कहानी-20
मित्रो, पिछले दिनों दूर-दराज के पाठको ने
फोन व एस.एम.एस पर पूछा कि उन्हें मेरे द्वारा लिखी प्रेम कहानियाँ कहाँ उपलब्ध हो
सकती हैं। उनका इसरार था कि वे नेट पर पढ़ना चाहते हैं। मैंने अब तक कुल तीन प्रेम
कहानियाँ लिखीं – ‘चोट’, ‘रंग बदलता मौसम’ और ‘लौटना’। ‘चोट’ सबसे पहले ‘नवभारत
टाइम्स’ के रवीवारीय में छपी थी, ‘रंग बदलता मौसम’ राजस्थान के समूह अखबार ‘डेली
न्यूज में, और ‘लौटना’ ‘जनसत्ता’ के वार्षिक अंक, 2013 में प्रकाशित हुई थी। ‘चोट’
कहानी तो ‘सृजन-यात्रा’ पर मैंने पहले ही पोस्ट की हुई है, पर ‘रंग बदलता
मौसम’ राजस्थान पत्रिका का ‘सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार -2011’ पाने के बाद कई वेब
मैगजीन्ज़ में प्रकाशित हुई। वर्धा की वेबसाइट ‘हिन्दी समय’ के लिए राजकिशोर जी ने
इसे मांगकर लिया था और प्रकाशित किया था। ‘सृजन-यात्रा’ पर फिलहाल ‘लौटना’ पोस्ट
कर रहा हूँ। इसके बाद ‘रंग बदलता मौसम’ को भी यहाँ पोस्ट करूंगा।
-सुभाष नीरव
लौटना
सुभाष नीरव
छुट्टी की एक सुबह और संजना का फोन
जिस समय फोन की घंटी बजी, सुबह के नौ बज रहे थे और के.के. बिस्तर में था। छुट्टी का दिन होने के कारण वह देर तक सोना चाहता था। बड़े बेमन से लेटे-लेटे उसने फोन का चोगा उठाया और 'हैलो' कहा। दूसरी तरफ की आवाज को पहचानने
में उसे कोई परेशानी नहीं हुई। संजना थी। संजना का 'हैलो'
कहने का अंदाज ही कुछ ऐसा था कि के.के. के कानों में मधुर-मधुर घंटियाँ बजने लगती थीं। पर,
आज यह 'हैलो'
बहुत धीमी थी और उदासी के गहरे समन्दर में डूबी हुई लग रही थी। वह बिस्तर पर उठकर बैठ गया। दीवार से पीठ लगाकर और गोद में तकिया रखकर उसने पूछा,
''क्या बात है ? बेहद उदास लग रही हो। तबीयत तो ठीक है ?''
''हाँ, तबीयत तो ठीक है।''
''फिर बता, कैसे याद किया सुबह-सुबह ?''
''बस, यूँ ही। सोचा, तुमने तो याद करना ही छोड़ दिया, मैं ही कर लूँ।'' संजना की आवाज़ में एक उलाहना था, प्यारा-सा। वह इस उलाहने की वजह जानता था, उसने पूछने की कोशिश नहीं की।
''आज कोई काम तो नहीं तुझे ?'' संजना ने पूछा।
''क्यों ?
बता।''
के.के. ने पूछा जबकि वह कहना तो चाहता था कि तू हुक्म कर, बंदा तो तेरे लिए हर वक्त हाज़िर है।
''खाली है तो आ जा।''
''कोई खास बात ?'' उसे फिर लगा, उसने गलत प्रश्न कर दिया है। वह इतने प्यार से बुला रही है, कोई न कोई तो बात होगी। उसने मन ही मन अपने आप को झिड़का।
''नहीं, कोई खास बात नहीं। बस, कुछ दिनों से कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। शायद, तुझसे मिलकर और दो बातें करके दुनिया अच्छी लगने लग जाए।'' इसके साथ ही एक हल्की-सी हँसी की खनक दूसरी तरफ से सुनाई दी, जबकि के.के. को इस हँसी में भी उदासी का रंग मिला हुआ प्रतीत हुआ। एक खूबसूरत उदास-सा चेहरा उसकी आँखों के सामने तैर गया। वह बेसब्र हो उठा। उसने इस उदास चेहरे के निमंत्रण को तुरन्त स्वीकार कर लिया। पूछा, ''कब आऊँ ?''
