शनिवार, 5 जुलाई 2008

कहानी-8




गोली दागो रामसिंह
सुभाष नीरव
चित्र : अवधेश मिश्र

खिड़की के शीशों से होती हुई सुबह की धूप जब रामसिंह के बैड पर गिरी तो उसकी इच्छा हुई कि उठकर वह खिड़की खोल दे और बाहर की ताज़ा धूप-हवा को अन्दर आने दे। वार्ड में फैली अजीब-सी गन्ध कुछ तो कम होगी, यह सोचते हुए उसने उठकर खिड़की खोल दी। खिड़की खुलते ही बाहर से आए ताज़ी हवा के झोंके को रामसिंह ने अपने फेफड़ों में खींचा और फिर उसे धीरे-धीरे बाहर निकाला। इस क्रिया को उसने वहीं खड़े-खड़े कई बार दोहराया।
चार दिन हो गए उसे बैड पर पड़े-पड़े। कल उसे छुट्टी मिल जाएगी। डॉक्टर ने अभी कुछेक दिन ड्यूटी पर न जाने और घर पर आराम करने को कहा है।
खिड़की से हटकर रामसिंह फिर अपने बैड पर आ गया और अधलेटा-सा होकर खिड़की के बाहर देखने लगा। दृष्टि उसकी खिड़की से बाहर थी लेकिन मस्तिष्क किन्हीं विचारों में खोया था।
उसने सोचा, छुट्टी में वह गाँव जाकर घरवालों के संग रहेगा और आराम करेगा। वैसे भी, वह जब से दिल्ली में तैनात हुआ है, लम्बी छुट्टी पर गाँव नहीं गया। बीच में दो-एक दिन के लिए तो जाता रहा है वह !
लम्बे-तगड़े छह फुटे जवान रामसिंह को इन्टर करने के बाद भारतीय सीमा पुलिस में भर्ती होने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आई थी। तेरह साल की नौकरी हो चुकी है उसकी। पिछले बारह साल वह देश की उत्तर-पूर्व की विभिन्न सीमाओं पर तैनात रहा है। बीच में साल-दो साल में महीने-दो महीने की छुट्टी पर आता रहा है वह। दिल्ली के समीपवर्ती गाँव में घर है उसका। बस से कोई डेढ़-दो घंटे का सफ़र। गत एक वर्ष से वह दिल्ली में है। बाहर से जब उसकी पोस्टिंग दिल्ली में हुई थी तो वह कितना खुश था ! घर के नज़दीक होने का सुख कुछ और ही होता है !
दिल्ली आने के एक माह बाद उसे विशेष प्रशिक्षण देकर एक वी.आई.पी के साथ तैनात कर दिया गया। वी.आई.पी यानी केन्द्र सरकार का एक राज्य-मंत्री। मंत्री जी के साथ दो इंस्पेक्टर तैनात किए गए थे। एक वह और दूसरा- गनपत। दोनों की शिफ्ट ड्यूटी होती। मंत्री जी जहाँ जाते, उनमें से एक उनके साथ सदैव रहता– सादे वस्त्रों में। साथ में दो जवान भी। रामसिंह के लिए बिलकुल अलग किस्म का अनुभव था यह। अलग भी और नया भी। ड्यूटी के दौरान बहुत करीब से एक मंत्री को ही नहीं, बल्कि उसके कार्यकलाप को भी देखना, सचमुच रामसिंह के लिए रोमांचक था। मंत्री जी का लोगों से प्रतिदिन सुबह अपने निवास पर मिलना। उनके दुख-दर्द सुनना और उन्हें दूर करने की कोशिश करना। दिल्ली के बाहर के दौरे पर भी रामसिंह मंत्री जी के साथ कई बार गया। अपार जनसमूह में मंत्री जी के साथ साये की तरह रहकर उनकी सुरक्षा के प्रति हर पल सतर्क रहना, रामसिंह की ड्यूटी थी और वह उसे बखूबी निभा रहा था।
इन्हीं दिनों रामसिंह ने महसूस किया कि एक मंत्री के ऊपर देश का कितना बड़ा भार होता है। न रात को चैन, न दिन को आराम। कितना व्यस्त जीवन ! जिस मंत्री जी के साथ रामसिंह तैनात था, वह पहली बार मंत्री बने थे और अपनी कार्यशैली और सौम्य व्यवहार के कारण बहुत जल्द लोकप्रिय हो गए थे। जिस क्षेत्र से चुन कर वह आए थे, वह एक पिछड़ा हुआ क्षेत्र था। मंत्री बनने के बाद, उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। जैसे– सड़कें बनवाईं, स्कूल-अस्पताल खुलवाए। आजकल वह उस क्षेत्र की पेयजल समस्या को दूर करने के लिए कटिबद्ध थे।

