डॉ माधव सक्सेना 'अरविंद' मुंबई से 'कथाबिंब' नाम की एक हिंदी पत्रिका वर्षों से निकालते आ रहे हैं। यह
त्रैमासिक पत्रिका है और अब तक इसके 124 अंक छप चुके है और हाल ही इसका कहानी विशेषांक (अंक 125-126, जनवरी-जून 2014) हिंदी के वरिष्ठ कथाकार भाई रूपसिंह चंदेल के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित हुआ है, पर अभी इसकी हार्ड कॉपी हाथ में नहीं आई। अलबत्ता, ऑनलाइन लिंक अवश्य मिल चुका है जिस पर जाकर पूरा अंक देख-पढ़ सकने की सुविधा है। 'कथाबिंब' में कई वर्ष पहले 'आमने-सामने' स्तंभ के अंतर्गत मेरा आत्मकथ्य और एक कहानी एकसाथ छ्पे थे। तब जाना था कि इस पत्रिका की पहुँच हिन्दी पाठकों तक कितनी गहरी है। शायद ही किसी पत्रिका में छपी मेरी रचना पर इतने फोन काल्स और एस एम एस आए हों, जितनी 'कथाबिंब' में प्रकाशित मेरी कहानी और आत्मकथ्य पर आए थे। एक झड़ी-सी लग गई थी। इसी पत्रिका के उक्त कहानी विशेषांक मेम मेरी भी एक नई कहानी ‘मुझे माफ़ कर देना’ प्रकाशित हुई है। चूंकि कहानी प्रकाशित हो चुकी है, इसलिए इसे अपने ब्लॉग ‘सृजन-यात्रा’ पर प्रकाशित कर रहा हूँ। वे पाठक जिनके पास ‘कथाबिंब’ नहीं पहुंचता, मेरी इस कहानी को मेरे इस ब्लॉग पर आसानी से पढ़ सकेंगे।
मुझे माफ़ कर देना...
सुभाष नीरव
डाक में कुछ चिट्ठियाँ आई पड़ी हैं। निर्मल एकबार उन्हें उलट-पलटकर देखती है, पर पढ़ने को उसका मन नहीं कर रहा। वह जानती है कि ये सभी चिट्ठियाँ पाठकों की तरफ से ही आई हैं, जो निःसंदेह अभी हाल ही में एक पत्रिका में छपे आत्मकथा-अंश को लेकर ही होंगी। अधिकांश में उसकी तारीफ़ होगी, कुछ में उसके साथ सहानुभूति दिखाने की कोशिश की गई होगी और हो सकता है, एक-आध चिट्ठी में आलोचना भी हो। पता नहीं क्यों, आजकल पाठकों के आए खतों को वह उतनी बेसब्री से नहीं पढ़ती जितनी बेसब्री से पहले पढ़ा करती थी। उसकी रचना पर यदि कोई खत आता था तो वह सारे काम छोड़कर उसे पढ़ने बैठ जाया करती थी। कई-कईबार पढ़ती थी, खुश होती थी। दिनभर एक नशा-सा तारी रहता था उस पर। वह उन चिट्ठियों का जवाब भी देती थी। पर अब उस तरह की उमंग उसके अन्दर जैसे शेष ही नहीं रही थी।
निर्मल उठकर खिड़की के पास जा खड़ी होती है। खिड़की के पार एक टुकड़ा नीला आकाश कैनवस की तरह फैला हुआ है। कहीं-कहीं उड़ान भरते परिन्दे इस आकाश में एक लकीर-सी खींचते प्रतीत होते हैं। करीब बीस वर्ष हो गए निर्मल को भी कागज के आकाश पर शब्दों के परिन्दे उड़ाते हुए। कई कहानी संग्रह, कविता संग्रह, कितने ही उपन्यास और अब वह अपनी ज़िन्दगी के सफ़े खंगाल रही है। उम्र के इस पड़ाव पर वह अपनी आत्मकथा लिख रही है जिसका एक अंश हिंदी की एक प्रसिद्ध पत्रिका में अभी हाल में प्रकाशित हुआ है। उसकी नज़र फिर से मेज़ पर पड़ी चिट्ठियों पर पड़ती है। उसको लगता है, मानो मेज़ पर पड़ी चिट्ठियाँ उसको अपनी ओर खींच रही हों। वह छोटे-छोटे पैर उठाती मेज़ के पास आ खड़ी होती है। चिट्ठियों के ढेर को एकबार फिर उलट-पलटकर देखती है। अचानक एक लिफाफे पर उसकी दृष्टि स्थिर हो जाती है। लिफाफे के बाहर भेजने वाले का नाम पढ़कर वह सोच में पड़ जाती है। उसके हाथ तेज़ी से लिफाफा खोलते हैं। इतना लम्बा खत! यह तो उसकी कालेज की सखी रंजना का खत है। वह कुर्सी पर बैठ जाती है। कांपती उंगलियों में पकड़ा हुआ खत वह बेसब्री से पढ़ना शुरू करती है-
