोचा, भाई मधुदीप जी एक सुअवसर दे रहे हैं तो मुझे इन्कार नहीं करना चाहिए और मैंने ‘हाँ’ कर दी। तो मित्रो, इस बहाने मैंने रमेश बतरा की 11 चुनी हुई लघुकथाओं पर एक आलेख लिखा – ‘रमेश बतरा : तनी हुई रस्सी पर सधे कदम’। ‘पड़ाव और पड़ताल’ का तीसरा खंड प्रकाशित होकर आ गया है और मेरा यह आलेख इस खंड में शामिल है। इस आलेख को मैं आपसे अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’ के माध्यम से भी साझा कर रहा हूँ।
-सुभाष नीरव 
 

रमेश बतरा : तनी हुई रस्सी पर सधे कदम

सुभाष नीरव 

रमेश बतरा सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर अपनी मृत्य से कुछ वर्ष पूर्व तक हिंदी लघुकथा की दशा और दिशामें महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने वाले कथाकार रहे। वह एक प्रतिभाशाली बहुआयामी लेखक व संपादक थे। तारिकासे सारिकातक हिंदी लघुकथा के लिए किए गए उनके कार्य को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने हिंदी में कई नए लघुकथाकार पैदा किए। कहानी, लघुकथा, नाटक, संस्मरण आदि विधाओं में मौलिक लेखन के साथ-साथ अनुवाद में भी दमखम रखते थे। इसके अलावा वह सुलझे हुए पत्रकार तो थे ही। अधिक बोलने और अधिक लिखने (धुआँधार लेखन) में जैसे वह यकीन नहीं करते थे। कम बोलना और कम लिखना उनकी आदत में शुमार था। उन्होंने रचनाओं की संख्या बढ़ाने में कभी विश्वास नहीं रखा, अच्छा और दमदार लिखने की कोशिश में कम लिखते थे। तीन कहानी संग्रह, एक नाटक, एक अनुवाद की किताब और करीब तीस-पैंतीस लघुकथाओं के इस लेखक के लेखकीय सरोकार स्पष्ट थे। वह जानते थे कि लेखन में उनकी क्या प्रतिबद्धता होनी चाहिए। हिंदी साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि न तो उनके जीवित रहते और न ही उनकी मृत्यु के बाद अब तक उनका कोई लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो पाया है। उनकी जो भी तीस-पैंतीस लघुकथाएँ हैं, वे इधर उधर पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, कोशों में प्रकाशित होकर बिखरी पड़ी हैं। जरूरत, खोया हुआ आदमी, अनुभवी, नागरिक, लड़ाई, कहूँ कहानी, नौकरी, दुआ, बीच बाज़ार, स्वाद, सूअर, खोज, शीशा, सिर्फ़ हिंदुस्तान में, नई जानकारी, चलोगे, राम रहमान, अपना खुदा, वजह, माँएँ और बच्चे, हालात, सिर्फ़ एक आदि लघुकथाएँ रमेश बतरा की उत्कृष्ट लघुकथाएँ है जो उनके लेखकीय कौशल के बेहतरीन उदाहरण के रूप में हमारे सम्मुख आती हैं। परंतु यहाँ इनमें से केवल 11 लघुकथाएँ - सूअर, खोज, खोया हुआ आदमी, नौकरी, दुआ, नागरिक, लड़ाई, शीशा, स्वाद, बीच बाज़ार और अनुभवी ही पड़ताल के केन्द्र में रखने के लिए चुनी गई हैं। 
           

रमेश बतरा की लघुकथाओं में मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लोग बहुतायत में मिलते हैं। वह अपनी लघुकथाओं के किरदारों को समाज के इन्हीं वर्गों में से उठाते हैं। उनकी संवेदना और उनकी लेखकीय पक्षधरता समाज के इन्हीं लोगों की दुःख-तकलीफ़ों और उनके संघर्षों से अधिक जुड़ी है। सूअरका कारखाने में काम करने वाला मजदूर, ‘नौकरीका बाबू रामसहाय, ‘दुआका स्कूटर वाला, ‘नागरिकका निरंजन और उसका दोस्त, ‘स्वादके रिक्शा चालक, ‘बीच बाज़ारकी स्त्रियाँ, ‘अनुभवीका भीख मांगता व्यक्ति - ये सभी चरित्र उनकी जनपक्षधरता का सबूत पेश करते हैं।             