धूप अब उसके बैड पर से उतरकर नीचे फर्श पर जा लेटी थी। रामसिंह ने खिड़की से दृष्टि हटाकर एकबारगी वार्ड में देखा और फिर विचारों में गुम हो गया। रामसिंह ने सोचा– अस्पताल से छुट्टी होने पर वह मंत्री जी से मिलकर अपने गाँव जाएगा। कितने प्यार से बुलाते हैं वह रामसिंह को ! गत एक वर्ष के दौरान मंत्री जी के साथ जुड़े कई सुखद प्रसंग उसे एकाएक स्मरण हो आए। वह आत्ममुग्ध उनमें न जाने कितनी देर डूबा रहा।
“कैसे हो रामसिंह ?” चावला था। मंत्री जी का पी.ए.। चावला को सामने पाकर रामसिंह जैसे सोते से जागा था।
“ठीक हूँ साब।”
बैड के निकट रखे स्टूल पर चावला को बैठने को कहते हुए वह अभिभूत-सा हो रहा था। ज़रूर मंत्री जी ने उसका हालचाल पूछने चावला को भेजा है।
“मंत्री जी कैसे हैं ?” चावला के बैठने पर रामसिंह ने पूछा, “अधिक चोट तो नहीं आई?”
चावला ने क्षणभर अपलक रामसिंह की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “ठीक हैं।... बायें कंधे पर एक ईंट लगी थी जिसकी वजह से अभी दर्द है। डॉक्टर ने कहा है कि कुछेक दिन में ठीक हो जाएगा।” थोड़ा रुककर गहरी सांस लेते हुए चावला फिर बोला, “शुक्र है, ईंट मंत्री जी के सिर पर नहीं लगी।”
“पर रामसिंह, ऐसी हालत में तुम्हें गोली चलानी चाहिए थी। साले सब भाग जाते। गोली के आगे कोई टिकता है !...” चावला की आवाज़ सामान्य से कुछ तेज और रूखी हो गई थी, “पाण्डे बता रहा था, बुरी तरह घिर जाने पर मंत्री जी ने तुमसे कहा भी था– गोली चलाने को...”
चावला की बात में कुछ ऐसा था या उसके कहने के ढंग में कि रामसिंह का स्वर आवेशमय हो उठा, “गोली चलाता भी तो सा’ब किस पर ?...भीड़ में इधर-उधर कुछ लोग थे जो यह सब शरारत कर रहे थे। वैसे भी बहुत मुश्किल होता है, भीड़ में दोषी व्यक्ति को ढूँढ़ पाना। पत्थरों की बरसात जिस प्रकार हो रही थी, उसमें मेरा पहला ध्येय था, मंत्री जी को किसी भी वहाँ से हटा लेना। गोली चलाना नहीं।”
क्षणांश, मौन के बाद रामसिंह ने फिर कहना प्रारंभ किया, लेकिन शांत और संयमित स्वर में, “गोली चलती तो निस्संदेह निर्दोष व्यक्ति भी मारे जाते। कुछ लोगों की शरारत का दंड निर्दोष लोगों को तो नहीं दिया जा सकता न ?”
प्रत्युत्तर में चावला कुछ नहीं बोला था। क्षणभर चुप्पी तनी रही थी दोनों के बीच। एकाएक चुप्पी को तोड़ते हुए रामसिंह ने प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया, “पर सा’ब, मंत्री जी का समारोह में जाना जब निश्चित था तो स्थानीय पुलिस को इन्फार्म किया था आपने ?”
“नहीं।” चावला को रामसिंह से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। वह बोला, “कर ही नहीं पाए। मंत्री जी एक रात पहले समारोह में न जाने का निर्णय ले चुके थे। हम आयोजकों को भी मंत्री जी के निर्णय से अवगत करा चुके थे। लेकिन, अगले ही दिन ठीक समारोह के समय जाने क्या सूझी कि एकाएक तैयार हो गए।” पलभर की चुप्पी के बाद चावला ने कहना जारी रखा, “तुम्हें तो मालूम ही है, लोकल कार्यक्रमों में तुम लोगों के अतिरिक्त अन्य सुरक्षा प्रबंध मंत्री जी कतई पसंद नहीं करते। अब इसमें हमारा क्या दोष ?”
हाँ, अकस्मात ही तो मंत्री जी ने समारोह में जाने का फैसला किया था। और, ऐसा वह प्राय: करते हैं। यह भी सही है, मंत्री जी लोकल कार्यक्रमों में उनके अलावा अन्य कोई विशेष सुरक्षा व्यवस्था कतई पसंद नहीं करते।
यही नहीं, रामसिंह ने तो दिल्ली से बाहर के दौरों के दौरान, विशेषकर मंत्री जी के अपने क्षेत्रीय दौरे के दौरान, देखा है कि मंत्री जी वहाँ के स्थानीय सुरक्षा प्रबंधों को कतई पसंद नहीं करते। स्थानीय सुरक्षा अधिकारी देखते ही रह जाते हैं और वह जाने कब ग्रामीण लोगों की भीड़ में गुम हो जाते हैं। स्वयं रामसिंह कई बार उनसे अलग-थलग पड़ जाता रहा है। भीड़ को चीरकर मंत्री जी तक पहुँचने में उसको कितनी दिक्कतें पेश आती रही हैं। एक मंत्री का इस प्रकार जनता के बीच कूद पड़ना, लोगों का प्यार जीतने के लिए काफी होता है। शायद, मंत्री जी इस बात को बखूबी जानते हैं। तभी तो जब-तब अपने सुरक्षा घेरे को तोड़कर जनता के बीच गुम हो जाना उन्हें अच्छा लगता है।
“अगर स्थानीय पुलिस का इंतज़ाम होता तो स्थिति जल्द ही नियंत्रण में आ सकती थी।” रामसिंह ने चावला की ओर देखते हुए कहा। फिर, कुछ देर रुककर उसने पूछा, “कुछ मालूम हुआ, कौन लोग थे जिन्होंने यह सारा बवंडर किया ?”
“हाँ, कुछ लोगों को पकड़ा है। यूनियन के नेताओं ने ऐसा करवाया। तुम तो जानते ही हो, उस कार्यालय की यूनियन पिछले कुछ महीनों से वेतन बढ़ाये जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन करती रही है। एक-दो बार उन्होंने मंत्री जी को भी इस बारे में ज्ञापन दिए थे लेकिन मंत्री जी ने उनकी मांगें स्वीकार नहीं की थीं।” चावला ने सविस्तार बताया।
“जब ऐसी बात थी तो मंत्री जी को उस कार्यक्रम में नहीं जाना चाहिए था। जाना भी था तो स्थानीय पुलिस को अवश्य सूचित करना था। उस दिन की घटना से तो लगता था कि सब कुछ पूर्वनियोजित था। जैसे वे जानते थे कि मंत्री जी अवश्य आएंगे और...”
इसी बीच नर्स दवा की ट्रे लिए वार्ड में आई और मरीजों को दवा देकर वार्ड से बाहर चली गई। रामसिंह ने अपनी दवा लेकर सिरहाने रख ली थी।
“अच्छा रामसिंह, चलता हूँ।” चावला ने घड़ी देख उठते हुए कहा, “वैसे तुमने भी मंत्री जी का आदेश न मानकर ठीक नहीं किया।”
‘ठीक नहीं किया...’ कील की तरह ठुके थे ये शब्द, रामसिंह की छाती में। चावला के जाने के बाद ये शब्द जाने कितनी देर तक रामसिंह को बेचैन और परेशान किए रहे।