प्रिय निर्मल,
अरे, तू तो बहुत बड़ी लेखिका बन गई। तेरी एक दो कहानियाँ मैंने पहले भी पढ़ी थीं, न जाने किस पत्रिका में, पर मुझे नहीं पता था कि उन कहानियों की लेखिका मेरी सखी निर्मल ही है। यह तो मुझे उस पत्रिका से पता चला जिसमें तेरी आत्मकथा तेरे परिचय और चित्र के साथ छपी हुई है। सच पूछो तो मैं तो यूँ ही वक़्तकटी के लिए इस पत्रिका के पन्ने पलट रही थी कि तेरी फोटो पर मेरी निगाहें रुक गईं। फिर तेरी आत्मकथा का अंश पढ़े बगै़र रह न सकी। पढ़ लेने के बाद मैं पूरी रात बेचैन रही। नींद पता नहीं कहाँ रास्ता भूल गई थी। मुझे तेरे संग बिताये वे दिन याद आते रहे। वो कालेज के दिन मेरी आँखों के सामने जैसे पुनः जीवित हो उठे हों। तूने अपनी आत्मकथा में कालेज के दिनों को स्मरण किया है, मुझे और रवीन्द्र को याद किया है। रवीन्द्र और मुझे तूने जिस प्रकार पेश किया है, वह तेरा सच है। पाठकों को भी वह सच ही लगेगा। परंतु क्या तू सचमुच नहीं जानती कि तेरे साथ क्या हुआ था? या तू जान बूझकर उस सच को आँखों से ओझल किए रखना चाहती है। रवीन्द्र और मेरी तस्वीर तूने अपनी आत्मकथा में जिस प्रकार प्रस्तुत की है, क्या वह तस्वीर सच के बहुत करीब है? निर्मल... हमने एम.ए.(हिंदी) एक साथ ही की थी। हम दोनों ने दो वर्ष कालेज के हॉस्टल के एक ही कमरे में इकट्ठा ही बिताये थे। हम अच्छी सहेलियाँ थीं, एक-दूजे को प्यार करती थीं। हमारे बीच लड़ाई-झगड़ा भी होता था। पर जितना मैंने तुझे समझा है, तू शुरू से ही एक चुप और गुमसुम-सी रहने वाली लड़की रही है। तूने कभी प्रतिवाद करना सीखा ही नहीं। जो तुझे मिल गया तो ठीक, नहीं तो सब्र कर लिया। अपना दर्द, अपना दुःख, अपनी पीर, तू अपने अंदर ही जज़्ब करती रहने वाली स्त्री है। शायद, इसी जज़्ब किए दर्द ने तेरे हाथों में कलम दे दी और तू मुँह से न बोलकर अपने शब्दों से उन्हें जुबान देती रही। मुझे लगता है, तू आज भी वैसी ही है, जैसे पहले थी। पर मैं बचपन से ही ऐसी लड़की नहीं थी। मैंने चुप रहना कभी सीखा ही नहीं। अपनी बात चीख-चीखकर कहना, अपनी हर बात को लोगों से मनवाना मेरी आदत का एक अहम हिस्सा रहा है। जो चीज़ मुझे पसंद आ जाती, उसको हासिल करना मेरी मज़बूरी बन जाता। यदि मेरी पसंदीदा वस्तु मुझे आसानी से नहीं मिलती तो मैं उसे छीन लेने की हद तक पहुँच जाती और छीन भी लेती। बचपन में बहन-भाइयों से छीन लिया करती थी। बड़ी हुई तो सहेलियों से छीन लेना मेरी आदत थी। मैं यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी कि जिसको मैं पसंद करती हूँ, जो मैं चाहती हूँ, वह चीज़ कोई दूसरा ले जाए। मेरी इस आदत से तू भलीभाँति वाकिफ़ है। तेरी कोई भी चीज जो मुझे अच्छी लग जाती थी, पसंद आ जाती थी, मैं तेरे से मांगती नहीं थी, छीन लेती थी। चाहे वह तेरा पेन हो, तेरा हेयर-क्लिप हो, सूट हो या फिर जूती। तू कईबार एक दो दिनों के लिए मुँह फुला लिया करती थी, परंतु मुँह से कोई प्रतिवाद नहीं करती थी। कभी लड़कर अपनी चीज़ वापिस नहीं ली। तेरे मुँह में जैसे जुबान ही न हो। निर्मल...