''जब चाहे आ जा। मैं घर पर ही हूँ। पर मैं चाहती हूँ, दोपहर का खाना तू मेरे साथ खाये।''
''ठीक है, मैं पहुँचता हूँ तेरे पास, ग्यारह बजे तक।''
संजना से पिछली मुलाकात और के.के. का ग्लानिबोध
बिस्तर से निकला तो अनेक छोटे-मोटे काम जिन्हें वह छुट्टी के दिन के लिए मुल्तवी कर दिया करता था, मुँह बाये उसके सामने खड़े हो गए। पूरा घर अस्त-व्यस्त पड़ा था, जैसाकि छड़े लोगों का हुआ करता है। किसी को ब्याह कर लाया होता तो यह घर यूं बेतरतीब ढंग से बिखरा-बिखरा न होता। दीवार घड़ी पर नज़र पड़ते ही सबसे पहले पानी भर लेने की चिन्ता उसे हुई। शुक्र था, पानी अभी आ रहा था। उसने खाली हो चुके ड्रम और दो बाल्टियों को भरने के बाद फ्रिज की खाली बोतलें एक-एक करके भरीं। फिर छोटे-मोटे काम तुरत-फुरत निपटाये। रात के खाने के बर्तन उठाकर धोये। नहा-धोकर तैयार हुआ, एक कप चाय बनाई, दो स्लाइस गरम किए। चाय पीते हुए वह संजना के बारे में ही सोचता रहा। जैसे यही कि पिछले दिनों संजना से उसकी मुलाकात कब और कहाँ हुई थी। शायद, दो-ढाई महीने पहले वे दोनों एक पार्टी में थोड़ी देर के लिए मिले थे। बत्तरा ने अपने विवाह की पांचवीं सालगिरह पर एक पार्टी रखी थी अपने घर पर। बत्तरा की बीवी बहुत खूबसूरत थी। और कभी वह अपने घर पर बुलाये, न बुलाये, पर शादी की सालगिरह पर अपने कुछ खास मित्रों को अवश्य आमंत्रित करता था। इस दिन उसकी बीवी ठीक उसी तरह ब्यूटी-पार्लर जाकर सजती-संवरती थी, जैसे शादी के दिन सजी-संवरी होगी। उस पार्टी में वह समय से पहुँचा था और एकाएक बहुत ज़रूरी काम याद आ जाने पर पार्टी बीच में ही छोड़कर जा रहा था कि तभी, संजना का प्रवेश हुआ था। इस पर बत्तरा ने चुटकी ली थी, ''मि. कृष्ण कुमार उर्फ के.के., तुम्हारी संजना पार्टी में क्या पहुँची कि तुम पार्टी छोड़कर भाग रहे हो। कुछ झगड़ा-वगड़ा हो गया क्या ?''
उस वक्त, बत्तरा का 'तुम्हारी संजना'
कहना उसे अच्छा नहीं लगा था। अभी वह कुछ कहने ही जा रहा था कि संजना करीब आ गई थी। के.के. द्वारा पार्टी बीच में छोड़कर जाने की बात मालूम होने पर संजना ने कहा था, ''मैं इतनी बुरी तो नहीं के.के. कि मुझे आया देख, तू पार्टी छोड़कर भाग रहा है।'' संजना की आवाज़ गम्भीर और ठहरी हुई थी, पर उसके अधरों पर महीन-सी मुस्कराहट भी थी जिससे वह समझ नहीं पाया कि संजना ने यह बात हँसी में कही थी या गम्भीर होकर।
''नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल,
मुझे एक बहुत ज़रूरी काम है, इसीलिए जा रहा हूँ। पर तू इतनी लेट क्यों ?''
''तुझे पार्टी के दौरान ज़रूरी काम है, मुझे पार्टी से पहले ज़रूरी काम था।''
''अच्छा संजना,
मैं लेट हो रहा हूँ। मैं मिलूंगा तुझे जल्द ही या फिर फोन करुँगा।'' कहकर वह चला आया था। लेकिन, अपनी व्यस्तताओं के कारण न वह संजना से मिल सका, न ही फोन पर बात कर सका। इसी वजह से वह अपने अन्दर एक ग्लानिबोध को महसूस कर रहा था।
संघर्ष भरे दिन और संजना का साथ
के.के. जब घर से बाहर निकला तो बहुत जोरों की बारिश हो रही थी। दरअसल, बूंदाबांदी तो कल रात से ही हो रही थी। लेकिन, बाहर ऐसी झमाझम बारिश हो रही होगी, अपने कमरे से निकलते हुए उसने सोचा न था। कुछ देर खड़े रहकर उसने बारिश के थमने या धीमी हो जाने का इन्तजार
किया। किन्तु ऐसा होने की उम्मीद न के बराबर थी। वह ताला खोलकर फिर घर में घुसा और छतरी लेकर बाहर रोड पर आ गया। उसकी किस्मत अच्छी थी कि इतनी बारिश में भी उसे जल्द ही ऑटो मिल गया,
वरना दिल्ली में ऑटो ! वह भी इतनी बारिश में ! असम्भव-सी बात थी।
इधर, मूसलाधार बारिश में ऑटो सड़क पर दौड़ रहा था, उधर उसके जेहन में पुरानी स्मृतियाँ दौड़ लगा रही थीं। यह महानगर के.के. के लिए बहुत नीरस और उदास कर देने वाला होता, अगर उसे संजना न मिलती। एक ही कालेज से एम.ए. की पढाई दोनों ने साथ-साथ की थी। कालेज के आरंभिक दिनों में हुई हल्की-सी जान-पहचान धीरे-धीरे सघन और सुदृढ़ होती चली गई थी। संजना किताब के पन्नों की तरह उसके सामने खुलती चली गई। हर मुलाकात में वह अपनी छोटी-बड़ी बात के.के. से साझा करके खुद को हल्का महसूस करती थी। बचपन में ही संजना के माँ-बाप चल बसे थे। उसे उसकी मौसी ने पाल-पोसकर बड़ा किया था। वह मौसी की कृतज्ञ थी कि उसने उस बेसहारा को सहारा दिया, पढ़ाया-लिखाया,