अच्छी रचना में जीवन का यथार्थ कभी भी हू-ब-हू नहीं आता। वह जब भी आता है, कलात्मक यथार्थ में ढलकर आता है। यह कलात्मक यथार्थ रचना को ग्राह्य और पठनीय भी बनाता है। जीवन के यथार्थ को कलात्मक यथार्थ में कैसे बदला जाता है, रमेश बतरा बखूबी जानते थे। इस कलात्मक यथार्थ को रमेश बतरा की अनेक लघुकथाओं मे सरलता से देखा जा सकता है। जीवन यथार्थ को रचना में कलात्मक बनाने के लिए वह प्रायः फैंटेसी का भी सहारा लेते हैं। फैंटेसीका प्रयोग लेखक के रचनात्मक कौशल पर निर्भर करता है। कई बार फैंटेसीरचना को क्लिष्ट और दुरुह भी बना देती है और लेखक के मंतव्य को पाठक तक पहुँचाने में बाधा उत्पन्न करती है। लेकिन रमेश बतरा की लघुकथाओं में आई फैंटेसीरचना में एक गुण के तौर आती है, जो रचना को न केवल सपाट बयानी से बचाती है बल्कि उसको और अधिक धारदार भी बनाती है - खोज’, ‘खोया हुआ आदमी’ ‘नागरिकइसी श्रेणी की खूबसूरत लघुकथाएँ हैं। खोजलघुकथा में बेटी के दुपट्टे का फटना’, ‘उसे सिलने की कोशिश में सुई का गिरकर गुम हो जाना’, ‘कोठरी में अँधेरा पसर जानाऔर रोशनी को ढूँढ़नाये ऐसे बिम्ब और प्रतीक हैं जो अपनी सांकेतिकता में इस लघुकथा को साधारण से असाधारण बनाते हैं। बेटी के दुपट्टेका फटना उसकी अस्मत का लुटना है, उसे सिलने की कोशिश करना, परिस्थिति से जूझना-लड़ना है, लेकिन सुई का गिरकर खो जाना, एक नाकामयाबी की ओर संकेत करता है और कोठरी में फैला अँधेरा घोर निराशा का प्रतीक। बुढ़िया इसी निराशाभरे अँधेरे से निजात पाने के लिए गली गली, घर घर एक उम्मीद की रोशनी ढूँढ़ती फिरती है। लघुकथा की अन्तिम चार पंक्तियों को देखें - 

            कमाल है, जब सुई गिरी कोठरी में है तो कोठरी में ही मिलेगी और कहाँ जाएगी ?“

            वहाँ अँधेरा भर गया है।

            तो यहाँ क्या कर रही हो ?“

            रोशनी ढूँढ़ रही हूँ, रोशनी... तुम्हारे पास है क्या !           

ऐसी ही गज़ब की फैंटेंसी खोया हुआ आदमीमें देखने को मिलती है। सड़क पर मरे हुए आदमी की शक्ल में अपनी ही शक्ल का नज़र आना इस बात की ओर इशारा करता है कि ज़िन्दगी की आपाधापी में अपनी लड़ाई लड़ता आम आदमी खो गया है। सड़क हादसे में अथवा अन्य ढंग से चाहे कोई भी आम आदमी मरे, वह कहीं न कहीं हर सामान्य और आम आदमी से साम्य रखता है। उसकी मौत हर आदमी को अपनी मौत नज़र आती है। इस आम आदमी का भ्रष्ट व्यवस्था के हाथों रोज़ क़त्ल होता है, हम कातिल को जानते हुए भी कुछ नहीं कर सकते। करने की कोशिश का फल क्या होता है, वह नागरिकलघुकथा हमें बताती है। कहना न होगा कि रमेश बतरा अपनी लघुकथाओं में कलात्मकता और प्रतीकात्मकता की शक्ति को भलीभाँति पहचानते थे। उनके यहाँ बिम्ब और प्रतीक भाषा की ताकत बन जाते हैं। यही ताकत उनकी लघुकथाओं को आम लघुकथाओं से अलग करती है और उन्हें विशिष्ट भी बनाती है।

साम्प्रदायिक उन्माद पर रमेश बतरा ने अनेक लघुकथाएं दीं। वह साम्प्रदायिकता के नंगे नाच के बेहद खिलाफ रहे और समाज और देश में साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द को बनाये रखने के पक्षधर थे। सूअर’ ‘दुआइस सन्दर्भ में उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं। मनुष्य की बेबसी और मुफलिसी का चित्रण बेहद गंभीरता और गहराई के साथ दुआलघुकथा में हुआ है। आदमी परिस्थितियों के हाथों की कठपुतली है। ये परिस्थितियाँ किस तरह व्यक्ति को उसके चरित्र से गिराने-उठाने में भी अपनी भूमिका निभाती हैं, इसकी झलक इस लघुकथा में दिखाई देती है। लघुकथा का केन्द्रीय पात्र जेब में पैसे न होने पर भी अपने इलाके में भड़के दंगे की ख़बर पाकर स्कूटर रिक्शा करके अपने घर की ओर भागता है। अपने परिवार की चिन्ता उसकी विवशता बन जाती है। यही विवशता उसे ‘चालाक’ बनाती है, वह स्कूटर रिक्शा चालक को बग़ैर पैसे दिए भाग खड़ा होता है। दूसरी तरफ स्कूटर रिक्शा चालक अपने को बेहद निरीह और लुटा-सा पाता है और कुछ नहीं कर पाता। लघुकथा का अन्तिम पैरा इस लघुकथा को एकाएक ऊँचाई और धार प्रदान करता है और लघुकथा के शीर्षक को भी सार्थक करता है, जब किराया न पाकर स्टकूर रिक्शा चालक गोली की तरह दंगाग्रस्त इलाके में अपनी सवारी को घुसता पाकर बेबसी और गुस्से में बड़बड़ाते हुए कहता है - स्साला हिन्दू है तो मुसलमान के हाथ लगे और मुसलमान है तो हिंदुओं में जा फंसे !मेहनतकश आम आदमी का दंगों से कोई लेना देना नहीं होता, उसे तो दो वक्त की रोटी के लिए जी तोड़ मेहनत और पसीना बहाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। सूअरलघुकथा का अन्तिम वाक्य तो यहाँ क्या कर रहे हो ? जाकर सूअर को मारो...ही लघुकथा को एक ऊँचाई प्रदान कर जाता है और यह लघुकथा पाठक के हृदय में अपना अमिट प्रभाव छोड़ पाने में सफल हो जाती है।  

