नववर्ष की शुरुआत में ही किसी बड़ी
साहित्यिक पत्रिका में छपने का एक अलग ही सुखद अहसास होता है। ‘हंस’ के जनवरी 2014
के अंक में मेरी नई लघुकथा ‘सेंध’ का छपना भी मुझे कुछ ऐसा ही सुखद अहसास दे गया।
यानि नव वर्ष 2014 की शुरुआत अच्छी हुई। चूंकि अब यह लघुकथा प्रकाशित हो गई है,
अत: अपने ब्लॉग पर मैं इसे साहित्य प्रेमियों, विशेषकर लघुकथा प्रेमियों से साझा
कर रहा हूँ, नववर्ष 2014 की शुभकामनाओं के साथ, इस उम्मीद से कि इस लघुकथा पर मुझे
आपकी बेबाक राय भी मिलेगी।
-सुभाष नीरव
सेंध
सुभाष नीरव
चाँदनी रात होने की वजह से गली में नीम उजाला था। दो साल पहले इधर आया था। अब तो गली का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था। किसी तरह अखिल का मकान खोज पाया। घंटी बजाई और इंतज़ार करने लगा। कुछ देर बाद अंदर कदमों की आहट हुई और बाहर दरवाजे क़े सिर पर लगा बल्ब 'भक्क' से जल उठा। अधखुले दरवाजे क़ी फांक में से एक स्त्री चेहरे ने झांका और पूछा- ''कौन ?''
''भाभी, मैं हूँ रमन।''
''अरे तुम ! रात में इस वक्त ?''
दरवाज़ा पूरा खुला तो मैं अटैची उठाये अंदर घुसा। साथ ही बैठक थी। मैं सोफे में धंस गया। नेहा दरवाज़ा बंद करके पास आई तो मैंने सफ़ाई दी-
''ट्रेन लेट हो गई। शाम सात बजे पहुँचने वाली ट्रेन दस बजे पहुँची। ऑटो करके सीधे इधर ही चला आ रहा हूँ। कल यहाँ दिन में एक ज़रूरी काम है। कल की ही वापसी है,
शाम की ट्रेन से।''
नेहा ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया। पानी पीकर मैंने पूछा, ''अखिल सो रहा है क्या ?''
''नहीं, वह तो टूर पर हैं, तीन दिन बाद लौटेंगे।''
''अरे! मुझे मालूम होता तो मैं स्टेशन पर ही किसी होटल में...''
''अब बनो मत... हाथ-मुँह धो लो। भूख लगी होगी। सब्जी और दाल रखी है। फुलके सेंक देती हूँ।''
खाना परोसते हुए उसने पूछा,
''कोई लड़की पसंद की या यूँ ही बुढ़ा जाने का इरादा है ?''
मैं मुस्करा भर दिया। भीतर से एक आवाज़ उठी, 'एक पसंद की थी, वो तो पत्नी की जगह भाभी बन गई...'
''तुम यहीं बैठक में दीवान पर सो जाओ। सुबह बात करेंगे, रात अधिक हो गई है।''
कहते हुए नेहा तकिया और चादर रखकर अपने बेडरूम में चली गई।
मैं लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा। पर नींद आँखों से गायब थी। काफी देर तक करवटें बदलता रहा। मेरे अंदर कुछ था जो मुझे बेचैन कर रहा था। बेचैनी के आलम में मैं उठा और लॉबी में जाकर खड़ा हो गया। लाइट जलाने की ज़रूरत महसूस नहीं की। खुली खिड़की में से छनकर आता चाँदनी रात का उजाला वहाँ छिटका हुआ था। पुराने दिनों की यादें जेहन में घमासान मचाये थीं। वे दिन जब मैं नेहा के लिए दीवाना था। खूब बातें होती थीं पर मन की बात कह नहीं पाया था। जब तक अपने दिल की बात नेहा को कह पाता,
तब तक देर हो चुकी थी। मेरे मित्र अखिल ने बाजी मार ली थी।
बैडरूम का दरवाजा आधा खुला था। टहलते हुए एकाएक मैं बैडरूम के दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ। नाइट बल्ब की हल्की नीली रोशनी में अकेली सोई पड़ी नेहा का चेहरा बेहद खूबसूरत लग रहा था। रत्ती भर भी फर्क नहीं आया था नेहा में,
शादी के बाद भी। कुछ पल मैं उसे अपलक निहारता रहा। फिर इस डर से कि कहीं मेरी चोरी पकड़ी न जाए, मैं वहाँ से हट गया। गला सूखता महसूस हुआ तो मैंने फ्रिज में से पानी की ठंडी बोतल निकाल ली।
''अरे तुम हो! खटका सुन मुझे लगा कोई...'' नेहा सामने खड़ी विस्फारित नज़रों से मेरी ओर देख रही थी।
''कोई कौन ?''
''पति के बिना यहाँ रात में बहुत सर्तक होकर सोना पड़ता है। घर में अकेली औरत हो तो सेंध लगाने में देर नहीं करते चोर...''
'चोर ?' दिमाग में जैसे कुछ ‘ठक’ से हुआ । नेहा के चेहरे की ओर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैंने गटागट पानी की पूरी बोतल हलक से नीचे उतार ली।
''लगता है,
बहुत प्यास लगी थी ?''
''हाँ...।'' मैंने नज़रें झुकाये हुए कहा और चुपचाप जाकर दीवान पर चादर ओढ़कर सो गया।