किन्तु वह अक्सर अपने मौसा को लेकर परेशान रहती थी। वह के.के. से कई बार कह चुकी थी कि उसका मन करता है कि वह मौसी का घर छोड़ दे और किराये पर एक छोटा-मोटा कमरा लेकर अलग रहने लगे। पर ऐसा करना दिल्ली जैसे शहर में उसके लिए तब तक असंभव था, जब तक वह खुद न कमाने लगे। ऐसा नहीं था कि पढाई के साथ-साथ उसने पार्ट टाइम काम की खोज नहीं की हो। उसकी इस कोशिश में के.के. भी मदद करता रहा था, पर कोई ढंग का काम नहीं मिल सका था।
दिल्ली महानगर में जिस संघर्ष से संजना जूझ रही थी, कमोबेश के.के. भी वैसे ही संघर्ष से जूझ रहा था। वह यहाँ एक सपना लेकर बिहार के एक गाँव से आया था, पढ़ाई-लिखाई और अच्छे रोजगार की तलाश में। शुरू के दिन बहुत ही कठिन और भयानक थे उसके। कई-कई दिन तो फाकाकशी रहती। हिम्मत जवाब दे जाती और वह अपने सपने को बीच में ही छोड़कर गाँव लौट जाना चाहता। वह दिल्ली की धरती पर अपने पैर रखना चाहता था, पर दिल्ली रखने नहीं दे रही थी। पैर जमने की तो बात ही अलग थी। रेलवे-प्लेटफार्म,
सड़कों के फुटपाथ, दिल्ली के गुरद्वारे ही उसका रैन-बसेरा थे। उन दिनों दिल्ली का कोई भी गुरद्वारा ऐसा नहीं था, जहां का लंगर छककर उसने अपने पेट की आग को शान्त न किया हो।
हनुमान-कृपा और प्रेम की फूटती कोंपलें
जैसे-तैसे एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद, वे दोनों जोर-शोर से नौकरी की तलाश में जुट गए। दोनों एक साथ फार्म भरते, परीक्षाओं में बैठते, इंटरव्यू देते और हर मंगलवार
कनॉट-प्लेस स्थित हनुमान मंदिर में प्रसाद चढ़ाते।
इसे हनुमान-कृपा कहिये या उनका भाग्य कि इधर संजना का दिल्ली के ही एक बैंक में पी.ओ. के रूप में चयन हो गया और उधर के.के. को भी इसी शहर में एक प्रायवेट फर्म में नौकरी मिल गई। रूठी-रूठी-सी रहने वाली दिल्ली ने अपने आँचल में थोड़ी-सी जगह देना स्वीकार कर लिया था। नौकरी लगने के एक माह बाद ही संजना ने मौसी का घर छोड़ दिया और किराये का मकान लेकर अलग रहने लगी। के.के. रैगरपुरा के जिस बदबूदार सीलन भरे छोटे-से कमरे में किसी के संग रहता था,
उसने भी पहाड़गंज में एक छोटा-सा कमरा किराये पर ले लिया था। शाम को आफिस से छूटने के बाद या अवकाश के दिनों में वह और संजना एक-दूसरे से मिलते रहे। दिल्ली अब उन्हें खुशनुमा लगने लगी थी। हर शुक्रवार को लगने वाली नई फिल्म वे एकसाथ देखते,
कोई अच्छी प्रदर्शनी लगी होती,
कोई सांस्कृतिक या साहित्यिक कार्यक्रम होता,
या फिर कोई सेल लगी होती,
दोनों पहले से तय करके वहाँ पहुँच जाते।
यही वे दिन थे जब के.के. के मन में संजना को लेकर कुछ-कुछ होने लगा था। उसने महूसस किया था कि उसके मन में संजना के लिए कोई जगह बनती जा रही है। एक खास जगह। संजना का साथ उसे पहले से अधिक अच्छा लगने लग पड़ा था। उसके संग अधिक से अधिक समय बिताने को वह खुद को आतुर पाने लगा। शायद, उसके मन में संजना को लेकर एक चाहत पैदा हो गई थी। जब भी संजना उससे मिलती, वह उसकी आँखों में झांककर यह जानने की कोशिश करता कि क्या ऐसी ही चाहत उधर भी है।
के.के. का टूटना और संजना की उड़ान
इन्हीं दिनों उसने महसूस किया कि संजना के ख्वाब कुछ बड़े और ऊँचे हो गए थे। वह कुछ ऊँची ही उड़ानें भरने लग पड़ी थी। वह अब समझने लग गया था कि संजना उसे एक अच्छे दोस्त से अधिक महत्त्व
नहीं देना चाहती। अपने इस अहसास के साथ वह कई दिनों तक तड़पता रहा। फिर,
उसने धीरे-धीरे अपनी मुलाकातों को सीमित करना आरंभ कर दिया। एक दिन संजना ने इस बारे में नाराजगी जाहिर की और उसे हनुमान मंदिर पर मिलने के लिए कहा। न चाहते हुए भी वह उस शाम संजना से मिला। संजना का खिला हुआ चेहरा बता रहा था कि वह बहुत खुश थी। पहले उसने मंदिर में प्रसाद चढ़ाया और फिर बाहर निकलकर जैसे मचल-सी उठी। बोली,
''के.के., आज मैं बहुत खुश हूँ।''
फिर हाथों पर मेंहदी लगवाती लड़कियों की ओर देखकर बोली,
''सुनो, मैं भी मेंहदी लगवा लूँ ?'' के.के. के शान्त चेहरे को देखकर उसने चुहल की,
''ओ देवदास महाराज,
कुछ बोलो भी।''
''...''