अपने स्वार्थ के लिए चापलूसी का सहारा लेकर अक्सर पाला बदलने वालों से समाज भरा पड़ा है। ऐसे चरित्रों को नौकरीऔर बीच बाज़ारजैसी अपनी लघुकथाओं में जिस कुशलता से रमेश बतरा प्रस्तुत करते हैं, वह रचनात्मक कौशलता ही उन्हें विशिष्ट और प्रभावशाली बनाती है। नौकरीमें चापलूस और अवसरवादी कर्मचारी का किरदार हर सरकारी, गैर-सरकारी कार्यालय में हमें आसानी से मिल जाएगा, जो बॉस के आगे स्टाफ की चुगलियाँ करता है और स्टॉफ के सामने आकर गिरगिट की तरह रंग बदलकर अपने बॉस को गाली देता है - हरामी सठिया गया है, मरेगा !यही दोहरी मानसिकता, दोगली सोच और अवसरवादिता बीच-बाज़ारकी स्त्रियों में मिलती हैं। इन दोहरे चरित्रों वाले असवरवादी लोगों पर बहुत-सी लघुकथाएँ हिंदी और अन्य भाषाओं में लिखी गई हैं, परंतु जो रचनात्मक कसाव और रचना से न्याय हमें रमेश बतरा की इन लघुकथाओं में मिलता है, वो अन्यत्र कम ही दिखलाई देता है।         

रमेश बतरा की लघुकथाओं में आए शिल्प को भी नज़रअंदाज करना कठिन होगा। एक कौशलपूर्ण शिल्प जिसकी लघुकथाओं को दरकार है, वह रमेश बतरा की लघुकथाओं में सहजता से मिल जाता है। तनी हुई रस्सी पर सधे कदमों से चलने जैसा ! ऐसा कमाल विरले लेखकों में ही मिलता है।           

रमेश बतरा की बहुत-सी लघुकथाओं में मानवीय संवेदना का अद्भुत रूप भी हमें देखने को मिलता है। संवेदना के बग़ैर कोरा विचार कभी भी रचना को बेहतर रचना नहीं बना सकता। स्वादलघुकथा अपनी गहन संवेदना के कारण बेहद प्रभावशाली लघुकथा है। भूखऔर स्वादके बीच का ऐसा अन्तर अन्यत्र देखने में नहीं मिलता, कम से कम हिंदी लघुकथा में तो नहीं ही। हीरा और मोती दो भाई हैं और अपनी गरीबी के चलते शहर में आकर रिक्शा खींचने को विवश हैं। दोनों प्रतिदिन साथ बैठकर खाना खाते हैं। पर एक दिन हीरा हैरान होता है कि ग्राहक छोड़कर भी ढाबे पर समय से पहुँच जाने वाला और आठ-दस रोटियाँ झटककर ही दम लेने वाला उसका भाई मोती जब कुछ भी खाने से इन्कार कर देता है। हीरा को जब सच्चाई का पता लगता है तो वह और भी अधिक हैरान रह जाता है कि मोती अपना स्वादखराब नहीं करना चाहता क्योंकि उस दिन उसे किसी सवारी के छूट गए टिफिन का खाना खाने का (सु)अवसर मिला था। घर के खाने और बाज़ार के खाने में क्या अंतर होता है, यह कौन नहीं जानता।            

शीशाऔर लड़ाईके केन्द्र में स्त्रियों की दो अलग अलग मनोदशाओं का चित्रण है। एक तरफ, ‘शीशालघुकथा उन तमाम स्त्रियों का सच है जो अपने नकली स्टेट्स को कायम रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाती हैं। पर्सजैसी वस्तुएँ उनका स्टेट्स सिंबल है और वे अपनी नग्नता से कहीं अधिक अपने स्टेट्स की चिंता में संलग्न रहती हैं। जब कि दूसरी ओर लड़ाईउस स्त्री की मनोदशा का खूबसूरत और सटीक चित्रण करती है जिसका बांका बहादुर पति अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो जाता है। तब बन्दूकमें ही वह अपने रण-बांकुरे की छवि देखती है और बिस्तर पर अपनी बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो जाती है।           