उस दिन रामसिंह की ड्यूटी थी, पहली शिफ्ट की। मंत्री जी अपने निवास पर लोगों से मिलकर हटे थे और कोठी के लॉन के दायीं ओर बने छोटे से आफिस में चले गए थे। आफिस में घुसते ही उन्होंने पूछा था, “चावला, कोई खास फोन ?”
“जी सर ! वित्त मंत्री जी फोन पर बात करना चाहते थे। और वो दुबे जी...”
“छोड़ो दुबे को। वित्त मंत्री जी से मेरी बात कराओ।” मंत्री जी ने कहा था और वहीं पड़े सोफे पर बैठ गए थे। रामसिंह कुछ कदमों की दूरी पर खड़ा था। वित्त मंत्री से बात करने के बाद मंत्री जी ने पूछा था, “वो कोई आज का फंक्शन था न चावला ?”
“जी सर ! पर कल राम आपने जाने से मना किया था, इसलिए हमने रात को ही आयोजकों को इस बारे में बता दिया था।... अब...”
“बाय द वे... कितने बजे का फंक्शन है ?”
“जी दस बजे का।”
मंत्री जी ने घड़ी देखी थी। साढ़े दस हो चुके थे। उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा, “पर मैं सोचता हूँ, अपनी मिनिस्ट्री के अटैच्ड आफिस का फंक्शन है, मुझे अटैण्ड कर ही लेना चाहिए।”
“पर सर, अब इतनी जल्दी... हमें आपके जाने की सूचना...”
“छोड़ो सूचना-वूचना को। हम अपने कर्मचारियों को सरप्राइज देंगे।” मंत्री जी ने उठते हुए कहा था, “रामसिंह ! गाड़ी लगवाओ और पाण्डे तुम मेरे साथ चलोगे।”
“जी सर !” कहकर समीप खड़े पाण्डे ने जो मंत्री जी का सेकेण्ड पी.ए. था, अपनी गर्दन हिला दी थी और रामसिंह गाड़ी लगवाने लग गया था।