मैं कईबार सोचती थी कि तू कैसी लड़की है। इसी बीच, हमारी ज़िन्दगी में रवीन्द्र आ गया। एक सुन्दर, खूबसूरत नौजवान। मेरी बड़ी बहन की एक सहेली का छोटा भाई। पता नहीं, उसकी देह में कैसी खुशबू थी कि मैं पहली ही नज़र में उसकी हो गई। सोते-जागते उसका नशा मेरे पर तारी रहता। हर वक़्त उसकी सूरत मेरी आँखों के सामने रहती। वो जब भी मेरे साथ बात करता, मैं किसी दूसरी ही स्वप्नमयी दुनिया में पहुँच जाती। वह मेरे संग इतना खुल गया था कि हम आपस में हर प्रकार की बातें कर लेते थे। वो बातें भी जो समाज में वर्जित कही जाती हैं। फिल्म और साहित्य को लेकर वह अक्सर बातें करता था। विशेषकर वे बातें जो स्त्री-पुरुष के बीच की अंतरंग बातों को व्याख्यायित करती थीं। मेरे भीतर एक औरत भूखी रहने लगी थी। मैं उसकी भूख को कुचलने की कोशिश करती, तो वह और अधिक भड़क उठती। मैं सोचती कि वह भूख रवीन्द्र के सानिध्य में कम हो जाएगी, उसके स्पर्श से वह शांत हो उठेगी, पर ऐसा न होता। वह और अधिक तेज़ हो जाती। फिर सोचती, रवीन्द्र की अनुपस्थिति में यह भूख शांत हो जाएगी, पर जब वह मेरे करीब न होता तो इस भूख को जैसे दौरा-सा पड़ जाता। मुझे वह रवीन्द्र के पास दौड़ा ले जाना चाहती। अभी मैं अपने भीतर की औरत की इस भूख से दो-चार हो ही रही थी कि मुझे यह अहसास होने लगा कि रवीन्द्र की दिलचस्पी मुझमें खत्म होती जा रही है, वह अब तेरी तरफ़ झुक रहा है। जब वह मुझसे मिलने आता था, मुझे लगने लगता कि वह मुझे नहीं, मेरे बहाने तुझे मिलने आता है। उसकी नज़रें अब मुझे नहीं तलाशती थीं। वह अब तेरे में दिलचस्पी लेने लग पड़ा था। यह बात अलग है कि वह अभी भी मुझसे उसी प्रकार खुल कर बातें किया करता था। यह मेरे लिए असहनीय था, कतई असहनीय निर्मल... मुझे यह बिल्कुल मंजूर नहीं था कि वह मुझे इग्नोर करके तेरे संग बातें करें। फिर, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे तू भी उससे प्रेम करने लग पड़ी थी। वह आता तो तेरा चेहरा खिल उठता। तू अधिक से अधिक उसके संग रहना चाहती थी। मुझे लगा मानो तू मेरे से मेरी प्यारी चीज़ को छीन लेना चाहती है। मैं रवीन्द्र को पूरा का पूरा हासिल करना चाहती थी। मेरे भीतर की औरत पागल हुई बैठी थी। मैंने तेरे बारे में रवीन्द्र से क्या-क्या झूठ नहीं बोला। तेरे चरित्र को दागी बताया। तेरी बुराइयाँ की। कालेज के कितने ही लड़कों के संग तेरे संबंध हैं, रवीन्द्र को मैं बताती रही। मैं चाहती थी कि रवीन्द्र तेरे साथ कोई रिश्ता न रखे। तेरे साथ बात न करे। परंतु, आहिस्ता-आहिस्ता मुझे पता चला कि मैं जो बात रवीन्द्र को तेरे बारे में बताती थी, वह सब की सब तुझे बता देता था। पर तूने कभी इस बारे में मेरे साथ बात नहीं की। न ही कोई झगड़ा किया, न रूठी, न रोई, न कलपी।
निर्मल... तूने अपनी कहानियों, अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने दुःख लोगों से साझे करने की राह खोज ली। तुझे प्रारंभ से ही साहित्य में रुचि रही थी। हिंदी साहित्य ही नहीं, दूसरी भारतीय भाषाओं का साहित्य भी तू लाइब्रेरी से इशु करवाकर पढ़ती रहती थी। तेरे पास आज एक भाषा है, एक शैली है, एक ढंग है अपनी बात अपनी कलम के माध्यम से कहने का। पर, मेरे पास तेरे जैसी न भाषा है, न शैली है, न मुझे लिखने का कोई ढंग आता है, पर मैं इस खत के जरिये तेरे साथ अपना दुःख ही नहीं, एक सच...