''अच्छा,
नहीं लगवाती। चलो, काफी होम चलते हैं। वहीं बैठकर बातें करते हैं।'' वह उसकी बाजू पकड़कर खींचते हुए काफी होम की ओर बढ़ने लगी थी। काफी होम में वह उसकी बगल में बैठने लगी तो उसने कहा,
''सामने बैठो।''
''क्यों ?'' संजना ने चौंककर पूछा।
''बगल में बैठती हो तो मैं तुम्हारा चेहरा ठीक से देख नहीं पाता।''
उसकी दलील सुनकर वह खिलखिलाकर हँसने लगी। सामने वाली कुर्सी पर इत्मीनान से बैठकर वह बोली,
''अब ठीक ! क्या देखना है मेरे चेहरे में ? इतने दिनों से देखते आ रहे हो,
दिल नहीं भरा ?''
के.के. ने कोई जवाब नहीं दिया।
''आज तुम बहुत खुश नज़र आ रही हो। क्या बात है ?'' आखिर, के.के. ने अपनी खामोशी को तोड़ा और काफी का आर्डर देने लगा।
''हूँ....। बात ही कुछ ऐसी है।'' संजना का चेहरा और अधिक दिपदिपाने लगा।
''क्या ?''
''मैं शादी करने जा रही हूँ ?''
फिर,
वह काफी की चुस्कियों के बीच उत्साह में भरकर बताती रही, ''मेरे बैंक के मैनेजर राकेश ने मुझे शादी के लिए प्रपोज किया है और बहुत-सोच विचार के बाद मैंने हाँ कर दी है। अब हम जल्द ही विवाह-सूत्र में बंधने वाले हैं।''
एक खरोंच जैसी तकलीफ को के.के. ने अपने अन्दर महसूस किया लेकिन चेहरे से इस तकलीफ को जाहिर नहीं होने दिया।
कतरे हुए पंख और धराशायी सपने
न तो के.के. को ही पता था, और न संजना ही यह जानती थी कि जिस खुले आकाश में वह उड़ान भरने के लिए इतनी लालायित
है, वही आकाश उसकी उड़ान को परवान नहीं करेगा। वह एकाएक पंख कटे पंछी की तरह नीचे धरती पर आ गिरी थी। उसके सारे सपने चकनाचूर
हो गए थे। वह बहुत उदास और दुखी रहने लगी थी। अपने इन्हीं उदास और दुखी क्षणों में उसने के.के. को एक दिन बताया था कि राकेश ने उसके संग अच्छा नहीं किया। वह बैंक की नौकरी छोड़कर अमेरिका चला गया था किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में और वहीं उसने शादी कर ली थी।
संजना को इस झटके से उबरने में काफी समय लगा। लगभग दो बरस। धीरे-धीरे संजना नार्मल होती गई और उसने ज़िन्दगी को फिर एक नये सिरे से जीने की कोशिश की। जल्द ही उसके होंठों पर हँसी वापस लौट आई। एक बार फिर उदासियों की जगह आँखों में हसीन सपने तैरने लगे। पता नहीं, के.के. को उस समय कैसी अनुभूति हुई थी जब संजना ने उसे बताया था कि वह जल्द ही विवाह करने जा रही है। शहर का एक युवा व्यापारी जो उसके बैंक में अक्सर आया करता था और जिसका नाम वेदपाल था, इन दिनों उसके सपनों का शहजादा बन चुका था। संजना ही ने के.के. को बताया था एक दिन कि वह वेदपाल के साथ एकबार शिमला भी हो आई थी। उन दिनों के.के. की मुलाकातें संजना से बहुत कम होती थीं, पर वह जब भी मिलती, उसे लगता जैसे संजना के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे हैं। वह हवा में उड़ती नज़र आती।
एक हसरत दिल में लिए माँ का चले जाना