मंत्री जी के मंत्रालय के एक अधीनस्थ कार्यालय का वार्षिक समारोह था वह। कार्यालय के खुले प्रांगण को खूबसूरत शामयानों से घेरकर समारोह के लिए विशाल पंडाल तैयार किया गया था। सुसज्जित प्रवेशद्वार व मंच की आभा देखते ही बनती थी। समारोह में कुछ कर्मचारियों को उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए पुरस्कार भी प्रदान किए जाने थे।
मंत्री जी को समारोह में अकस्मात् उपस्थित देख आयोजकों के चेहरे खिल उठे थे। आगे बढ़कर उन्होंने फूलमालाओं से मंत्री जी का स्वागत किया था। अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए मंत्री जी मंच पर चढ़े थे। एकबारगी सामने बैठी भीड़ की ओर हाथ जोड़ते हुए विहंगम दृष्टि डाली थी और फिर अपनी कुर्सी पर विराजमान हो गए थे। रामसिंह मंत्री जी की कुर्सी के पीछे ‘सावधान’ की मुद्रा में खड़ा हो गया था और दोनों जवान मंच के नीचे दो कोनों में।
कुछेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के पश्चात् पुरस्कार वितरण आरंभ हुआ। हल्की-सी गड़बड़ पुरस्कार वितरण के समय ही आरंभ हो गई थी। इधर-उधर से इक्का-दुक्का नारे उछलने लगे थे। पुरस्कार लेनेवालों को मैनेजमेंट का चमचा कहा जा रहा था। अधिकारियों को चोर और रिश्वतखोर ! जनता का पैसा खानेवाले ! लेकिन, इस हल्के शोर-शराबे के बीच पुरस्कार वितरण चलता रहा।
पुरस्कार वितरण के बाद जब मंत्री जी ने अपना भाषण आरंभ किया तो नारे उनके खिलाफ भी लगने शुरू हो गए थे। नारों के रूप में कई मांगें भी उभरने लगी थीं। शोर-शराबे की परवाह न करते हुए मंत्री जी ने अपना भाषण जारी रखा था। माइक पर उनके शब्द गूंज रहे थे, “मेहनत, लगन और ईमानदारी से कार्य करनेवालों को उनकी मेहनत, उनकी लगन और ईमानदारी का पुरस्कार एक दिन अवश्य मिलता है। मिलना भी चाहिए... आज, ऐसे ही कर्मठ, लगनशील और ईमानदार लोगों को ज़रूरत है जिससे देश....”
और तभी, एक पत्थर भीड़ में से उछलकर मंच पर गिरा था। मंत्री जी माइक छोड़कर थोड़ा पीछे हटे थे। रामसिंह जब तक आगे बढ़ता, पत्थरों की बरसात प्रारंभ हो गई थी। मंच पर बैठे अन्य लोगों ने इधर-उधर दौड़ना आरंभ कर दिया था। सामने बैठी भीड़ में भी भगदड़-सी मचने लगी थी। रामसिंह मंत्री जी के आगे दीवार की भांति खड़ा हो गया था और जैसे-तैसे उन्हें मंच से उतारकर सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहता था। स्टेज के नीचे खड़े जवान मंत्री जी की ओर लपके थे।
एकाएक, पत्थरों के साथ-साथ ईंटें भी बरसने लगी थीं। पूरा मंच ईंट-पत्थरों से पट गया था। न जाने कितने ईंटें, कितने पत्थर रामसिंह के शरीर पर पड़े, लेकिन वह किसी तरह मंत्री जी को स्टेज से उतारकर एक कोने में ले जाने में सफल हो गया था। तभी एक पत्थर रामसिंह के सिर पर लगा था और खून का फव्वारा उसके कपड़ों को लाल कर गया। बदहवास से मंत्री जी ईंटों-पत्थरों से अपना बचाव करते हुए चीखे थे, “रामसिंह ! गोली चलाओ... गोली !” किन्तु, उनकी चीख इतनी मद्धिम थी कि रामसिंह और जवानों के अतिरिक्त शायद ही किसी के कानों में पड़ी हो !
रामसिंह ने तभी हवा में दो फायर किए थे। फायर होते ही जहाँ भीड़ में एक और हाहाकार मच गया था, भगदड़ में तेजी आ गई थी, वहीं अब पत्थर गोली सरीखे बरसने लगे थे। पत्थरों को देखकर लगता था, पूर्व-नियोजित तरीके से उन्हें इक्टठा किया गया हो जैसे।
एक जवान भागकर गाड़ी ले आया था। ऐसी स्थिति में ड्राइवर द्वारा गाड़ी चलाने से इन्कार कर दिए जाने पर, दूसरे जवान ने उछलकर स्टेयरिंग संभाल लिया था। रामसिंह ने मंत्री जी को लगभग धकेलते हुए गाड़ी के अन्दर किया था और खुद भी उनके ऊपर लेट-सा गया था। तभी स्थानीय पुलिस आ गई थी। शायद, किसी ने इस गड़बड़ की सूचना दे दी थी।
गाड़ी के शीशे चूर-चूर हो चुके थे। जैसे ही वह प्रवेशद्वार से बाहर निकली, एक पत्थर खिड़की से होते हुए राम​सिंह की कनपटी पर लगा और उसके बाद उसे नहीं मालूम कि क्या हुआ ! आँखें खुलीं तो खुद को उसने अस्पताल के एक बैड पर पाया।