कड़वा सच भी साझा करना चाहती हूँ। निर्मल...मैंने तुझे ही नहीं, रवीन्द्र को भी धोखा दिया। पर आज लगता है, धोखा तो मैंने अपने आप को भी दिया था। मैं रवीन्द्र को हर हाल में अपना बनाना चाहती थी, उसकी हो जाना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह मेरा रहे, पूरा का पूरा। मैं बाजी हारना नहीं चाहती थी। हमारे एम.ए. फाइनल के पेपर हो चुके थे। एक दिन मैंने रवीन्द्र से कहा कि मेरी कोख में उसका अंश पल रहा है। उसके पैरों तले से जैसे धरती खिसक गई हो। वह घबरा गया। मैंने उससे कहा कि यदि वह महीने के अंदर-अंदर मेरे साथ विवाह नहीं करेगा तो मैं यह बात अपने परिवार में बता दूँगी और खुद ज़हर खा लूँगी। रवीन्द्र मेरी धमकी से डर गया। जो तीर मैंने चलाया था, वह ठीक निशाने पर लगा था। उसने चुपचाप मेरी बात मान ली। मेरे माता-पिता और भाइयों ने रवीन्द्र को लेकर कोई एतराज़ नहीं किया। शायद इसके पीछे रवीन्द्र का एक अच्छे परिवार से होना रहा हो या फिर उसके परिवार के सफल कारोबार का होना एक कारण रहा हो। मैं खुश थी। हवा में उड़ रही थी। मेरे पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। मेरे सपने सच होने जा रहे थे। यह वो खुशी थी जिसे मैं तब तुझसे शेयर करना चाहकर भी शेयर नहीं कर पा रही थी।
महीने भर बाद हमारा विवाह हो गया। मुझे वो दिन अभी भी याद हैं जब मैंने आखि़री बार तेरा चेहरा देखा था, तूने कोई रोष व्यक्त नहीं किया था, कोई प्रतिवाद नहीं किया था। तूने हम दोनों को मुबारकबाद दी थी और तेरे चेहरे पर खुशी के रंग थे। पर क्या तू वाकई भीतर से खुश थी? नहीं, तुझे बहुत दुःख हुआ था रवीन्द्र की बेवफ़ाई पर, पर जैसा कि तेरा स्वभाव रहा है, तूने उफ्फ तक नहीं की। अपना दुःख, अपनी पीर अपने अंदर ही जज़्ब कर ली।
विवाह के बाद हम मुम्बई आ गए। पहले रवीन्द्र अपने पिता और भाइयों के संग मिलकर कारोबार करता रहा, फिर उसने अपना बिजनेस अलग कर लिया। अपने बिजनेस को लेकर वह पागल हुआ फिरता था। वह मुझे प्यार करता था, या फिर अपने काम को। पर निर्मल... मैं अपना झूठ कब तक छिपा सकती थी? विवाह के तीन महीनों बाद भी जब मैं उम्मीद पर न हुई तो मेरी परेशानी बढ़ने लग पड़ी। मैं अपने झूठ को कैसे छिपाती। मैंने एक दिन रवीन्द्र से सबकुछ सच सच बता दिया। मैंने यह झूठ सिर्फ़ रवीन्द्र को हासिल करने के लिए बोला था। मैं उससे बेइंतहा मुहब्बत करती थी। पर रवीन्द्र इस सच को जानने के बाद मेरे साथ कभी हँसकर नहीं बोला। वह जैसे ख़ामोशी के गहरे कुओं में गुम होता चला गया था। वह बहुत कम मतलब की बात ही मेरे साथ करता। उसने अपने आप को और अधिक अपने काम और बिजनेस में झोंक दिया। एक वर्ष बीता, दूसरा बीता और फिर तीसरा... चैथा और मैं माँ बनने को तरस गईं। डॉक्टरों को दिखलाया तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह मेरे लिए ऐसे था जैसे मेरे कानों में किसी ने गरम पिघलता हुआ शीशा डाल दिया हो। मैं ज़िन्दगी में कभी माँ नहीं बन सकती थी।