के.के ने अब अपने आप को समेटना शुरू कर दिया था। उसकी मुलाकातें संजना से न के बराबर होने लगीं। गाँव से पिता का पत्र आया था। माँ बहुत बीमार चल रही थी। पिता ने उसे पटना के एक सरकारी अस्पताल में दिखाया था। कोई आराम नहीं आया था। वह चाहते थे कि के.के. कुछ दिनों का अवकाश लेकर गाँव आए और माँ से मिल जाए। अभी वह गाँव जाने की जुगत बना ही रहा था कि एक सुबह माँ को लेकर पिता दिल्ली आ पहुँचे। साथ में के.के. की छोटी बहन सुमित्रा थी। माँ की तबीयत वाकई बहुत खराब थी और बहुत कमजोर हो गई थी। पिंजर लगती थी। वह माँ को ऐम्स में ले गया। माँ सप्ताह भर वहाँ भर्ती रही। दिन में पिता उसके पास रुकते, रात में सुमित्रा। रात में पिता घर आते तो गुमसुम से एक ओर बैठ जाते या फिर अकेले में रोने लगते। वह उन्हें समझाने और दिलासा देने की कोशिश करता तो वे फूट-फूटकर रोने लगते।
''हम जानत है, तुम्हार माई अब नाहीं बचत। डाक्टर कहत रहीं, इसका पेट मां कैन्सर हई।''
''बापू तुम दिल न छोटा करो। माई को कुछ नहीं होगा। ठीक हो जाएगी।''
''कितनी चाहत रही उसका मन मां तुहार शादी की, तुहार बीवी-बच्चन का मुंह देखन की। कहत रही, किशनवा शादी नाहीं करावत तो सुमित्रा को ही ब्याह दो।''
सुमित्रा शादी योग्य हो चुकी थी। पिता ने एक दो जगह बात भी चलाई थी पर सफलता नहीं मिली थी। वह सोच रहा था, उसने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया। अब वह इस ओर ध्यान देगा। बहन की शादी करेगा। मां का इलाज करेगा। मां ठीक हो जाएगी,
घर आ जाएगी तो अपनी शादी की भी सोचेगा। पर माँ ठीक नहीं हुई। उसकी मृत देह ही अस्पताल से घर आई। फूट-फूट कर रोते पिता को, बहन को और अपने आपको वह बमुश्किल शान्त कर पाया। माँ एक हसरत दिल में लिए इस दुनिया से कूच कर गई थी। माँ की मौत से एक दिन पहले की शाम के वे क्षण उसे याद हो आए, जब वह अस्पताल में माँ के सिरहाने एक स्टूल पर बैठा माँ का चेहरा एकटक देख रहा था। माँ भी पथराई-सी नजरों से उसकी ओर ही देख रही थी। उन आँखों में कुछ था। माँ उससे कुछ कहना चाहती थी, पर शब्द गले के भीतर ही उमड़-घुमड़ कर जैसे दम तोड़ रहे थे। माँ के बांये हाथ में कंपन हुआ था तो उसने उस हाथ को अपने दोनों हाथों में ढक लिया था। इन्हीं भावुक क्षणों में माँ की आँखों में तैरते प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए उसे संजना की बेहद याद आई थी।
पिता माँ की लाश गाँव में ले जाना चाहते थे। मगर उसने पिता को समझा-बुझाकर राजी कर लिया था। माँ का दाह-संस्कार
यहीं दिल्ली में किया गया।
वह तो चाहता था कि पिता और बहन यहीं उसके पास रहें। गाँव में रखा भी क्या था। खेत-जमीन थी नहीं, बस एक छोटा अधकच्चा-सा मकान था। पिता बंटाई पर खेती करते थे। उसमें सालभर का बमुश्किल गुजारा हो पाता था। कभी फसल खराब भी हो जाती थी। पर पिता उसकी बात नहीं माने थे। वह बहन को लेकर गाँव लौट गए थे। जाते समय बोले थे, ''बस बेटा, किसी तरह बहिन की शादी की सोचो और अपनी भी। तुहार उमर भी निकरी जात है।''
संजना से पुन: मुलाकात
माँ के निधन के बाद जब पिताजी और समित्रा
गाँव लौट गए तो के.के. खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगा। संजना से मिले काफी समय हो चुका था। न उसका फोन आया था,
न