वक्त के हाथों लाचार होकर सड़क पर आए परिवार के पेट की भूख किस तरह भीख के रास्ते की ओऱ मनुष्य को धकेलती है, इसका उदाहरण हमें अनुभवीलघुकथा में मिलता है। लघुकथा में सभी कुछ विस्तार से कहने की गुंजाइश कतई नहीं होती, कुछ बातें संकेतों के आसरे भी छोड़ दी जाती हैं। इस लघुकथा की शुरुआती पंक्तियाँ जो हालात के मारे व्यक्ति के मन मे चल रही उधेड़बुन को व्यक्त करती हैं - अब यही काम बाकी रह गया था... नसीब जो करवा दे, सो ही कम हैं... मरजी परमेश्वर की, जाने अभी क्या क्या करना लिखा है नसीब में !और यह पंक्ति उसकी नज़र सामने वाले मैदान की ओर उठ गयी, जहाँ उसकी बीमार पत्नी और बेटा धूप में लेटे रातभर रग रग में जमती रही सर्दी को पिघला रहे थे...वक्त की मार के शिकार एक परिवार की उस बेबसी और लाचारगी को बखूबी बयान कर जाती हैं जिसके चलते परिवार का मुख्यिा भीख मांगने के लिए विवश हो जाता है। परन्तु सांड-सी देह है, मेहनत करके क्यों नहीं कमाता भड़वे ?’ जैसा नुकीले तीर-सा चुभता वाक्य पुनः भीख मांगने की उसकी हिम्मत को नपुंसक बना देता है। सड़क पर किसी बच्चे को भीख मांगते और भीख पाते देख उसे अपना बच्चा याद आता है जिसे वह अपने संग इसलिए नहीं लाया था कि वह बुरी आदत सीख सकता था। वह उसको मिठाई का लालच देकर भीख मांगने के लिए उकसाने को मजबूर होता है। अनुभवहीन बच्चा किसी अनुभवी भिखारी की तरह जब पूछे जाने पर यह कहता है कि बाप ?... बाप मर गया है बाबू साब !तो आसपास ही खड़ा उसका पिता भौंचक्क रह जाता है। परिस्थितियाँ क्या कुछ नहीं सिखा देतीं, इस मंतव्य को बड़ी खूबी से यह लघुकथा अन्त में प्रकट करती है। लघुकथा को कहाँ, किस चरम बिन्दु पर समाप्त करना है, यह कौशल रमेश बतरा की अनेक लघुकथाओं में विद्यमान है। सूअर’, ‘खोज’, ‘खोया हुआ आदमी’, ‘नौकरीलघुकथाओं के अन्त उनके इसी कौशल का परिचय देते हैं।

रमेश बतरा लघुकथा को लेकर जो कहते थे, उसे खुद पर भी लागू करते थे। यह बात वह ज़ोर देकर कहते थे कि लघुकथा को आत्मलोचनाकी ज़रूरत है। वह यह भी कहते थे कि जब एक बहुत बड़े पाठक वर्ग ने लघुकथा को अपना समर्थन दे दिया है तो लघुकथा लेखकों पर यह जिम्मेदारी और भी ज्यादा आयद हो जाती है कि वे लघुकथा को और भी बारीकी से जानें, सलीके से बुनें और करीने से सजायें। उनकी खुद की लघुकथाओं में यह बारीकी, यह सलीका और करीना हमें स्पष्ट दिखाई देता है। रमेश बतरा की लघुकथाएँ अगर आज भी हमें स्पर्श करती हैं और अविस्मरणीय लगती हैं तो इसके पीछे लघुकथा को लेकर उनकी स्पष्ट सोच है। वह लघुकथा को बेहद बारीकी से समझने, सलीके से बुनने और करीने से कागज पर सजाने की कला में माहिर थे। उनकी लघुकथाओं के चरित्र बेहद जीवन्त चरित्र हैं और हमारी ही दुनिया और समाज से उठाये गए हैं।

रमेश बतरा निःसंदेह बेजोड़ प्रतिभा, दृष्टि और कल्पनाशीलता के लेखक थे। इस बात की गवाही उनकी प्रायः हर लघुकथा देती है। वह लघुकथालिखने के लिए लघुकथानहीं लिखते थे। उसके पीछे एक सार्थक कारणहोता था। वह उस कारणको अपनी सधी हुई भाषा और अद्भुत शिल्प में नपे-तुले शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करते थे। उनकी लघुकथाओं में निरर्थकशब्दों के लिए दूर दूर तक कोई स्थान नहीं है। जो शब्द हैं, वे नगीने की भाँति जड़े हुए अपनी उपयोगिता व सार्थकता सिद्ध करते हैं।
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शनिवार, 24 मई 2014

कहानी-19


डॉ माधव सक्सेना 'अरविंद' मुंबई से 'कथाबिंब' नाम की एक हिंदी पत्रिका वर्षों से निकालते आ रहे हैं। यह

त्रैमासिक पत्रिका है और अब तक इसके 124 अंक छप चुके है और हाल ही इस
का कहानी विशेषांक (अंक 125-126, जनवरी-जून 2014) हिंदी के वरिष्ठ कथाकार भाई रूपसिंह चंदेल के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित हुआ है, पर अभी इसकी हार्ड कॉपी हाथ में नहीं आई। अलबत्ता, ऑनलाइन लिंक अवश्य मिल चुका है जिस पर जाकर पूरा अंक देख-पढ़ सकने की सुविधा है। 'कथाबिंब' में कई वर्ष पहले 'आमने-सामने' स्तंभ के अंतर्गत मेरा आत्मकथ्य और एक कहानी एकसाथ छ्पे थे। तब जाना था कि इस पत्रिका की पहुँच हिन्दी पाठकों तक कितनी गहरी है। शायद ही किसी पत्रिका में छपी मेरी रचना पर इतने फोन काल्स और एस एम एस आए हों, जितनी 'कथाबिंब' में प्रकाशित मेरी कहानी और आत्मकथ्य पर आए थे। एक झड़ी-सी लग गई थी। इसी पत्रिका के उक्त कहानी विशेषांक मेम मेरी भी एक नई कहानी ‘मुझे माफ़ कर देना’ प्रकाशित हुई है। चूंकि कहानी प्रकाशित हो चुकी है, इसलिए इसे अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’ पर प्रकाशित कर रहा हूँ। वे पाठक जिनके पास ‘कथाबिंब’ नहीं पहुंचता, मेरी इस कहानी को मेरे इस ब्लॉग पर आसानी से पढ़ सकेंगे।
आपकी राय मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण रहेगी।
-सुभाष नीरव