शरीर पर लगी चोटों के घाव तो भरने लगे थे जब रामसिंह की अस्पताल से छुट्टी हुई। लेकिन मन से वह अस्वस्थ-सा प्रतीत हो रहा था। ‘ठीक नहीं किया’ शब्दों ने उसे भीतर से अव्यवस्थित कर दिया था। कहाँ तो मन था उसका कि अस्पताल से छुट्टी होने पर वह मंत्री जी से मिलकर अपने गाँव जाएगा, कहाँ वह उन्हें बिना मिले ही गाँव की बस में बैठ गया।
गाँव पहुँचकर रामसिंह ने आराम करने के बजाय अनेक छोटे-बड़े कामों में स्वयं को व्यस्त-सा कर लिया। सबसे पहले, बूढ़े पिता की आँखों का आपरेशन करवाया- कस्बे में लगे आई-कैंप में जाकर। फिर मकान की पिछली दीवार जो ढहने को हो रही थी, तुड़वा कर फिर से बनवाई। आँगन में हैण्ड-पम्प लगवाया और इन्हीं दिनों में एक अच्छा-सा लड़का देखकर बहन का रिश्ता पक्का कर दिया। लड़केवालों ने विवाह के लिए जल्दी मचाई तो दो माह बाद की एक तारीख पंडित से निकलवाकर तय कर दी। रामसिंह ने सोचा, जो काम हो जाए अच्छा। अब तो रामसिंह की पोस्टिंग दिल्ली में है। दो माह बाद फिर छुट्टी लेकर आएगा, बहन की शादी में। धूमधाम से करेगा बहन की शादी। एक ही तो बहन है उसकी।
रामसिंह को एकाएक मंत्री जी का ध्यान हो आया। शादी में वह मंत्री जी को भी आमंत्रित करेगा। खुद देगा निमंत्रण पत्र मंत्री जी को। जोर डालेगा तो न नहीं करेंगे। अवश्य आएंगे। अभी पीछे ही तो दुलीचन्द चपरासी के बेटे की शादी में सम्मिलित हुए थे। भले ही दो घड़ी को... अगर मंत्री जी उसकी बहन की शादी में घड़ी भर को भी गाँव में आ गए तो न केवल उसके गाँव में बल्कि आसपास के सभी गाँवों में धाक जम जाएगी रामसिंह की।
इन्हीं विचारों में डूबे-डूबे उसे सहसा अपने छोटे भाई चेतराम की याद हो आई थी जो पढ़-लिखकर बेकार बैठा था। यह भी कहीं लग जाता तो इसकी भी... और तभी, रामसिंह को जैसे रोशनी-सी हाथ लगी, ‘चेतराम की नौकरी के लिए मंत्री जी से क्यों न बात करे वह ? इतने लोगों का काम करवाते हैं, क्या अपने इंस्पेक्टर रामसिंह के भाई को छोटी-मोटी नौकरी नहीं दिलवा सकते ? ड्यूटी ज्वाइन करने पर वह सबसे पहला काम अब यही करेगा। अवसर पाकर बात करेगा वह चेतराम की नौकरी के बारे में। वह चाहें तो कहीं भी लगवा सकते हैं।’

दिन ऐसे बीते कि मालूम ही नहीं हुआ और छुट्टी भी खत्म होने को आ गई। तीन चार दिन शेष थे अब छुट्टी के। इस बार छुट्टी में वह इतना व्यस्त-सा रहा कि पत्नी के साथ घड़ी भर एकान्त में बैठने का अवसर ही नहीं निकाल सका। पत्नी की आँखों में इस बात का उलाहना वह दो-चार रोज से देख रहा था।

दोपहर का समय था।
भोजन कर वह लेटने ही जा रहा था कि डाकिया उसके नाम की चिट्ठी उसे थमा गया। सरकारी पत्र था। खोलकर पढ़ने के बाद रामसिंह सन्न् रह गया। जाने कितनी ही देर मूर्तिवत् खड़ा रहा वह। हफ्तेभर के भीतर एक सीमावर्ती इलाके में ड्यटी-ज्वाइन करने के आदेश थे उसके ! फिर से सीमावर्ती इलाके में पोस्टिंग ! बारह साल सीमाओं पर सेवा करने के बाद तो आया था पोस्टिंग होकर इधर। अपने होम-टाउन के पास। चिट्ठी ने उसके मस्तिष्क की दीवारें हिला दीं। दिल का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। उस रात देर तक उसे नींद भी न आई। बस, करवटें बदलता रहा वह और जाने क्या-क्या सोचता रहा।
ऐसी घड़ी में उसे फिर अनायास मंत्री जी का स्मरण हो आया। उसने बिस्तर पर लेटे-लेटे निर्णय-सा लिया– कल दिल्ली जाएगा वह। मंत्री जी से मिलेगा। चाहे जैसे भी हो। उसने खुद देखा है, कितनों के तबादले रुकवाये हैं उन्होंने। कितनों के करवाये हैं। वह भी उनसे अपनी पोस्टिंग रुकवायेगा। वह चाहें तो क्या नहीं हो सकता। डी.जी. को फोन कर देना ही काफी है। बहन की शादी, बूढ़े माँ-बाप की देखभाल की बात बताएगा तो मंत्री जी ज़रूर उसकी मदद करेंगे। बहुत नरमदिल है मंत्री जी। अभी दिल्ली आए उसे डेढ़ साल ही बीता है। ज्यादा नहीं तो एक-डेढ़ साल के लिए तो रुकवा ही सकते हैं। इस बीच बहन की शादी हो जाएगी। छोटा भाई भी कहीं-न-कहीं लग जाएगा। फिर भले ही हो जाए कहीं भी पोस्टिंग।
एक उम्मीद की डोर उसके हाथ लग गई थी। इसी डोर में बँधे-बँधे रामसिंह को नींद ने कब अपनी गिरफ्त में लिया, उसे मालूम ही नहीं हुआ।