ही के.के. ने स्वयं किया था। वह संजना को भूल जाना चाहता था। वह सोचता- संजना ने वेदपाल से शादी कर ली होगी। मालूम नहीं वह दिल्ली में है भी कि नहीं। उसकी पीड़ा इस बात की भी थी कि संजना ने उसे अपनी शादी पर बुलाया तक नहीं था।
एक दिन अचानक संजना से उसकी भेंट हो गई। जब मिला तो संजना पर-कटे पंछी की तरह धरती पर लहुलूहान-सी गिरी मिली। वह बेहद दुबली हो गई थी और बीमार-सी लग रही थी। उसकी आँखों में उदासी का रेगिस्तान पसरा हुआ था। के.के. से मिलकर उसकी आँखें सजल हो उठी थीं। फिर न जाने क्या हुआ कि वह के.के. के सीने पर अपना सिर टिकाकर बहुत देर तक रोती रही। इस बार वेदपाल ने उसे धोखा दिया था। वह पहले से विवाहित था और उसके दो बच्चे थे। संजना के सपने एकबार फिर धराशायी हुए थे। वह डिप्रेशन की शिकार हो गई थी। गुमसुम-सी रहने लगी थी। मन होता तो खा लेती,
नहीं तो नहीं। कभी दफ्तर चली जाती,
कभी नहीं। कई-कई दिन,
घर की चाहरदीवारी में बन्द पड़ी रहती। किसी को फोन करने,
दोस्तों-परिचितों से मिलने की चाहत खत्म-सी हो गई थी।
माँ की बरसी के बाद सुमित्रा का विवाह हो गया। पिता अब उस पर जोर डाल रहे थे कि वह भी जल्द ही शादी कर ले। एक-दो घरों से आये रिश्तों के बारे में भी उन्होंने के.के. को बताया था। पर के.के. ने 'हाँ'
या 'ना'
में कुछ भी नहीं कहा था।
उस मुलाकात के बाद वह फिर संजना से काफी लम्बे समय तक न मिल सका। अचानक उसे कम्पनी की ओर से मुम्बई जाना पड़ा था । मुम्बई प्रवास के दौरान उसको संजना की कई बार याद आई। कई बार फोन करने को उसका मन हुआ। मगर भीतर कहीं कोई टीस थी, किसी टूटन की किरच शेष थी कि वह चाहकर भी उससे कोई बात नहीं कर पाया।
दिल्ली लौट आने पर उसने संजना से मिलने की कोशिश की। वह उससे मिलने उसके घर गया था। लेकिन संजना घर बदल चुकी थी और उसका नया पता और फोन नम्बर उसके पास नहीं था। चाहता तो उसके बैंक जाकर मालूम कर सकता था, परन्तु, उसके मन ने, जाने क्यों उसे ऐसा करने नहीं दिया।
दिन गुजर रहे थे। संजना की याद के.के. के दिलोदिमाग से आहिस्ता-आहिस्ता धूमिल हो रही थी कि एक दिन वह उसको फिर अचानक मिल गई। एक मंदिर के बाहर। वह मंदिर से बाहर निकल रही थी, जब के.के. की निगाह उस पर पड़ी। उसे देखकर वह हैरान रह गया। क्या यह वही संजना है ? उसके चेहरे की रंगत बिगड़ी हुई थी। कपड़े भी साधारण से। हाथ में प्रसाद का लिफाफा और माथे पर तिलक। वह उसके सामने जा खड़ा हुआ तो वह चौंक उठी।
''संजना, यह तुझे क्या हुआ है ?''
''मुझे क्या होना है ?
अच्छी-भली तो खड़ी हूँ तेरे सामने।''
उसने लिफाफे में से प्रसाद निकालते हुए उससे कहा, ''ले, प्रसाद ले।''
के.के. ने प्रसाद लेकर मुँह में डाल लिया। इससे पहले कि वह कोई और बात करता, वह बोली, ''तू बता, कहाँ था इतने बरस ?
विवाह करवा लिया होगा ? मुझे बुलाया तक नहीं। चल कोई बात नहीं। अब अपनी बीवी से मिलवा दे। मुझसे तो अच्छी ही होगी। क्यों ?''
एक क्षण को उसे लगा था कि संजना अपनी इन बातों के पीछे मानो अपने किसी दर्द को छिपा रही हो।
''तुम सारे सवाल यहीं खड़े-खड़े करोगी ?