 

मुझे माफ़ कर देना...
सुभाष नीरव
 
 
डाक में कुछ चिट्ठियाँ आई पड़ी हैं। निर्मल एकबार उन्हें उलट-पलटकर देखती है, पर पढ़ने को उसका मन नहीं कर रहा। वह जानती है कि ये सभी चिट्ठियाँ पाठकों की तरफ से ही आई हैं, जो निःसंदेह अभी हाल ही में एक पत्रिका में छपे आत्मकथा-अंश को लेकर ही होंगी। अधिकांश में उसकी तारीफ़ होगी, कुछ में उसके साथ सहानुभूति दिखाने की कोशिश की गई होगी और हो सकता है, एक-आध चिट्ठी में आलोचना भी हो। पता नहीं क्यों, आजकल पाठकों के आए खतों को वह उतनी बेसब्री से नहीं पढ़ती जितनी बेसब्री से पहले पढ़ा करती थी। उसकी रचना पर यदि कोई खत आता था तो वह सारे काम छोड़कर उसे पढ़ने बैठ जाया करती थी। कई-कईबार पढ़ती थी, खुश होती थी। दिनभर एक नशा-सा तारी रहता था उस पर। वह उन चिट्ठियों का जवाब भी देती थी। पर अब उस तरह की उमंग उसके अन्दर जैसे शेष ही नहीं रही थी।

            निर्मल उठकर खिड़की के पास जा खड़ी होती है। खिड़की के पार एक टुकड़ा नीला आकाश कैनवस की तरह फैला हुआ है। कहीं-कहीं उड़ान भरते परिन्दे इस आकाश में एक लकीर-सी खींचते प्रतीत होते हैं। करीब बीस वर्ष हो गए निर्मल को भी कागज के आकाश पर शब्दों के परिन्दे उड़ाते हुए। कई कहानी संग्रह, कविता संग्रह, कितने ही उपन्यास और अब वह अपनी ज़िन्दगी के सफ़े खंगाल रही है। उम्र के इस पड़ाव पर वह अपनी आत्मकथा लिख रही है जिसका एक अंश हिंदी की एक प्रसिद्ध पत्रिका में अभी हाल में प्रकाशित हुआ है। उसकी नज़र फिर से मेज़ पर पड़ी चिट्ठियों पर पड़ती है। उसको लगता है, मानो मेज़ पर पड़ी चिट्ठियाँ उसको अपनी ओर खींच रही हों। वह छोटे-छोटे पैर उठाती मेज़ के पास खड़ी होती है। चिट्ठियों के ढेर को एकबार फिर उलट-पलटकर देखती है। अचानक एक लिफाफे पर उसकी दृष्टि स्थिर हो जाती है। लिफाफे के बाहर भेजने वाले का नाम पढ़कर वह सोच में पड़ जाती है। उसके हाथ तेज़ी से लिफाफा खोलते हैं। इतना लम्बा खत! यह तो उसकी कालेज की सखी रंजना का खत है। वह कुर्सी पर बैठ जाती है। कांपती उंगलियों में पकड़ा हुआ खत वह बेसब्री से पढ़ना शुरू करती है-