जिस समय रामसिंह मंत्री जी की कोठी पहुँचा, वह लोगों से मिलकर अन्दर जा चुके थे। गाड़ी लगी हुई थी और साथ इंस्पेक्टर गनपत तथा दो जवान ‘रेडी’ की मुद्रा में गाड़ी के निकट ही खड़े हुए थे। यानी मंत्री जी तैयार होकर मंत्रालय के लिए निकलने ही वाले थे।
रामसिंह को देर से पहुँचने का किंचित दुख हुआ लेकिन उसने मन ही मन सोचा– कोई बात नहीं। अभी जब मंत्री जी गाड़ी में बैठने के लिए बाहर निकलेंगे, तब बात कर लेगा। गाड़ी में बैठते-बैठते भी वह दो-चार लोगों से मिल लेते हैं। दो-तीन खद्दरधारी व्यक्ति इसी उद्देश्य से खड़े भी थे, आफिस के बाहर।
जवानों ने रामसिंह को देखकर ‘सा’ब नमस्ते !’ की तो उसे अच्छा लगा। गनपत ने ‘कैसे हो रामसिंह ? कैसे आना हुआ ?’ जब पूछा तो पहले प्रश्न का जवाब तो उसने सहजता से दे डाला कि ठीक हूँ अब, लेकिन दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए दिक्कत महसूस हुई उसे। कुछ रुककर उसने सोचते हुए उत्तर दिया, “बस यूँ ही... सोचा मंत्री जी से मिल लूँ।”
“चावला सा’ब तो होंगे न ?” रामसिंह ने गनपत से पूछा और जब गनपत ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया तो वह “ज़रा उनसे मिल लूँ... अभी आता हूँ” कहकर वह आफिस की ओर बढ़ गया।
“कैसे हो रामसिंह ?” चावला ने पूछा और उसका जवाब सुनने से पहले ही बज रहे फोन को उठाकर बात करने लगा। समीप ही पांडे बैठा था, स्वयं को बेहद व्यस्त दर्शाता हुआ। रामसिंह थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा। चावला ने फोन पर बात खत्म की तो रामसिंह ने पूछा, “मंत्री जी मंत्रालय जानेवाले हैं क्या ?”
“हूँ...” चावला ने कहा और मेज पर रखे कागजों को उलटने-पलटने लग पड़ा। रामसिंह अधिक देर वहाँ खड़ा न रह सका और बाहर आकर गाड़ी के समीप खड़ा होकर गनपत से बातें करने लगा।
तभी, मंत्री जी तैयार होकर बाहर निकले। चावला और पांडे भी लपककर गाड़ी के निकट आ गए।
“शर्मा जी, आप अभी भी खड़े हैं ?” मंत्री जी एक सफेद कुर्ता-पाजामाधारी व्यक्ति से बोले, “आपसे कहा है न ! परसों आइए... परसों। और, आप कैसे खड़े हैं ?” एक अन्य व्यक्ति की ओर उन्मुख होते हुए मंत्री जी ने पूछा। वह व्यक्ति कुछ कहने को आगे बढ़ा तो मंत्री जी बोल उठे, “इस वक्त कोई बात नहीं। प्रात: आठे से नौ बजे मैं लोगों से मिलता हूँ। उस वक्त क्यों नहीं आते ? चलिए, कल सुबह आठ बजे आइएगा।”
रामसिंह समीप ही खड़ा था और सोच रहा था कि अभी मत्री जी की दृष्टि उस पर पड़ेगी और वे उससे पूछेंगे– “कैसे हो रामसिंह ?...ठीक हो गए न ?” पर उसने देखा, रामसिंह की ‘नमस्ते’ हवा में ही टंगकर रह गई थी। रामसिंह को देखकर भी अनदेखा कर मंत्री जी गाड़ी में बैठ गए थे और चावला से बोले थे, “चावला, तुम मेरे साथ चलो। पांडे, तुम यहीं रहो।” और फिर, “ड्राइवर, गाड़ी चलाओ...” के साथ ही मंत्री जी की गाड़ी देखते ही देखते रामसिंह की आँखों के आगे से ओझल हो गई।
पांडे चुपचाप अन्दर आकर फोन पर बैठ गया। रामसिंह वहाँ से हटकर कोठी के गेट के पास ही बने जवानों के टेण्ट की ओर बढ़ गया। कुछेक जवान रात की ड्यूटी देकर सो रहे थे। कुछ शेव आदि बना रहे थे। रामसिंह को देखते ही एक बोला, “आइए साब !... ड्यूटी ज्वाइन कर ली आपने साब !”
“नहीं...नहीं।” रामसिंह ने फिर स्वयं को संकट में पाया, “यूँ ही मंत्री जी से मिलने आया था।”
“अच्छा-अच्छा।” दाढ़ी पर साबुन मलते हुए दूसरे जवान ने पूछा, “चाय पियेंगे साब?”
“नहीं, चाय की इच्छा नहीं है।” कहते हुए रामसिंह गेट के समीप ड्यूटी दे रहे जवान के पास जाकर बैठ गया।
“मेरी जगह कौन आया है बहादुर ?”
“जी, अनूपलाल आए हैं।” जवान ने जवाब दिया, “दोपहर बाद ड्यूटी है उनकी। आप कैसे हैं साब ?”
“ठीक हूँ।” कहकर रामसिंह ने पास ही रखे अखबार को उठाया और पढ़ने लगा।
“लंच में तो मंत्री जी आते हैं न ?”
“जी, आते तो हैं।” जब जवान ने कहा तो रामसिंह ने सोचा– ठीक है, तभी मिल लेगा रामसिंह मंत्री जी से। उनके कोठी के अन्दर जाने से पहले ही बात कर लेगा। सुबह के समय तो कितनी व्यस्तता रहती है ! शायद, इसीलिए उसे देखकर भी अनदेखा कर गए।
रामसिंह बैठा-बैठा सोचने लगा। दोपहर तक का समय काटना था रामसिंह ने। एकाएक, कुछ सोचकर वह उठा और कोठीवाले आफिस में जाकर मंत्रालय में फोन करने लगा। चावला को आने का मकसद बता देने में क्या हर्ज़ है ? वह चाहे तो वहीं आफिस में भी दो मिनट के लिए मंत्री जी से मिलवा सकता है।
फोन चावला ने ही उठाया था उधर।
“सा’ब !... मैं रामसिंह... मंत्री जी की कोठी से... वो सा’ब... मंत्री जी से मुझे दो मिनट मिलना था... बहुत ज़रूरी काम था। सुबह आपके सामने बात नहीं हो पाई... जल्दी में थे मंत्री जी। वो... वो बात ऐसी है सा’ब कि ऐरी पोस्टिंग कर दी गई है बार्डर पर। हाँ जी, घर पर ही चिट्ठी आई है। मैं इसी सिलसिले में मिलना चाहता था... दो माह बाद मेरी बहन की शादी है... मैं चाहता था कि अभी एक-दो साल के लिए... जी...जी... मंत्री जी चाहें तो रुक सकती है पोस्टिंग। कहें तो आ जाऊँ वहीं, ज्यादा नहीं, दो मिनट मिलवा दीजिएगा।” सामने बैठा पांडे रामसिंह का फोन पर गिड़गिड़ाना देख रहा था। उधर से चावला ने कहा, “अभी तो मंत्री जी नहीं मिल पाएंगे। बहुत व्यस्त हैं। लंच में कोठी पर आएंगे तो मिल लेना।” और फोन कट गया था।
रामसिंह वक्त काटने के लिए कोठी से बाहर निकल आया। कुछ ही दूर बने टैक्सी स्टैण्ड पर पहुँचकर उसकी इच्छा चाय पीने की हुई। कुछ ही फासले पर चाय का खोखा था। रामसिंह उसी ओर बढ़ गया।