दुःख का एक विशाल पहाड़ जैसे मेरी ख्वाहिशों पर अचानक आ गिरा था। सारी चाहतें, सारे सपने उसके नीचे दबकर, कुचलकर दम तोड़ रहे थे और मैं बेबस देख रही थी। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। न खाने को, न पीने को, न पहनने को। रात रातभर मैं जागती रहती। मुझे अपनी ज़िन्दगी में अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देता था। काला... स्याह अँधेरा... रोशनी की हर किरण को लीलता हुआ।
एक दिन मुझे ख़बर मिली कि पुत्र की चाह में मेरी बड़ी बहन के यहाँ तीसरी कन्या ने जन्म लिया था। एक दिन रवीन्द्र और मैंने आपस में सलाह-मशवरा किया और मैं अपनी बहन की छह महीने की बेटी अपने घर ले आई। रवीन्द्र ने उसका नाम रखा - श्वेता। श्वेता के आ जाने के बाद मेरे अंदर की माँ जैसे जीवित हो उठी। हमने श्वेता को पाला, पोसा, पढ़ाया और योग्य बनाया। जब वह ब्याहने योग्य हुई तो रवीन्द्र ने कहा, “हम अपनी बेटी का विवाह उसके संग करेंगे जो घर-दामाद बनने को तैयार होगा।” हमें वर खोजने में कोई अधिक परेशानी नहीं हुई। रवीन्द्र का फलता-फूलता बिजनेस था, हमारी बेटी पढ़ी-लिखी और सुन्दर थी। हमने उसका विवाह कर दिया। लड़का हमारे घर पर ही रहने लगा। रवीन्द्र के साथ बिजनेस में हाथ भी बटाने लग पड़ा।
और फिर एक दिन मेरी ज़िन्दगी में फिर से अँधेरा छा गया।
एक दिन काम करते समय रवीन्द्र की छाती में ऐसा दर्द उठा कि वह वहीं का वहीं ढेरी हो गया। उसको हार्ट-अटैक पड़ा था। फिर इसके बाद की कहानी मैं निर्मल तुम्हें क्या बताऊँ... जिसे मैंने अपनी बेटी समझकर पाला, उसने मुझे माँ कहना तो एक तरफ, माँ समझना भी बंद कर दिया। माँ जी, माँ जी करते दामाद ने भी रंग बदल लिए। दोनों ने रवीन्द्र का सारा बिजनेस अपने हाथों में ले लिया। एक फ्लैट और थोड़ी-सी प्रॉपटी मेरे नाम छोड़कर उन्होंने सबकुछ बेच दिया और स्टेट्स चले गए। कई वर्ष हो गए हैं अब तो उन्हें गए हुए। कभी कोई फोन नहीं, कोई चिट्ठी नहीं। मैं हूँ और बस, मेरा अकेलापन है। कभी कभी मैं सोचती हूँ कि दूसरों से चीजे़ं छीन लेने वाली मैं आज अपना सबकुछ गवां चुकी हूँ। निर्मल... जब मैंने रवीन्द्र को तेरे से छीना था तो सोचा था कि मैं जीत गई और तू हार गई। पर मुझे लगता है, मैं जीतकर भी जीती नहीं थी, और तू हारकर भी हारी नहीं थी। रवीन्द्र ने तुझे कभी अपने दिल से भुलाया नहीं था। वह बेशक मेरे साथ था, दुनियादारी के लिए मुझसे प्यार करता था, पर दिल से तेरे पास था, तुझे ही प्यार करता था। कई बार मुझे प्यार करते करते मेरा नाम भूल जाता था और ‘निर्मल... निर्मल...’ कहने लग पड़ता था। उन्हीं क्षणों में मुझे लगता था, वह मुझे नहीं, मेरे जरिये तुझे अपनी बांहों में कस रहा है... तुझे प्यार कर रहा है। सच, निर्मल, वह मेरा कभी हुआ ही नहीं। वह तो तेरा था जिसको मैंने झूठ का सहारा लेकर तुझसे छीन लिया था। अगर मुझे माफ़ी के योग्य समझो तो मुझे माफ़ कर देना, निर्मल... तेरी सखी - रंजना।
निर्मल के हाथों में खत अभी भी झूल रहा है... उसके हाथ कांप रहे हैं... उसने खत को पहले अपने होंठों से लगाया और फिर छाती से चिपका लिया है। उसको ऐसा लगता है मानो उसने खत को नहीं, रंजना को अपनी छाती से लगा रखा है... उसकी आँखों से दो मोती गिरते हैं और खत के पन्ने उन मोतियों को अपने में जज़्ब कर लेते हैं।
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