चल,
कहीं बैठते हैं।'' के.के. ने कहा।
''कहीं क्यों ? चल, मेरे घर चल। यहीं करीब ही रहती हूँ मैं।''
बातचीत में मालूम हुआ कि संजना अकेली ही रहती थी और अब उसने विवाह का विचार त्याग दिया था। अब वह बैंक में मैनेजर हो गई थी। दो-तीन रिश्ते आये भी थे, पर संजना ने ही ना कर दी।
इसके बाद संजना से उसकी दो बार मुलाकात हुई। एक बार वह किसी काम से उसके बैंक में गया था तब और दूसरी बार बत्तरा के घर पार्टी में। उसके बाद संजना से वह नहीं मिल पाया था, न ही फोन पर कोई बात हो पाई थी।
अकेलेपन का खौफ और संजना का तीसरा फैसला
ऑटो जब संजना के घर के बाहर रुका, बारिश और तेज हो गई थी। ऑटो से उतर कर जीने तक जाते-जाते छाते के बावजूद के.के. भीग गया था। सीढ़ियाँ चढ़कर जब वह ऊपर पहुँचा, संजना उसकी ही प्रतीक्षा कर रही थी।
''मुझे उम्मीद थी कि तू ज़रूर आएगा, इतनी तेज बारिश में भी।''
संजना ने उसे तौलिया पकड़ाया तो वह हाथ-पैर पौंछ कर सोफे पर बैठ गया। सामने टी.वी. चल रहा था, धीमी आवाज में। पता नहीं कौन-सा चैनल था। कोई भगवे वस्त्रों वाली औरत गले में कीमती मनकों की माला पहने प्रवचन कर रही थी। जल्द ही संजना चाय बना लाई और के.के. के सामने वाले सोफे पर बैठ गई। वह शायद कुछ देर पहले ही नहाई थी। उसके गीले बाल खुले हुए थे। हल्के नीले रंग का सूट उस पर खूब फब रहा था। चाय पीते हुए दो-चार बातें इधर-उधर की हुईं। फिर वह रसोई में चली गई। वह सोफे से उठकर खिड़की के समीप जा खड़ा हुआ।
बारिश रुक गई थी। पानी से नहायीं सड़कें चमक रही थीं और पेड़-पौधे निखरे हुए थे। खिड़की से हटकर वह साथ वाले कमरे में चला गया। यह बैडरूम था। पलंग पर अंग्रेजी के दो अखबार बिखरे पड़े थे। सिरहाने एक खुली हुई किताब उलटाकर रखी हुई थी,
जैसे कोई पढ़ते-पढ़ते छोड़ देता है। किताब के कवर पर किसी जाने-माने बाबा का फोटो था। किताब का टाइटल देखकर वह चौंका। जीवन में सुख और शान्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है,
इस विषय पर किताब में उस बाबा के प्रवचन थे शायद। सामने की दीवार पर दृष्टि पड़ी तो वह और अधिक हैरान हुआ। किताब वाले बाबा की एक बहुत बड़ी तस्वीर दीवार पर टंगी थी। तस्वीर में बाबा आँखें मूंदे बैठा था और उसका एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा हुआ था।
दोपहर के दो बज रहे थे जब उसने और संजना ने मिलकर लंच किया। संजना के हाथ का बना खाना वह पहली बार खा रहा था। खाना बेहद उम्दा था। उसने तारीफ की तो प्रत्युत्तर में संजना हल्का-सा मुस्करा भर दी।
भोजन के उपरान्त दोनों के बीच बातों का सिलसिला आरंभ हुआ। पहले इधर-उधर की बातें होती रहीं। धीरे-धीरे संजना अपने बारे में बातें करने लग पड़ी। बचपन से अब तक जीवन में जो कुछ वह खोती रही, उसका दर्द उसके भीतर कहीं इकट्ठा हुआ पड़ा था। जीवन में आये उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, आशा-निराशा के पलों को याद करते हुए वह ढेर सारी बातें उसके साथ साझा करती रही। अपने धराशायी हुए सपनों को लेकर, अपने एकाकीपन को लेकर, अपने अवसाद के क्षणों को लेकर वह रुक-रुककर बता रही थी। महानगर में रहती एक अकेली स्त्री के भीतर ऐसे क्षणों में क्या उठापटक होती है, उन पर चर्चा कर रही थी। वह बेहद शांत और स्थिर मन से उसकी हर बात सुन रहा था। बीच-बीच में वह कहते-कहते अपने आप को रोक भी लेती थी। के.के. को लगता, जैसे संजना अपने आप को अनावृत्त करते-करते कुछ छिपाने की कोशिश भी करने लगती है। वह क्या है, जिसे वह कहना चाहती है, पर कह नहीं पा रही है। आखिर, उसने पूछ ही लिया,
''संजना,
मुझे लगता है, तेरे अन्दर कोई बात है, जिसे तू आज मुझसे शेयर करना चाहती है। पर कुछ है जो तुझे ऐसा करने से रोक भी रहा है। क्या बात है, बता तो।''
वह संजीदा हो उठी। पहले उसने एकटक के.के. की आँखों में झांका, फिर कितनी ही देर तक सामने दीवार पर शून्य में ताकती रही। फिर उसने धीमे-धीमे कहना प्रारंभ किया।