दो बज रहे थे और मंत्री जी अभी लंच के लिए कोठी पर नहीं आए थे। रामसिंह गेट पर बैठे जवान के पास बैठकर बीड़ियाँ फूंकता रहा। अब उसे भूख भी लग आई थी। गाँव से चला था तो सोचा था, सुबह-सुबह ही मंत्री जी से बात हो जाएगी और दोपहर तक लौट आएगा गाँव में। रह-रहकर उसकी नज़र लोहे के गेट की ओर उठ जाती थी।
तीन बजे के करीब गाड़ी आई थी। पर मंत्री जी नहीं, गनपत और दोनों जवान उतरे थे गाड़ी से। गनपत ने पांडे से मंत्री जी का खाना मंत्रालय में ही भिजवाने को बोला तो रामसिंह से रहा न गया और उसने पूछ लिया, “क्यो, मंत्री जी इधर नहीं आएंगे?”
“नहीं रामसिंह, लंच वहीं आफिस में लेंगे और उसके बाद पी.एम. आफिस चले जाएंगे, एक मीटिंग में।” गनपत ने रामसिंह के निकट ही बैठते हुए कहा।
गनपत की ड्यूटी खत्म हो गई थी और अब दूसरी शिफ्ट के लिए रामसिंह के स्थान पर आया दूसरा इंस्पेक्टर अनूपलाल दो जवानों के साथ खाना लेकर उसी गाड़ी में बैठकर मंत्रालय के लिए रवाना हो गया था।
“रामसिंह !” गनपत ने बीड़ी सुलगाते हुए पूछा, “बहुत ज़रूरी काम था क्या ?”
रामसिंह ने सारी बात विस्तार से गनपत को बता दी।
“अच्छा तो मिल ही गए आदेश !...” गनपत ने ऐसे कहा, जैसे उसे मालूम था कि ऐसा होगा।
“तुम्हें मालूम है रामसिंह... मंत्री जी पर पत्थर फिंकवाने के जुर्म में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है। यूनियन के लोग थे। और चेयरमैन की तो छुट्टी कर दी गई। और वो अपना ड्राइवर था न, जिसकी उस दिन मंत्री जी के साथ ड्यूटी थी, जिसने गाड़ी चलाने से इन्कार कर दिया था, उसका दिल्ली से बाहर तबादला कर दिया गया है।”
कुछ रुककर गनपत ने पूछा, “तुम्हें मालूम है, तुम्हारी पोस्टिंग भी मंत्री जी की शिकायत पर ही...”
“शिकायत पर ?”
“मंत्री जी के कहने पर तुमने भीड़ पर उस दिन गोली दाग दी होती तो तुम्हें यह पुरस्कार नहीं मिलता।”
‘गोली दाग दी होती !’ मन ही मन रामसिंह ने बुदबुदाया तो जैसे एक धुन्ध-सी छट गई उसकी आँखां के आगे से। साथ ही, चावला के शब्द ‘ठीक नहीं किया’ पांडे की चुप्पी, मंत्री जी का देखकर भी उसे अनदेखा कर जाना, ये सब रामसिंह को अपना स्पष्ट अर्थ देने लगे थे।
यह वह क्या सुन रहा है... क्या यह सच है ?... यहाँ आकर उसने यूँ ही एक दिन बरबाद किया। उसे यहाँ नहीं आना चाहिए था। रामसिंह का अन्तर्मन एकाएक आत्मग्लानि से भर उठा। वह एक सिपाही है, सिपाही को हर क्षण कहीं भी, किसी भी इलाके में तैनात होने के लिए तैयार रहना चाहिए।
रामसिंह उठ खड़ा हुआ तो गनपत ने पूछा, “चल दिए रामसिंह, मंत्री जी से नहीं मिलोगे ? शाम को मिलकर ही जाते।”
“नहीं। शाम तक नहीं रुकूँगा। अच्छा, चलता हूँ। घर पहुँचकर पैकअप भी तो करना है।” कहकर रामसिंह ने गनपत से हाथ मिलाया और तेजी के साथ कोठी से बाहर हो गया।
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( आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली से वर्ष 1990 में प्रकाशित कहानी संग्रह “दैत्य तथा अन्य कहानियाँ(1990)” में संग्रहित )