प्रिय निर्मल,
अरे, तू तो बहुत बड़ी लेखिका बन गई। तेरी एक दो कहानियाँ मैंने पहले भी पढ़ी थीं, जाने किस पत्रिका में, पर मुझे नहीं पता था कि उन कहानियों की लेखिका मेरी सखी निर्मल ही है। यह तो मुझे उस पत्रिका से पता चला जिसमें तेरी आत्मकथा तेरे परिचय और चित्र के साथ छपी हुई है। सच पूछो तो मैं तो यूँ ही वक़्तकटी के लिए इस पत्रिका के पन्ने पलट रही थी कि तेरी फोटो पर मेरी निगाहें रुक गईं। फिर तेरी आत्मकथा का अंश पढ़े बगै़र रह सकी। पढ़ लेने के बाद मैं पूरी रात बेचैन रही। नींद पता नहीं कहाँ रास्ता भूल गई थी। मुझे तेरे संग बिताये वे दिन याद आते रहे। वो कालेज के दिन मेरी आँखों के सामने जैसे पुनः जीवित हो उठे हों। तूने अपनी आत्मकथा में कालेज के दिनों को स्मरण किया है, मुझे और रवीन्द्र को याद किया है। रवीन्द्र और मुझे तूने जिस प्रकार पेश किया है, वह तेरा सच है। पाठकों को भी वह सच ही लगेगा। परंतु क्या तू सचमुच नहीं जानती कि तेरे साथ क्या हुआ था? या तू जान बूझकर उस सच को आँखों से ओझल किए रखना चाहती है। रवीन्द्र और मेरी तस्वीर तूने अपनी आत्मकथा में जिस प्रकार प्रस्तुत की है, क्या वह तस्वीर सच के बहुत करीब है? निर्मल... हमने एम..(हिंदी) एक साथ ही की थी। हम दोनों ने दो वर्ष कालेज के हॉस्टल के एक ही कमरे में इकट्ठा ही बिताये थे। हम अच्छी सहेलियाँ थीं, एक-दूजे को प्यार करती थीं। हमारे बीच लड़ाई-झगड़ा भी होता था। पर जितना मैंने तुझे समझा है, तू शुरू से ही एक चुप और गुमसुम-सी रहने वाली लड़की रही है। तूने कभी प्रतिवाद करना सीखा ही नहीं। जो तुझे मिल गया तो ठीक, नहीं तो सब्र कर लिया। अपना दर्द, अपना दुःख, अपनी पीर, तू अपने अंदर ही जज़्ब करती रहने वाली स्त्री है। शायद, इसी जज़्ब किए दर्द ने तेरे हाथों में कलम दे दी और तू मुँह से बोलकर अपने शब्दों से उन्हें जुबान देती रही। मुझे लगता है, तू आज भी वैसी ही है, जैसे पहले थी। पर मैं बचपन से ही ऐसी लड़की नहीं थी। मैंने चुप रहना कभी सीखा ही नहीं। अपनी बात चीख-चीखकर कहना, अपनी हर बात को लोगों से मनवाना मेरी आदत का एक अहम हिस्सा रहा है। जो चीज़ मुझे पसंद जाती, उसको हासिल करना मेरी मज़बूरी बन जाता। यदि मेरी पसंदीदा वस्तु मुझे आसानी से नहीं मिलती तो मैं उसे छीन लेने की हद तक पहुँच जाती और छीन भी लेती। बचपन में बहन-भाइयों से छीन लिया करती थी। बड़ी हुई तो सहेलियों से छीन लेना मेरी आदत थी। मैं यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी कि जिसको मैं पसंद करती हूँ, जो मैं चाहती हूँ, वह चीज़ कोई दूसरा ले जाए। मेरी इस आदत से तू भलीभाँति वाकिफ़ है। तेरी कोई भी चीज जो मुझे अच्छी लग जाती थी, पसंद जाती थी, मैं तेरे से मांगती नहीं थी, छीन लेती थी। चाहे वह तेरा पेन हो, तेरा हेयर-क्लिप हो, सूट हो या फिर जूती। तू कईबार एक दो दिनों के लिए मुँह फुला लिया करती थी, परंतु मुँह से कोई प्रतिवाद नहीं करती थी। कभी लड़कर अपनी चीज़ वापिस नहीं ली। तेरे मुँह में जैसे जुबान ही हो। निर्मल...मैं कईबार सोचती थी कि तू कैसी लड़की है। इसी बीच, हमारी ज़िन्दगी में रवीन्द्र गया। एक सुन्दर, खूबसूरत नौजवान। मेरी बड़ी बहन की एक सहेली का छोटा भाई। पता नहीं, उसकी देह में कैसी खुशबू थी कि मैं पहली ही नज़र में उसकी हो गई। सोते-जागते उसका नशा मेरे पर तारी रहता। हर वक़्त उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने रहती। वो जब भी मेरे साथ बात करता, मैं किसी दूसरी ही स्वप्नमयी दुनिया में पहुँच जाती। वह मेरे संग इतना खुल गया था कि हम आपस में हर प्रकार की बातें कर लेते थे। वो बातें भी जो समाज में वर्जित कही जाती हैं। फिल्म और साहित्य को लेकर वह अक्सर बातें करता था। विशेषकर वे बातें जो स्त्री-पुरुष के बीच की अंतरंग बातों को व्याख्यायित करती थीं। मेरे भीतर एक औरत भूखी रहने लगी थी। मैं उसकी भूख को कुचलने की कोशिश करती, तो वह और अधिक भड़क उठती। मैं सोचती कि वह भूख रवीन्द्र के सानिध्य में कम हो जाएगी, उसके स्पर्श से वह शांत हो उठेगी, पर ऐसा होता। वह और अधिक तेज़ हो जाती। फिर सोचती, रवीन्द्र की अनुपस्थिति में यह भूख शांत हो जाएगी, पर जब वह मेरे करीब होता तो इस भूख को जैसे दौरा-सा पड़ जाता। मुझे वह रवीन्द्र के पास दौड़ा ले जाना चाहती। अभी मैं अपने भीतर की औरत की इस भूख से दो-चार हो ही रही थी कि मुझे यह अहसास होने लगा कि रवीन्द्र की दिलचस्पी मुझमें खत्म होती जा रही है, वह अब तेरी तरफ़ झुक रहा है। जब वह मुझसे मिलने आता था, मुझे लगने लगता कि वह मुझे नहीं, मेरे बहाने तुझे मिलने आता है। उसकी नज़रें अब मुझे नहीं तलाशती थीं। वह अब तेरे में दिलचस्पी लेने लग पड़ा था। यह बात अलग है कि वह अभी भी मुझसे उसी प्रकार खुल कर बातें किया करता था। यह मेरे लिए असहनीय था, कतई असहनीय निर्मल... मुझे यह बिल्कुल मंजूर नहीं था कि वह मुझे इग्नोर करके तेरे संग बातें करें। फिर, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे तू भी उससे प्रेम करने लग पड़ी थी। वह आता तो तेरा चेहरा खिल उठता। तू अधिक से अधिक उसके संग रहना चाहती थी। मुझे लगा मानो तू मेरे से मेरी प्यारी चीज़ को छीन लेना चाहती है। मैं रवीन्द्र को पूरा का पूरा हासिल करना चाहती थी। मेरे भीतर की औरत पागल हुई बैठी थी। मैंने तेरे बारे में रवीन्द्र से क्या-क्या झूठ नहीं बोला। तेरे चरित्र को दागी बताया। तेरी बुराइयाँ की। कालेज के कितने ही लड़कों के संग तेरे संबंध हैं, रवीन्द्र को मैं बताती रही। मैं चाहती थी कि रवीन्द्र तेरे साथ कोई रिश्ता रखे। तेरे साथ बात करे। परंतु, आहिस्ता-आहिस्ता मुझे पता चला कि मैं जो बात रवीन्द्र को तेरे बारे में बताती थी, वह सब की सब तुझे बता देता था। पर तूने कभी इस बारे में मेरे साथ बात नहीं की। ही कोई झगड़ा किया, रूठी, रोई, कलपी।
            निर्मल... तूने अपनी कहानियों, अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने दुःख लोगों से साझे करने की राह खोज ली। तुझे प्रारंभ से ही साहित्य में रुचि रही थी। हिंदी साहित्य ही नहीं, दूसरी भारतीय भाषाओं का साहित्य भी तू लाइब्रेरी से इशु करवाकर पढ़ती रहती थी। तेरे पास आज एक भाषा है, एक शैली है, एक ढंग है अपनी बात अपनी कलम के माध्यम से कहने का। पर, मेरे पास तेरे जैसी भाषा है, शैली है, मुझे लिखने का कोई ढंग आता है, पर मैं इस खत के जरिये तेरे साथ अपना दुःख ही नहीं, एक सच...कड़वा सच भी साझा करना चाहती हूँ। निर्मल...मैंने तुझे ही नहीं, रवीन्द्र को भी धोखा दिया। पर आज लगता है, धोखा तो मैंने अपने आप को भी दिया था। मैं रवीन्द्र को हर हाल में अपना बनाना चाहती थी, उसकी हो जाना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह मेरा रहे, पूरा का पूरा। मैं बाजी हारना नहीं चाहती थी। हमारे एम.. फाइनल के पेपर हो चुके थे। एक दिन मैंने रवीन्द्र से कहा कि मेरी कोख में उसका अंश पल रहा है। उसके पैरों तले से जैसे धरती खिसक गई हो। वह घबरा गया। मैंने उससे कहा कि यदि वह महीने के अंदर-अंदर मेरे साथ विवाह नहीं करेगा तो मैं यह बात अपने परिवार में बता दूँगी और खुद ज़हर खा लूँगी। रवीन्द्र मेरी धमकी से डर गया। जो तीर मैंने चलाया था, वह ठीक निशाने पर लगा था। उसने चुपचाप मेरी बात मान ली। मेरे माता-पिता और भाइयों ने रवीन्द्र को लेकर कोई एतराज़ नहीं किया। शायद इसके पीछे रवीन्द्र का एक अच्छे परिवार से होना रहा हो या फिर उसके परिवार के सफल कारोबार का होना एक कारण रहा हो। मैं खुश थी। हवा में उड़ रही थी। मेरे पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। मेरे सपने सच होने जा रहे थे। यह वो खुशी थी जिसे मैं तब तुझसे शेयर करना चाहकर भी शेयर नहीं कर पा रही थी।