''के.के., जिन्दगी मेरे संग हमेशा धूप-छांव का खेल खेलती रही। जब भी कोई खुशी मेरे करीब आने को होती है, पीछे-पीछे गम के बादल भी आ खड़े होते है। जिसे मैंने दिल से चाहा, वही मुझे दगा देता रहा। मैं अपने आप में सिमट कर रह गई। अपनी तन्हाई, अपने अकेलेपन को ही अपना साथी बनाने की कोशिश करती रही। पर अकेलापन कितना खौफनाक होता है, कई बार जिन्दगी में, इसे मैंने पिछले दिनों ही महसूस किया है।''
वह ऐसे बोल रही थी, जैसे वह के.के. के करीब न बैठी हो, कहीं दूर बैठी हो। उसके बोल रुक-रुककर बेहद मंद आवाज में के.के. तक पहुँच रहे थे।
''के.के. पिछले कुछ महीनों से मैं अकेलेपन के खौफ में जी रही हूँ। एक डर हर समय मेरा पीछा करता रहता है। लोग मुझे अजीब निगाहों से देखते हैं। हर व्यक्ति मुझे मुफ्त की चीज समझता है। कितना कठिन है, एक अकेली लड़की का महानगर में रहना! घर, दफ्तर, बाजार,
शहर में कहीं भी मैं होऊँ, मेरे भीतर की औरत डरी-डरी, सहमी-सहमी-सी रहती है। बहुत कोशिश की है मैंने इस भय से मुक्त होने की, पर नहीं हो पाई मैं...। यह महानगर, मुझे लगता है, मेरा उपहास उड़ा रहा है। यहाँ से भागकर दूसरे शहर में रहने की कोशिश भी की। पर, वहाँ भी अकेलेपन के डर ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैं इस डर से, अपने अकेलेपन से मुक्त होना चाहती हूँ। एक बार फिर मुझे एक फैसला लेने को विवश होना पड़ा है। अपने इसी फैसले को तुझसे....।'' कहकर फिर संजना ने के.के. के चेहरे पर अपनी आँखें स्थिर कर दीं।
''कैसा फैसला ?'' वह भी बेसब्र हो उठा था।
कुछ पलों का रेला दोनों के बीच से खामोश ही गुजर गया। के.के. को ये पल बरसों जैसे लगे। फिर जैसे एक अंधे कुएँ में से आवाज आई, ''के.के., मैं विवाह करना चाहती हूँ।''
दोनों के बीच समय जैसे ठहर गया।
‘विवाह ? अब ? इतने बरस बाद ?’
के.के. के भीतर एक बेसब्रापन था जो उछल-उछलकर बाहर आना चाहता था। उसने किसी तरह अपने इस बेसब्रेपन को रोके रखा।
''क्या मैं जान सकता हूँ, वह खुशनसीब कौन है ?'' उसके सब्र का बांध टूटा।
संजना को उत्तर देने में काफी समय लगा। शायद, वह भीतर ही भीतर अपने आप को तैयार कर रही थी। फिर, उसके अधर हल्के-से हिले,
''मि. मल्होत्रा, वही जो हमारे बैंक में कैशियर हैं।''
के.के. को लगा, जैसे धरती हिली हो। जैसे एक तेज आंधी दोनों के बीच से बेआवाज गुजर गई हो।
मल्होत्रा को वह जानता था। एक-दो बार संजना के साथ वह मिला था। अधेड़ उम्र का आदमी। कई बरस पहले उसकी पत्नी कैंसर रोग से मर चुकी थी। यद्यपि संजना भी पैंतीस से ऊपर थी, पर कहाँ संजना और कहाँ मल्होत्रा !
''लगता है, तुझे मेरे इस फैसले पर खुशी नहीं हुई ?'' उसे लगा, संजना ने सवाल किया है। पर नहीं, संजना ने कुछ नहीं कहा था। वह खामोश थी। बस, उसकी आँखों में कुछ था जो के.के. के भीतर के भावों को पढ़ लेना चाहता था। के.के. की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह संजना के इस फैसले पर अपनी क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करे। पर, कुछ तो कहना ही था उसे। सोचते हुए उसने कुछ कहना चाहा, शब्द अभी उसके मुँह में ही थे कि संजना ने उसका दायां हाथ अपनी हथेलियों में लेकर नजरें झुकाये हुए कहा, ''शायद, इस बार...।'' इससे आगे वह कह नहीं पाई, आवाज उसके गले में ही खरखरा कर रह गई। के.के. ने अपना बायां हाथ संजना के कंधे पर रखा तो वह उसके ऊपर गिर-सी पड़ी। कुछ देर बाद, वह के.के. की छाती से अलग हुई तो संजना की आँखों में जलकण तैर रहे थे। एकाएक, उठते हुए संजना ने अपनी आँखें पोंछी और रसोई में जाकर चाय बनाने लगी।
शाम के चार बज रहे थे। बाहर बारिश भी बन्द थी। के.के. को लगा कि अब चलना चाहिए। जब वह चलने लगा तो उसने देखा, संजना के चेहरे पर धूप जैसी एक हल्की-सी चमक थी। बाहर धूप खिली हुई थी। मालूम नहीं क्यों,
के.के. को यह धूप बिलकुल अच्छी न लगी। उसका दिल किया कि बहुत जोरों की बरसात हो और वह बिना छतरी खोले भीगता हुआ घर को लौटे।
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