8 टिप्‍पणियां:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

बहुत काम कर लेते हो. तुमसे ईर्ष्या होती है. कहानी -८ के लिए बधाई.

चन्देल

durgesh ने कहा…

agar Raam Singh goli daag deta to usse ye purskaar nahin milta...ye pankti bakhubi bayan kartee hai netaon ke swarthy charitra ko.

Mamta Swaroop Sharan ने कहा…

Clearly shows the difference between our perceptions...

Very nicely captured thoughts; though in today's time Ramsingh has become a diminishing species.

Regards,

Mamta

बेनामी ने कहा…

Priya Bhai sahab

aapke blogs lagataar dekh aur parh raha hoon..aapne apna sara sahitya ek jagah ikatha kiya hai, yah achhi baat hai...aapko iske liye badhai...iske saath anuvaad, kavita aur doosre blogs mein aap itni mehnat kar rahe hain...yah Hindi sahitya ki liye sukhad sanket hai.

aapka

S.R.Harnot

बेनामी ने कहा…

" Goli Dago Ram Singh " Kahaanii Man ko Chhoo Gayii . Zindagii ke Raaste Durgam Hain.

Shakuntala Bahadur
shakunbahadur@yahoo.com

Lapa ने कहा…

O caso da promiscuidade das entidades que têm sustentado a manutenção do stand sucateira ilegal também é um caso de polícia e de autoridades que terão que ser investigadas por outras.

CRIME DIGO EU.

बेनामी ने कहा…

kahani behad rochak hai. badhai. keep it up



anil meet

बेनामी ने कहा…

Aaj aapki kahani padhi - '' goli dago ramsingh ''. sipahi ki trgik life ki prstuti prabhavshali hai.
Devmani Pandey
devmanipandey@gmail.com