            महीने भर बाद हमारा विवाह हो गया। मुझे वो दिन अभी भी याद हैं जब मैंने आखि़री बार तेरा चेहरा देखा था, तूने कोई रोष व्यक्त नहीं किया था, कोई प्रतिवाद नहीं किया था। तूने हम दोनों को मुबारकबाद दी थी और तेरे चेहरे पर खुशी के रंग थे। पर क्या तू वाकई भीतर से खुश थी? नहीं, तुझे बहुत दुःख हुआ था रवीन्द्र की बेवफ़ाई पर, पर जैसा कि तेरा स्वभाव रहा है, तूने उफ्फ तक नहीं की। अपना दुःख, अपनी पीर अपने अंदर ही जज़्ब कर ली।

            विवाह के बाद हम मुम्बई गए। पहले रवीन्द्र अपने पिता और भाइयों के संग मिलकर कारोबार करता रहा, फिर उसने अपना बिजनेस अलग कर लिया। अपने बिजनेस को लेकर वह पागल हुआ फिरता था। वह मुझे प्यार करता था, या फिर अपने काम को। पर निर्मल... मैं अपना झूठ कब तक छिपा सकती थी? विवाह के तीन महीनों बाद भी जब मैं उम्मीद पर हुई तो मेरी परेशानी बढ़ने लग पड़ी। मैं अपने झूठ को कैसे छिपाती। मैंने एक दिन रवीन्द्र से सबकुछ सच सच बता दिया। मैंने यह झूठ सिर्फ़ रवीन्द्र को हासिल करने के लिए बोला था। मैं उससे बेइंतहा मुहब्बत करती थी। पर रवीन्द्र इस सच को जानने के बाद मेरे साथ कभी हँसकर नहीं बोला। वह जैसे ख़ामोशी के गहरे कुओं में गुम होता चला गया था। वह बहुत कम मतलब की बात ही मेरे साथ करता। उसने अपने आप को और अधिक अपने काम और बिजनेस में झोंक दिया। एक वर्ष बीता, दूसरा बीता और फिर तीसरा... चैथा और मैं माँ बनने को तरस गईं। डॉक्टरों को दिखलाया तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह मेरे लिए ऐसे था जैसे मेरे कानों में किसी ने गरम पिघलता हुआ शीशा डाल दिया हो। मैं ज़िन्दगी में कभी माँ नहीं बन सकती थी।

            दुःख का एक विशाल पहाड़ जैसे मेरी ख्वाहिशों पर अचानक गिरा था। सारी चाहतें, सारे सपने उसके नीचे दबकर, कुचलकर दम तोड़ रहे थे और मैं बेबस देख रही थी। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। खाने को, पीने को, पहनने को। रात रातभर मैं जागती रहती। मुझे अपनी ज़िन्दगी में अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देता था। काला... स्याह अँधेरा... रोशनी की हर किरण को लीलता हुआ।

            एक दिन मुझे ख़बर मिली कि पुत्र की चाह में मेरी बड़ी बहन के यहाँ तीसरी कन्या ने जन्म लिया था। एक दिन रवीन्द्र और मैंने आपस में सलाह-मशवरा किया और मैं अपनी बहन की छह महीने की बेटी अपने घर ले आई। रवीन्द्र ने उसका नाम रखा - श्वेता। श्वेता के जाने के बाद मेरे अंदर की माँ जैसे जीवित हो उठी। हमने श्वेता को पाला, पोसा, पढ़ाया और योग्य बनाया। जब वह ब्याहने योग्य हुई तो रवीन्द्र ने कहा, “हम अपनी बेटी का विवाह उसके संग करेंगे जो घर-दामाद बनने को तैयार होगा। हमें वर खोजने में कोई अधिक परेशानी नहीं हुई। रवीन्द्र का फलता-फूलता बिजनेस था, हमारी बेटी पढ़ी-लिखी और सुन्दर थी। हमने उसका विवाह कर दिया। लड़का हमारे घर पर ही रहने लगा। रवीन्द्र के साथ बिजनेस में हाथ भी बटाने लग पड़ा।

            और फिर एक दिन मेरी ज़िन्दगी में फिर से अँधेरा छा गया।

            एक दिन काम करते समय रवीन्द्र की छाती में ऐसा दर्द उठा कि वह वहीं का वहीं ढेरी हो गया। उसको हार्ट-अटैक पड़ा था। फिर इसके बाद की कहानी मैं निर्मल तुम्हें क्या बताऊँ... जिसे मैंने अपनी बेटी समझकर पाला, उसने मुझे माँ कहना तो एक तरफ, माँ समझना भी बंद कर दिया। माँ जी, माँ जी करते दामाद ने भी रंग बदल लिए। दोनों ने रवीन्द्र का सारा बिजनेस अपने हाथों में ले लिया। एक फ्लैट और थोड़ी-सी प्रॉपटी मेरे नाम छोड़कर उन्होंने सबकुछ बेच दिया और स्टेट्स चले गए। कई वर्ष हो गए हैं अब तो उन्हें गए हुए। कभी कोई फोन नहीं, कोई चिट्ठी नहीं। मैं हूँ और बस, मेरा अकेलापन है। कभी कभी मैं सोचती हूँ कि दूसरों से चीजे़ं छीन लेने वाली मैं आज अपना सबकुछ गवां चुकी हूँ। निर्मल... जब मैंने रवीन्द्र को तेरे से छीना था तो सोचा था कि मैं जीत गई और तू हार गई। पर मुझे लगता है, मैं जीतकर भी जीती नहीं थी, और तू हारकर भी हारी नहीं थी। रवीन्द्र ने तुझे कभी अपने दिल से भुलाया नहीं था। वह बेशक मेरे साथ था, दुनियादारी के लिए मुझसे प्यार करता था, पर दिल से तेरे पास था, तुझे ही प्यार करता था। कई बार मुझे प्यार करते करते मेरा नाम भूल जाता था औरनिर्मल... निर्मल...’ कहने लग पड़ता था। उन्हीं क्षणों में मुझे लगता था, वह मुझे नहीं, मेरे जरिये तुझे अपनी बांहों में कस रहा है... तुझे प्यार कर रहा है। सच, निर्मल, वह मेरा कभी हुआ ही नहीं। वह तो तेरा था जिसको मैंने झूठ का सहारा लेकर तुझसे छीन लिया था। अगर मुझे माफ़ी के योग्य समझो तो मुझे माफ़ कर देना, निर्मल... तेरी सखी - रंजना।

            निर्मल के हाथों में खत अभी भी झूल रहा है... उसके हाथ कांप रहे हैं... उसने खत को पहले अपने होंठों से लगाया और फिर छाती से चिपका लिया है। उसको ऐसा लगता है मानो उसने खत को नहीं, रंजना को अपनी छाती से लगा रखा है... उसकी आँखों से दो मोती गिरते हैं और खत के पन्ने उन मोतियों को अपने में जज़्ब कर लेते हैं।

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